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( ३६ ) गोयमा ! आयप्पओगणिव्वत्तिए वि, परप्पओगणिव्यत्तिए वि तदुभय प्पयोगणिव्वत्तिए।
से केण?णं मंते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा ! अविरति पहुच्च से तेण?णं जाव तदुभयप्पयोगणिव्वत्तिए । एवं जाव माणियाणं ।
-भग० श १६ । उ१ । सू ९
जीवों का अधिकरण आत्म-प्रयोग से भी होता है। पर-प्रयोग से भी होता है या तदुभय प्रयोग से होता है । अविरति की अपेक्षा यावत् तदुभय प्रयोग से भी होता है ।
इसी प्रकार नारकी यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए ।
नोट-शरीर, इन्द्रिय, योग आदि आंतरिक अधिकरण है। हल, कुदाली आदि शस्त्र तथा धन-धान्य आदि परिग्रह रूप वस्तुए बाह्य अधिकरण है।
हिंसादि पाप कार्यों में प्रवृत्ति करने वाले मन योग के व्यापार से उत्पन्न अधिकरण आत्म प्रयोग निर्वतित कहलाता है। दूसरों को हिंसादि पाप कार्यों में प्रवृत्ति कराने से उत्पन्न हुआ वचनादि योग अधिकरण पर प्रयोग निर्वतित कहलाता है। आत्मा द्वारा और दूसरे को प्रवृत्ति कराने वाला उत्पन्न हुआ अधिकरण 'तदुभय प्रयोग निर्वर्तित कहलाता है।
स्थावरादि जीवों में वचनादि का व्यापार नहीं होता है तथापि उनमें अविरति भाव की अपेक्षा से पर प्रयोग निर्वतितादि अधिकरण कहा गया है। •२ सयोगी जीव और अधिकरणी या अधिकरण •३ जीवेणं भंते ! मणजोगं निव्वत्तेमाकि अधिकरणी ? अधिकरणं ।
___ एवं जहेव सोइंदियं तहेव गिरवसेसं । वइजोगो एवं चेव, गवरंएगिदियवज्जाणं । एवं कायजोगो वि, गवरंसव्व जीवाणं जाव वेमाणिए।
भग० श १६ । उ १ । सू १७
मनो योग से बांधता हुआ जीव अधिकरणी भी है, और अधिकरण भी। अविरति की अपेक्षा अधिकरणी भी है, अधिकरण भी है। श्रोत्रेन्द्रिय के समान कहना। १६ दंडक की पृच्छा करनी चाहिए।
वचन योग के विषय में भी इसी प्रकार जानने परन्तु वचन योग में एकेन्द्रियों का कथन नहीं कहना चाहिए।
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