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अट्ठाईस भेद होते हैं । इनमें सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय का जघन्य योग सबसे अल्प है क्योंकि उनका शरीर सूक्ष्म और अपर्याप्त होने से ( अपूर्ण होने के कारण ) दूसरे सभी जीवों के योगों की अपेक्षा उसका योग सबसे अल्प होता है । और यह कार्मण शरीर द्वारा ओदारिक शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय में होता है । तत्पश्चात् समय-समय योगों की वृद्धि होती है और उत्कृष्ट योग तक बढता है । अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव का जघन्य योग, पूर्वोक्त योग की अपेक्षा असंख्यात गुण होता है । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए ।
यद्यपि पर्याप्त तेइन्द्रिय की उत्कृष्ट काया की अपेक्षा पर्याप्त बेइन्द्रियों की काया तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट काया, संख्यात योजन होने से संख्यात गुण ही होती है । तथापि यहाँ परिस्पन्दन ( कम्पन, इलन, चलन ) रूप योग की विवक्षा होने से तथा क्षयोपशम विशेष के सामर्थ्य से असंख्यात गुण होने का कथन विरुद्ध नहीं है । क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि अल्पकायवाले का परिस्पन्दन अल्प होता है और महाकाय वाले का परिस्पन्दन बहुत ही होता है, क्योंकि इससे विपरीतता भी देखी जाती है । जैसे—–अल्पकायवाले का परिस्पन्दन महान् भी होता है और महाकायवाले का परिस्पन्दन अल्प भी होता है ।
आहारक नारकी की अपेक्षा अनाहारक नारकी हीन योग वाला होता है । क्योंकि जो नारकी ऋजुगति से आकर आहारकपने उत्पन्न होता है वह निरन्तर आहारक होने के कारण पुद्गलों से उपचित (बढा हुआ ) होता है । अतः वह अधिक योगवाला होता है । जो नारकी विग्रहगति से आकर अनाहारकपने उत्पन्न होता है वह अनाहारक होने से पुद्गलों से अनुपचित होता है-अतः हीन योगवाला होता है । जो समान समय की विग्रह गति से आहारकपने उत्पन्न होते हैं अथवा ऋजु गति आकर आहारकपने उत्पन्न होते हैं वे दोनों एक दूसरे की अपेक्षा समान योग वाले होते हैं । जो ऋजुगति से आकर आहारक उत्पन्न हुआ है और दूसरा विग्रहगति से आकर अनाहारक उत्पन्न हुआ है- वह उसकी अपेक्षा उपचित होने से अत्यधिक विषम योगी होता है । आगम में हीनता और अधिकता का कथन कर दिया गया है । समान धर्मता रूप तुल्यता प्रसिद्ध होने के कारण उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया है ।
प्रकारान्तर से पन्द्रह प्रकार के योगों का कथन करके उसकी अल्पबहुत्व बताया गया है । यहाँ परिस्पन्दन योग की ही विवक्षा की गई है ।
जितने आकाश क्षेत्र में जीव रहा हुआ है उस क्षेत्र के अन्दर रहे हुए, जो पुद्गल द्रव्य है 'वे स्थित द्रव्य' कहाते हैं और उससे बाहर के क्षेत्र में रहे हुए पुद्गल द्रव्य 'अस्थित द्रव्य' कहते हैं । वहाँ से खींचकर जीव उनको ग्रहण करता है । इस विषय में किन्हीं आचार्यों का ऐसा कहना है कि गति रहित द्रव्य है वे स्थित द्रव्य कहाते हैं और जो गति सहित द्रव्य है वे 'अ स्थित द्रव्य' कहाते हैं ।
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