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में ऐसा रूढ है कि अपर्याप्त शरीर मिश्र होता है । इस कारण से औदारिककायमिश्र के साथ उसके लिए वर्तमान जो संप्रयोग अर्थात् आत्मा का कर्म और नोकर्म को ग्रहण करने की शक्ति के लिए प्रदेश परिस्पन्दनरूप योग है वह शरीर पर्याप्ति की पूर्णता न होने से औदारिकवर्गणा के स्कंधों को परिपूर्ण रूप से शरीर रूप परिणमाने से असमर्थ होने से औदारिकमिश्र काययोग होता है ।
वैक्रिय काययोग - वैक्रिय शरीर के लिए जो उस रूप परिणमन के योग्य शरीरवर्गणा के स्कन्धों को आकृष्ट करने की शक्ति से विशिष्ट आत्मप्रदेशों का कंपन है वह वैक्रिय काययोग है । अथवा कारण में कार्य के उपचार करने से वैक्रियकाय ही वैक्रियकाययोग है यह उपचार भी पूर्व की तरह निमित्त से लिए हुए हैं । वैक्रियकाय से हुआ योग वैक्रियकाययोग यह निमित्त का योग है । कर्म - नोकर्म रूप से परिणमन होना प्रयोजन है, मनुष्य और तिर्यंच में जिन जीवों का औदारिक शरीर ही वैक्रिय रूप होता है वे जीव पृथक् विक्रिया करते हैं । चक्रवर्ती के भी वैक्रिय काययोग होता है ।
असमर्थ होता है
वैक्रियमिश्र काययोग – वह वैक्रिय शरीर ही अन्तर्मुहूर्त मात्र अपर्याप्त काल तक शरीर पर्याप्ति की पूर्णता न होने से वैक्रिय काययोग को उत्पन्न करने में तब तक औदारिकमिश्र काय की तरह उसे वैक्रियमिश्र जानना चाहिए । उस वैक्रियमिश्र काय के साथ जो संप्रयोग अर्थात् कर्म - नोकर्म को ग्रहण करने की शक्ति को प्राप्त अपर्याप्त काल मात्र आत्मा के प्रदेशों का चलन रूप योग वैक्रियमिश्र काययोग है । अर्थात् अपर्याप्त योग का नाम मिश्र काययोग है ।
आहारक काययोग- -प्रमत्त संयत के आहारक शरीर नाम कर्म के उदय से आहार वर्गणा के आये हुए पुद्गल स्कन्धों को आहारक शरीर रूप परिणमन करने को आहारक शरीर कहते हैं । अथवा श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम की मन्दता होने पर जब धर्म ध्यान के विरोधी शास्त्र के अर्थ में सन्देह होता है तब उस संशय को दूर करने के लिए ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत के आहारक शरीर प्रकट होता है । आहारक शरीर पर्याप्ति परिपूर्ण होने पर कदाचित् आहारक शरीर ऋद्धि से युक्त प्रमत्त संयत के आहारक काययोग के काल में अपनी आयु का क्षय होने पर मरण भी हो जाता है । अस्तु शरीर पर्याप्तिको पूर्णता होने पर आहार वर्गणाओं के द्वारा आहारक शरीर के योग्य पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करने की शक्ति से विशिष्ट आत्मा के प्रदेशों का चलन आहारक काययोग जानना चाहिए ।
आहारक मिश्र काययोग — वह आहारक शरीर ही जब अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अपर्याप्त काल में अपरिपूर्ण होता है अर्थात् आहार वर्गणा के पुद्गल स्कन्धों को आहारक शरीर के आकार रूप से परिणमाने में असमर्थ होता है तब तक उसे आहारकमिश्र कहते हैं । उससे पहले होनेवाली औदारिक शरीर वर्गणा से मिला होने से उनके साथ जो संप्रयोग अर्थात् अपरिपूर्ण शक्ति से युक्त आत्म प्रदेशों का चलन है उसे आहारकमिश्र योग कहते हैं ।
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