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नोट-आयु उदय के प्रथम समयवर्ती जीव को अनंरोपपन्नक कहते हैं। उनके आयु का उदय समकाल में ही होता है। मरण समय की विषमता के कारण विषमोप पन्नक कहलाते हैं।
इसी प्रकार आठ कर्म प्रकृति के आठ दंडक कहने ।
'५ सयोगी परंपरोपपन्नक नारकी और पाप कर्म का वेदन
एवं एएण गमएण जच्चेव बंधिसए उद्देसगपरिवाडी सच्चेव इहवि भाणियव्वा जाव अचरिमोत्ति। अणंतरउद्देसगाणं चउण्ह वि एक्को वत्तव्वया। सेसाणं सत्तण्हं एक्का।
- भग० श २९ । उ ३ से ११
वंधीशतक में उद्देशक की तरह जो परिपाटी कही है वह इस पाठ के सम्पूर्ण उद्देशकों की परिपाटी यावत् अचरमोद्देशक पर्यन्त कहना चाहिए। अनंतर सम्बन्धी चार उद्देशकों की एक वक्तव्यत्ता और शेष सात उद्देशकों की एक वक्तव्यत्ता कहनी। नारकी यावत् वैमानिक तक कहना। •२० सयोगी जीव और अणाहारिक १ विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुग्घहो अजोगीय । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ।
-गोजी. गा० ६६६ विग्रह गति में आये चारों गतियों के जीव, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करने वाले सयोगी जिन व अयोगी जिन व सिद्ध अणाहारिक होते हैं।
नोट-विग्रह गति में चारों गतियों के जीव तथा समुद्घात करने वाले केवली प्रतर और लोकपूरण अवस्था में केवल कार्मण काययोग होता है। •२ कार्मण काय योगी और अनाहारक कम्मइयकायजोगी होदि अणाहारयाणपरिमाणं ॥
गोजी० गा० ६७१ पूर्वाचं टोका-अनाहारककालः कार्मणकाये उत्कृष्टः त्रिसमयः। जघन्य एक समयः।xxx। कार्मणकाययोगिजीवराशिः अनाहारकपरिमाणं भवति ।
अनाहारक काल-कार्मण काय योग में उत्कृष्ट तीन समय का है और जघन्य एक समय का है।
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