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( २८८ )
गमक २ – इसीसे णं भंते ! रयणप्पयाए पुढवीए तौसाए निरयावास - सयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस एगसमएणं केवतिया नेरइया उववइंति x x x
गोयमा ! इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरया वासस्यसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस एगसमएणं x x x । मणजोगी न उब्वट्टति, एवं वइजोगी वि । जहणेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्ना कायजोगी उववट्टति |
- भग० श० १३ । उ १ । सू ४
गमक २ - इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से जो संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावास है उनमें से एक समय में कितने मनोयोगी जीव उद्वर्तते ( मरण ) हैं, कितने वचनयोगी जीव और कितने काययोगी जीव उद्वर्तते हैं ।
हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से जो संख्यात योजन विस्तारवाले नरकावास है उनमें से एक समय में मनोयोगी और वचनयोगी जीव नहीं उद्वर्तते हैं । काययोगी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं ।
पाठ ऊपर देखो ।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं। उनमें एक समय में मनोयोगी और वचनयोगी नहीं उद्वर्तते हैं । काययोगी जीव जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात उद्वर्तते हैं ।
नोट - अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी तीर्थंकर आदि ही उद्वर्तते हैं और वे स्वल्प होते हैं । अतः उनके उद्वर्तन के विषय में संख्यात ही कहना चाहिए ।
इनमें विशेषता यह है कि संख्यात योजन और असंख्यात योजन विस्तारवाले नरकावालों में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी संख्यात ही उद्वर्तते हैं ।
नोट - उद्वर्तना परभव के प्रथम समय में होती है । नैरयिक जीव असंज्ञी जीवों में उत्पन्न नहीं होते हैं अतः वे असंज्ञी नहीं उद्वर्तते । यही बात चूणि में भी कही है । असणणो य विभंगिणो य, उव्वट्टणाइ वज्जेज्जा । दोसु विय चक्खुदंसणी, मणवइ तह इंदियाई वा ॥
अर्थात् असंज्ञी, विब्भंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, मनोयोगी, वचनयोगी और क्षोत्रेन्द्रियादि पांचों इन्द्रियों के उपयोगवाले जीव नहीं उद्वर्तते । अतः नरक में इनकी उद्वर्तना का निषेध किया गया है ।
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