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( २०४ ) मूलसरीरं वा पविट्ठा। लद्धो एगसमओ। एत्थ वाघाद-गुणपरावत्तीहि एगोसमओ ण लब्भादे।
उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं।
-षट० खण्ड० १ । ५ । सू २१० । पु ४ । पृष्ठ० ४३१ टोका--तं जहा-आहरसरीरमुट्ठानिदपमत्तसंजदा मण-वचि-जोगिट्ठिदा आहारकायजोगिणो जादा। जाधे ते जोगंतरं गदा, ताधे चेव अण्णे आहारकायजोगं पडिवण्णा। एवमेगादि एगुत्तरवड्डीए संखेज्जसलागाओ लभंति। एदाहि एगं कायजोगद्धगुणिदे आहारकायजोगद्धा उक्कस्सिया अंतोमुत्तपमाणा होदि ।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ।
-षट् ० खण्ड० १ । ५ । सू २११ । पु ४ । पृष्ठ० ४३१ । २ टोका-तं जधा-एक्कोपमत्तसंजदो मणजोगे वचिजोगे वा अच्छिदो आहारकायजोगं गदो। विदियसमए मदो, मूलसरीरं वा पविट्ठो।
उक्कसेण अंतोमहत्तं।
-षट् खण्ड० १ । ५ । सू २१२ । पु ४ । पृष्ठ० ४३२ टीका-तं जधा-मणजोगे वचिजोगे वा ट्ठिदपमत्तसंजदो आहारकायजोगं गदो, सव्वुक्कस्समंतोमुत्तमाच्छिय अणजोगं गदो।
आहारककाययोगियों में प्रमत्तसंयत-नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय होते हैं । २०९।
___ अस्तु-जैसे सात-आठ प्रमत्तसंयत मनोयोग अथवा वचनयोग के साथ वर्तमान में थे। वे अपने योगकाल के क्षीण हो जाने पर आहारककाययोगी हुए। द्वितीय समय में मरे अथवा मूल औदारिकशरीर में प्रविष्ट हुए। इस प्रकार से एक समय का काल उपलब्ध हो गया। यहाँ व्याघात अथवा गुणस्थानपरिवर्तन के द्वारा एक समय प्राप्त नहीं होता है।
उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । २१० ।
अस्तु -जैसे आहारकशरीर को उत्पन्न करने वाले, मनोयोग अथवा वचनयोग में विद्यमान प्रमत्तसंयत जीव आहारककाययोगी हुए। जब वे किसी दूसरे योग को प्राप्त हुए उसी समय में ही अन्य प्रमत्तसंयत आहारककाययोग को प्राप्त हुए। इस प्रकार एक को आदि लेकर एकोत्तर वृद्धि से संख्यात शलाकाएं प्राप्त होती है। इन शलाकाओं से एक काययोग के काल को गुणा करने पर उत्कृष्ट आहारककाययोग का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हो जाता है।
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