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संभव, किंतु तत्थ सत्थाणखेत्तादो अहियं खेत्तं ण लब्भदि त्ति तेसि पडिसेहो कदो । किमिद ण लब्भदे ? जीवपदेसाणं तत्थ सरीरतिगुणविप्फुज्जणाभावादो ।
faraमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान पदों से लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श
करते हैं ।
अस्तु यहाँ वर्तमानकाल की अपेक्षा स्पर्शन का निरूपण क्षेत्र प्ररूपणा के समान है । अतीतकाल की अपेक्षा तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श करते हैं ।
बिहारवत्स्वस्थान उनके नहीं होता है ।
शंका -- वैक्रियमिश्रकाययोगियों के मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदों का अभाव भले ही हो, क्योंकि, इनका वैक्रियिकमिश्रकाययोग के साथ विरोध है । इसी प्रकार किसमुद्घात का भी उनके अभाव रहा आवे, क्योंकि, अपर्याप्तकाल में वैक्रियिकसमुद्घात का होना असंभव है । किन्तु वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदों की उनमें असंभावना नहीं है, क्योंकि नारकियों के ये दोनों समुद्घात अपर्याप्तकाल में ही पाये जाते हैं । जीवस्थान स्पर्शनानुगम के सूत्र ९४ की टीका में धवलाकार ने यहाँ उपपादपद भी स्वीकार किया है ।
समाधान- नारकियों के अपर्याप्तकाल में वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदों की संभावना रही जावे, किन्तु उनमें स्वस्थान क्षेत्र में अधिक क्षेत्र नहीं पाया जाता, इसी कारण उनका प्रतिषेध किया गया है ।
शंका- वहाँ स्वस्थान क्षेत्र से अधिक क्षेत्र वहाँ क्यों नहीं पाया जाता है ?
समाधान - क्योंकि, उनमें जीव प्रदेशों के शरीर से तिगुणे विसर्पण का अभाव है । ०७ आहारक काययोगी का क्षेत्र - स्पर्श
आहारकायजोगी सत्थाण- समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ?
टीका - सुगमं ।
—षट् ० ० खण्ड ० २ । ७ । सू १२१ । पु ७ । पृष्ठ० ४१८
लोगस्स असंखेज्जविभागो ।
- षट्० खण्ड० २ । ७ । सू १२२ । पु ७ । पृष्ठ० ४१८
टीका -- एत्थ चट्टमाणस्स खेत्तभंगो । अवीदेण सत्याण- सत्याण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसायपदेहि चदुष्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुस खेत्तस्स
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