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( 47 ) अथवा- 'बंध का अर्थ है-सामान्य रूप से कर्म को बांधना और करण का अर्थ है-कर्मों को निधत्तादि रूप से बांधना, जिससे विपाकादि रूप से उनका फल अवश्य भोगना पड़े। पंकप्रभा नरक से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी नहीं उद्वर्तते हैं। इसी प्रकार धूमप्रभा, तमप्रभा तथा तमतमाप्रभा नारकी के विषय में जानना चाहिए। क्योंकि तीर्थंकर तीसरौ नरक तक के निकल कर हो सकते हैं शेष नारकियों से नहीं।
सम्यमिथ्यादृष्टि नारकी कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते हैं अतः इनका विरह हो सकता है।
अस्तु-योग-आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन (कंपन) को योग कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमादि की विभिन्नता से योग के पन्द्रह भेद होते हैं। किसी जीव का योग दूसरे जीव की अपेक्षा जघन्य होता है और किसी जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट होता है।
सभी नरकों के नरकावास में पृथ्वीकायिक यावत वनस्पतिकायिक जीव है। वे महाक्रिया, महास्रव, और महावेदना वाले हैं। ( जीवाभिगम-तीसरी प्रतिपत्ति ) तिर्यगलोक के ठीक मध्य में-जंबूद्वीप में रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूमि भाग पर मेरु पर्वत के विल्कूल मध्य में आठ रुचक-प्रदेश हैं। वे गोस्तन के आकार वाले हैं। चार ऊपर की ओर उठे हुए हैं और चार नीचे की ओर। इन्हीं रुचक प्रदेशों की अपेक्षा से सभी दिशा-विदिशाओं का ज्ञान होता है।
परिहारविशुद्धि संयम को त्यागे बिना उपशम श्रेणी अथवा क्षपक श्रेणी पर आरोहण नहीं होता है ! अनाहारक में पांच गुणस्थान होते हैं। (१, २, ४, १३. १४ ) श्वेताम्बर आगमानुसार क्षायिक सम्यक्त्वी जीव-जघन्य एक भव, उत्कृष्ट तीसरे भव में मुक्त हो जाता है। दिगम्बर परम्परानुसार वैक्रियमिश्र काययोग निर्वृत्त्यपर्याप्त जीव समास में होता है। मोम्मटसार में अग्निकाय में चार शरीर की मान्यता मिलती है। गर्भज मनुष्य अथवा सामान्य मनुष्य में योग १३ (वैक्रिय-वैक्रियकायमिश्र बाद देकर ) गोम्मटसार के कर्ता ने माना है। अप्रमत्त संयत गुणस्थान में साता-असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा नहीं है। गोम्मटसार में मानुषणी में मनःपर्यवज्ञान नहीं माना है। कहा है
मनःपम्यंयज्ञानोपयोगं xxx मनःपर्ययः स्त्रीवेदिषु नहि संक्लिष्टपरिणामित्वात् ।
-गोजी० गा० ७१८ । टीका ___अर्थात् संक्लिष्ट परिणाम होने से स्त्री वेदी में मनःपर्यवज्ञान नहीं होता है। आगे कहा है
१. उत्त० गा० २९ । गा.१ २. गोजी० मा. ६८२। टीका ३. गोजी० गा. ७१८ । टीका
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