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अर्थात् जिन जीवों का संसार परिभ्रमणकाल अर्द्धपुद्गलपरावर्तन से कुछ कम शेष रह गया है, वे 'शुक्लपाक्षिक' कहलाते हैं । इससे अधिककाल तक जिन जीवों का संसार में परिभ्रमण करना शेष रह गया है वे 'कृष्णपाक्षिक' कहलाते हैं ।
जिन नारकियों में उत्पन्न हुए अभी एक ही समय हुआ है उन्हें अनन्तरोपपन्नक कहते हैं। और जिनको उत्पन्न हुए दो, तीन आदि समय हो गये हैं उन्हें परंपरोपन्नक कहते हैं । किसी एक विश्रित क्षेत्र में प्रथम समय में रहे हुए जीवों को अनन्तरावगाढ़ कहते हैं और विवक्षित क्षेत्र में द्वितीयादि समय में रहे हुए जीवों को परंपरावगाढ़ कहते हैं ।
आहार ग्रहण करने में जिन्हें प्रथम समय हुआ है उन्हें अनन्तराहारक और द्वितीयदि समय हुआ है उन्हें परंपराहारक कहते हैं ।
जिन जीवों को पर्याप्त हुए प्रथम समय ही हुआ है उन्हें अनन्तर पर्याप्तक और जिनको पर्याप्त हुए द्वितीयादि समय हो गये हैं उन्हें परंपर- पर्याप्तक कहते हैं ।
जिन जीवों का वही अन्तिम नारकभव है रहे हुए हैं उन्हें चरम नैरयिक कहते हैं और कहते हैं ।
अथवा जो नारकभव में अन्तिम समय में इससे विपरीत को 'अचरम' नारकी
-२ सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता ?
गोयमा ! पणवीसं निरयावास सय सहस्सा पण्णत्ता ।
ते भंते कि संखेज्जवित्थडा ? असंखेज्जवित्थडा ?
एवं जहा रयणप्पभाए तहा सक्करप्पभाए वि, नवरं असण्णी तिसु वि गमएसु न भण्णंति, सेसं तं चेव ।
वालुयप्पभाए णं पुच्छा 1
गोयमा ! पनरस निरयावासस्यसहस्सा पण्णत्ता, सेसं जहा सक्करप्पभाए, नाणत्तं लेसासु, जहा पढमसए ।
पंकष्पभाए णं पुच्छा ।
गोयमा ! दस निरयावासस्यसहस्सा पण्णत्ता, एवं जहा सक्करष्पभाए, नवरं ओहिनाणी, ओहिदंसणी य न उब्वट्टति, सेसं तं चेव ।
धूमभाए णं पुच्छा ।
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