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( २९७ ) [ आणत-पाणएसु ] एवं संखेज्जवित्थडेसु तिन्नि गमगा जहा सहस्सारे। असंखेज्जवित्थडेसु उववज्जतेसु य चयंतेसु य एवं चेव 'संखेज्जा' भाणियव्वा । पन्नत्तेसु असंखेज्जा।xx x आरणच्युएसु एवं चेव जहा आणयपाणएसु नाणतं विमाणेसु एवं गेवेज्जगा वि।
-भग० श० १३ । उ २। सू ३४
आनत तथा प्राणत के जो संख्यात-योजन-विस्तारवाले विमान है उनमें सहस्रार देवलोक की तरह शुक्ल लेश्या को लेकर उत्पत्ति, च्यवन और अवस्थिति के तीन गमक कहने । जो असंख्यात-योजन-विस्तारवाले विमान है, उनमें एक समय में एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात काययोगी उत्पन्न होते हैं, मनोयोगी-वचनयोगी उत्पन्न नहीं होते हैं। (गमक-१) एक समय में जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात काययोगी च्यवन को प्राप्त होते हैं, मनोयोगी व वचनयोगी का च्यवन नहीं होता है ( गमक-२) एक समय में असंख्यात अवस्थित रहते हैं (गमक-३)।
आरण तथा अच्युत विमानवासों में, जैसे आनत और प्राणत के विषय में कहा, वैसे ही छः छः गमक कहने ।
इसी प्रकार वेयक विमानों के सम्बन्ध में शुक्ललेश्या पर छः गमक आनतकी तरह कहने।
पंचसु णं भंते ! अणुत्तरविमाणेसु संखेन्जवित्थडेसु विमाणे एगसमएणंxxx केवइया सुक्कलेस्सा उववज्जति, पुच्छा तहेव । गोयमा! पंचसुणं अणुत्तरविमाणेसु संखेज्जवित्थडेसु अणुत्तरविमाणे एगसमएणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा अणुत्तरोववाइया देवा उववज्जति, एवं जहा गेवेज्जविमाणेसु संखेज्जवित्थडेसु x x x। असंखेज्जवित्थडेसु वि एए न भन्नति नवरं अचरिमा अत्थि, सेसं जहा गेवेज्जएसु असंखेज्जवित्थडेसु ।
-भग० श. १३ । उ २ । सू ३५
पंच अनुत्तर विमानों में जो चार (विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित) असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं उनमें एक समय में मनोयोगी व वचनयोगी उत्पन्न नहीं होते हैं। जघन्य एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात काययोगी अनुत्तर विमानवाली देव उत्पन्न होते हैं। (गमक-१) मनोयोगी ब वचनयोगी च्यवन को प्राप्त नहीं होते हैं। जघन्य एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात काययोगी च्यवन को प्राप्त होते हैं । (गमक-२) तथा मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी चार अनुत्तरविमानवासी देव असंख्यात अवस्थित रहते हैं । ( गमक-३)।
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