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( १७८ ) मारणंतियपदं जत्थ अत्थि, तत्थ समुग्घादो वि अस्थि। जत्थ तं पत्थि ण तत्थ समुग्धादो त्ति वुच्चदि। तदो दोहि पयारेहि 'समुग्धादो पत्थि' त्ति ण विरुज्झदे।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं ।
अस्तु वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान से तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे और तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं, क्योंकि देवराशि के संख्यातवें भाग मात्र वैक्रियिकमिश्रकाययोगी द्रव्य पाया जाता है।
समुद्घात व उपपादपद नहीं है। क्योंकि वैक्रियिकमिश्रकाययोग के साथ इनका विरोध है ।
शंका-वैक्रियिकमिश्रकाययोग का मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादपदों के साथ भले ही विरोध हो, किन्तु वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात के साथ कोई विरोध नहीं है । अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोग में समुद्घात नहीं है-यह वचन घटित नहीं होता ।
समाधान-स्वस्थान क्षेत्र से कथन की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग से वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात, विहारवत्स्वस्थान, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात के क्षेत्र अभिन्न होने से उसी में लीन है। अतः ये यहाँ 'क्षुद्रकबंध' में नहीं ग्रहण किये गये हैं। इसी कारण केवलिसमुद्घात सहित एक मारणान्तिकसमुद्घात ही यहाँ समुद्घात-निर्देश से ग्रहण किया जाता है। और वह समुद्घात यहाँ है नहीं, अतः यह कोई दोष नहीं। अथवा वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकस मुद्घात, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात को भी यहाँ 'क्षुद्रकबंध' में समुद्घात संज्ञा प्राप्त है किन्तु वे प्रधान नहीं है, क्योंकि मारणान्तिकक्षेत्र की अपेक्षा उनके अधिक क्षेत्र का अभाव है। अतः जहाँ मारणान्तिकपद है वहाँ समुद्घात भी है, किन्तु जहाँ वह नहीं है वहाँ "समुद्घात भी नहीं है" यह वचन विरोध को भी प्राप्त नहीं होता। ०७ आहारक-काययोगी कितने क्षेत्र में
आहारकायजोगी वेउव्वियकायजोगिभंगो।
__ -षट् खण्ड ० २ । ६ । सू ६५ । पु ७ । पृष्ठ० ३४५ टीका-एसो दवट्ठियणिद्देसो। पज्जवट्ठियणयं पडुच्च भण्णमाणे अत्थि तको विसेसो। तं जहा- सत्थाणविहारवदिसत्थाणपरिणदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जविभागे। मारणंतियसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे त्ति। - आहारककाययोगियों के क्षेत्र का निरूपण वैक्रियिककाययोगियों के क्षेत्र के समान है।
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