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असुरकुमार के चौसठ लाख आवासों में ये संख्यात योजन विस्तारवाले असुरकुमारा वासों में एक समय में मनोयोगी और वचनयोगी नहीं उत्पन्न होते हैं। जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात काययोगी जीव उत्पन्न होते हैं ( गमक-१)।
उद्वर्तना के विषय में भी उसी प्रकार जानना चाहिए अर्थात् मनोयोगी और वचनयोगी नहीं उद्वर्तते हैं। काययोमी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं (गमक-२)।
सत्ता के विषय में पहले कहे अनुसार ही कहना चाहिए। अर्थात् मनोयोगी, वचनयोगी तथा काययोगी संख्यात होते हैं। ( ममक-३)।
इसी प्रकार असंख्येययोजनविस्तृत असुरकुमारावासों में कहना चाहिए। परन्तु इनमें संख्यात के स्थान पर असंख्यात कहना चाहिए। अर्थात् असंख्येय योजन विस्तृत असुरकुमारावासों में एक समय में मनोयोगी व वचनयोगी उत्पन्न नहीं होते हैं। जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात काययोगी उत्पन्न होते हैं। (गमक-१) मनोयोगी व वचनयोगी नहीं उद्वर्तते हैं। काययोगी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात उद्वर्तते हैं । ( गमक-२)।
सत्ता -- मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी असंख्यात होते हैं । ( गमक-३)।
इसी प्रकार ( तीनों गमक ) नागकुमार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। विशेषता यह है कि जहाँ जितने लाख भवन हो, वहाँ उतने लाख कहने चाहिए। नोट-कहा है
जंबूद्दीवसमा खलु भवणा जे हुँति सव्वखुड्डागा। संखेज्जवित्थडा मज्झिमा उ सेसा असंखेन्जा।
अर्थात् भवनयति देवों के जो सबसे छोटे आवास ( भवन ) होते हैं, वे जम्बुद्वीप के समान होते हैं। मध्यम संख्यात योजन के विस्तारवाले होते हैं और शेष अर्थात बड़े आवास असंख्यात योजन के विस्तारवाले होते हैं। वहाँ से निकले हुए जीव तीर्थंकर तो होते ही नहीं हैं और जो निकलते हैं वे भी अवधिज्ञान-अवधिदर्शन लेकर नहीं निकलते हैं।
असुर कुमार के ६४ लाख, नागकुमारों के ८४ लाख, सुवर्णकुमारों के ७२ लाख, वायुकुमारों के ९६ लाख और द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्यु तकुमार, स्तनित कुमार और अग्निकुमार-इन प्रत्येक युगल के ७६ लाख ७६ लाख भवन होते हैं। कुल ७ करोड ७२ लाख भवन हुए।
केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सा पण्णता? गोयमा! असंखेज्जा वाण मंतरावाससयसहस्सा पण्णत्ता।
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