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सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान जो संख्यात योजन विस्तारवाला है ( एक लाख योजन) उसमें एक समय में मनोयोगी-वचनयोगी उत्पन्न नहीं होते हैं। जघन्य एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात काययोगी अनुत्तर विमानवासी देव उत्पन्न होते हैं । (गमक-१) मनोयोगी-वचनयोगी च्यवन को प्राप्त नहीं होते हैं। जघन्य एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात काययोगी च्यवन को प्राप्त होते हैं। ( गमक-२) तथा मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी अनुत्तर-विमानवासी देव संख्यात अवस्थित है।
नोट १-अनुत्तरविमान का सर्वार्थसिद्ध विमान एक लाख योजन विस्तारवाला है तथा बाकी चार अनुत्तरविमान असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं। देखो-जीवा० प्रति ३ । उ २ । सू २१३ पृ० २३७ तथा ठाण० स्था ४ । उ ३ । सू ३२९ । पृ० २४६ ।
नोट २-सौधर्म देवलोक से च्यवे हुओं में तीर्थंकर आदि अवधिज्ञान और अवधिदर्शन युक्त होते हैं अतएव च्यवन में अवधिज्ञानी और अधविदर्शनी भी कहने चाहिए। सौधर्मईशान देवलोक तक ही स्त्रीवेदी जीव उत्पन्न होते हैं । इनसे आगे सनत्कुमारादि में स्त्रीवेदी जीव उत्पन्न नहीं होते हैं । वहाँ से चवे हुए स्त्रीवेदी हो सकते हैं।
सहस्रार देवलोक तक तिर्यंच भी उत्पन्न आदि होते हैं अतः तीनों आलापको में 'असंख्यात' पद घटित हो सकता है।
आनतादि देवलोकों में असंख्यात-योजन-विस्तारवाले विमानों में उत्पाद और च्यवन में संख्यात और सत्ता में असंख्यात देव होते हैं। क्योंकि गर्भज मनुष्य ही मरकर आनतादि देवों में उत्पन्न होते हैं और वे देव वहाँ से च्यवनकर गर्भज मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं और गर्भज मनुष्य संख्यात ही होते हैं अतः एक समय में संख्यात का ही उत्पाद और संख्यात का ही च्यवन हो सकता है। विमानों की संख्या इस प्रकार हैं
बत्तीसे अट्ठवीसा बारस अट्ट चऊरो य सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा, छच्च सहस्सा सहस्सारे ॥ आणय पाणय कप्पे, चत्तारी सया आरणच्युए तिण्णि । सत्त विमाण सयाइ', चउसु वि एयसु कप्पेसु ॥
-पण्ण प० २ । म २२
अर्थात् सौधर्मादि देवलोक में क्रमशः विमान संख्या इस प्रकार है
१-बत्तीस लाख, २-अट्ठाईस लाख, ३-बारह लाख, ४-आठ लाख, ५-चार लाख, ६-पचास हजार, ७-चालीस हजार ८-छह हजार, ९-१० चार सौ, ११-१२ तीन सौ-कुल मिला कर ८४९६७०० विमान है। वेयक की पहलीत्रिक में १११, दूसरी त्रिक में १०७ और तीसरी त्रिक में १०० विमान होते हैं।
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