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औदारिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र ओघ के समान सर्वलोक है।
अस्तु स्वस्थान-स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घातगत-ये औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि यावत् सर्वलोक में रहते हैं। क्योंकि सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रिय जीव सर्वलोकवर्ती क्षेत्र में संभव है। किन्तु उक्त जीवों के उपपाद पद नहीं होता है, क्योंकि यहाँ पर औदारिक-काययोग से निरुद्ध जीवों का क्षेत्र बताया जा रहा है।
विहारवत्स्वस्थानवाले औदारिक-काययोगी जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में और तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं, क्योंकि समस्त त्रसपर्यायराशि के संख्यातवें भाग का ही संचार ( विहार ) होता है, ऐसा गुरु का उपदेश है। उक्त औदारिक-काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। वैक्रियसमुद्घातगत औदारिक-काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। क्योंकि, औदारिककाययोग से निरुद्ध क्षेत्र का वर्णन करते समय वैक्रियिक-काययोमी जीवों के होने वाला वैक्रियिकसमुद्घात असंभव है।
सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती औदारिक-काययोगी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं।
अस्तु औदारिक-काययोग से निरुद्ध क्षेत्र का वर्णन करते समय औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग के साथ में होने वाले कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्घातों का होना संभव नहीं है। इसलिए औदारिक-काययोगी सयोगिकेवली लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं।
सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि औदारिक-काययोगी जीवों के उपपाद नहीं होता है। प्रमत्तसंयतगुणस्थान में आहारकसमुद्घात पद भी नहीं है, क्योंकि यहाँ पर औहारिक-काययोगियों का क्षेत्र बताया जा रहा है। शेष गुणस्थानों में यथासंभव पद जानकर कहना चाहिए। .०४ औदारिकमिश्र काययोगी का अवस्थान
ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठि ओघ ।
--षट्० खण्ड ० १ । ३ । सू ३५ । पु ४ । पृष्ठ० १०५ टीका-बहुसु कधमेगवयणणिद्देसो ? ण एस दोसो, बहूणं पि जादीए एगत्तुवलंभादो। अधवा मिच्छाइट्ठी इदि एसो बहुवयणणिद्देसो वेव। कधं पुण एत्थ विहत्ती गोवलब्भदे ? 'आइ-मज्भंतवण्णसरलोवो' इदि विहसिलोवादो।
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