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का जघन्यकाल एक समय प्राप्त हो जाता है । अथवा काययोगकाल के क्षय से मनोयोग के प्राप्त होने पर द्वितीय समय में व्याघात को प्राप्त हुए उसको फिर भी काययोग ही प्राप्त हुआ । इस तरह द्वितीय प्रकार एक समय प्राप्त होता है ।
इसी प्रकार शेष चार मनोयोगों और पांच वचनयोगों के भी एक समय की प्ररूपणा दोनों प्रकारों से जानकर करना चाहिए ।
अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्तकाल तक जीव पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी रहते हैं ।
क्योंकि, अविवक्षित योग से विवक्षित योग को प्राप्त होकर उत्कर्ष से यहाँ अंतर्मुहूर्त तक अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं है ।
•• २ काययोगी की कालस्थिति
काय जोगी केवचिरं कालादो होदि ?
- षट्० खण्ड ० २ । २ ।
टीका - किममेत्थ एगवयणणिद्दे सो कदो ? मोत्तू बहूहि जीवेहि एत्थ पओजणाभावादो ।
९९ । पु ७ । पृष्ठ० १५२ ण एस दोसो, एगजीवं
जहणेण अंतोमुत्तं ।
षट्० खण्ड ० २ । २ । सू १०० ॥ पु ७ । पृष्ठ १५२
टीका - अणप्पिदजोगादो कायजोगं गदस्स जहण्णकालस्स वि अंतोमुहुत्तपमाणं मोत्तूण एगसमयादिपमाणाणुवलंभादो ।
उक्कस्सेण अनंतकालमसं खेज्जपोग्गल परियहं ।
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-षट्० खण्ड० २ । २ । सू १०१ । ७ । पृष्ठ ० १५२
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टीका - अणपदजोगादो कायजोगं गंतूण तत्थ सुट्ठ दोहद्धमच्छिय कालं करिय एइ दियेसु उप्पण्णस्स आवलियाए असंखेज्ज दिभागमे त्तपोग्गल परियट्टाणि परियट्टिदस्स कायजोगुक्कस्सकालुवलं भादो ।
जीव काययोगी कितने काल तक रहता है । यहाँ एकवचन के निर्देश करने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक जीव को छोड़कर यहाँ बहुत जीवों से प्रयोजन नहीं है ।
कम से कम अन्तर्मुहूर्त तक जीव काययोगी रहता है । क्योंकि अविवक्षित योग से काययोग को प्राप्त हुए जीव के जघन्यकाल का प्रमाण अन्तर्मुहूतं को छोड़कर एक समयादि रूप नहीं पाया जाता है ।
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