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जीव जिन द्रव्यों को मनोयोगपने ग्रहण करता है वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं। वह उन द्रव्यों को द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से भी ग्रहण करता है। वह द्रव्य से अनंतप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है। क्षेत्र से असंख्य प्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के अट्ठाइसवें पद के प्रथम आहारोद्देशक के अनुसार यावत् यह नियम से छओं दिशाओं से आये हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है।
नोट-मनोयोगवाला, मनोयोग के योग्य छओं दिशाओं से आये हुए पुद्गल द्रव्य को ग्रहण करता है। इस कथन का अभिप्रायः यह है कि उपयोगपूर्वक मनोयोगवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय होते हैं वे सनाडी के मध्य में होते है अतः उनके छओं दिशाओं का आहार संभव है।
इसी प्रकार वचनयोगपने स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं । यावत् छः दिशाओं से आये हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है।
जीव जिन द्रव्यों को काययोगपने ग्रहण करता है वह स्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी। द्रव्य से अनतप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्षेत्र से असंख्य प्रदेशावगढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के अट्ठाइसवें पद के प्रथम आहारोद्देशक के अनुसार यावत् निर्व्याघात से छओं दिशाओं से और व्याघात हो तो कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आये हुए पुद्गलों को ग्रहण करता है।
जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों को ग्रहण करते हैं। ग्रहण करके औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण-इन पांच शरीर, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-इन पांच इन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वासोच्छ्वास रूप में परिणमाते हैं। इस कारण अजीव द्रव्य, जीव द्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं।
। चूंकि जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों को ग्रहण करके उनको अपने शरीरादि, मनोयोग, वचनयोग, काययोगादि रूप में परिणमन करते हैं। यह उनका परिभोग है। जीव द्रव्य परिभोक्ता है और अजीव द्रव्य अचेलन होने से ग्रहण करने योग्य है। अतः वे भोग्य है । इस प्रकार जीव और अजीव द्रव्यों में भोक्तृ-भोग्य भाव है। द्रव्ययोग पुद्गल है। कहा है
पोग्गलत्थिकाएणं पुच्छा।
गोयमा ! पोग्गलत्थिकाएणं जीवाणं ओरालिय-वैउन्विय-आहारग-तैया-कम्मए सोइंदिय चक्विंदिय-पाणिदिय-जिभिदिय-फासिदिय-मणजोग-वयजोग-कायजोग-आणपाणूणं च गहणं पवत्तइ गहणलक्खणे णं पोग्गस्थिकाए।
-भग० श. १३ । उ ४ । सू १८
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