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________________ ( 34 ) लेकिन गीला वस्त्र धूप में सूक जाता है। राग के कारण चार प्रकार की माया, चार प्रकार का लोभ, तीन वेद, हास्य-रति का तथा द्वेष के कारण चार प्रकार का क्रोध, चार प्रकार का मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा का पूर्ण रूप से क्षय होने से सयोगी के राग और द्वेष नष्ट हो चुके हैं। आहारक समुद्घात से केवलिसमुद्घात संख्यातगुण अधिक है। सबसे कम आहारक समुद्घातवाले है व सबसे अधिक वेदना समुद्घातवाले है। वे अनंत होते हैं। स्वरनाम कम के उदय से भाषावर्गणा के रूप में आये हुए पुद्गल स्कन्धों को सत्य, असत्य, उभय और अनुभय भाषा के रूप में परिणमाने की शक्ति की पूर्णता को भाषापर्याप्ति कहते हैं। जिसके भाषापर्याप्ति नहीं है उसके न वचन बल प्राण होता है, न वचन योग होता है। पर्याप्ति अजीव है तथा प्राण जीव है । ___ एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव जब तक शरीर पर्याप्ति से निष्पन्न नहीं होते हैं अर्थात् जब तक उनकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक निर्वृत्यपर्याप्त कहे जाते हैं अर्थात् एक समय कम शरीर पर्याप्ति के काल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निवृत्यपर्याप्त का काल है। निर्वृत्ति अर्थात् शरीर पर्याप्ति की निष्पत्ति से अपर्याप्त अर्थात् अपूर्ण को निवृत्यपर्याप्त कहते हैं - यह उसकी व्युत्पत्ति है।' अपर्याप्त नामकर्म के उदय होने पर एकेन्द्रिय, चारों विकलेन्द्रिय और संज्ञी जीव अपनी-अपनी चार, पाँच और छह पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं करते हैं । उच्छ् वास के अठारहवें भाग प्रमाण अन्तर्मुहूर्त में ही मर जाते हैं-वे जीव लब्ध्यपर्याप्तक कहे जाते हैं। लब्धि अर्थात् अपनी पर्याप्ति को पूर्ण करने की योग्यता को अपर्याप्त अर्थात् अनिष्पन्न जीब लब्ध्यपर्याप्त है-ऐसी निरुक्ति है । कहा है "तहिं ऋजुगत्योत्पन्नस्यैव कथमुक्त विग्रहगती योगवृद्धियुक्तत्वेन तदवगाहवृद्धियुक्तत्वेन तदवगाहवृद्धिप्रसंगात् ।" -गोजी. गा० ९४ टीका प्रज्ञापना की टीका में मलयगिरि ने कहा है _योग के सद्भाव में लेश्या का भी सद्भाव रहता है तथा योग के अभाव में लेश्या का अभाव रहता है। इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा लेश्या योगनिमित्त से होती है-ऐसा निश्चय होता है, क्योंकि सर्वत्र योगनिमित्त से ही लेश्या होती हैं-ऐसा अन्वयव्यतिरेक से देखा जाता है। लेश्या को योगनिमित्त स्वीकार करने पर दो विकल्प सामने आते हैं - लेश्या योगान्तर्गत द्रव्यरूप है या योगनिमित्त कर्म द्रव्य रूप है ? योग निमित्त कर्म द्रव्य रूप इसलिए नहीं है कि उसका दोनों विकल्पों से अतिक्रमण नहीं होता है और १. गोजी गा० १२१ टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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