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( १५५ ) स्पर्श किये हैं, क्योंकि अच्युत कल्प से ऊपर असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवों का उपपाद नहीं होता है।
लाक्षणिक साहित्य में कोश का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। कार्मण काययोगी जीव मरण को प्राप्त नहीं होता है। यद्यपि असंयत सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत की उपपाद अच्युत-कल्प तक का कहा है। द्रव्य लिंगी-मिथ्यादृष्टि का उपपाद नौ प्रवेयक तक है।
प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती औदारिक काययोगी जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है।
___ अस्तु इन आठों गुणस्थानों का तीनों ही कालों का आश्रय करके स्पर्शप्ररूपणा करने पर क्षेत्र और स्पर्शन अनुयोगद्वार के मूलोघ प्रमत्तादि गुणस्थानों की प्ररूपणा के समान प्ररूपणा करनी चाहिए। विशेष बात यह है कि सयोगी-केवलौ-गुणस्थान में कपाट, प्रतर और लोक पूरण समुदघात नहीं होते हैं। (क्योंकि औदारिक काययोग की अवस्था में उनके केवल एक दंड समुद्घात ही होता है । )
चूकि सयोगि-केवलियों ने लोक का असंख्यात वहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है। इस सूत्र से निर्दिष्ट नहीं की गई है। अतः हम जानते हैं कि औदारिक काययोगी सयोगिजिन के कपाट आदि तीन समुद्घात नहीं होते हैं ।
नोट-औदारिक काययोग की अवस्था में केवल एक दंड समुद्धात ही होता है, कपाट समुद्घात आदि नहीं। इसका कारण यह है कि कपाट समुद्घात में औदारिकमिश्र काययोग और प्रतर और लोक पूरण समुद्घात में कार्मण काययोग होता है--ऐसा नियम है। अतः यहाँ, औदारिक काययोग की प्ररूपणा करते समय सयोगी केवली में कपाट, प्रतर और लोक पूरण समुद्घात नहीं होने हैं । .०४ औदारिकमिश्र काययोगी को क्षेत्र-स्पर्शना
ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छाविट्ठी ओघं ।
-षट्० खण्ड० १।४। सू ८८ । पु४ । पृष्ठ० २६३ टोका–सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय उववादपरिणदेहि ओरालियमिस्सकायजोगिमिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेसु जेण सव्वलोगो फोसिदो, तेण
ओघत्तमेदेसि ण विरुज्झदे । विहारवदिसत्थाण-वेउन्वियपदाणमत्थाभावा णोत्तं जुज्जदे ? होदु णाम एदेसि दोण्हं पि पदाणमभावो, तधावि पदसंखाविवक्खाभावा विज्जमाणपदाणं फोसणस्स ओघपदफोसणेण तुल्लत्तमथि ति ओघतं ण विरुज्झदे।
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