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रस, बीज, पुष्प, फलों का मदिरा रूप परिणाम होता है उसी तरह योग और कषाय के निमित्त से कार्मणपुद्गलों का कर्म रूप परिणाम जानना चाहिए। अपूर्वगुणस्थान के प्रथम भाग में श्रेणी चढते समय मरण नहीं होता है ।
उपशान्त कषाय, क्षीण मोह और सयोग केवली में दो समय की स्थिति लेकर सातावेदनीय का ही बंध होता है । यह बंध योग के कारण होता है । इन गुणस्थानों में कषाय का अभाव है । अयोग केवली में योग भी नहीं है अतः बंध भी नहीं है । मिश्र काययोगी ( औदारिकमिश्र काययोगी वैक्रियमिश्र काययोगी, आहारकमिश्र काययोगी व कार्मण काययोगी ) में नरकादि चार आयु, नरकद्विक, आहारकद्धिक का बंध नहीं होता है । वैक्रियमिश्र काययोगी नारकी मनुष्य व तिर्यंच का आयु नहीं बांधता है । औदारिकमिश्र काययोगी तिर्यंच के नरक व देव आयु का व नरकद्विक का बंध नहीं होता है ।
असंयत आदि चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में अनंतानुबंधी चार और दर्शन मोहनीय तीन-इन सातों की सता का नाश करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है । सबसे पहले अनंतानुबंधीय कषाय चतुष्क का क्षय करता है । उसके बाद मिथ्यात्व प्रकृति का क्षय करता है, उसके पश्चात् मिश्र का और उसके पश्चात् सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का क्षय करता है । क्षपक श्रेणी में अपूर्वकरण गुणस्थान में मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृति की सत्ता का उल्लेख गोम्मटसार में मिलता है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में अप्रत्याख्यान कषाय चार और प्रत्याख्यान कषाय चार इन प्रकृति को क्षपक श्रेणीवाला क्षय करता है । इसके बाद नपुंसक वेद, स्त्रीवेद को क्रमश: क्षय करता है । इसके बाद हास्यादि छह नो कषाय और पुरुषवेद को क्रमशः क्षय करता है । क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया को क्रमशः क्षय करता है । में सूक्ष्म लोभ का उदय रहता है ।
इसके बाद संज्वलन सूक्ष्यसंपराय गुणस्थान
अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादि छह और पुरुषवेद का क्रमशः उपशम होता है । २ गोम्मटसार के अनुसार-क्षपणा की तरह ही उपशम के विधान का भी कम है । किन्तु विशेष इतना है कि संज्वलन कषाय और पुरुषवेद के मध्य में मध्य के अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान दो-दो क्रोधादि का क्रम से उपशम होता है । पीछे पुरुषवेद का उपशम करने के अनन्तर जो नवीन बंधा हुआ उस सहित अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध के युगल का उपशम करता है ।
यद्यपि बन्ध और करण में कोई अन्तर नहीं है तथापि यहाँ जो पृथक्-पृथक् कथन किया है, इसका कारण यह बताया है कि जीव की जो 'कर्म-बंध क्रिया' है वह जीवकृत ही है अर्थात् जीव के द्वारा ही की हुई है, 'ईश्वरादिकृत' नहीं है ।
१. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा० ३३५ से ३३८ । टीका
२. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा० ३४३ | टीका
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