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इसी प्रकार कापोतलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के भौ ग्यारह उद्देशक सहित यह शतक है । सब काययोगी होते हैं 1
जहा भवसिद्धिएहि चत्तारि सयाई भणियाइ एवं अभवसिद्धिएहि वि चारि साणि लेस्सासंजुत्ताणि भाणियव्वाणि x x x 1
- भग० श० ३५ । श० ९ से १२
जैसे भवसिद्धिक के चार शतक कहे वैसे ही अभवसिद्धिक के भी चार शतक लेश्या सहित कहते ।
सब काययोगी होते हैं ।
• ५४-२ सयोगी महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव
( कडजुम्मकडजुम्म बेइ दिया णं भंते ! ) x x x | णो मणजोगी वयजोगी वा कायजोगी वा । x x x एवं सोलससुवि जुम्मेसु ।
- भग० श० ३६ । श ० १ । उ १ 1 सू १, २
कृतयुग्म - कृतयुग्म द्वीन्द्रिय के जीव मनोयोगी नहीं होते हैं, किन्तु वचनयोगी और काययोगी होते हैं ।
इसी प्रकार सोलह युग्मों में कहना ।
( पढमसमय कडजुम्मकडजुम्म बेइ दिया ) णो मणजोगी णो वयजोगी, कायजोगी । x x x । एवं एए वि जहा एगिदियमहाजुम्मेसु एक्कारस उद्देगा तहेव भाणियव्वा । x x x
- भग० श० ३६ | श ० १ । उ २ से ११ । सू १
दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छट्ट, सातवें, आठवें, नववें, दसवें, ग्यारहवें उद्दे शकों में मनोयोग नहीं होता है, वचनयोग और काययोग होता है ।
प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म राशि द्वीन्द्रिय के जीव मनोयोगी और वचनयोगी नहीं होते हैं, परन्तु काययोगी होते हैं ।
सोलह महायुग्मों का इसी प्रकार जानना चाहिए ।
( कण्हलेस कडजुम्मकडजुम्मबेइ दिया ) कण्हलेस्सेसु वि एक्कारसउद्देगसंत्तं स्यं ।
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