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( ३१० ) एवं गीललेस्सेहि वि सयं ।
एवं काउलेस्सेहि वि॥ भवसिद्धिय-कडजुम्मकडजुम्म-बेईदिया णं भंते ! एवं भवसिद्धियसया वि चत्तारि तेणेव पुव्वगमएणं णेयव्वा, णवरं सत्वे पाणा० ? णो इण? सम8। सेसं तहेव ओहियसयाणि चत्तारि।
जहा भणसिद्धियसयाणि चत्तारि एवं अभवसिद्धियसयाणि चत्तारि भाणियन्वाणि । गवरं सम्मत्त-णाणाणि पत्थि, सेसं तं चेव ।
-~-भग० श० ३६ । श० २ से १२
कृष्णलेशी कृतयुग्म-कृतयुग्म द्वीन्द्रिय जीवों के योग के सम्बन्ध में कृतयुग्म-कृतयुग्म औधिक द्वीन्द्रिय शतक की तरह ग्यारह उद्देशक सहित महायुग्म शतक कहना। लेकिन लेश्या, कायस्थिति तथा आयुस्थिति एकेन्द्रिय कृष्णलेशी शतक की तरह कहने। इसी प्रकार सोलह महायुग्म शतक कहने ।
इसी प्रकार नीललेशी तथा कापोतलेशी शतक भी कहने ।
भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म द्वीन्द्रिय के सम्बन्ध में भी पूर्व गमक की तरह चार शतक कहते । विशेष में सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्व यावत् अनंतवार उत्पन्न हुए हैं ऐसा नहीं है।
जिस प्रकार भवसिद्धिक बेइन्द्रिय जीवों के चार शतक कहे. उसी प्रकार अभवसिद्धिक बेइन्द्रियों के भी चार शतक कहते । इनमें सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होता है । ५४.३ सयोगी महायुग्म वीन्द्रिय जीव _____ कडजुम्मकडजुम्मतेइ दिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं तेइंदिएसु वि बारससया कायव्वा बेइदियसयसरिसा। णवरं ओगाहणा जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। ठिई जइण्णण एक्कं समयं, उक्कोसेणं एकूणवण्ण राई दियाई, सेसं तहेव ।
---भग० श० ३७ । सू १ महायुग्म द्वीन्द्रिय शतक की तरह महायुग्म द्वीन्द्रिय जीवों के विषय में- योग के विषय में कहना । बारह शतक कहना।
__ अस्तु.-द्वितीय शतक में प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म-कृतयुग्म राशि त्रीन्द्रिय मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं परन्तु काययोगी होते हैं। बाकी ग्यारह शतक में
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