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३. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी एक ४. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी बहुत ५. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधी एक ६. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधी बहुत ७. लोभी बहुत, मायी बहुत मानी बहुत, क्रोधी एक ८. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी क्रोधी बहुत
बहुत,
नोट – सत्ताईस भंगों में 'लोभ' को बहुवचनांत ही रखना चाहिए ।
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यद्यपि अकेले कार्मण काययोग में अस्सी भंग संभव है तथापि यहाँ पर उसकी विवक्षा नहीं की है । किन्तु सामान्य काययोग की विवक्षा की गई है ।
नारकियों में जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे गये हैं, उन स्थानों में यहाँ अभंगक कहना चाहिए | क्योंकि क्रोधादि उपयुक्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच एक ही साथ बहुत पाये जाते हैं ।
इसी प्रकार विकलेन्द्रियों के संबंध में अभंग अर्थात् ( नारकी के जीवों में जहां सत्ताईस भंग कहे हैं वहां ) भंगों का अभाव कहना चाहिए।
अभंगक कहने का कारण यह है कि विकलेन्द्रिय जीवों में क्रोधादि उपयुक्त जीव एक साथ बहुत पाये जाते हैं
एक-एक कषाय में उपयुक्त बहुत से पृथ्वीकायिक होते हैं अतः अभंगक समझना चाहिए | ( नारकी के सत्ताईसभंग की जगह
• ३० सयोगी और समुद्घात
१ सयोगी केवली और समुद्घात
( केवली समुग्धायं ) कतिसमइए णं भंते ! आउज्जीकरणे पण्णत्ते ? गोमा ! असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए आउज्जीकरणे पण्णत्ते ? २१७१
कतिसमइए णं भंते ! केवलिसमुग्धाए पण्णत्ते गोयमा ! अट्ठसमइए पण्णत्ते । तंजहा पढम समए दंडं करेति, बिइए समए कवाडं करेति, ततिए समए मंथं करेति, चउत्थे समए लोगं पूरेइ, पंचमे समए लोयं पडिसाहरति, छट्ट समए मंथ पडसाहरति सत्तमे समए कवाडं परिसाहरति, अट्टमे समए दंडं पडिसाहरति, दंड पडिसाहरेत्ता ततो पच्छा सरीरत्थे भवति । २१७२
भंते! तहासमुग्धायगते कि मणजोगं जु जति वइजोगं जु' जतिकायजोगं जुजति ? गोयमा ! णो मणजोगं जुंजइ णो वहजोग जुजइ, कायजोगं जति !
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