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असदिति पुनरुच्यमाने अप्रशस्तार्थं यत् तत्सर्वमनृतमुक्तं भवति । तेन विपरीतार्थस्य प्राणीपीडाकस्य चानृतत्वमुपपन्नं भवति ।
--तत्त्वरा० ७ । १४ स्थानांग के टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ने कहा है - ___उवघायनिस्सिए ति उपघाते-प्राणिवधे निश्रितं-आश्रितं दसमं मृषा, अचौरे चोरोऽयमित्यभ्याख्यानवचनम् ।
-ठाण० स्था १० । सू ८० टीका अर्थात् अभ्याख्यान के संदर्भ में उपघातनिश्रित्त की व्याख्या की है। इसलिए उन्होंने अचोर को चोर कहना-इस अभ्याख्यान वचन को उपधातनिश्रित मृषा माना है। वस्तुतः अचोर को चोर कहना उपघात निश्रित मृषा नहीं है, किन्तु चोर को चोर कहना उपघातनिश्रित मृषा है।' प्रियधर्मी का अर्थ सुलभवोधि से किया जा सकता है।
महात्मा बुद्ध ने चार अंगों से युक्त वचन को निरवद्य वचन कहा है। १-अच्छे वचन को ही उत्तम बताया है, न कि बुरा । २-धार्मिक वचन ही बोलता है न कि अधार्मिक । ३-प्रिय वचन ही बोलता है, न कि अप्रिय । ४-सत्य वचन ही बोलता है, न कि असत्य वचन ।
(क) अस्तु वह बात बोले जिससे न स्वयं कष्ट पायें और न दूसरे को ही कष्ट हो, ऐसी बात ही सुन्दर है।
(ख) आनंददायी प्रिय वचन ही बोले। पापी बातों को छोड़ कर दूसरों को प्रिय वचन ही बोले।
(ग) सत्य ही अमृत वचन है, यह सदा का धर्म है। सत्य, अर्थ और धर्म में प्रतिष्ठित संतों ने कहा है।
(घ) बुद्ध जो कल्याण वचन निर्वाण प्राप्ति के लिए, दुःख का अंत करने के लिए बोलते हैं, वही वचनों में उत्तम है । जिनदास चूणि में कहा हैजं भासमाणो धम्म णातिक्कमइ, एसो विषयो भण्णइ ।
-जि. चू० पृ० २४४ १. दसवे० ७/१२, १३ ।
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