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परंपरोपवष्णगा णं भंते ! रइया किरियावाई० ? एवं जहेव ओहिओ उद्देसओ तहेव परंपरोववण्णएसु विणेरइयादीओ तहेव गिरवसेसं भाणियन्वं, तहेव तियदंडगसंगहिओ।
-भग० श ३० । उ ३ । सू १
सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी परंपरोपपन्नक नारकी क्रियावादी भी है, अक्रियावादी भी है, विनयवादी भी है, अज्ञानवादी भी है। वैमानिक तक जानना । औधिक उद्देशक में जैसा कहा वैसा ही तीनों दंडको (क्रियावादित्वादि, आयुबंध व भव्याभव्यादि ) के संबंध में निरवशेष कहना ।
.५९ अनतरावगाढ़ सयोगी नारकी आदि दंडक और समवसरण '६० परंपरावगाढ .६१ अनंतराहारक .६२ परंपराहारक .६३ अनंतरपर्याप्तक .६४ परम्परपर्याप्तक '६५ चरम .६६ अचरम
एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी सच्चेव इह पिजाव अचरियो उद्देसो, णवरं अणंतरा चत्तारि एक्कगमगा, परंपराचत्तारिवि एक्कगमएणं ।
एवंचरिमा वि अचरिमा वि एवं चेव। णवरं अलेस्सो केवली अजोगीण भण्णंति, सेसं तहेव।
-~-भग० श ३० । उ ४ से ११ । सू १
___ इस प्रकार इसी क्रम से बंधकशतक मैं (देखो ) में उद्दशकों की जो परिपाटी कही है उसी परिपाटी से यहाँ अचरम उद्देशक तक जानना। विशेषता यह है कि अनंतर शब्दघटित चार उद्देशकों में तथा परंपर घटित चार उद्देशकों में एक सा गमक कहना ।
इसी प्रकार चरम तथा अचरम शब्दघटित उद्देशकों के संबंध में भी कहना लेकिन अचरम में अलेशी, केवली व अयोगी के संबंध में कुछ भी न कहना।
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