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ही होते हैं । असंज्ञी जीवों के नहीं। क्योंकि असंज्ञियों में ये आठों योग प्रतिषिद्ध है । संज्ञियों में भी प्रधान देव ही है, क्योंकि शेष तीन गति के संज्ञी जीव देवों के संख्यातवें भाग ही है । यहाँ देवों में भी प्रधान काययोगियों की राशि है, क्योंकि काययोगियों का प्रमाण मनोयोगियों व वचनयोगियों से संख्यातगुणा है ।
योगकाल के अल्पबहुत्व से यह जाना जाता है। वह इस प्रकार है-मनोयोग का काल सबसे स्त्रोक है, वचनयोग का काल उससे संख्यातगुणा है। काययोग का काल वचनयोग के काल से संख्यातगुणा है। अनन्तर इन कालों का जोड़ करके जो फल हो उससे तीन योगों की संज्ञी जीव-राशि को अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे अपने-अपने काल से पृथक्-पृथक् गुणित करने पर मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव-राशि होती है। इसलिये यह निश्चित हुआ ये आठ ही मिथ्यादृष्टि जीव राशियां देवों के संख्यातवें भाग है।
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में पूर्वोक्त आठ योग वाले जीवों का प्रमाण सामान्य प्ररूपणा के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग है।
पल्योपम के असंख्यातवें भाग के प्रति औघ जीवों के साथ इन आठ जीव-राशियों की समानता है। अतः सूत्र में 'ओघ' ऐसा कहा है। परन्तु पर्यायाथिक नय का अवलम्वन करने पर तो सासादनादि संयतासंयतान्त, गुणस्थानप्रतिपन्न ओघ-प्ररूपणा से गुणस्थानप्रतिपन्न इन आठ राशियों में महान भेद है, क्योंकि ये राशियां ओघ-राशि के संख्यातवें भाग है।
पूर्वोक्त योगकाल के अल्पबहुत्व से यह जाना जाता है।
प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में पूर्वोक्त आठ जीवराशियाँ द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा संख्यात है।
योगकाल का आश्रय लेकर राशि-विशेष का प्रतिपादन करने के लिए यहाँ पर पर्यायाथिकनय का अवलम्वन लिया गया है।
योगकाल के आश्रय से अल्पबहुत्व :१-- सत्यमनोयोग का काल सबसे स्तोक है। २-मृषामनोयोग का काल उससे संख्यातगुणा है । ३-उभय मनोयोग का काल मृषामनोयोग के काल से संख्यातगुणा है । ४-अनुभय मनोयोग का काल उभय मनोयोग के काल से संख्यातगुणा है । ५-इससे मनोयोग का काल विशेष-अधिक है । ६-सत्यवचनयोग का काल मनोयोग के काल से संख्यातगुणा है ।
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