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( १६४ ) अस्तु वर्तमानकाल से प्रतिसंबद्ध होने से इस सूत्र की स्पर्शन प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणा के समान है।
कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों ने तीनों कालों की अपेक्षा से कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ।
यहां पर भी केवल उपपादपद ही होता है। तिर्यंच असंयतसम्यगदृष्टि जीव चूकि मेरुतल से ऊपर छह राजु जा करके उत्पन्न होते हैं। अतः स्पर्शन क्षेत्र की प्ररूपणा छह बटे चौदह (९) भाग प्रमाण होती है। मेरुतल से नीचे पांच राजु प्रमाण स्पर्शन क्षेत्र नहीं पाया जाता है, क्योंकि नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का तिर्यंचों में उपपाद नहीं होता है।
कार्मणकाययोगी सयोगि-केवलियों ने लोक का असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है।
अस्तु प्रतरसमुद्घात को प्राप्त केवलियों ने लोक के असंख्यात बहुभाग स्पर्श किये हैं क्योंकि लोकपर्यन्तस्थित वातवलयों में केवली भगवान के आत्मप्रदेश प्रतरसमुद्घात में प्रवेश नहीं करते हैं। लोकपूरण समुद्घात में सर्वलोक स्पर्श किया है। क्योंकि लोक के चारों ओर व्याप्त वातवलयों में भी केवली भगवान् के आत्मप्रदेश प्रविष्ट हो जाते हैं ।
.३७ सयोगी जीव का क्षेत्र-स्पर्श .०१ मनोयोगी और वचनयोगी का क्षेत्र-स्पर्श
जोगाणुवादेण पंचमणजोगी-पंचवचिजोगी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं?
-षट् खण्ड० २ । ७ । सू ९९ । पु ७ । पृष्ठ० ४११ टोका-सुगम।
लोगस्स असंखेज्जदिभागो।
---षट् खण्ड० २ । ७ । सू १०० । पु ७ । पृष्ठ• ४११ टोका-एसो बट्टमाणणिद्देसो। तेणेत्थ खेत्तवण्णणा कायव्वा ।
अट्ठचोद्दसभागा वा देसूणा।
-षट् खण्ड ० २ । ७ । सू १०१। पु ७ । पृष्ठ० ४११ । २ टोका-एत्थ ताव वासद्दत्थो वुच्चदे-सत्थाणेण अप्पिदजोवेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जविभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अट्ठाइज्जादो असंखेज्ज
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