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( ३१७)
तेउलेस्सराशिजुम्मकडजुम्मअसुरकुमाराराणं भंते ! कओ उववज्जति ?
एवं चेव गवरं जेसु तेउलेस्सा अत्थि तेसु भाणियव्वं । एवं एए वि कण्हलेस्सासरिसाचत्तारि उद्देसगा कायव्वा ।
-भग. श. ४१ । श०१७ से २० राशियुग्म में कृतयुग्म राशि तेजोलेश्यावाले असुरकुमार का कथन पूर्ववत् है । किन्तु जिनमें तेजो लेश्या पाई जाती हो, उन्हीं के कहना।
इस प्रकार कृष्णलेश्या के समान चार उद्देशक कहना ।
एवं पम्हलेस्साए वि चत्तारि उद्दसगा कायव्वा। पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वेमाणियाण य एएसि पम्हलेस्सा, सेसाणं पत्थि।
-भग० श० ४१ । श० २१ से २४ ____ इसी प्रकार पद्मलेश्या के भी चार उद्देशक जानो। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य और वैमानिकदेव में पद्मलेश्या होती है, शेष में नहीं होती है ।
जहा पम्हलेस्साए एवं सुक्कलेस्साए घि चत्तारि उद्देसगा कायवा। णवरं मणुस्साणं गमओ जहा ओहिउद्देसएसु, सेसं तं चेव।
~भग० श. ४१ । श० २५ से २८ पद्मलेश्या के अनुसार शुक्ललेश्या के भी चार उद्देशक कहना चाहिए। परन्तु मनुष्य के लिए औधिक उद्देशक के अनुसार है। शेष पूर्ववत् । अस्तु शुक्ललेशी राशि युग्म में कृतयुग्म राशि आदि चारों राशि के जीव ( मनुष्य-तिर्यंच-पंचेन्द्रिय-बैमानिकदेव) आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं।
भवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मणरइया णं भते! को उववजंति ! जहा ओहिया पढमगा चत्तारि उद्देसगा तहेव गिरवसेसं एए, चत्तारि उद्देसगा।
-भग० श० ४१ । श० २९ से ३२ भवसिद्धिक राशि युग्म में कृतयुग्म राशि नारकी आदि के विषय में पहले चार उद्देशक के अनुसार यहाँ भी चार उद्देशक सम्पूर्ण कहना चाहिए ।
कण्हलेस्सभवसिद्धियरासोजुम्मकडजुम्मणेरइया णं मंते! को उववज्जति ?
जहा कण्हलेस्साए चत्तारि उद्देसगा भवंति तहा इमे वि भवसिद्धियकण्हलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा ।
-भग.व. ४१ । श०३३ से ३६
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