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अकषायी या वीतराग के जो बंध होता है, उसे ईर्यापथिक बंध कहा जाता है । ईर्यापथ का अर्थ है योग। योग अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्ति । कषाय रहित योग से जो बंध होता है, वह ईर्यायथिक बंध कहलाता है। यह ग्यारवें से तेरहवें गुणस्थान तक होता है। इन गुणस्थानों में आसक्ति या कषाय का अत्यन्त अभाव होने पर भी योगों की चंचलता के कारण बंधन होता है। यह बंध दो समय की स्थितिवाला होता है।
सात समुद्घात में दूसरा समुद्घात कषाय समुद्घात है। इसमें कषाय की तीव्रता से आत्मप्रदेशों का अपने शरीर से तिगुने प्रमाण में बाहर निकालना कषाय समुद्घात है। इस समुद्घात में काययोग की नियमा है परन्तु मन-वचन योग की भजना है।
ज्ञान त्रैकालिक है और दर्शन केवल वर्तमान है। आत्मा की जितनी प्रवृत्ति है, वह योग आत्मा से पहचानी जाती है। द्रव्य आत्मा में गुण और पर्याय है, पर वे विवक्षित नहीं है केवल शुद्ध आत्म-द्रव्य की विवक्षा अन्य पर्यायों की सत्ता होने पर भी उन्हें गोण कर देती है। आत्मा एक कालिक तत्त्व है।
सयोगी केवली-तेरहवीं श्रेणी में मन, वाणो और शरीर की प्रवृत्ति चालू रहती है। चौदहवीं श्रेणी में पहुंचते ही प्रवृत्ति मात्र का निरोध हो जाता है। इस श्रेणी का नाम है-'अयोगी केवली।'
नोकषाय रूप हास्य दो प्रकार का होता है-स्थित और अट्टहास । स्थित से कषाय का सहारा नहीं मिलता है, अतः वह हेय नहीं है। अट्टहास आगे चल कर कषाय में परिणत हो जाता है।
स्त्रीबेद आदि वेद के साथ जब तक अशुभ योग जुड़े रहते हैं, वेद व्यक्त विकार के रूप में परिणत हो जाते हैं। सातवें गुणस्थान में अशुभ योग नहीं है, इस दृष्टि से वहां ब्यक्त विकार भी नहीं है।
अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषाय का उपशम या क्षय नववें गुणस्थान में होता है, आठवें में नहीं होता है।
लेश्या का अर्थ है-तैजस शरीर के साथ काम करने वाली चेतना अथवा भाव-धारा।
नव गुणस्थान के प्रथम समय में मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का उदय रहता है। पुण्य का बंध सत्प्रवृत्ति से होता है । सत्प्रवृत्ति-शुभ योग है । पुण्य प्राप्ति के लिए धार्मिक प्रवृत्ति करना वर्जित है। पर पुण्य होगा तो धर्म के साथ ही होगा।
जिस परिणाम से आत्मा में कर्मों का आश्रवण प्रवेश होता है, उसे आश्रव कहते हैं। शुभ योग से कर्मों की निर्जरा होती है, इस दृष्टि से वह मोक्ष का साधक है। आस्रव के
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