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( 36 ) विपाक नहीं देखा जाता है, इसलिए कर्मसार पक्ष किस प्रकार स्वीकार किया जा सकता है। अतः पूर्वोक्त पक्ष ही अच्छा है-ऐसा हरिभद्रसूरि आदि आचार्यों ने स्वीकार किया है। उपदेश सप्तति में कहा है
"सेविज्ज सव्वन्नुमयं विसाल" अर्थात् सर्वज्ञ के विशाल मत का आश्रय लेना चाहिए। उपनिषद में एक वाक्य आता है-“यो वे भूमा सत्सुखं नात्ये सुखमस्ति' जो विशाल है, विराट् है, उसीमें सुख है। अल्प या क्षुद्र में सुख नहीं है।
संस्कृत में एक नीति वचन है-"सेवितव्यो महावृक्षः फल छाया समन्वितः" फल और छाया से युक्त विशाल वृक्ष का आश्रय लेना चाहिए।
आचार्य ने सर्वज्ञ शासन को 'विशाल' बतलाया है -इसी विशालता के चार हेतु भी बताये हैं। १-यह उदार है। २-निष्पक्ष है। ३–सापेक्षवादी है। ४–समन्वय प्रधान है।
शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद में अयोगी अवस्था होती है तथा तीसरे भेद में एक काययोग होता है। प्रथम तथा द्वितीय शुक्लध्यान के भेदों में तीनों में से कोई एक योग होता है, अथवा कोई एक योग होता है। गोम्मटसार में कहा है
भावः चित्परिणाम:-गोजी० गा० १६५। टीका। आत्मा के परिणाम को भाव कहते हैं।
कदाचित् छह महिना आठ समय के भीतर चतुर्गति राशि से निकलकर छः सौ आठ जीवों के मुक्ति जाने पर उतने ही जीव नित्यनिगोद-अव्यवहार राशि से निकलकर चतुर्गति भव-व्यवहार राशि में आते हैं।'
उमास्वाती ने कहा है-- असदभिधानमनृतम् ।
-तत्त्वार्थ सूत्र ७ । १४ अर्थात् असत् के प्रतिपादन को अन्त कहा है। अन्त के दो अंग है-विपरीत अर्थ का प्रतिपादन और प्राणी-पीड़ाकर अर्थ का प्रतिपादन ।। मृषा योग के दस प्रकारों में प्रारम्भ के नौ प्रकार विपरीत अर्थ के प्रतिपादक है और दसवां प्रकार प्राणी पीड़ाकर अर्थ का प्रतिपादक है। तत्त्वार्थ राजवातिक में अकलंकदेव ने कहा है
१. गोजी• गा० १९७ टीका। २. दसवे०७ । १२, १३ ।
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