________________
( 56 )
में केवल योग से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होते हैं। अतः बंध का प्रमुख कारण कषायोदयरूप अध्यवसान ही होता है ।
प्रथम और तीसरे गुणस्थान में बंध के मिथ्यात्व आदि पांच कारण होते हैं। दूसरे, चौथे, पांचवें में बंध के कारण चार होते हैं। छ8 में प्रमाद-कषाय-योग रहते हैं। सातवें से दसवें तक कषाय और योग दो ही कारण होते हैं। आगे तेरहवें तक केवल एक योग रहता है। अतः दसवें तक चारों बंध होते हैं । आगे केवल प्रकृतिबंध-प्रदेशबंध ही होते हैं। दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय न होने पर भी अनंतानुबंधी कषाय का उदय रहता। कहा है"कर्मणा बध्यते जन्तुः।"
महाभारत __ अर्थात् प्राणी कर्म से बंधता है और कर्म की परम्परा अनादि है। "बुद्धिः कर्मानुसारिणी' अर्थात् प्राणियों की बुद्धि कर्म के अनुसार होती है। कर्म के दो भेद हैं-- द्रव्यकर्म और भावकर्म। द्रव्यकर्म के आठ मूल भेद हैं। भावकर्म चैतन्य के परिणामरूप क्रोधादि भाव है। कहा है
पुग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्तो भावकम्मं तु ॥६॥ टीका-पिण्डगतशक्तिः कार्य कारणोपचारात् शक्तिजनिता-ज्ञानादिर्वा भावकम भवति । –गोक.
अर्थात् पुद्गल के पिण्ड को द्रव्यकर्म कहते हैं और उसमें जो शक्ति है उसे भावकर्म कहते हैं। उस पुद्गल पिण्ड में रहने वाली फल देने की शक्ति भावकर्म है अथवा कर्म में कारण के उपचार से उस शक्ति से उत्पन्न अज्ञानादि भी भावकर्म है। समयसार में शुद्ध जीव के स्वरूप के वर्णन में लिखा है-गुणस्थान, मार्गणास्थान, योगस्थान आदि जीव के नहीं है। पूज्य होने से ज्ञान को पहले कहा है क्योंकि व्याकरण के सूत्र में कहा है कि अल्प अक्षर वाले से जो पूज्य होता है उसका पूर्व निपात होता है। उसके पश्चात् दर्शन कहा है।
कार्मणकाययोगी जीव में तीन समुद्घात होते हैं-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात तथा केवलीसमुद्घात। कर्मप्रकृति तथा गोम्मटसार के अनुसार दूसरे गुणस्थान में अनंतानुबंधीय चतुष्क कषाय का उदय माना है। दूसरे गुणस्थान से पतित होकर प्रथम गुणस्थान में आता है, ऊपर के गुणस्थान में ऊर्वारोहण नहीं करता है। मारणान्तिकसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात, तैजससमुद्घात, आहारकसमुद्घात में कार्मणकाययोग नहीं होता है क्योंकि वे समुद्घात आहारक अवस्था में होते हैं। अंगारमर्दनाचार्य जो अभवि थे। इन्होंने अनेकों व्यक्तियों को सम्यक्त्वी बनाया व संयती बनाया। पर स्वयं सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सके । यद्यपि अभाव में योग १३ होते हैं। आहारककाययोग व आहारकमिश्रकाययोग अभवि में नहीं होता है । गोम्मटसार के टीकाकार ने कहा है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org