Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ ॥ ढूंढक हृदय नेत्रांजनं ॥ अथवा ॥ सत्यार्थ चंद्रोदयाऽस्तकं ॥ कर्त्ता || श्री मद्विजयानंद सूरीश्वर (प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी ) लघु शिष्येनाऽमर मुनिना संयोजितं ॥ दुहा शल्योद्वार गुरुनेकिया, अंजनता करें हम । तो क्या ढूंढक हृदय में, अब भी रहेगा भ्रम ? ॥ १ ॥ || छपवा के प्रसिद्ध करनार || खानदेश आमलनेरा निवासी ॥ शा. रतनचंद दगडुसा पटनी ॥ प्रथमवार - प्रति. १५०० ] अमदावाद - श्री " सत्यविजय प्रिंटिंग प्रेसमां. शा. सांकलचंद हरीलाले छाप्यु. संवत्. १९६५ ॥ किमत. रू १ - ४ काचा पुठाकी ।। ॥ किमत. रू १-८ पाका पुठाकी || XXXX For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ इस ग्रंथ छपवानम, प्रथम आश्रय दाता ॥ (खानदेश ) आमलनेरा निवासी,धर्मात्मा सा वधूसा दगडसाकी भार्या पानाबाइ, की तरफसे रूपैया चारसोंका, उत्तम आश्रय मिलनेसें, ते बाईका पोषक सा. रतनचंद, दगडुसाके नामसे छपवा. नेका प्रबंध किया गयाथा । परंतु अनेक कारणके योगसें, दूसरे प्रेसमें पुनः छपानेका प्रबंध करना पड़ा । और आगे ग्रंथका भी विस्तार हो जानेसें, दुपट खरचका बोजा उठाना पड़ा । इसी कारणसें दूसरे भी सद्गृहस्थोंका आश्रय लेनेकी विशेष आवश्यकता हुई। ते सद्गृहस्थोंकी, और गाहकोकी भी, यादि पिछले भागमें हमने दिवाई है । और कितनेक संस्थाके नामकी भी यादि, प्रथमसे छपवाई दीइ है । जिसमें लोकोंको लेनेकी भी सुगमता हो जावें ॥ इत्यलं ॥ ॥ लि. ग्रंथ कर्ता॥ ॥ इस पुस्तकको छपवानेका अधिकार किसीकोभी नहिं हैं । For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M प्रस्तावना. ॥ॐ नमो जिनमूर्तये ॥ ॥ प्रस्तावना॥ || सज्जन पुरुषो ! यह ढूंढनी पार्वतीजीने, 'प्रथए-ज्ञानदीपिका, नामकी पुस्तक प्रगट करवाईथी, परंतु थोडेही दिनोंमें, मु. निराज श्रीवल्लभ विजयकी तरफसें-गप्प दीपिका समीरके, ज. पार्टमें सर्वथा प्रकारसे बजगईथी,और वह कठोर पवनको, हटानेको समर्थ नहीं होतीहुई, इस ढूंढनीजीने, पुनः सत्यर्थ चंद्रोदय जैन. नामका पुस्तकको प्रगट करवाया, परंतु यह विचार न किया किएक तो रात्रिका समय, दूसरा दृष्टि विकारका भारी दोष, तोपिछेएक चंद्रका उदय मात्र हैं सो, वस्तु तत्त्वका बोध-यथावत, किस प्रकारसें करा सकेगा। चंद्रका उदय तो क्या, लेकिन सूर्य नारायणका उदय होनेपरभी, दृष्टि दोषके विकारवाले पुरुषोंको, कुछभी उपकार नहीं हो सकता है। इस वास्ते प्रथम दृष्टि दोष दूर करनेकी ही, आवश्यकता है । जब दृष्टि दोष दूर होजायगा, तब उनके पिछे. सें, क्षयोपशमानुसारसें-चंद्रके उदयमेंभी, और सूर्यके उदयमेंभी-वस्तु तत्वका, यथावत् भान होजायगा । हमारे टूढकमाइयांका जिनप्रतिमाके विषयमें दृष्टि दोष दूर होनके वास्ते, हमनेभी यह अंजनरूपग्रंय, तैयार किया है । कदाच अंजन करती वखत, दृष्टि दोषका कारणसें किंचित्-कर्कशता, मालूम पडेगी, परंतु जो शिरको ठीकाने रखके, अंजन करते रहोंगे तो, दृष्टि दोषका विकार तो न रह सकेगा। और तो क्या लेकिन कोई भूत प्रेतादिककाभी दोष, हुवा होगा सोभी पायें न रह सकेगा ! हमारा अंजनको हमको ऐसी खात्री है। परंतु विपरीत भवितव्यताबालो. For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. को, कदाच हमारा अंजन, फायदाकारक-न हुवा तो, कुछ अंजनका दाष, न गीना जायगा ? ॥ ___जबसे यह गुरु बिनाका पंथ प्रगट हुवा है, तबसे आजतक, इनके कितनेक पल्लव ग्राही ढूंढकोंने, अपना मनःकल्पित मतको ध. कानेके लिये, अन्य मतके, और जैनमतकेभी सर्व शास्त्रोंसें सम्मत, और जिनकी साक्षी यह धरती माताभी हजारों कोशों तकमें, हजारो वर्षोसे, गवाही दे रही है, वैसी श्रीवीतराग देवकी अलोकिक मूर्तिका, और जैन मतके अनेक धुरंधर आचार्य महाराजाओंकाभी, अनादर करके, हमतो गणधर भाषित सूत्रही मानेंगे, वैसा कहकर, मात्र. [३२] वत्रीश ही सूत्रोंको आगे धरके, अपना ढूंढक पंथको धकाये जातेथे,और अपनी सिद्धाइ प्रगट करनेको,सर्व महापुरुषोंकी निंद्याके साथ, अगडंबगडं लिख भी मारतेथे, जैसें प्रथम ढूंढक जेठमलजीने-समकित सार,लिख माराथा,और पिछे किसीने छपवाके प्रसिद्ध करवायाथा, परंतु जब गुरुवर्य श्रीमद्विजयानंद सूरीश्वरजी (प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी) की तरफसें, उनका उत्तर रूप-सम्यक्त्व शल्योडार, प्रगट हुवा, तब उनका उत्तर देनेकी शुद्धि न रहनेसें, थोडेदिन चुपके होके बैठ गयेथे । फिर इस ढूंढनीजीने-ज्ञानदीपिकाका, धतंग खडा किया, उनका भी उ. त्तर हो जानेसें चुचके हो गयेथे, ऐसे वारंवार जूठे जूठ लिखनेको उद्यत होते है। परंतु मूर्ति पूजकोंकी तरफसें, सत्य स्वरूप प्रगट होनेसे, ढूंढकोंको, कोइ भी प्रकारसे उत्तर देनेकी जाग्या न रहनेसे, पुनः इस ढंढनी पार्वतीजीने, मनः कल्पित जूठे जूठ चार निक्षेपका लक्षण लिखके, जो गणधर गूंथित, श्री अनुयोगद्दार नामका महागंभीर, For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. सर्व सूत्रोंका मूल सूत्र है, उनको भी धक्का पुहचानेका इरादा उछाया है । और-स्थापना निक्षेपको, उठानेके लिये, कितनेक मूर्ख ढूंढकोंने, जो जो कुतों किइथी, उनका ही पुन जीवन करके, और वर्तमानमें प्रचलित कुतकोंसें, अपनी थोथी पोथी भरदेके,जैन मतके शत्रुभूत, आर्यसामाजिष्टके, दो चार पंडितोंकी प्रशंशा पत्रिका, किसीभी प्रकारसे डलवायके, अजान वर्गको भ्रमित करनेका उपाय किया है ? _ते पंडितोंकी सम्मति, नीचे मुजब(१) वसता लवपुर मध्ये, छात्रान् शास्त्रं प्रवेशयता । संमतिरत्र सुविहिता, दुर्गादत्तेन सुविलोक्य ॥ १ ॥ पं० दुर्गादत्त शास्त्री० अध्यापक० आः का० लाहौर ॥ (२) मिथ्या तिमिर नाशक मेतत् - उपक्रमोप संहार पूर्वकं, सर्व मयाऽवलोकितम् । इति प्रमाणीकरोति । लाहौर डी० ए० वी० कालेज प्रोफेसर, पंडित राधाप्रसाद शर्मा शास्त्री ॥ (३.) दयानंदने एम लिखाथा, सत्यार्थ प्रकाशे ठीक । मूर्तिपूजाके आरंभक हैं जैनी, या जगमें नीक ॥ पर अवलोकन कर यह पुस्तक, संशय सकल भये अब छीन, तातें धन्यवाद तुहि देवी, तूं पार्वती यथार्थ चीन । ३ । साधारण अबलामें ऐसी, होइ न कब हूं उत्तम बुद्ध । तांते यह अवतार पछीनो, कह शिवनाथ हृदय कर शुद्ध ॥ बार २ हम ईश्वरसे अब,यह मांगे हैं बर करजोर । चिरंजीवि रह पर्वत तनया,रचे ग्रंथ सिद्धांत निचोर ॥४॥ इत्यादि ।। For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. ॥ दोहा. ॥ पंडित योगीनाथ शिव, लिखी सम्मति आप। लवपुर मांहि निवास जिह, शंकरके प्रताप ॥१॥ (४) पार्वती रचितो ग्रंथो, जैनमत प्रदर्शकः। प्रीतयेऽस्तुसतां नित्यं, सत्यार्थ चंद्र सूचकः॥१॥ १४।५।१९.०५ । गोस्वामि रामरंग शास्त्री, मुख्य संस्कृता ध्या Jपक, राजकीय पाठशाला, लाहौर ॥ (५) सत्यार्थ चंद्रोदय जैन-इस पुस्तकमें, यह दिखलाया है कि, मूर्तिपूजा जैन सिद्धांतके विरुद्ध हैं । युक्तियें सबकी समजमें आने वाली हैं । और उत्तम हैं, दृष्टांतोंसें जगह २ समजाया गया है । और फिर जैनधर्मके सूत्रोंसे भी-इस सिद्धांतको पुष्ट किया है। जैनधर्म वालों के लिये यह ग्रंथ अवश्य उपकारी है । लाहौर-राजाराम पंडित० संपादक आर्य ग्रंथावली ।। (६) अंग्रेजीमें-पी० तुलसीराम. बी० ए० लाहौर ।। (७) गुरुमुखी अक्षरोंमें* इनसातों पंडितोंको, न जाने किस कारणसें फसाये होंगे। * कितनेक पंडितोंने तो बडी २ उपमाओ देके, ढूंढनीजीकी, बड़ी ही जूठी प्रशंसा कोई है । सो सत्यार्थ सें, अर्थके साथ विचार लेना ॥ । For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. क्योंकि जैन धर्मका जंडाको लेके फिरने वाली, ढूंढनी पार्वतीजीको ही, जैन धर्मके तत्वोंकी समज नहीं हैं, तो पिछे जैन धर्मके तत्वों की दिशा मात्रसे भी अज्ञ, ते पंडितोंका हम क्या दूषण निकालें? ॥ इसमें तो कोइ एकाद प्रकारकी चालाकी मात्र ही दीखती है । ते सिवाय नतो पंडितोंने किंचित् मात्रका भी विचार किया है । और नतो ढूंढनी पार्वतीजी भी जैन धर्मका तत्वको समजी है । मात्र भव्य प्राणियांको जैन धर्मसे सर्वथा प्रकारसे भ्रष्ट करनेको प्रवृतमान हुई है ॥ . केवल इतना ही मात्र नहीं, परंतु अपनी स्त्री जातिको तुछता कोभी प्रगट करके, जाति स्वभाव भी जगें जगेपर दिखाया है, और परमप्रिय वीतराग देवकी शांत मूर्तिको पथ्थर, पहाड, आदि निंद्य वचन लिखके तीक्ष्ण बाण वर्षाये है ? । और इनक पूजने वाले श्रावकोंको, और उनके उपदेशक, गणधर महाराजादिक सर्व आचार्योंको, अनंत संसारी ही ठहरानका प्रयत्न किया है ? । और अपने आप पर्वत तनयाका स्वरूपको धारण करती हुई, और गणधर गूंथित सिद्धांतको भी तुछपणे मानती हुई, और जूठे जूठ लिखती हुइ भी, जगें जगें पर तीक्ष्ण वचनके ही बाण छोडती हुई चली गई है ? ।। ___परंतु हमने यह जमानाका विचार करके, और स्त्री जातिकी तुछताकी उपेक्षा करके, सर्वथा प्रकारसे प्रिय शब्दोंसेंही लिखनेका विचार किया है, परंतु इस ढूंढनीजीका तीक्ष्ण वचनके आगे, हमारी. बुद्धि ऐसी अटक जातिथीकि, छेवटमें किसी किमी जगेंपर ढूंटनीजीका ही अनुकरण मात्र करादेतीथी, तो भी हमने हमारी तरफसे, नर्म स्वरूपसे ही लिखनेका प्रयत्न किया है.।। For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. परंतु जिसने, ढूंढनीजीका तदन जूधका पुंज, और केवल कपोल कल्पित, और अति तीक्ष्ण, वचनका लेख, नहीं वांचा होगा, उनको हमारा लेख किंचित् तीक्ष्ण स्वरूपसें मालूम होनेका संभव रहता है, इस वास्ते प्रथम ढूंढनीजीने-सत्यार्थ चंद्रोदयमें, जे जूठ, और निंद्य, और कटुक, शब्दो लिखे है, उसमेंसें किंचित् नमुना दाखल लिख दिखाता हूं, जिससे पाठक गणका ध्यान रहै ॥ और विचार करणेमें मसगुल बने रहें । ॥ देखो ढूंढनी पार्वतीजीकी चतुराइपणेका लेख ।। (१) प्रस्तावनाका दृष्ट. १ लेमें-ढंढक सिवाय, सर्व पूर्वाचार्योको, सावधाचार्य ठहरायके, हिंसा धर्मके ही कथन करनेवाले ठरहाये है।।१॥ विचार करोकि, जैन मार्गमें जो पूर्वधर आचार्यों हो गये है, सो क्या हिंसामें धर्म कह गये है ? अहो क्या ढूंढनीके लेखमें सत्यता है ? ॥ और मंदिर, मूर्तिका, लेख है सो तो, गणधर गूंथित सूत्रोंमें ही है ? । तो क्या यह ढूंढनी गणधर महाराजाओंकों, हिंसा धर्मी ठहराती है ? ॥ (२) आगे एट. २१ में-चार निक्षेपका स्वरूपको समजे विना, ढूंढनीजी तो बन बैठी पंडितानी, और सर्व पूर्वाचायोंको कहती है कि हठवादीयोंकी मंडलीमें, तत्वका विचार कहां । इत्यादि ॥२॥ . पूर्वाचार्योंकी महा गंभीर बुद्धिको पुहचना तुमहम सर्वको महा कठीन है, परंतु हमारा किंचित् मात्रका लेखसे ही, विचार करना कि ढूंढनीजीको, निक्षेरके विषयका, कितना ज्ञान है, सो पाठक गणको मालूम हो जायगा ॥ For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीके-कितने क, अपूर्ववाक्य. (९) (३) पृष्ट. ३६ में-चीतराग देवकी, अलोकिक शांत मूर्ति को, जैनके मूल सिद्धांतोंमें, वर्णन करके वंदना, नमस्कार, कसनेवाले, गणधर महाराजा, सो तो सर्व भव्यात्माको मत [ मदिरा] पीलानेवाले। और वंदना, नमस्कार, करनेवालेको मूर्ख ठहराये । और अ. पना थोथा पोथामें जगें जगेंपर जूठे जूठ लिखनेवाली, और अ. भीतक ढूंढनेवाली ढूंढ नीजी, सो तो बन बैठी पंडितानी ? ।। ३ ।। [४] दृष्ट. ४३ में-वीतरागकी शांतमूर्तिको, वंदनादिक, करनेवाले, बाल अज्ञानी ॥ ४ ॥ ढूंढनीजीने, वीतरागकी मूत्तिके वैरीको तो, बनादिये ज्ञानी, क्या ! अपूर्व चातुरी प्रगट किई है ? ॥ [५] दृष्ट. ५२ में-सिद्धांतके अक्षरोंकी स्थापनासें ज्ञान नहीं होता है, ऐसा जूठा आक्षेप करके भी, कहती है कि तुम्हारी मति तो 'मिथ्यात्वने ' बिगाड रख्खी है, इत्यादि ॥ ५ ॥ ॥ इसका निर्णय, हमारा लेखसें, मालूम हो जायगा ।। [६] पृष्ट. ५७ में-बालककी लाठीकीतरां,अज्ञानीने, पाषा: णादिकका-बिंब, बनाके, भगवान् कल्प रख्खा है ॥ इत्यादि ।।६।। ॥ इस लेखमें, गणधरादिक सर्व जैनधर्मीयोंको, अज्ञानी ठहरायके, अबीतकभी ढूंढकरनेवाली ढूंढनी ही ज्ञानिनी बन बैठी है ? ॥ [७] पृष्ट. ६३ में-मूर्तिपूजक, कभी ज्ञानी न होंगे इत्यादि ढूंढनीजीने लिखा है ।। ७ ।।। [८] दृष्ट. ६४ में-मूर्तिपूजना, गुडीयांका खेल ॥इत्यादि । For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. ॥ ढूंढकों, जो कुछ क्रिया करके दिखलाते है, सोभी तो गुstrict ही खेल हो जागया क्योंकि ढूंढक लोको भावको ही मुख्य पणे बतलाते है, तो पिछे दूसरी क्रियाओ करके, बतलाने की भी क्या जरुरी है ? | [९] पृष्ट. ६७ में - पथ्थरकी मर्त्ति घरके, श्रुति भी लगानी नहीं चाहीये ॥ इत्यादि ॥ ९ ॥ वीतरागी भव्य मूर्ति, ध्यानका मुख्य आलंबन है, परंतु ढंनीजीको, कितना द्वेषप्रज्वलित हुवा है ? || [१०] पृष्ट. ६८ में - मूर्तिपूजक तो, सर्व सावद्याचार्यके, धोमें आये हुये है । इत्यादि ।। १० ।। || गुरु विनाका तत्व विमुख लोकाशा वणीयेका, मनः कल्पित मार्गको पकडके चलनेवाले, सो तो, घोषेमें आये हुये नहीं ? वाहरे ढूंढनीजी वाह ? ॥ [११] . ६९ में - जिन मूर्त्तिका सूत्र पाठोंको, जूठा उहरानेके लिये, पूर्वके महान् महान् सर्व आचायोंको, कथाकार कहकर, पौडे लिखनेवाले ठहराय दिये है ।। इत्यादि ॥। ११ ॥ || इस ढूंढनीने आचार्यों का नाम देके, सूत्रकार गणधर महाराजाओं को ही, गपौडे लिखनेवाले ठहराये है ? और स्वार्थी दो चार पंडितों की पाससें, स्तुति करवायके ढूंढनीजी अपने आप साक्षात् ईश्वरकी पार्वतीका स्वरूपको धारण करके, और जैन सिद्धांतों से तदन विपरीतपणे लेखको लिखके, ढूंढोका, उद्धार करनेका, मनमें कल्पना कर बैठी है ? क्या अपूर्व न्याय दिखाया है ? ।। - (१२) टट. ७१ में ढूंढनीजी शाश्वती जिन प्रतिमाओं For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूँढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. (११) का होना मूल सूत्रोंसेही लिख दिखाती है, और लिखती हैकिपाषाणो पासक-चेइय, शब्दसें. मंदिर, मूर्तिको, ठहरायके, अर्थका अनर्थ करते है. ॥ ऐसा लिखके-फिर दृष्ट. ७७ में-उवाई सूत्रका पाठसें-चेइय, शब्दसें, मंदिर मूर्तिका अर्थ भी करनेको, तैयार हुई है ? ॥ और दृष्ट. १४३ में-स्वामके पाठसें-चेइयं ठयावेइ दव हारिणो मुनी भविस्सइ, लिखके मंदिर, मूर्तिका, अर्थको भी दिखलाती है । और एष्ट. ८६ में-ढूंढनीजी लिखती हैकि-मूर्तिका नामचेइय, कहि नहीं लिखा है ।। __ऐसा लिखके-पृष्ट. १०० में-लिखती है कि-चेइय,शब्दका अर्थ, प्रतिमा पूर्वाचार्योने, पक्षपातसें लिखा है ।। • ऐसा कह कर पृष्ट. ११४ में-सम्यक्त्व शल्योद्वारका, चैत्य शब्दसें प्रतिमाका अर्थको, निंदती है ॥ और पृष्ट. ११८ में चेइय, शब्दसें,-प्रतिमाका, अर्थ करने वालेको, हठनादी ठहराती है ॥ १२ ॥ कैसी ढूंढनीजीके लेखमें चातुरी आई है ? ॥ (१३) दृष्ट. १२९ में-ढूंढनीजी लिखती हैकि, सावयाचा. याँने, माल खानेको, निशीथ भाष्यादिकमें, मनमाने गपौडे, लिख धरे है । इत्यादि ॥ १३ ॥ __ढूंढनीजीने, एक सामान्य मात्र-चार निक्षेपका स्वरूपको For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. समजे विना-त्रण निक्षेप, निरर्थक, और उपयोग विनाके, लिख मारा । तो पिछे गुरुज्ञान विनाकी ढूंढनजीको, निशीथ भाष्यका पत्ता नही लगनेसें, गपौडे कहैं, उसमें क्या आश्चर्य ? || (१४) पृष्ट. ११३ में ढूंढनीजी लिखती है कि-मंदिर, मूर्ति, मानने वाले आचार्योंने, सत्य दया धर्मका नाश कर दिया है । इत्यादि || १४ || पाठकवर्ग ! अलोकिक शांत मुद्रामय वीतराग भगवान्की भव्य मूर्त्तिका दर्शन होनेसें, ढूंढनीजीका क्या सत्यानाश हो जाता है ? जो जूठा रुदन करती है ? ॥ ( १२ ) पाठकवर्ग, चउद पूर्वके पाठक, श्रुत केवली, गिने जाते है । ऐसें जो भद्रबाहु स्वामीजी है, उनकी रची हुई - निर्युक्तियां, सोतो अनघडित गपोडे, ढूंढनीजी कहती है ? || १५ ॥ समजनेका यह हैकि, नियुक्तियां क्या वस्तु है, सोतो ढूंढनीजीको दर्शन मात्र भी हुये नहीं होंगे, परंतु अपनी जूठी पंडितानी पणाके छाकमें, चकचूर बनी हुई, चउदां पूर्वके पाठकोंभी, कुछ लेखामें ही, गीनती नही है ! | अहो हमारे ढूंढकोंमें, मूढताकी बताने क्या. जोर कर रख्या है ? | (१६) पृष्ट. १३३ में- पीतांबरी दंभ धारीने, जडमें, परमेश्वर बुद्धि कर रखी है । इत्यादि ।। १६ ।। पाठकवर्ग ! - इस ढूंढनीजीने- पृष्ट. १५४ में - ऐसा लिखाथा कि- महावीर स्वामीजीके पहिले भी - मूर्त्ति, होगी तो उसमें क्या आश्चर्य है ॥ और पृष्ठ. १५८ में - लिखती हैकि, यह संवेग पीतांबर, ( हाथ ) अनुमान अढाई सौ वर्ष निकला है || For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. ( १३ ) अ तो पिछे पीतांबरीयोंने, मूर्त्तिमें परमेश्वरकी कल्पना किई है, यह कैसें सिद्ध करके दिखलाती है । क्योंकि मंदिर, मूर्त्तियतो, हजारो वर्ष के बने हुये है | और चारोवर्ण ( जाति) के लोक, पना अपना उपादेयकी - मूर्त्तियों को, मान दे रहे है, तो क्या ढूँढ़नीजीको, एक पीतवस्त्र वालेही दिखलाई दिये ? " ( १७ ) टष्ट, १३९ में – सूत्रका - अर्थ है, सोभी ढूंढनी | और- नियुक्तियां है, सोभी ढूंढनीही है । और सूत्रोंकी - भाष्य, है सोभी ढूंढनीजी | अपने आप बनी जाती हुई, कहती है कि-तुम्हारे मदोन्मत्तों की तरह, मिथ्याभिके, सिद्ध करने के लिये, उलटे कल्पित अर्थ रूप, गोले गरडाने के लिये, निर्युक्ति नामसें, बडेबडे पोथे, बनाररूखे है, क्या उन्हे धरके हम बांचे ? । इत्यादि ।। ११ ।। पाठकगण ! चतुर्दश पूर्व घर, किजो श्रुत केवली भद्र बाहु स्वामीजी हैं उनकी रची हुई, नियंत्रित अर्थ वाली, निर्युक्तियां, सो तो कल्पित अर्थके गोले, ॥ और अगडं बगडं लिख के, मूढों में पंडितानी बनने वाली, आजकलकी जन्मी हुई, जो ढूंढनीजी हैं, उनके वचन, सो तो यथार्थ - नियुक्तियां और यथार्थ - भाष्य अहो क्या अपूर्व चातुरी, मूढों के आगे प्रगट करके दिखलाती है ? ॥ (१८) पृष्ट. १४४ में - लिखती है कि मूर्तिपूजा के, उपदेशको, कुमार्ग में गेरनेवाले है ॥ १८ ॥ सूत्रार्थके अंत में, यह अर्थ, जो ढूंढनीजीने लिखा है सो, केवल मनः कल्पित, जूठ पणे लिखा है ।। (१८ ) . ११९ में - लिखती है कि मूर्ति पूजा, मिथ्याव, और, अनंत संसारका हेतु ॥ १९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. गुरु परंपराका ज्ञानसें रहित, हमारे ढूंढकों, सूत्रका परमार्थको समजे विना, जो मनेमें आता है सोही लिख मारते है । देखोकि, प्रथम पृ. ७३ में - इस ढूंढनीने, पूर्णभद्र, यक्षादिकों की, पथ्थरकी, मूर्तियांकी पूजासें, धन, दौलत, पुत्रादिक प्राप्त होते है, ऐसा लिखके, सब ढूंढकोंको, लालच में डाले || और टष्ट. १२६ में- “कयबलिकम्मा" के पाठार्थ में - नित्य ( दररोज ) कर्त्तव्य के लिये - वीर भगवान के भक्त श्रावकोंको, पितर, दादेयां, वावे, भूत, यक्षादिककी मूर्त्तिके पूजनेवाले बताये है । तो अब विचार करने का यह है कि वीतराग देवकी मूर्त्तिको पूजे तो मिध्यात्व, और अनंत संसारका हेतु, और पूजाका उपदेशक, कुमार्गमें गेरने वाले, ढूंढनीजीने लिख मारा। और भूतादिक, मिथ्यात्वी देवोंकी मूर्त्ति पूजा, दररोज श्रावकों की पास करवानेका, ढूंढनीजी तो उपदेशको देने वाली, और इनके भोंदू ढूंढको, भूतार्दिक मिथ्यात्वी देवकी मूर्त्तिको, दररोज पूजने वाले, कौनसें खडडे में, और कितने काल तक रहेंगे, उनका प्रमाणभी तो, ढूँढनीजीने लिखके ही दिखाना चाहता था ? | पाठक गण जो तदन मूढताको प्राप्त होके जूठे जूठ लिखनेवाले है उनको हम क्या कहेंगे ? || केवल जूठ ही लिखने से, संतोषताको प्राप्त नहीं हुई है, परंतु आज तक शुधी जितने पूर्व धरादिक, महान् महान् आचार्यो हो गये है, उनका सर्वथा प्रकार वारंवार तिरस्कार करनेको, जगे जगें पर राक्षसी कलम चलाई है || क्योंकि इस ढूंढनीजीने - जैन धर्मके नियमका, एक पुस्तक, भिन्नपणेभी छपवा के उसका पृष्ट. १३ से इनका सत्यार्थ चंद्रोदयकी जाहीरात भी छपवाई है। उसका पृष्ट. १४ से लिखती है कि... इस पुस्तक में प्राचीन जैनधर्म दृढिये मतका सूत्रद्वारा मंडनही नहीं For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. (१५) किया, वरंच सूत्रप्रमाण, कथा, उदाहरण, तथा युक्ति, आदिसें हस्तामलक करानेमें कुछ भी बाकी नहीं छोडी । वरंच द्रव्यनिक्षेप, भाव निक्षेप, मूर्तिपूजन निषेध, चेइय शब्द वर्णन, शास्रोक्त वर्णनके अतिरिक्त प्रश्नोत्तरकी रीति ।। ___और पीतांबर धारियोंके-नवीन मार्गका मूलसूत्रों, माननीय जैन ऋषियोंके मंतव्यों, प्रबल युक्तियों में खंडन किया है । और युक्तियें भी ऐसी प्रवल दी हैकि--जिनको जैन धर्मारूढ-नवीन मतावलंबियोंके सिवाय, अन्य संप्रदायिकभी, खंडन नहीं कर सकते । वरंच बडे २ विद्वानोंनेभी श्लाघा ( प्रसंसा ) की है । इस पुस्तकमें विशेष करके श्री आत्माराम आनंदविजय संवेगीकृत, जैनमार्ग प्रदर्शक-नवीन कोल कल्पित ग्रंथोंको, पूर्ण अंदोलना की है ॥ इत्यादि ॥ पाठकवर्ग ? इस ढूंढनीजीका-जूठा गर्विष्ठपणेक। लेखमें,जैन धर्मके नियमानुसार एकभी बात हैया नहीं ? सो हमारा लेखकी साथ एकैक वातका पुक्तपणे विचार करते चले जाना ॥ हमारे ढूंढकभाइयों १ प्राचीन है या-अर्वाचीन ? यह भी वि. चार करते चले जाना । ढूंढनीजीका लेख-२ सूत्रों द्वारा है कि-केवल कपोल कल्पित ? __यह भी दूमरा विचार करना । और ३ युक्तिवाला है किकेवल कुयुक्तिवाला ? सोभी विचार करना । और ४ द्रव्य नि. क्षेप, ५ भाव निक्षेप, ६ मूर्तिपूजन निषेध, ७ चेइय शब्दका वर्णन शास्त्रोक्त है कि केवल ढूंढ कोका कपोल कल्पित है ? इस बातोंका भी पुक्तपणे विचार करते चले जाना । फिर भी ढूंढनीजी लिखती है कि-पीतांबरधारियोंके-नवीन मार्गका, ८ For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६) ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. मूल सूत्रों, और माननीय जैन ऋषियोंके-९ मंतव्योंका, प्रबल यु. क्तिसे खंडन किया है। ___ इस लेख में भी विचार करनेका यह है कि हमारे ढूंढक भा. इयों-वीतराग धर्मके अवलंबन करनेवाले है कि, जैन धर्मको एक कलंक रूपके है ? क्योंकि-जैनके तत्त्वरूप-सूत्रोंका, और प्राचीन माननीय जैन धर्मके, महान् महान् ऋषियोंका-मंतव्योंका भी, खंडन करनेको उद्यत हुये है ? तो अब हमारे ढूंढकोंको-किस मतमें गीनेंगे। फिर भी लिखती है कि-प्रबल युक्तियोंसें खंडन किया है। इस वातमें हम इतना ही कहते है कि गुरुविनाकी ढूंढनीजीमें प्रथम जैन तत्त्वोंको समजनेके ही ताकात नहीं है, तो पीछे जैन धर्मकेसूत्रोंको और जैन धर्म के महान महान ऋषियोंके-मंतव्योंको,खंडन ही क्या करनेवाली है। फिर लिखती है कि-युक्ति भी ऐसी प्रबल दी है कि-जैन धर्मारूढ तो खंडन नहीं कर सकते है, परंतु अन्य संप्रदायिक भी खंडन नहीं कर सकतें । हे ढूंढनीजी ! थोडासा तो ख्यालकर किसमाकित सारमें-जेठमलजी ढूंढकने किइ हुइ-जूठी कुनों, कितने दिन चलीथी ?। और गप्प दीपिका-तेरी ही किइ हुइ-जूठी कुतर्कों भी, कितने दिन तक चलीथी ? तो अब तेरा सत्यार्थकी-जूठी कुतर्को भी कितने दिन चलेगी? किस बातपर जूठा गुमान कर रही है ? सत्यके आगे जूठ कहांतक टीक रहेगा ? । ढूंढनीजी लिखती है कि-बडे बडे विद्वानोंने भी श्लाघा (प्रसंसा ) की है। For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. (१७) हे ढूंढनीजी ? इसमें भी ख्याल करना कि-जब तूंने जैनधमके तत्वोंसें-विपरीत लेखको लिखा, तब ही जैनधर्मसें विरोध रखनेवाले-ते पंडितोंने, तेरी प्रसंसा कीई ? इस बातसें तूंने क्या जंडा लगाया ? । पाठकगण ! इस जाहीरातमें-ढूंढनीजीने-प्रथम यह लिखा है कि-सूत्रप्रमाण, कथा, उदाहरण, युक्ति आदिसे, हस्तामलक करानेमें कुछ भी बाकी नहीं छोडी । ___ इसमें इतनाही विचार आता है कि-आजतक जो जो जैन धर्मके-धुरंधर महापुरुषों हो गये सो तो-सूत्रादिक प्रमाणोंसें हस्तामलक करानेमें सब कुछ बाकी ही छोड गये है। केवल--साक्षात्पणे पर्वत तनयाका स्वरूपको धारण करके इस ढूंढनीजीने ही-कुछ भी बाकी नहीं छोडा है ? । हमको तो यही आश्चर्य होता है कि, इस ढूंढनीजीको-जूठा गर्वने, कितनी बे भान बनादी है ? । ____ क्योंकि ढूंढनीजीने-जैनधर्मके तत्त्वकी व्यवस्थाका नियमानुसार-एक भी बात, नहीं लिखी है । तो भी गर्व कितना किया है ? सो हमारा लेखकी साथ विचार करनेसें-पाठक वर्गको भी मालूम हो जायगा। और हम भी उस विषयके तरफ वखतो वखत पाठक वर्गका किंचित् मात्र ध्यान खेचेंगे। और ढंढनीजीकी कुयुक्तियांको, तोड. नेके सिवाय, नतो अशुद्धियांकी तरफ लक्ष दिया है । और नतो पाठाडंबर करके-वांचनेवालेको कंटाला उत्पन्न करनेका विचार किया है । केवल श्री अनुयोग द्वार सूत्रके वचनानुसार-चार निक्षेपका, यत् किंचित् स्वरूपको ही-समजानेका विचार किया है । सो विचार करनेवाले-भव्य पुरुषोंको, हमारा यही कहना है किआजकालके नवीन पंथीयोंके विपरीत वचनपर आग्रह नहीं करके, For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) || प्रस्तावनाकी समाप्ति ॥ केवल गणधरादि महापुरुषों के ही - वचनोंका आश्रय अंगीकार करना ? यद्यपि ढूंढक पंथमें - बहुतेक साधु, और श्रावक, बडे २ बुद्धिमान भी हुये होंगे, और वर्त्तमान कालमें भी होंगे । परंतु गुरु परंपराका ज्ञानके अभाव सें, आजतक नतो कोइ निक्षेपोंकी दिशा मात्रको समजा है | और नतो कोई नयोंकी दिशा मात्रका भी 1 विचार कर सक्या है । केवल दया दया मात्रका जूठा पोकार करते हुये, और जैन धर्मके सर्व मुख्य ३ तत्वोंको विपरीतपणे ग्र हण करते हुये, वीतराग देवकी परम भव्य मूर्तियांको, और जैन धर्मके धुरंधर सर्व महा पुरुषोंको, निंदते हुये । गुरुद्रोहीपणे का महा प्रायश्चित्तकोही उठाते रहे है । उनोंकी दयाकी खातर, और भव्य जीवोंके उपकारकी खातर हमने दो ग्रंथ बनानेका परिश्रम उठाया है सो - सत्यार्थ चंद्रोदय - और सत्यार्थ सागर - और धर्मना दरवाजा || आदि ढूंढक ग्रंथोंमें लिखे हुये - चार निक्षेप, और-सात नयादिक, विचारके साथ, हमारा लेखको मिलाके देख लेना । और भव भव में आत्माका घातक, दुराग्रहको छोड करके, योग्य बातपर लक्ष लेना ॥ इति अलमधिक प्रपंचेन ॥ 9 सूचना - पाठकगण ! हमारी मूलभाषा गुजराती है परंतु पंजाबी लोकोंकी असा प्रेरणासें, और हिंदी भाषाके लेखका उत्तर होनेसें, हमको भी हिंदी भाषा में ही लिखना पडा है, सो किसी स्थानमें यत् किंचित् भाषा दोष हुवा हो तो क्षमा करके, मात्र तही लक्षको करना । और छापावालेकी गफलत हुई हो तो उनको भी समालके वाचना || लि. मुनि अमरविजय, सं. १९६६ कार्त्तिक मास १९ For Personal & Private Use Only पुना । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) नेत्रांजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका. अनुक्रमणिका. विषय पृष्टः १ पूर्वाचार्योकृत तीर्थकरोंकी महा मंगलिक, भव्य मूर्तिकी स्तुतिरूप, मंगलाचरणके २ काव्यार्थ- १ २ ढूंढनीजीका-ग्रंथ, शास्त्ररूप-नहीं है, किंतु भव्यजनोंको शस्त्ररूपही है, इति ग्रंथ करनेका-प्रयोजन स्वरूप, काव्यार्थ३ वस्तुमें तीन प्रकारसें-(१) नामका निक्षेप, करनेरूप, पूर्वाचार्यकृत-लक्षण ज्ञापक आर्या, उनका अर्थ, और उनके तात्पर्यका स्वरूप४ पूर्वाचार्यकृत (२) स्थापना निक्षेप-लक्षण ज्ञापक आर्या, उनका अर्थ, और उनके तात्पर्यका स्वरूप५ पूर्वाचार्यकृत (३) द्रव्य निक्षेप लक्षण ज्ञापक आर्या, ' उनका अर्थ, और उनका तात्पर्यका स्वरूप- ५ ६ पूर्वाचार्यकृत (४) भाव निक्षेप लक्षण ज्ञापक आर्या, उनका अर्थ, और उनका तात्पर्यका स्वरूप- ६ ७ सामान्यपणे-सर्व वस्तुका चार निक्षेपमें, सूचनारूपे-सि द्धांतकी मूल गाथा, उनका अर्थ, और ढूंढनीजीकी समजमें-फरकका विचार सहित स्वरूप- ११ ८ ग्रंथ कर्ताकी तरफसें-प्रगट अर्थ स्वरूप, चार निक्षेपका लक्षणके--चार दुहे, अर्थ सहित • १४ ९ आवश्यक (१) नाम निक्षेप सूत्र पाठ, उनका अर्थ, और उनके तात्पर्यका स्वरूप-- For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) नेत्रांजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका. १० आवश्यक (२) स्थापना निक्षेप सूत्रपाठ, उनका अर्थ, और उनके तात्पर्यका स्वरूप १८ ११ आवश्यक (३) द्रव्य निक्षेप सूत्रपाठ, उनका अर्थ, और उनके तात्पर्य का स्वरूप १२ आवश्यक (४) भाव निक्षेप सूत्रपाठ, उनका अर्थ, और उनके तात्पर्यका स्वरूप २४ १३ ढूंढनीजीके - मनः कल्पित, चार निक्षेपका लक्षण१४ आवश्यक ( १ ) नाम निक्षेप सूत्रपाठ, अर्थ सहित, इंदनीजीके तरफका - ११ आवश्यक (२) स्थापना निक्षेप सूत्रपाठ, अर्थ सहित, ढूंढनीजी के तरफका - १७ आवश्यक (४) भाव निक्षेप, मूलविनाका त्रुटक स्वरूप अर्थ पाठ, ढूंढेनोजाका १६ आवश्यक (३) द्रव्य निक्षेप सूत्र पाठ, उनका अर्थ, नयोंका विचार सहित, ढूंढनीजीका - २९ २० पूर्वोक्तकी रीति प्रमाणे- दोनों पाठोंका मेलसें, (३) द्रव्यनिक्षेप में, विपरतिपणेकी, समीक्षा २६ २७ For Personal & Private Use Only २८ १८ सूत्रपाठ, और ढूंढनीजीका कल्पित लक्षण, इन दोनोंका मेलसे, (१) नाम निक्षेपमें, विपरीतपणेकी, समीक्षा - ११ १९ नाम निक्षेपकी तरां - दोनों पाठोंका मेलसे, (२) स्थापना निक्षेपमें विपरीतपणे की, समक्षा ३० ३३ ३४ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्रांजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका. (२१) २१ पूर्वोक्त रीति प्रमाणे-दोनों पाठोंका मेलसें, (४) भाव निक्षेपमें-विपरीतपणेकी, समीक्षा२२ (१) नाम निक्षेपमें, विशेष समीक्षा२३ (२) स्थापना निक्षेपमें, विशेष समीक्षा२४ [३] द्रव्य निक्षेपमें, विशेष समीक्षा२५ (४) भाव निक्षेपमें, विशेष सभीक्षा२६ सूत्रमें-निक्षेप चार, ढूंढनीजीका-विकल्प आठ । उन की समीक्षा२७ (१) नाम निक्षेपमें-ढूंढनीजीकी, कुतर्कका विचार२८ (२) स्थापना निक्षेपमें-ढूंढनीजीकी, कुतर्कका विचार- ४३ २९ (३) द्रव्य निक्षेपमें-ढूंढनीजीकी, कुतर्कका विचार- ४५ ३० (४) भाव निक्षेपमें-ढूंढनीजीकी, कुतर्कका विचार- ४५ ॥ इति ढूंढनीजीके कल्पित आठ विकल्पकी सामान्यपणे समीक्षा ।। ३१ तीर्थकरमें-ऋषभदेव नाम । और पुरुष, स्थंभादिकमें । ऋषभदेव, नाम निक्षेप ।। इस प्रकारसे ढूंढनीजीकी जूठी कल्पनाकी, समीक्षा३२ ऋषभदेवके-शरीरमें, स्थापना । और मूर्ति-ऋषभदेव भगवानका, स्थापना निक्षेप ॥ इस प्रकारसे ढूंढनीजीकी जूठी कल्पनाकी, समीक्षा ४८ ३३ ऋषभदेव भगवानकी, पूर्व अवस्थामें-द्रव्य । और उन की, अपर अवस्थामें-द्रव्य निक्षेप ।। इस प्रकारसे ढूंढनीजीकी जूठी कल्पनाकी, समीक्षा- ४८ ३४ तीर्थकर भगवानका-जीव, सोता-आव । और शरीरयुक्त For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) नेत्रांजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका. तीर्थकर भगवानमें-भाव निक्षेप ॥ इस प्रकारसे ढूंढनी जीकी जूठी कल्पनाकी, समीक्षा३५ वस्तुका-नाम सो, नाम निक्षेप नहीं, ऐसा ढूंढक जेठम लजीका-भ्रमितपणासे, ढंढनीजीकोभी भ्रमितपणा हुवा, उनकी समक्षिा३६ भगवान्में भगवानका नाम निक्षेप । परंतु भगवान्में, भगवान्का-स्थापना निक्षेप, कैसा ? इस प्रकारसे ढूंढनी जीका, भ्रमितपणेकी समीक्षा३७ आत्मारामजी, बूटेरायजी, संस्कृतपढे हुये नहींथे, सो . मिथ्यावादी कहती है । उनकी समीक्षा- ५२ ३८ एक स्थापना निक्षेपका, स्वरूपकी मूर्तिमें, ढूंढनीजी ह. मारी पास-चार निक्षेप,मनानको तत्पर होती है । उनकी समीक्षा. ३९ एक वस्तुमें-चार निक्षेप करनेका,ढूंढनीजीने कहा । परंतु देवताका मालिक रूप वस्तुमें-इंद्र नामका, निक्षेप किये बिना, गूजरके पुत्रमें करके दिखाया। और-इंद्रमें, तीन निक्षेपही रहने दिया। उनकी समीक्षा- ५५ ४० इक्षु रसका सार-मिशरी नामकी वस्तुमें, ढूंढनीजीने एक स्थापना निक्षेपही, घटाके दिखाया, परंतु तीन निक्षेपको नहीं । उनकी समीक्षा४१ तीर्थकरमें ढूंढनीजीने--अढाइ निक्षेप, करके दिखाया । दोढ निक्षेपको नहीं । उनकी समीक्षा४२ ठाणांग सूत्रका-मूल पाठसें, चारो निक्षेपको सत्यता हमेरा तरफसे १ हेय, २ ज्ञेय, ३ और उपादेयके स्वरूपसे, दिखाई है For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्रांजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका. (२३) ४३ निक्षेप चार, ढूंढनीजीका-विकल्प आठ, उसमें शंका का समाधान॥ इति चार निक्षेपके विषयमें, ढूंढनीजीका ज्ञान ॥ ४४ (१) इंद्रमें, (२) गूजरके पुत्रमें, (३) खानेकी मिशरीमें, (४) मिशरी नामकी कन्यामें, (५) मिट्टीका कूजामें, इस पांच प्रकारकी वस्तुमें सिद्धांतका वचनके अनुसारसें, चार २ निक्षेप, भिन्न २ पणे करके दिखाया है- ५९ ४५ ऋषभदेव भगवानके, और ऋषभदेव नामका पुरुषके चार चार निक्षेप, भिन्नरपणे, करके दिखाया है- ६१ ४६ केवल मूर्ति स्वरूपकी वस्तु के-चार निक्षेप, सिद्धांतानुसा रसे, करके दिखलाये है४७ ढूंढनीजीको, केवल स्थापना स्वरूपकी मूर्ति ही, वस्तुका चार चार निक्षेपकी, भ्रांति हुईथी । उनका समाधान- ६२ १८ ढूंढ नीजीका (१) नाम । और (२) नाम निक्षेपकी । सि. द्धांतके पाठका मेलसें, पुनः समीक्षा४२ ढूंढ नीजीकी (३) स्थापना । और (४) स्थापना निक्षे. पकी । सिद्धांतक-पाठका मेलसें, पुनः समीक्षा- ६५ ५० ढूंढनीजीका (५) द्रव्य । (६) द्रव्य निक्षेपकी । सिद्धांतके पाठका मेलसे, पुनः समीक्षा५१ ढूंढनीजीका (७) भाव । (८) भाव निक्षेपकी । सिद्धांतका मेलसे, पुनः समीक्षा५२ ढुंढनीजीके आठ विकल्पका तात्पर्य५३ स्त्रीकी मूर्तिसें—काम जागे । भगवानकी मूर्तिी-वैरा ग्य नहीं । उनकी समीक्षा ७० For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) नेत्रांजन प्रथम भाग अनुक्रमाणिका. ५४ मूर्तिसे-ज्यादा समज, होती है । परंतु वंदना करनेके योग्य नहीं । उनकी समीक्षा५५ पशुको मूर्तिका ज्ञान, होता है । उनको समीक्षा- ७३ ५६ बाप बावेकी-मूर्तियांको, कौन पूजता है ? इस वास्ते-भ गवानकी मूर्तिभी, पूजनिक नहीं । उनकी समीक्षा- . ७४ १७ मल्लदिन कुमारने, स्त्रीकी मूर्तिको देखके-लज्जा पाई, और अदबभी उठाया, परंतु हरएकने नहीं । उनकी समीक्षा . ७५ ५८ वत्र करण राजाने. अंगूठीमें-जिन मूर्तिको रखके, दर्शन . किया । सोभी करनेके योग्य नहीं । उनकी समीक्षा- ७६ ५९ मूर्तिके आगे-मुकद्दमा, नहीं पेश होसकता है। उनकी सपीक्षा ७७ ६० मित्रकी मूर्तिसें-प्रेम, जागे । भगवानकी मूर्तिसें-प्रेम, . न जागे । उनकी समीक्षा ७८ ६१ भगवान्की-मूर्तिसें, कोई खुश हो जाय तो हो जाय ।। नमस्कार कौन विद्वान करेगा ?। उनकी समीक्षा- ७८ ६२ मूर्ति मानते है, पूजन नहीं मानते है । उनके पर-शासु वहुका, दृष्टांत । उनकी समीक्षा६३ भगवानका-नामभी, तुम्हारीसी समजकी तरह नहीं। उनकी समीक्षा६४ जीवर नामका-महावीरके, पेरोंमें पडना । उनकी समीक्षा६५ भेषधारी, और मूर्तिका विवादकी, समीक्षा- ८३ ६६ पार्श्वनाथके-नामसें, गालो दे उनकेपर द्वेष । उनकी मू. र्तिको-आप गालो दे । उनकी समीक्षा नमर For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्रांजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका. (२५) ६७ अक्षरोंको-देखके, और मर्तिको-देखके, ज्ञान होना-कि स भूलसें कहते हो ? । उनकी समीक्षा६८ बालक का-लाठीके घोडेकी, समीक्षा६९ खांडके-हाथी घोडे, खानेसें पाप । मिट्टीकी गौ-तोडनेसें पाप । और वीतराग देवकी मूर्तिकी-निंद्याफरनेसे लाभ। उनकी समीक्षा७० लोहेमें-सोनेका भाव, करलेनेकी । समीक्षा- ८८ ७१ ढूंढनीजीने-पंडितोंसे सुनी हुई, मूर्ति पूजा । और शा. स्त्रोंमें देखी हुई, मूर्तिपूजा । उनकी समीक्षा- ८८ ७२ नमो सिद्धाणके पाठसे सिद्धोंको । और नमोथ्थुणंके पा ठसें, तीर्थकर, और तीर्थकर पदवी पाके मोक्ष गये उ नको-नमस्कार, करनेकी समीक्षा७३ मूर्तिको धरके-श्रुति, नहीं लगाना । उनकी समीक्षा- ९१ ७४ सूत्रोंमें-मूर्ति पूजा, कहीं नहीं लिखी है, लिखी है तोहमेंभी दिखाओ । उनकी समीक्षा- ९२ ७५ देवलोकमें-जिन प्रतिमाओंका पूजन, कूलरूढि । उनकी समीक्षा७६ नमोध्युणं के पाठसे, देवताओने, जिन प्रतिमाओंको-न मस्कार किया, सो तो ढूंढनीजीका परंपराके व्यवहासें । उनकी समीक्षा७७ पूर्णभद्र यक्षादिकोंकी-मूर्तियांकी पूजासे, ढूंढनीजी-धन पुत्रादिककी, प्राप्ति करा देती है । उनकी समीक्षा- ९९ ७८ गणधरोंके लेखमेंभी, सैकडो पृष्ठोंकी-निरर्थकता। उनकी समीक्षा ९५ १०२ For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६ ) नेत्रांजन प्रथम भाग अनुक्रमाणका. ७९ बहवे अरिहंत चेइयमें पाठांतर आता है, उसको प्रक्षेपरूप ___ठहराती है। उनकी समीक्षा८० अंबड श्रावकजीका-अरिहंत चेइय, के पाठसें-सम्यक् ज्ञान, व्रतादिक, ढूंढनीजीका अर्थ | उनकी समीक्षा- १०४ ८१ आनंद श्रावकका-अरिहंत चेइय, का पाठको, प्रक्षेप रूप ठहरायके-लोप करनेकी, कोशीस कीई है। उनकी समीक्षा . १०८ ८२ द्रौपदीजी श्राविकाका-जिन प्रतिमाके पूजनमें, अनेक जूठी कुतों करके, और सर्व जैनाचार्योको निंदके, और छेवटमे कामदेवकी-मूर्तिका पूजनकी, जूठी सिद्धि करके, उसकी मूर्तिके आगे-वीतराग देवकी स्तुति रूप-नमोथ्थुशंका, पाठको भी, पठानेको तत्पर हुइ है ? । उनकी समीक्षा ११० ८३ चैत्य शब्दसे-प्रतिमाका अर्थ, ढूंढनीजी अनेक स्थलोंमें, अपनाही लेखमें-मान्य करती है । तो भी सर्व जैनाचायोंकी, निंदा करके-लिखती है कि, चैत्य शब्दका अर्थ प्रतिमा, नहीं होता है । उनकी समीक्षा- ११५ ८४ ठाणांगादिक सूत्रोंमें-मूल पाठोंसें, सिद्ध रूप, नंदीश्वरा दिक-द्वीपोंमें, रही हुई, शाश्वती जिन प्रतिमाओंको-वंदना करनेको जाते हुये,जंघाचारणादिक-महामुनिओंकी पास, वहां पर-ज्ञानका ढेरकी स्तुति करनेकी, जूठे जूठे-सिद्धि करके दिखलाती है । उनकी समीक्षा८५ चमरेंद्रका पाठके विषयमें-देवताओ कोइ कारणसर,ऊर्ध्व लोकमें गमनकरेंतो १ अरिहंत । २ अरिहंतकी प्रतिमा । For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्रजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका. (२७) , ३ और कोई महात्मा । इन तीनोंमेंसें एकादका शरणा लेके जाते है । उसमें जो दूसरा शरण-जिन प्रतिमाका है, उसके स्थान में अरिहंत पद, की जूठी सिद्धि करनेको देवयं चेयं, के पाठका तात्पर्यको समजे बिना, कुछका कुछ लिख मारा है । उनका भी खुलासाकी साथ । समीक्षा - १२१ ८६ चैत्य शब्दका अर्थ - प्रकारांतर सें पांच दश, कदाच कर सकते है । तो भी ९१२ अर्थकी, जूठी सिद्धि करनेका प्रयत्न किया है । उनकी समीक्षा 1 १२६ 1 ८७ मूर्तिपूजनमें षट् कायारंभ, और जडको चेतन मानकर मस्तक ज़ुकाना, मिथ्यात्व कहती है । उनकी समीक्षा - १३० ८८ महा निशीथ की - गाथामें लिखा हैकि - जिन मंदिरोंसें, पृथ्वीको मंडित करता हुवा, और दानादिक धर्मको करता हुवा भी श्रावक, बारमा देवलोक तकही जा सक ता है। इसमें ढूंढनीजीने, मंदिरोंका अर्थको लोप करनेका, प्रयत्न किया है । उनकी समीक्षा. ८९ कयबलिकम्माका, पाठके संकेत से, वीर भगवान के श्रावकों का - दररोज जिन प्रतिमाका पूजन, सर्व जैनाचार्योंने लिखा है । उसके स्थान में ढूंढनीजी - मिथ्यात्वी पितर, दादेयां, भूत, यक्षादिकोंकी - भयंकर मूर्त्तियांको, दररोज पूजानेको तत्पर हुई है। उनकी समीक्षा- ११३ १३२ ९० ढूंढनीजी - जैन के सब ग्रंथोंको, गपौडे कहती है । और जैनके आजतक जितने आचार्यों हुये है, उस सबकोसावद्याचार्य कहकर, निंदती हैं । और -निर्युक्ति, भाष्य, 1 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) नेत्रांजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका. टीका, सब ढूंढनीजीही, बननेको चाहती है । और नंदी सूत्रको मान्य करके, कहती है कि - उसमें लिखे हुये सूत्र है, परंतु प्रमाणिक नहीं । इत्यादिक जूठे जूठ लिखके अपनी सफाइ दिखाई है के, जूठ बोलना पाप है । उनकी समीक्षा. ९१ ढूंढनीजीने, मूर्तिपूजा-पंडितोंसे सुनी, शास्त्रोंमेंभी देखो । और परम श्रावकोंको जिन मूर्त्तिके बदले में - पितरादिकोंकी, और धन पुत्रादिकके वास्ते- पूर्ण भद्रादिकोंकी, मूचियांको पूजाती हुई, लिखती है कि, सूत्रोंमें तो मूर्तिपूजाका जिकर ही नहीं । उनकी सामान्यपणे समीक्षा. १४८ ९२ पंचम स्वप्नके पाठयें, साधुको मंदिर बनवानेका, लोभ करके माला रोहणादिक करणेका-निषेध किया है। उस पाठ में ढूंढनीजी, सर्वथा प्रकार सें, निषेध करके दिखलाती है । उनकी समीक्षा.. १५१ १३८ ९३ महा निशीथ के पाठयें, अरिहंत भगवंतकेही नामसें-प्रतिमाकी, गौतम स्वामीजीने अपनी पूजाका, प्रश्न किया है । भगवंतने - उसका निषेध किया है। उस पाउसें ढूंढनीजी - सर्वथा प्रकार सें, निषेध करके दिखलाती है । उनकी समीक्षा. १५५ ९४ विवाह चूलिया पाठमें तीनों चोवीसीकी जिन प्रतिमाओंको वांदने की भी, और पूजने की भी, प्रथम भगवंतने आज्ञा दीई है । और साधु पूजा के आशयका दूसरा प्रश्नके उत्तरमें निषेध किया है | उसमें ढूंढनीजी सर्वथा प्रकारसें निषेध करके दिखलाती है । उनकी समीक्षा. १६२ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्रजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका. (२९) ९५ दादाजी जिनदत्त सूरिजीने अनेक जिन मंदिरोंकी म तिष्टाओ कराई है । उनोंने साधुजीकी पूजाका निषेध किया है । उस पाठसें ढूंढनीजी - सर्वथा प्रकार से निषेध करके दिखलाती है । उनकी समीक्षा. १६७ ९६ मूर्तिपूजाका चलन बारांवर्षी दुकालसें दिखलाती है । और भगवंत के पहिले सेंभी होने का कहती है । और चोये आरेके साधुओं को भी असंयमी ठहराती है । उनकी समीक्षा. १७२ ९७ ढूंढनीजी - जैन तत्रादर्शादिक ग्रंथोंको निरर्थक ठहरायके, अपनी गप्प दीपिका - लोकोको प्रकाश दिखाती है । उनकी समीक्षा. १७५ ९८ जैन से विमुख ढूंढिये, सो तो सनातन जैन । और जैन तत्रानुकुल जैनी, सो तो सब नकल जैन । उनकी समीक्षा - 1 १७८ ९९ लोकाशाहने, पुराने शास्त्रोंका - उद्धार किया। और दीक्षा गुरुजीसें, लडकर लवजीने, ढूंढियांका - उद्धार किया । ओर पीतांवरियांका - कल्पित नयामत निकला है । उनकी समीक्षा १८० १०० वेद व्यास के वखतमेंभी ढूंढिये हीथे, और सब सभाओं में जित मिलाते मिलाते, आजतक चले आये है। इस वास्ते अढाई सो वर्षका - मत लिखने वाले, मिथ्या वादी है । उनकी समीक्षा - १८७ १०१ ढूंढनीजी - तीर्थकरों की, सब गुरुओं की, जूठी निंदा लिखके, और अपना साध्वीपणा दिखाके, लिखती है कि ऐसी O For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) नेत्रजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका. १९५ पुस्तको वांचने वालोंका अंतःकरण मलीन होता है ! लिखने वालोंको पाप होता है। उनकी समीक्षा - १०२ पूर्वाचार्यकृत - जिनेश्वर देवकी, मंगलिक मूर्त्तिकी स्तु तिरूप, ग्रंथका प्रथम विभागकी पूर्णाहूति || १९९ ॥ इति ढूंढक हृदय नेत्रांजनस्य प्रथम विभागस्य अनुक्रमणिका समाप्ता ॥ For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेत्रजन प्रथम भाग अनुक्रमणिका. ( ३१ ) प्रथम भाग तात्पर्य प्रकाशक, दुहा बावनीकी, अनुक्रमाणिका, नीचे मुजब ॥ विषय पृष्ट १ प्रथमके भाग में, जो दोनों तरफका सूत्र पाठका मेलसें, खंडन किया गयाथा, उसका तात्पर्य (५) दुहामें, अर्थके साथ दिखाया गया है ॥ २०१ २ मूर्त्तिके विषय में, ढूंढनीजीने अनेक प्रकारकी जूठी कुतर्कों की थी, उसका खंडन प्रथम भागमें कियाथा । उसका तात्पर्य [६) दुहासें ( ४१ ) मा दुहातक, अर्थके साथ दिखाया गया है || २०२ ३ सिद्धांतके पाठोंका, ढूंढनीजीने जो विपरीतार्थ कियाथा । उसका खंडन प्रथमके भागमें कियाथा । उसका तात्पर्य (४२) मा दुहासे ( ११ ) मा दुहातक, अर्थके साथ दिखाया गया है || २२३ ४ ढूंढनीजीने जूठ बोलना पाप मानाथा | परंतु (५२) मा दुहाके अर्थ में, ( २७ ) कलपके साथ, ढूंढनीजीका जूठ दिखाया गया है २३३ || इति तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनीकी अनुक्रमणिका संपूर्ण ॥ ॥ मूढोंका विचारताकी निष्फलता कालेख || १ इस लेखमें अनेक प्रकारके दृष्टांतों के साथ मूढ प्राणियां काही विचार किया गया है २४१ For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) द्वितीय भाग अनुक्रमणिका. ॥ ढूंढक हृदयनेत्रांजन द्वितीय विभागस्य अनुक्रमणिका ॥ विषय पृष्ट. १ हेय, ज्ञेय, और उपादेय के स्वरूपसे - शिव, विष्णु, भक्तादिकाश्रित, वस्तुके चार २ निक्षेपका स्वरूप २ अनादरणीय रूप, १ हेय वस्तुके चार निक्षेपमें, साधु पुरुषाश्रित - स्त्रीका दृष्टांत - ३ ज्ञानप्राप्ति करने योग्य, २ ज्ञेय वस्तुके चार निक्षेपमें - मेरु पर्वतादिक दृष्टांत ४ स्मरण, वंदन, पूजन, करनेके योग्य, ३ परमोपादेय वस्तुके चार निक्षेपमें तीर्थंकर भगवान्का दृष्टांत — 1 ५ चार निक्षेपका विषयमें ढूंढनीजी के कल्पित लक्षणका लेख ६ ढूंढनीजीका - कल्पित लक्षणमें, विपरीतपणेका किंचित् विचार ७ सिद्धांत शब्द, जैन सूत्रोंकी - अति गंभीरताका विचार- ९ ८ सूत्रकार, और लक्षणकारके मतानुसार, ग्रंथकारके तरफसें - वस्तु के चार निक्षेपका लक्षण स्वरूप १ ९ ग्रंथकार के तरफसें, चार निक्षेपका विषयमें किंचित् समजूति - १० ग्रंथकार के तरकसें, चार निक्षेपका विषयमें - दूसरा प्रका रसें लक्षणद्वारा समजूति - १२ ११ चार निक्षेपका विषयमें - सार्थकता, निरर्थकताका विचार १३ १२ ढूंढनीजीके मतसें ढूंढक जेठमलजीका राचत- समकित " सार पुस्तकका, निरर्थक रूप चार निक्षेपका स्वरूप- १७ ११ For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भाग अनुक्रमणिका. (३३) १३ ढूंढनीजीके ही मतसें, ढूंढनी पार्वतीजीकी रची हुई-ज्ञान दीपिका पुस्तकके, निरर्थक रूप चार निक्षेपका स्वरूप- २२ १४ चार निक्षेपकी सत्यतामें, ठाणांग सूत्रका मूलपाठ अ. थकी साथ१५ निक्षेप विषयका-उदाहरणमें १ शिव पार्वती । २ वेश्या पार्वती । और ३ ढूंढनी पार्वती । यह तीनों पार्वतीका (१) शिव भक्त आश्रित,प्रथम (१) नाम निक्षेपका स्वरूप-२३ १६ यह तीनों पार्वतीका (१) शिव भक्ताश्रित, (२) स्था पना निक्षेपका स्वरूप१७ यह तीनों पार्वतीका (१) शिव भक्ताश्रित, (३) द्रव्य निक्षेपका स्वरूप१८ यह तीनों पार्वतीका (१) शिव भक्ताश्रित, (४) भाव निक्षेपका स्वरूप१९ यह तीनों पार्वतीका (२) कामी पुरुषाश्रित, चार चार निक्षेपका स्वरूप २० यह तीनों पार्वतीका ( ३ ) ढूंढक भक्ताश्रित, मूर्ति पूज कका संवाद पूर्वक (१) नाम निक्षेपका स्वरूप- ३१ २१ यह तीनों पार्वतीका (३) ढूंढक भक्ताश्रित, मूर्तिपूजकका संवाद पूर्वक, (२) स्थापना निक्षेपका, सविस्तर स्वरूप । इसमें ढूंढनीजीका लेखके भी-अनेक उदाहरण दिये गये है२२ यह तीनों पार्वतीका (३) ढूंढक भक्ताश्रित, ( ३ ) द्रव्य निक्षेपका,सविस्तर स्वरूप For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) द्वितीय भाग अनुक्रमणिका. २३ यह तीनों पार्वतीका ( ३ ) ढूंढक भक्ताश्रित, (४) भाव निक्षेपका स्वरूप ७१ २४ ढूंढक श्री - गोपाल स्वामीजीका, मृतक देहकी मूर्ति, और उसका वर्णन २५ मूर्त्तिका खंडन करनेवाली, ढूंढनी पार्वतीजी की मूर्ति, और उसका वर्णन - - २६ वीतरागी मूर्त्तिसें, विपरिणाम होनेमें- दिवाने पुरुषका दृष्टांत - ७७ २७ ढूंढनी पार्वतीजीका ही लेखकी, (१९) कलमके स्व. रूपसें, हमारे ढूंढक भाइयांके, संसार खातेका स्वरूप - ८३ ॥ इति ढूंढक हृदय नेत्रांजनस्य द्वितीय विभागस्याऽनुक्र मणिका समाप्ता ॥ For Personal & Private Use Only ७७ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय भाग अनुक्रमणिका. (३५) ॥ प्रतिमागंडन स्तवनावली संग्रहानु क्रमाणका ॥ फर्ताकानाम गाथा-- १ श्रीयशो विजय कृत स्तवन- १५• सोजतमें बन्याहुवा स्तवन- ३६३ श्रीसोभाग्य विजय कृत स्तवन- १५४ श्री जिनचंद्र सूरिकृत स्तवन- ११५ श्रीपरमानंद मुनिकृत स्तवन- २२६ संपतिराजाका,स्तवन कनक मुनि-९७ श्रीउदय रतन मुनिकृता चोपाई- ७८ श्री लक्ष्मीवल्लभ सूरिकृत स्तवन-२७९ श्री लाल मुनि कृत स्तवन- ८१० प्रतिमामंडन रास. जिनदास- ६६११ जिनराज सेवक कृत स्तवन- ६१२ प्रतिमा विषये चिदानंदजीके उद्गारो, अर्थ सहित . तीन कवित१३ माधव ढूंढक जिन प्रतिमा आदिकी करेली निंदागाथा . १५ । ५ । ४- ३१ १४ कुंदनमल ढूंढके कपीलादासी का किया हुवा अ नुकरण१५ जिन प्रतिमाके निंदक ढूंढकोंको-मुनिराज श्रीवल्लभ विजयकी तरफसे,कक्कादिकसें शिक्षा वत्रीसी-३२-३६ १६ ग्रंथकार भुनिअमर विजयकी तरफसें, निंदक ढूंढ कोंको-हित शिक्षाका स्तवन- १७- ४२ ॥ इति श्रीमद्धिजयानंदसूरिशिष्य, मुनिअमर विजय कृता, स्तवन संग्रहावलीकी, अनुक्रमाणिका, समाप्ता॥ 60 .. « aa For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्या जोमा व्यश्लीजीको पनि अनार की हर छ । (३६) २ र ३० को ॥ दोनों कोन्फरनसको-सूचना ॥ ॥ पाठक गण! यह-नेत्रांजन पुस्तक, तीर्थंकरोंका मूलतवोंको, सत्यपणे प्रगट करनेके लिये, प्रेसमें छप रहाथा जब, बंध करानेके वास्ते, भंपकी हिमायती करती हुई ढूंढक कोन्फरन्स, मूर्तिपूजक कोन्फरन्सको-अतिप्रेरणा कर रहीथी । ओर दोनों कोन्फरन्सके अनेक पत्रो, हमारी उपर आते रहेथे ! और हम योग्य उत्तर लिखते रहेथे । ओर-जैन समाचार, दृढक पत्रभी, संपकी हिमायती करता हुवा, वारंवार पोकार उठाता रहाथा । सो बहुतेक लोकोंको मालूम होनसें, सब लेख हम दरज नहीं करते है। परंतु सत्य संपकी, हिमायत करने वालो-दोनों कोन्फरन्सको, हमारी यह सूचना हैकि-ढूंढकोंके पुस्तकका, और हमारी तरफसें बहार पडे हुये दोनों पुस्तकका, मुकाबलाके साथ, दो दो मध्यस्थ पंडितोंको बिठाके, निःपक्षपातसें-निर्णय करा लेवें । और-तीर्थकर, गणधरादिक, सर्व आचार्योंकी-जूठी निंदा करने वालोंको, योग्य शासन करें । अगर जो ऐसा न करेंगे तो, कोन्फरन्सो हैसो सत्य संपकी हिमायती करने वाली है ऐसा, कोईभी न मानेंगे। किंतुतीर्थकर, गणधरादिक, सर्व महा पुरुषोंकी निंदा करने वालोंकी ही-हिमायत करनेवाली है । ऐसा खटका, सबके दिलमें, बना ही रहगा ॥ इत्यलं विस्तरेण ॥ For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ढूंढक हृदय नेत्रांजनं ॥ अथवा || सत्यार्थ चंद्रोदया स्तकं ॥ ॥ मंगलाचरण || ऐंद्र श्रेणिनता प्रतापभवनं भव्यांगिनेत्राऽमृतं, सिद्धांतोपनिपद्विचार चतुरैः प्रीत्या प्रमाणीकृता ॥ मूर्त्तिः स्फूर्तिमती सदा विजयते जैनेश्वरी विस्फुर न्मोहोन्माद घनप्रमाद मदिरा मत्तै रना लोकिता ॥ १ ॥ ॥ अर्थ:- इंद्रोकी श्रेणिसेंभी नमन हुयेली, और प्रतापका घर, और भव्य पुरुषोंके नेत्रों को अमृतरूप, और सिद्धांतके रहस्य विचारी पुरुषोंने बडी प्रीति के साथ प्रमाण किई हुई, ऐसी श्री जि - नेश्वर देवकी " मूर्त्ति " सदा ( सर्वकाल ) आ दुनीयामां जयवंती रहो. । और यह मूर्त्ति कैसी है कि, विस्फुरायमान जो मोह, तिससें हुवा उन्माद, और अत्यंत प्रमाद, यही भइ ' मदिरा उनके बशसें बने है मदोन्मत्त, उनोंसें नही देखी गई यह जिनमूर्त्ति है ॥ ॥ इति काव्यार्थः ॥ " ॥ किं कर्पूरमयी सुचंदनमयी पीयूषतेजोमयी, किं चूर्णीकृतचंद्रमंडलमयी किं भद्रलक्ष्मीमयी ॥ किंवा नंदमयी कृपारसमयी, किं साधु मुद्रामयी, For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) नाम निक्षेपका लक्षण. त्यंत हृदि नाथ मूर्त्ति रमला नो भावि किं किंमयी ॥२॥ ॥ अर्थः- हे भगवन् तुमेरी “ मूर्त्ति " क्या कर्पूरमय है ? अमृतका तेजरूप है ? क्या चूर्ण किया हुवा चंद्रका मंडलरूप है ? अथवा भद्रलक्ष्मीरूप है ? अथवा केवल आनंदरूप है ? वा कृपा. के रसमय है ? वा साधुकी मुद्रामय है ? एसी निर्मल मूर्ति मेरे हृदयमे क्या क्या रूपको धारण नही करती है ? अर्थात् सर्व प्रका रके जो जो उज्वल रूप पदार्थ है, उनकांही भावको, मेरे हृदय में प्रकाशितपणे हो रही है ॥ २ ॥ ॥ इति मंगला चरणं ॥ || अब इस ग्रंथ करनेका प्रयोजन || सत्यार्थ चंद्राऽर्थक नामधे यं, शस्त्रं जनानां न तु शास्त्रभावं ॥ इत्येव मत्वा मुनिनाऽमरेण, मुनिनाऽमरेण, क्लृप्ता समालोचन सामवार्त्ता १ || अर्थः- सत्यार्थ चंद्रोदय नामका " पुस्तक " शास्त्र रूप नही है, किंतु लोकोंको, केवल शस्त्ररूप ही है, वैशा समजकर "मुनि अमरविजयने " यह समालोचन करणे रूप, सम वार्त्ता की रचना, किई है ।। १ ।। ॥ प्रथम " चार निक्षेपका " लक्षण कहते है | || “ नाम निक्षेप" लक्षण || आर्याछंद || यद्वस्तुनोऽभिधानं, स्थित मन्यार्थे तदर्थ निरपेक्षं ॥ पर्यायानऽनभिधेयं च नाम याछिकं च तथा ॥ १ ॥ For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम निक्षेपका लक्षण. ॥ अर्थ:-" नाम " है सो 'तीन' प्रकारसें रखा जाता है जो भाव वस्तुओंका (अर्थात् पदार्थोका) नाम चला आता है सो, प्रथम प्रकारका नाम है ।।१।। ते "नाम" अन्य वस्तुओं में स्थित होके, उनके पर्यायवाची दूसरे नामको नही जनावें सो, दूसरा प्रकारका 'नाम' है ॥ २॥ अपणी इछापूर्वक हरकोइ " नाम" रखलेना यह तिसरा प्रकारका " नाम" समजना ॥ ३ ॥ * ॥ तापर्य-विमानके अधिपतिओंमें "इंद्र" नामका, ही “निक्षेप" होता रहेगा, और पुरंदर, शचीपति, मघवा, आदि, पर्यायवाची नामकी प्रवृत्तिभी किई जावेगी ॥ जैसें कि,-ऋषभदेव, नाभि सुत, आदिनाथ, आदि प्रथम तीर्थकरमें, नामकी प्र. वृत्ति होती है । यह प्रथम प्रकारके नामका तात्पर्य ॥ १ ॥ यही पूर्वोक्त इंद्रादिक, ऋषभदेवादिक, नाम है सो, जब दूसरी वस्तुओंमें दाखल किये जावें तब, उनके पर्यायवाचक पुरंदरादिक, और नाभि सुतादिक, जो विशेष नाम है, उनकी प्रवृत्ति दूसरी वस्तुओंमें नहीं कि जावेगी। जसै कि-गूजरके पुत्रका नाम " इंद्र" दिया है, परंतु इस गूजरके पुत्रमें-शचीपति, पुरंदर, आदि जो इंद्रके विशेष नाम है, उनकी प्रवृत्ति नहीं किई जावेगी. ॥ ऐसें ही दूसरा ऋषभदेवके नामवाले पुरुषमें-आदिनाथ, नाभिसुत आदि पर्याय वाची, दूसरे नाम नही दिये जावेंगे। यह दूसरा प्रकारके नामका तात्पर्य ॥ २ ॥ अब तिसरा प्रकारका रखा हुवा, नाम है सो, व्या * संकेतित नामका उच्चारण, जिस 'वस्तुके अभिप्रायसे किया, वह नाम श्रवण द्वारा होके, मनको जिस 'वस्तुका बोध करा देवे, सोइ नाम, तिस वस्तुके नामनिक्षेपका, विषय समजना. इसमें तीनो प्रकारके नामका समावेश होता है । .. For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) स्थापना निक्षेपका लक्षण... करणादिकसें, सिद्ध हुये विनाके शब्दोका, समजना। जैसे कि-डिथ्य, कविथ्थ, गोलमोल, आदि, अपणी इछा पूर्वक रखा गया सो समजना ॥ ३ ॥ । जो यह " तीन" प्रकारसें नाम रखे जाते है, उसको ही जैन सिद्धांतकारोंने, नामनिक्षेपके स्वरूपसें, वर्णन किये है ।। परंतु दूसरा कोइ भिन्न स्वरूपवाला, " नाम निक्षेपका " प्रकार नही है । ॥ इति प्रथम " नामनिक्षेपका " लक्षणादिक स्वरूप ॥ ॥ अब दूसरा " स्थापना निक्षेपका " लक्षणादिक, कहते है ॥ यत्तु तदऽर्थवियुक्तं, तदऽभिप्रायेण यच्च तत्करणि ॥ लेप्पादि कर्म स्थापनेति, क्रियतेऽल्पकालं च ॥२॥ ॥अर्थः-जे वस्तुमें जो गुण है, उनके गुणोंसे तो रहित, और उसीके अभिप्रायसें, उनके ही सदृश, जो कराण, ( अर्थात् सद् रूपा जो आकृति ) जैसे-तीर्थकरादिककी मूर्ति, ॥ १॥ " चकारसें" २ अन्यथा प्रकारसमी ( अर्थात् असद् रूपा “ यह दोनो भेदवाली स्थापना, लेप्यादिक दश प्रकारमे करनेकी, सूत्रकार दिखावेंगे, उस विधिसें किई जो " स्थापना" उसका नाम " स्थापना निक्षेप" है, सो " स्थापना" अल्प कालकी, और चकारसें, यह तात्पर्य है कि, यावत् कालतककी भी किई जाती है ॥२॥x जिस नामवाली वस्तुका, सदृशरूपकी आकृतिसें, अथवा असदृशरूपकी आकृतिसे, ने त्रादिक द्वारा होके, मनमें बोध होजाना, सोई उस वस्तुका, स्थापना निक्षेपका, विषय समजना ॥ For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य निक्षेपका लक्षणं. ___(५) इति श्लोकार्थः। तात्पर्य-जे जे नाम निक्षेपका लक्षणसें, सिद्ध स्वरूपकी वस्तुओ है, ते ते वस्तुओके गुणोंसें तो रहित, मात्र उन... के सदृश्य आकृति, अथवा असदृश्य आकृति, लेप्यादिक दश प्रकारमें करके, उस वस्तुको समजना, सो सो " स्थापना निक्षेप " रूपसें, मानी जाती है । जैसेंकि-तीर्थकरकी मूर्तियां, अथवा साधु आदिकी मूर्तियां, सदृश आकृतिसें होती है । और आवश्यकादिक क्रिया रूप वस्तुओं को जाननेके लिये, अक्षरोकी स्थापना, अथवा कायोत्सर्गका स्वरूप वाला साधु आदिकीभी स्थापना, किई जाती है, सो यह सर्व : " स्थापना निक्षेपका" विषय रूप समजना ।। २ ॥ ॥ इति दूसरा " स्थापना निक्षेपका " लक्षणादि स्वरूप ॥ " अब तिसरा " द्रव्य निक्षेपका " लक्षणादिक लिखते है ।। भूतस्य भाविनो वा, भावस्य हि कारणं तु यल्लोके ॥ तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः, सचेतनाऽचेतनं कथितं ॥३॥ ॥ अर्थः-इस लोकमें जो अतीत, और अनागत कालकी भाव पर्यायका, *कारणरूप वस्तु है, उस वस्तुको" द्रव्य" स्व. रुपसे कहते है, सो द्रव्यरूप वस्तु, एक चेतनरूप, दूसरा अचेतन रूप, और तिसरा चेतनाऽचेतनरूप, ऐसे तीन प्रकारकी तत्त्वके जान पुरुषोंने कही है ॥ ॥ इति श्लोकार्थः ॥ ___* जिसके बिना " भाववस्तु " भिन्नस्वरूप नही दिखती है, और नेत्र श्रवणादिकसे, जिसके स्वरुपका बोध, मनको होता है, सोई " द्रव्य निक्षेप " का विषय है ॥ For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) भाव निक्षेपका लक्षण. तात्पर्य - जैसे कि - इंद्र पदसें च्यवन होके, मनुष्यपणे प्राप्त हुयेको " इंद्र " कहना, यह भूतकालकी अपेक्षासें | और मनुष्य पदसें च्यवन होके, इंद्रपणे उत्पन्न होने वाले मनुष्यकोभी " इंद्र कहना, यह भावी कालकी अपेक्षासें । जैसेंकि - पुत्रको पट्टाभिषेक करके, राज कार्य निवृत्त हुये राजाकोभी, “राजा " कहना । से अथवा राज्य प्राप्त होने वाला कुमरको, " राजा " कहना । इहां १ चेतन वस्तु, कारण रूप द्रव्य है || अब जो काष्टादिक वस्तुसें, उत्पन्न हुयेली, डब्बी आदिक वस्तुमें, काष्टका आरोप करणा ।। अथवा काष्टादिकसे, उत्पन्न होने वाली, डब्बी आदि वस्तु काष्ट मेंही है वैसा मान लेना, सो इहां दोनो जगें पर २ अचेतन, काष्ट ही कारणरूप द्रव्य है । ऐसें ही जो चेतन अचेतनरूप वस्तुसे, उत्पन्न हुयेली, अथवा उत्पन्न होने वालीं, वस्तु होवें, उनका कारण, ३ चेतन अचेतनरूप, समजना ॥ यह जो १ चेतनरूप वस्तु | अथवा २ अचेतनरूप वस्तु | अथवा ३ चेतना चेतनरूप वस्तु है । उनका भूतकालमें, अथवा भविष्यकालमें, जो कारणरूप पदार्थ है, सोई " द्रव्य निक्षेप " का विषय है || क्योंकि कारण विना, कार्यकी उत्पत्ति होती ही नही है । परम उपयोगी जो, “ कारणवस्तु " है, वही कार्यभावको " प्राप्त होता है, उनको " द्रव्य निक्षेप " का विषय माना है सो निरर्थक स्वरूप कभी भी न होगा. । ॥ इति तृतीय “ द्रव्य निक्षेपका " लक्षणादि स्वरूप || ॥ अथ चतुर्थ " भाव निक्षेपका " लक्षणादि लिखते है ।। ॥ भावो विवक्षित क्रियाऽनुभूतियुक्तो वै समाख्यातः ॥ For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव निक्षेपका लक्षण. सर्वज्ञैरिंद्रादिव दहें दनादि क्रियाऽनुभावत् || १॥ " ॥ अर्थ : - व्याकरणकी व्युत्पत्ति द्वारासें, अथवा शास्त्रका संकेतसें, अथवा लोकोंके अभिप्रायसें, जे जे शब्दोंमें जे जे क्रियाओ मान्य किई हुई हो, ते ते क्रियाओं का, ते ते वस्तुओंमें, ( अर्थात् पदार्थों में ) वर्त्तन होता हो, तब उस वस्तुको, " भाव रूप सर्वज्ञ पुरुषोंने कहा है । जैसेंकि - परम ऐश्वर्य परिणामका भोगको, वर्त्तन करता हुवा इंद्र है, सोई " भाव इंद्रका " विषय है । क्यौंकि- तिस वर्त्तमान कालमें, साक्षात् रूप इंद्रमें, परम ऐश्वर्यकी क्रियाका, अनुभव हो रहा है । यही भावस्वरूपके वस्तुओंको, जैन सिद्धांतकारोंने, “ भाव निक्षेप " का विषयस्वरूपही माने है | 1 ।। इति श्लोकार्थः ॥ तात्पर्य - जिस जिस भाव निक्षेपके विषयभूत वस्तुमें जे जे नाम दिये गये है, अथवा दीये जाते है, सो सो" नामनिक्षेप" ही है, । सो सो नाम निक्षेप है सो, संकेत जाण पुरुषोंको, वह नामका श्रवण मात्र है सोई उसी भावनिक्षेपरूप वस्तुकाही, बोधकी जागृति कराता है, प्रत्यक्ष वस्तु होवें उसका प्रत्यक्षपणे, और परोक्ष वस्तु होवें उसका परोक्षपणे || १ || परंतु जो पुरुष संकेतको नही जानता है और परोक्ष वस्तुको देखीभी नही है वह पुरुष उस भाव वस्तुका बोधको नही प्राप्त हो सकता है, तब उस पुरुषके वास्ते, वही नाम निक्षेपका परोक्ष पदार्थकी, “ आकृति " दिखा केही, विशेषपणे बोध करा सकते है, वह कई हुई आकृति हैसो, भावरूप पदार्थ के ( ७ ) * दुनीयामें जितने वस्तु, दृश्य, अदृश्य स्वरूपकी कही जाती है, वह सभी भी भावनिक्षेपके विषयभूतकी ही है ॥ For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** भाव निक्षेपका लक्षण. ( ८ ) सदृश होनेसे, भाववस्तुका बोध करानेमें, नाम सेभी विशेषही कारणरूप होती है, परंतु निरर्थक रूपकी नही है |२॥ || अब भाव पदार्थकी जो पूर्व अवस्था है, अथवा अपर अबस्था है, सोभी उस भाव पदार्थका " द्रव्य स्वरूप " परम कारण'रूप होनेसें, उसी भाव पदार्थकाही बोध कराने वाला है, इस वास्ते सर्व प्रकारसे ही उपयोग स्वरूपका है, परंतु निरर्थक रूप नही हैं ३ || अब चतुर्थ निक्षेपका विषयभूत जो 'भावपदार्थ' है, सो तो उपयोग स्वरूपकाही है, ।। इति चार निक्षेपका सामान्य प्रकार तात्पर्य ॥ 66 ॥ विशेष समजूती - जिस जिस " नामका " आदर होता है, सो सो, केवल नाम मात्रका नही होता है, परंतु उस नामके संबं धवाला, भाव पदार्थका " ही आदर होता है । जैसें - ऋषभादिक नामका आदर करनेसें, हम तीर्थकरोंकाही आदर करते है ।। यद्यपि यह ऋषभादिक नाम, दूसरी वस्तुओंका होगा, तोभी हमको बाधक न होगा, क्योंकि - जिस जिस वस्तुके अभिप्रायसें, नामका उच्चारण करेंगे, उस उस वस्तुकाही बोध करानेमें, नाम उपयोगवाला रहेगा, इस्से अधिक नाम निक्षेपका प्रयोजन नही है ॥ १ ॥ 66 अब यही " " ऋषभादिक " नाम है सो, अनेक वस्तुओंके साथ संबंधवाले हो चुके है, अथवा होते है, उस उस भाववस्तुका " दुर्लक्ष करके भी, इसीही ऋषभादिक के नामसें, हम हमारा जो इष्ट रूप तीर्थकरो है, उस वस्तुकाही लक्ष कर लेते है; और हमारा परम कल्याण हुवा, एसें नामके उच्चारण मात्रसें ही मानते हैं, तब जो खास वीतराग दशाका बोधको करानेवाली, और तीrain ध्यानस्थ स्वरूपकी, और ऋषभादिक नाम निक्षेपकीतरां, दूसरी वस्तुओंसें, संबंधको नही रखनेवाली, जिनेश्वर भगवानकी For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव निक्षेपका लक्षण. (९) मूर्तियांका, आदर करनेसें, हमारा कल्याण क्यों न होगा ? अपितु निश्चय करकेही, हमारा कल्याण होगा । जो हम एक प्रकार सें विचार करें तो, नामसेंभी, मूत्तियां है सो, विशेषपणेही "वस्तुका " बोध करानेवालीयां होती है. कारण यह है कि - ऋषभादिक नाम है सो, दूसरी वस्तुओंके साथ, मिश्रितपणेभी होते रहते है, परंतु वीतरागी मूर्त्तियां तो, किसीभी दूसरी वस्तुओंके साथ, संबंध नही रखतीयाँ है, यही मूत्तियां में विशेषपणा है || २ || अब जो ऋषभादिक नाम, और उनकी मूर्तियां, हमारा कल्याणको करने वाली हो चूकी है, उस तीर्थकरों की - बाल्यावस्था, अथवा मृतक देहरूप अपर अवस्था है सो, देवताओंका चित्तको भी, भक्तिभाव करनेको द्रवित करती है, सो तीर्थंकर 'भावका कारणरूप शरीरकी, भक्तिभाव करनेको, हमारा चित्त द्रवीभूत क्यों न होगा ? अपितु अवश्यही होगा, परंतु हमारा भाग्यकी न्यून्यता होनेसें, ऐसा संबंधही मिलनेका कठीन है || ३ || अब जे जे वस्तुओ साक्षात्पणे है, और उनकी प्रवृत्ति; अपने अपने कार्यमें हो रही है, सोई “ भाव निक्षेपका " स्वरू " पकी है. ॥ जिसको जो वस्तु उपादेयरूप है, सो तो अपणा उपादेयके स्वरूपसे मानताही है । इस वास्ते साक्षात् तीर्थकरो है सो तो, हमारा उपादेय रूपही रहेंगे । इसमें तो कुछ विवादका स्वरूप ही नही है || ४ || इतिचार निक्षेपकी समजूती ॥ | अब दूसरी प्रकार सेंभी किंचित् समजूती करके दिखावते है अब जिस वस्तु के " नाम निक्षेपकी " अवज्ञा करेंगे, उससे भी उस 'भाव' पदार्थकी ही अवज्ञा होती है, जैसे-अपने शत्रुके नामकी अवज्ञा लोक करते है. ॥ १ ॥ फिर उस शत्रुकी मूर्त्तिकोभी वि कृत वदनसेंही देखते है || २ || और उनकी पूर्व अपरकी अवस्था For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) भाव निक्षेपका लक्षण. को श्रवण करकेभी आनंदित होते ही नहीं है, सोभी उस 'भाव' प. दार्थकोही अवज्ञा है ॥ ३ ॥ ऐसें सर्व पदार्थों के विषयमें विचारणेका है ॥ इति द्वितीय प्रकार. ... इसमें फिरभी विशेष यह है कि-जो 'भाव' पदार्थ, जिस पुरुषको, अनिष्ट रूप है; उस पुरुषकों उसका नाम निक्षेप ॥१॥ उसकी स्थापना ॥२॥ उनकी पूर्व अपर अवस्थाका स्वरूप भी ॥ ३ ॥ दिलगीरी ही करानेवाले होते है इत्यादिक समजूति, दूसरे भागमें, विशेषपणे करके हम दिखावेंगे.. एक ढूंढककी तर्क-जैन सूत्रोंमें,-चार निक्षेप कहै है, इससे सिद्ध होता है कि, तीर्थकर भगवानने चार हो बातकी छुट, दोई हुई है, इसमेंसें कभी एक बात, हम न माने तो, क्या संसार सागर नहीं तरसकते है ? तुम चार निक्षेपको मानने वाले ही तरोंग इति अभिप्रायः ॥ . ___उत्तर-तर्कवालेको, हम इतनाही पुछते है कि-नवतत्त्वमेंसें एक तत्वका लोप, कोई पुरुष दुराग्रहसे करें, और उनका लोप विषयकाही उपदेश देवें, वह संसार सागर तर के नही ? और ऐसही षट् द्रव्यमेसें, एक जोव द्रव्यका लोप, दुराग्रहसे करनेवाला, और छ जीवकी कायमेंसें-एक त्रस जीवकी कायका लोप, दुराग्रहसे करनेवाला, । संसार सागर तरेंके नही ? ॥ ऐसेंहि तीर्थकर भाषित जे जे मूल स्वरूपके तत्वो है, उसमेंसें मात्र एकैक हो तत्त्वका लोप, दुराग्रहसें करनेवाला, संसार सागर तरेंके नहीं ! । तुम कहोंगेकि-ऐसें तत्त्वका लोप, करने वाला नही तर सकाता है । तबतो तुमेरे प्रश्नमें, तुमनेभी योग्य विचार कर लेना ॥ परंतु हमतो इस बातमें, ऐसा अनुमान करते है कि-गणधर गूंथित तच्चो For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप विषये सिद्धांतकी गाथा. (११) मेसें-एक ही तत्त्वका लोप करनेवाला है, उनको, हजारो तो जैन ग्रंथोंका, और हजारो ही महान् पुरुषोंका, अनादर करके, अज्ञानां धपणेसें, महा प्रायश्चित्तका, गठडा ही, शिर पर उठाना पडता है, कारण यह है कि वह लोप किया हुवा तत्त्व हेसो ग्रंथोंमें व्यापक, और युक्ति प्रयुक्ति आदिसें सिद्धरूपही होता है, मात्र मूलरूप जैन सिद्धांतोमें, बडी गंभीरताके स्वरूपसें, सूचितपणे होनेसें, वह एक तत्वका लोप करने वाला, नाम धारी उद्धत शिष्यको, प्रगटपणे मालूम नही होनेसे ही, यह प्रकार खडा होता है, इसीही वास्ते उनके पिछे चलने वालोंकों, अनेक जूठ साच बातोंको खडी करनी पडती है, तब ऐसें जैन तत्त्वमें विपर्यास करने वालेके निस्तारका निणर्य कैसे करसकेंगे ? सिद्धांत के अभिप्रायसें देखें तबतो तत्त्वोंके विपर्यास करने वालोंके अनंत संसारका भ्रमणही सिद्ध होता है । इत्यलं विस्तरेण.॥ ॥ इहांतक लक्षणकार महाराजने, जो यह चारनिक्षेपके लक्षण बांधे है सो, श्री अनुयोगद्वार सूत्रकी, एक मूल गाथाका ही अर्थ प्रगट करनेके वास्ते बांधे है. । और उस लक्षण कारके अभिप्रायसें ही, हमने भी अर्थ करके दिखाया है, परंतु कुछ अधिकपणेसें नही, लिखा है ॥ सोई सूत्रकी गाथा, इहांपर लिखके भी बतावते है. .. ॥ तद्यथा ॥ ॥ जथ्थय जं जाणेजा, निख्वेवं निख्विवे निर वसेसं । जथ्थ विय न जाणेजा, चउक्कगं निख्विवे तथ्य ॥ १ ॥ ॥ अर्थः-जिहां जिस वस्तुमें, जितने निक्षेपें करणेका जाने, । यहां उस वस्तुमें उतने ही निक्षेपें करें । जिस वस्तुमें अधिक निक्षेचे For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप विषये सिद्धांतकी गाथा. करणेका नही जान सकें, उस वस्तुमें “ चार निक्षेपें" तो अवश्य ही करें. ॥१॥ इसी ही गाथाको, ढूंढनी पार्वतीजीने, सत्यार्थ-पृष्ट-२० में लिखके, अर्थ भी किया है सो यह है कि जिस जिस पदार्थके, विषयमें, जो जो निक्षेपे जाने, सो सो निर्विशेष निक्षेपे । जिस विषयमें ज्यादा न जाने, तिस विषयमें चार निक्षेपे करे । अर्थात् वस्तुके स्वरूपके समजनेको, चार निक्षेप तो करे । नाम करके समजो । स्थापना ( नकसा) नकल करके समजो । और ऐसे ही पूर्वोक्त द्रव्य, भाव, निक्षेप करके • समजो । परंतु इस गाथामें ऐसा कहां लिखा है कि-चारो निक्षेपे, वस्तुत्वमें ही मिलाने, वा चारों निक्षेपे वंदनीय है । ऐसा तो कही नहीं । परंतु पक्षसें, हठसे, यथार्थपर निगाह नहीं जमती, मनमाने अर्थ पर दृष्टि पडती है । यथा हठ वादियांकी मंडलीमें, तत्वका विचार कहां, मनमानी कहैं चाहे जुठ चाहे सच है ॥ . पाठक वर्ग इस गाथा "अर्थ" इतना ही मात्र है किदूनीयामें जो वस्तु मात्र है, उनकी समन विशेष प्रकारसें भी कर सकते है, अगर विशेष प्रकारसे नहीं कर सकें तो, चार प्रकारसें तो, अवश्य ही करनी चाहीये । इस विषयको सिद्धांतकारोने-चार निक्षेपकी, संज्ञासें वर्णन किया है । परंतु ढूंढनीजीने, सिद्धांतकारोंका अभिप्रायको समजे बिना, अधिक पणेसे छिनकाट किया है, सो तो हमारा किया हुवा चार निक्षेपका लक्षणार्थसे ही, आप लोकोंने समज लिया होगा, और आगे पर भी जिहां जिहां वि. चार करते चलेंगे, वहां वहां समजाते जावेंगे । इस वास्ते इहां वि. शषपणे कुछ नही लिखते है, For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा में विशेष समजूत. (१३) परंतु इस चारनिक्षेपके विषयमें, पाठक वर्गको, प्रथम इतना ख्याल अवश्यही करके हृदय में धारण कर लेना चाहिये कि, जिससे आगे आगे समजनेको बहुत ही सुगमता हो जावें, सो ख्याल में कर लेने की बात यह है कि ॥ जे जे “ भाव स्वरूपकी " वस्तुओं, उपादेय स्वरूपकी ( अर्थात् प्रीति करनेके, अथवा परम प्रीति करनेके, स्वरूपकी ) होती है, उनके चारो ही निक्षेप, उपादेय स्वरूपके ही रहेंगे । इसमें किंचित् मात्रका भी फरक न समजेंगे. ॥ १ ॥ और जे जे “ भाव स्वरूपकी " वस्तुओं, ज्ञेय स्वरूपकी ( अर्थात् ज्ञानही प्राप्त करने के स्वरूपकी ) होंगी, उस वस्तुके, चारो ही निक्षेप, ज्ञान ही प्राप्त करानेमें कारणरूप रहेंगे । इसमें भी किंचित् मात्रका फरक न समजेंगे. ॥ २ ॥ और जे जे " भाव स्वरूपकी " वस्तुओं, हेय स्वरूपकी ( अर्थात् दिलगीरी उत्पन्न कराने के स्वरूपकी ) होंगी, उनके चारों निक्षेप भी, दीलगीरी ही उत्पन्न करानेमें, कारणरूप रहेंगे. । इसमें से प्रिंट रामसार सत्र र समजेनेट ए३१ परंतु इसमें भी विशेष ख्याल करनेका यह है कि जिस समुदायने, अथवा एकाद पुरुषने, जिस भाव वस्तुको उपादेय के स्वरूपसें, मानी है, उनको ही वह " भाव स्वरूप वस्तुके " चारों निक्षेप, उपादेय स्वरूपके रहेंगे. । परंतु अन्यजनोंको, उपादेय स्वरूपके न रहेंगे. । जैसे कि - " तीर्थकररूप भावबस्तुका चारों निक्षेपको, जैन लोक मान देते है, वैसें, अन्यमतवाले नही "" देते है ॥ For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) निक्षेप लक्षणके दुहे. ___ और " कृष्न आदि भावस्तुके " चारो निक्षपको मान, जैसे उसके उसके भक्त लोक देवेंगे, वैसें, दूसरे लोक, मान नही देवेंगे. । यह जग जाहिरपणे की ही बात है. ॥ .. . ॥ अब इस " चार निक्षेपके " सामान्य बोधक, दुहे कहेते है ॥ दुहा. वस्तुके जो नाम है, सोई नाम निक्षेप ॥ वस्तु स्वरूप भिन्न देखके, मतकरो चित्त विक्षेप ॥१॥ . अर्थः-जिस जिस वस्तुका जो " नाम दिया गया है, अ. थवा दिया जाता है, सोई “ नाम निक्षेपका” विषय है, परंतु . एक नामकी. अनेक वस्तु देखके, चित्तमें विक्षोभ नहीं करना, । य द्यपि एक नामकी, अनेक वस्तुओं होती है तो भी संकेतके जाण पुरुषो है सो, नाम मात्रका श्रवण करनेसें भी यथो चित्त योग्य वस्तुका ही, बोधको प्राप्त होते है ॥ १ ॥ इति नाम निक्षेप ॥ ॥ किइ आकृति जिस वस्तुकि, वामे ताकाही बोध । । सो स्थापन निक्षेपका करो सिद्धांतसे सोध ॥ २ ॥ ॥ अर्थ:-जिस वस्तुका, नाम मात्रका श्रवणसें, हम बोध करलेनेको चाहते है, उस वस्तुकी आकृतिसें, उनका बोध करनेको क्यों न चाहेंगे ? कारण यह है कि उस आकृतिमें तो, उसी व. . स्तुका ही, विशेष प्रकारसें, बोध होता है । सोई स्थापना निक्षेपका विषय है, इस बातका सोध जैन सिद्धांतसे करके देखो, यथा योग्य मालूम हो जायगा ॥ २ ॥ इति स्थापना निक्षेप ॥ For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप लक्षणके दूहे. (१५), ॥ कारणसें कारज सदा, सो नही त्याज्य स्वरूप। द्रव्य निक्षेप तामें कहें, सर्व तीर्थंकर भूप ॥ ३ ॥ ॥ अर्थः-वस्तु मात्रकी, पूर्व अवस्था, अथवा अपर अस्था है, सोई कारणरूप " द्रव्य " है, उस द्रव्य स्वरूपको, सिद्धांतकारोंने, “ द्रव्य निक्षेपका " विषयरूप माना है, सो कुछ त्यागनेके योग्य, नही होता है, ऐसा सर्व तीर्थकरोंने कहा है ॥ और हम प्रत्यक्षपणे भी देखते है कि-भविष्यकालमें, पुत्रसे सुख पानेकी इछावाली माता, बालककी विष्टादिसें भी, घृणा ( अर्थात् बालकका तिरस्कार ) नही करती है । और अपणा पुत्रके मरण पाद भी, बडा विलाप ही करती है । अगर जो यह दोनों अवस्था, त्याज्यरूपकी होती, तब पुत्रका प्रथम अवस्थामें काहेको विष्टादि उठाती ? और मरण वाद दिलगरी भी काहेको करती? .. ..... परंतु कारणरूप द्रव्य है, सो भी उपयोग स्वरूपका है ॥ इस वास्ते तीर्थंकरोंकी भी, पूर्व अपर अवस्था है सो भी हमारे प. रम पूननिक स्वरूपकी ही है, परंतु त्याज स्वरूपंकी नही है । और तो क्या परंतु जो जो पुरुष, जिस जिस भाव वस्तुको चाहनेवाले है, सो सो पुरुष उस उस वस्तुका कारणरूप " द्रव्यकाभी" योग्यता प्रमाणे, आदर, सत्कार, करते हुये ही, .. हम देखते है । जैसेंकि-दीक्षा लेनेवालेका, और मृतक साधुकी देहका, जो तुम ढूंढकभी, आदर करतेहो । सोभी, साधु भावका कारणरूप " द्रव्य वस्तुका" ही करते हो । तो पिछे तीर्थकर "भगवानकी, पूर्व अपर अवस्था, आदरनीय क्यों न होगी ? हमतो यही कहते है कि-मात्र भगवानके वैरी होंगे, वही तीर्थकरोंकी For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) निक्षेपके लक्षण दूहे. 1 मूर्त्तिका | २ | और तीर्थकरों की पूर्व अपर अवस्थाका । ३ । अनादर करनेको प्रवृत्त मान होगा, परंतु जो भव्यात्मा होगा सोतो, तीनकालमेंभी, अनादर करनेको, प्रवृत्त मान न होगा । किंतु शक्ति प्रमाणे, भक्ति ही करनेमें, तत्पर हो जावेगा ॥ ३ ॥ इत्यल मधि - केन । इति तृतीय " निक्षेपका " स्वरूप. ॥ नाम आकृति और द्रव्यका, भावमें प्रत्यक्ष योग । तिनको भाव निक्षेपर्से, कहत है गणधर लोग ॥ ४ ॥ ॥ अर्थ: " भाव वस्तुका " दूसरी जगेंपर श्रवण किया हुवा नाम । १ । और उनकी देखी आकृति ( अर्थात् ) मूर्त्ति ) | २ | और पूर्व अपर कालमें, देख्या हुवा द्रव्य स्वरूप । ३ । यह तीनोकोभी, प्रत्यक्षपणे जिस " भाव वस्तुमें " हम जाण लेवें, सोई " भाव निक्षेपका " विषयभूत पदार्थ है । ऐसा गणधर लोकोने ही, सिद्धांत रूपसे वर्णन किया है ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ " भाव निक्षेपका " स्वरूप ।। ॥ इति चारों निक्षेपकं विषयमें शिघ्र बोधक दूहे ॥ सूचना - दुहामें चार निक्षेपके लक्षण, हमारा तरफसे, शिघ्र बोधके वास्ते लिखे है । अगर किसी वस्तुके निक्षेपमें, सिद्धांत कारके अभिप्राय से, फरक मालूम हो जावे तो, सिद्धांतकारके ही वचन निर्वाह कर लेना, परंतु हमारा वचनपर आग्रह नही करना, "कारण यह है कि- महापुरुषोंकी गंभीरताको, हम नही पुरच सकते है । ॥ इहांतक जो चार निक्षेपका विषय कहा है सो, सर्व वस्तुका सामान्यपणेसे, चार निक्षेपका बोध करानेवाली, श्री अनुयोग द्वार सूत्रकी, मूल गाथाका ही अभिप्रायसें कहा है. ॥ For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम निक्षेप सूत्र. (१७) . ॥ परंतु अरूपी (अर्थात् रूपरहित ) ज्ञान गुणादिक, जो जो वस्तुओ है, उनका निक्षेप विशेष प्रकारसें, कोई आधार वस्तुके योगसेंही, समजनेके योग्य होते है । इस वास्ते करुणा समुद्र गणधर भगवान, ते ते अरूपी वस्तुओंके 'निक्षेपोंका' विशेष बोध करानेके वास्ते, प्रथम वीतराग भाषित तत्त्व समुद्रका एक अंशरूप, और हमारी नित्य क्रियाका प्रकाशक, जो 'आवश्यक' सूत्र है, उनकाही मुख्यत्वपणा करके, और विशेष प्रकारसें निक्षेपोका बोध करानेके वास्ते, फिरभी विशेष सूत्रकी रचना करते है, उनका पाठ नीचे मुजब. ॥ प्रथम उस आवश्यकका नाम निक्षेप सूत्रं ॥ ॥से किंतं श्रावस्सयं, श्रावस्सयं चउव्विहं पण्णत्तं, तंजहा । नामा वस्सयं १ । ठवणा वस्सयं २ । दव्वा वस्सयं ३ । भावा वस्सयं. ४ । से किंतं नामा वस्सयं २ जस्सणं जीवस्स वा, अजीवस्स वा, जीवाणं वा, अजीवाणं वा, तदुभयस्स वा, तदुभयाणं वा, श्रावस्स एति नामं कजइ सेतं नामा वस्सयं. ॥ १ ॥ ___अर्थ:-अवश्य करणे योग्य, अथवा आत्माने गुणोंके वश्य करें, अथवा गुणोसें वासित करें, सो क्रियाका वाचक, आवश्यक वस्तुका, चार निक्षेप करते है. ॥ नाम आवश्यक. १ । स्थापना आवश्यक. २ । द्रव्य आवश्यक. ३ । भाव आवश्यक. ४ । नाम आवश्यक क्या है कि जिस जिवका, मनुष्य आदिका । अजीवका, पुस्तक आदिका । अथवा बहुत जीवोंका अजीवोंका। दोनो मिले For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१८) स्थापना निक्षेप सूत्र. हुये आदिका, आवश्यक वैसा नाम किया सो" नाम प्रावश्यक" है. ॥ १॥ ' नाम निक्षेप सूत्रका तात्पर्यः-इहां जो " आवश्यक "शब्दका, निक्षेप करनेमें, सूत्रकारकी प्रवृत्ति है सो, तीर्थकर भगवानके, अरूपी ज्ञान गुणका जो एक अंश, छ आवश्यक रूप "वस्त है " उनकी मुख्यतासेही है । और प्रसंगसे जिहां जिहां इस ना. मका संभव होता है सोभी दिखाया है। परंतु हम तीर्थंकरोंके भक्त तो, अनुपादेय वस्तुओंका दुर्लक्ष करके, जिहां इष्टरूप अवश्य क्रियाका, संभव है । उनकाही बोध, नाम मात्रसेभी कर लेते है । इस वास्ते उनका आधारभूत आवश्यक पुस्तक 'वस्तुका' अभिप्रायसें; तिरस्कार हम नाम मात्रसेंभी, सहन न कर सकेंगे। जैसे" करान" नाम मात्रका तिरस्कार मुसलमानो, और " वेद" नाम मात्रका तिरस्कार, ब्राह्मणो सहन नहीं कर सकते है । कोई पुछेगे कि-उपादेय वस्तुके अभिप्रायसें, सूत्रकी रचना हुई है, ऐसा तुमने कैसें जाना । उत्तर-आत्माको गुणोसें वासित करें इत्यादिक अर्थसें ॥ और सत्यार्थ-पृष्ट. २ में-पार्वतीजीनेभी लिखा है किअवश्य करनेके योग्य, सो आवश्यक इस लेखसेंभी, और आगेके सूत्रोंसेभी, सिद्धरूपही पडा है । मात्र विचार करनेवाला होना चाहीये?॥ ॥ इति नाम निक्षेप सूत्रका तात्पर्याथ ॥ ॥ इति आवश्यक नाम निक्षेप सूत्रार्थः ॥ अथ आवश्यक स्थापना निक्षेप सूत्र. . सेकिंतं ठवणावस्सयं २ जण्णं : १ कठकम्मेवा । For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना निक्षेप सूत्र... (१९) २ चित्तकम्मेवा । ३ पोथकम्मेवा । ४ लिप्पकम्मेवा । ५ गंथिमेवा । ६ वेढिमेवा । ७ पूरिमेवा। ८ संघाइमेवा । ९ अरकेवा । १० वराडएवा । एगोवा, अणे गोवा, सम्भावठवणा वा, असम्भावठवणा वा,आवस्सएत्ति ठवणाठ विजइ सेतं "ठवणावस्सयं" २॥ नामठवणाणं को पइविसेसो णामं आवकहिलं, ठवणा इतरिआ वा, आवकहिया वा ॥ अर्थः-स्थापना आवश्यक क्या है कि-? काष्टमें । २ चित्रमें। ३ पत्र आदिके छेदमें, अथवा लेख मात्रमे ४ लेप कर्ममें 1 ५ ग्रंथ. निमें । ६ वेष्टनक्रिया । ७ धातुके रस पूरणेमें । ८ अनेक मणिकाके संघातमें । ९ चंद्राकार पाषाणमें । १० कौडीमें ॥ यह दश प्रकार से किसीभी प्रकारमें, क्रिया और क्रियावाले पुरुषका अभेद मानके, एक अथवा अनेक,आवश्यक क्रियायुक्त साधुकी आकृ. तिरूपे, किसीमें अनाकृतिरूपेभी, जो स्थापित करना । अथवा आवश्यक सूत्रका पाठ लिखना । उसका नाम "स्थापना निक्षेप" है. २ ॥ नाम, स्थापनामें, इतना विशेष है कि, नामयावत् कालतक रहता है । स्थापना इतरकाल, वा पूर्णकालतकभी रहती है. इति २ स्थापना निक्षेप सूत्रार्थ. अब स्थापना निक्षेप सूत्रका तात्पर्य-भगवानके अरूपी ज्ञान गुणका, एक अंशरूप अक्षरों की स्थापनासें, क्या हमारी उपादेय रूप, छ आवश्यक क्रियाका, बोध, आवश्यक शब्दसे नही होता है ? तुम कहोंगे कि होता है, तो पिछे स्थापनानिक्षेप निरर्थक केशा? For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) द्रव्य निक्षेप सूत्र. जब ते अरूपी ज्ञान गुणका, एक अंशका अक्षरों की स्थापना निक्षेपको, निरर्थक मानोंगे, तब जैनके सर्व सिद्धांतभी, निरर्थक, और उपयोग विना के ही, हो जायगे ? ॥ और आवश्यककी दूसरा प्रकारकी स्थापनामें-ढूंढनीका सत्यार्थ पृष्ट ४ का लेखमें जो "आवश्यक करने वालेका रूप, अर्थात् हाथ जोडे हुये, ध्यान लगाया हुआ ऐसा रूप" के अर्थसे लिखा है, उससेभी, जैन साधुकी मूर्तिही सिद्ध होती है, सो भी निरर्थक कैसें होंगी ? तुम कहोंगे कि-नमस्कार नहीं करते है, तो पिछे ढूंढक साधुकी मूर्तियां किस वास्ते पडाव ते हो ? और साधुका नाम मात्रसें भी नमस्कार क्यों करते हो ? जैसें मूर्ति, साधु साक्षात्पणेसें नहीं है, तैसें नामका अक्षरोमेभी क्षासात्पणे साधु वैठानही है ? ॥ हम तो यही कहते हे कि- . जो हमारी प्रिय वस्तु है, उनके चारो निक्षेपही, प्रिय रूप है । उसमेंभी वीतराग देवतो, हमारा परम प्रिय रूपही है, उनका चार निक्षेप, हमको परम प्रिय रूप क्यों न होगा ? सो वारंवार ख्याल करते चले जाना. . इति स्थापना निक्षेप सूत्रका तात्पर्थ. ॥ अथ ३ द्रव्य निक्षेप सूत्रं. ॥ ॥ सेकिंतं दव्यावस्सयं २ दुविहं पण्णत्तं तंजहा; १ आगमत्रोत्र । २ नो आगमोत्र। सेकिंतं. १ आगमओ दव्यावस्सयं २ जस्सणं आवस्सएत्ति पदं सिख्वियं ठितं, जितं, मितं, परिजितं, नामसमं, घोससमं, जावधम्म कहाए, नोअणुपेहाए, कम्हा अणुवोगो दव्वमिति कट्टु.॥ For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य निक्षेप सूत्र. (२१) ___॥ (मूल.) नैगमस्सणं-एगो अणुवउत्तो आगम ओ, एगं दव्वावस्सयं । दोण्णि अणुवउत्ता, दोण्णि दव्वा वस्सयाई । तिण्णि अणुवउत्ता आगमओ, तिण्णि दव्यावस्सयाई । एवंजावइबा, तावइयाइं दवावस्साई १॥ एवमेव ववहारस्सवि २ ॥ संगहस्सणं-एगो वा, अणेगो वा, अणुवउत्तो वा, अणुवउत्ता वा, अागमओ दव्वाबस्सयं, दव्यावस्सआणि वा ३॥ उज्जुसुयस्स-एगो अणुवउत्तो, आगमतो, एगं दव्वावस्सयं, पुहुत्तं नेछइ ४ ॥ तिएहं सदनयाणं-जाणए अणुवउत्ते अवथ्थु ७॥ . ॥ सेकिंतं २ नो आगमओ, दवावस्सयं २ तिविहं पन्नत्तं, तं, जाणग सरीर १ । भविसरीर २ । जाणग भवित्र वतिरित्तं ३ । वतिरित्तं तिविहं पन्नत्तं १ लोइमं । २ कुप्पावअणिग्रं । ३ लोउत्तरिअं । इत्यादि. ।।.. ___ अर्थः-द्रव्यावश्यक, ? आगम, २ नो आगमसें, दो प्रकारका है। १ आंगमसें द्रव्यआवश्यक यह है कि-जिस साधुने आवश्यक सूत्र सिखा है, स्थिर किया है, जितलीया है, प्रमाण युक्त पढा है, परिपक्वभी किया है, अपणा नाम प्रमाणेही याद किया है, गुरुने दिखाया वैसेही उच्चारणभी कर रहा है, और उनका अर्थभी पुछ गाछ करके यथावत् समज लीया है, और छेवटमें धर्म कथा भी For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) द्रव्य निक्षेप सूत्र. कर रहा है, परंतु क्रियाकाले आगमका कारणरूप " जीवद्रव्य " उपयोग विनाका होनेसें, द्रव्य आवश्यकसें है. इसमें विशेष यह है कि-नैगमनय-एक उपयोग विनाका हो तो, एक द्रव्यावश्यक मानता है । दो होवे तो दो । तीन होवें तो तीन । ऐसें जितने उपयोग विनाका होवें, उतनाही "द्रव्यावश्यक" मानता है १ । ऐसेही व्यवहार नय मानता है. २ । संग्रह नय-एक वा अनेक, उपयोगवाला, वा उपयोगवालेको, द्रव्यावश्यकवाला, द्रव्यावश्यकवाले, करके मानता है ३ । ऋजुसूत्रनय-एकही अनुपयोगवाला, एकही द्रव्यावश्यक मानता है, न्यारा नही मानता है ४ । शब्दादिक तीन नय है.सो-आवश्यक सूत्रार्थमें उपयोगवालेकोही आवकरूप वस्तुसे मानता है. ७॥२ नो आगमसें-द्रव्य आवश्यक तीन प्रकारसे है-१ आवश्यक सूत्रपठित साधुका प्रेत सो जाणग शरीर।२ नवदीक्षितादिक,के जो आवश्यक सूत्र पढेंगे सो भविष शरीर ।३ यह दोनासे व्यतिरिक्त जाणग,भविअ सरीरसें,व्यतिरिक्त,अर्थात् उपादेय. रूप प्रचलित आवश्यकका विषयसे भिन्न स्वरूप, नाम प्रमाणे स्वरूपको दिखानेवाली क्रिया, उनका यह तीन भेद समजना-मुख धावन, दंत धावन, आदि जो जो क्रियाओ लोको अवश्य करते है सो लोकिक है १ ॥ और चरकादिक साधुओंका, जो यक्षादिक पू. जन विगेरे अवश्य कर्त्तव्य है, सो कु प्रावचनिक स्वरूपके है २ ॥ अब जो जिनाज्ञाका लोप करके, स्वछंदपणे वर्तन करनेवाले, नाम धारी जैन साधु होके, लोक दिखावा पुरती क्रिया, करनेवाले है, उनका यह आवश्य कर्तव्य है सो, लोकोत्तरिक स्वरूपका कहा है ३ ॥ मात्र इहां जैनागमका उच्चारण है, परंतु उपादेय रूप 'भाव' वस्तुसे, व्यतिरिक्तपणे काही है. For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य निक्षेप सूत्र... (२३). '' इति ३ द्रव्य आवश्यकका सूत्रार्थ. ॥ अब द्रव्यनिक्षेपका तात्पर्य-यह जो " निक्षेपके " वर्णनमें । सूत्रकारकी प्रवृत्ति है सो, तीर्थंकरोंके अरूपी ज्ञानगुणका, एकैक अंशकी, मुख्यतासे ही है । इस वास्ते जिनाज्ञाका पालन करनेवाले पुरुषोंकी, जो द्रव्यनिक्षेपका स्वरूपवाली, आवश्यककी 'द्रव्य क्रिया' , है, सो भी, हमको आदरणीय स्वरूपकोही है । और उस पुरुषोंकी पूर्व अवस्था, अर्थात् दीक्षा ग्रहण करनेकी इछारूप अवस्था । अपर अवस्था, उनकी मृतक शरीर रूप अवस्था, यह दोनो प्रकारसे द्रव्यनिक्षेपका विषयरूपकी अवस्था है सो भी, हमको आदरणीयरूप ही है । इसी वास्ते हम दीक्षा महोत्सव, और उनका मरण महोत्सव, करते है । मात्र जो जिनाज्ञासें विपरीत होके, लोक रंजन क्रियाओ करते है, उस पुरुषोंका कर्तव्यको, उपादेयके स्वरूपसे व्यतिरिक्तपणे, ( अर्थात् अनुपादेयपणे ) लोकोत्तरिक नामका भेदसें निषेधी दीई है ॥ परंतु द्रव्यनिक्षेपका अनादर, नही किया है । और जो नयोंका अवतरण करके दिखाया है, सोतो जिस २ नयकी जो जो मान्यता है । सोई दिखाई है । सो भी सर्व उपादेयक स्वरूपकी ही है। परंतु निरर्थक रूपकी नही है ? । क्यों किजैनीयोंको तो, साते नयोंका स्वरूप मान्य रूप ही है । और जो स्वछंद चारीयांका कर्त्तव्य, व्यतिरिक्तके भेदमें, 'लोकोत्तरिक स्वरूपसें दिखता है सो, नयोंका विषयमें दाखल नहीं हो सकता है । परंतु नया भासके रूपसें ही रहेगा । इसी वास्ते भिन्न स्वरूपसे वर्णन किया है । और विशेष यह है कि-श्रावकोकी, सम्यक्त्वकी करणी आदिलेके, बारांव्रत तककी, जो जो प्रत्यक्षका बिषयरूपकी करणी है, सो सो सर्व करणी । और साधुकी पंच महाव्रतादिक, For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) भाव निक्षेप सूत्र. 'आहार, विहार, व्याहार, व्यवहारादिक विगेरे, जो जो क्रियाओं प्रत्यक्षपणेसें दिखनेमें आती है । सो सो सर्व क्रियाओ, १ नैगम नय । २ व्यवहार नय । ३ संग्रहनय । और ४ ऋजुसूत्र नय । यह जो चार नयों है, इनकी मुख्यतासेंही, जैन सिद्धांतोंमें वर्णन किई हुई है ? । और इस विषयकी क्रियाओंका, आदर करनेसेंही, हम, लोकोमें, सिद्ध रूप हो के फिरते है । और यही द्रव्य निक्षेपका विषयभूतकी क्रियाओं, परिणामकी धाराको वर्द्धि करनेको, परम कारणभूतही है, इस वास्ते यह द्रव्य निक्षेपकी क्रियाओमी, निरर्थक रूपकी न रहेगी ?। अगर जो निरर्थक रूपकी मानेंगे तो, जैन सिद्धांतोंमें वर्णन किई हुई, सर्व क्रियाओंका निरर्थकपणा होनेसें, हम जैन मतकाही लोप करनेवाले सिद्ध हो जायगे ?। इस वातको पाठक वर्गोने वारंवार विचार करतेही चलेजाना ? ॥ इत्यलं विस्तरेण ॥ .. ॥ इति द्रव्य निक्षेप सूत्रका तात्पर्य ॥ ॥ अथ ४ चतुर्थ भाव निक्षेप सूत्र. ॥ ॥ सेकिंतं भावा वस्सयं २ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा । १ आगमोब। २ नोागमोत्र । सेकिंतं १ आगमओ भावा वस्सयं, जाणए उव उत्ते, सेतं भावावस्सयं । सेकिंत २ नोआगमओ भावावस्सय २ तिविहं पण्णत्तं, तंजहा १ लोइया २ कुप्पावणि।३ लोगुत्तरिअंइत्यादि.॥ । १ शुद्ध भोजन व्यवहार । २ शुद्ध यात्रा व्यवहार । ३ शुद्ध भाषा व्यवहार । ४ शुद्ध क्रिया व्यवहार. For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव निक्षेप सूत्र. (२५) ॥ अर्थ:-भाष आवश्यकमी- १ आगम, २ नो आगम, दो कारसे है | १ आगमसे भाव आवश्यक यह है कि -जी आवश्यकका जाण साधु पुरुषादि सूत्रार्थमें उपयोग सहित वर्त रहा है, सीजानना || २ मो आगमसें तीन प्रकारका है- १ लोकिक जे-भारत रामायणादिकका श्रवण मनन आदि ते । २ कुमावचानिक जेचरक आदि साधुओंका होम हवन आदि ते । ३ लोकोत्तरिक जेशुद्ध साधु आदिका दो टंककी प्रतिक्रमण क्रिया ते । यह तीन कारसे, नोआगम "भाव आवश्यककी" क्रिया, दिखाई है. ॥ इति : भाव श्रावश्यकरूप निक्षेप सूत्रार्थ. V अब भावनिक्षेपका तात्पर्य - तीर्थंकरोंके अरूपी ज्ञान गुणका, एक अंशका आधारभुत, अजीवरूपी पुस्तकका नाम, आवश्यक सो, नामनिक्षेप १ । उसमें अक्षरोंकी रचना, अथवा पठित साधुकी मूर्ति, यह दोनो प्रकरसें, उसका स्थापना निक्षेप २ । अब वही सूत्रका पाठ, और अर्थ, गुरुमुखसें पढकर, उपयोग चिनाका साधु उपदेश करनेको लग रहा है, सो द्रव्य, द्रव्यनिक्षेप ३ । जब वही साधु उपयोग घरमे आके, सूत्रार्थ में लीन हुवा, तब भाव हुवा, सो भाव निक्षेप ४ । यह चारो निक्षेप हमारी अवश्य क्रि यारूप वस्तुके दिखाये है। इसमेंसे तीर्थकरोके भक्तोंको निरर्थक रूप कौनसा निक्षेप है ? उनका विचार करना. fe or निक्षेपके विषय में मृतक साधुका शरीर सो, राजा'णग शरीर है। और दीक्षा लेनेकी इछावालेका शरीर है सो, रामविअ शरीर है । उनका आदर, योग्यता सुजव, क्या नही करते है ? करते ही है । सोभी द्रव्य निक्षेपका विषय, निरर्थक रूपका नही है ॥ For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) पार्वतीजीका लेख. ॥ अब जो द्रव्यनिक्षेपके विषय में व्यतिरिक्तके-त्रण भेद है सो तो, हमारा अनुपादेय पणेसें, सिद्धांतकारने स्वतः ही वर्णन किये है ॥ ... ॥ अव आवश्यकके भाव निक्षेपके विषयमें, नोआगमके, त्रण भेदमेंसें-१ लोकिक, २ कुमावचनिक । यह दोनो तो, नाम मात्रसें ही भिन्न स्वरूपके है । अब जो-नो आगमसे ३ लोकत्तरिक आवश्यकको, कहा है, उसका तात्पर्य यह है कि प्रतिक्रमणमें-उठना, बैठना, विगरे करना पडता है, उनको द्रव्यार्थिक चार नयों ही, . मान, देतीयां है, परंतु शब्दादिक त्रण नयो है सो, उस क्रिया ओंको, जड स्वरूप कहकर, मान, नहीं देतीयां है । इसी वास्ते लोकोत्तरिक भाव आवश्यक, सर्वथा प्रकारसे, उपादेयरूप हुये कोभी, नो आगमके, तिसरे भेदमें, दाखलकरना पड़ा है । इसमें तो केवल नयोकी ही विचित्रता है। परंतु हमतो, मुख्यतासें, द्रव्यार्थिक चारो नयोंको, मान देके, द्रव्य क्रियाका ही, आदर करने वाले है । इसी वास्ते व्रत पञ्चखाण आदि करावते है, क्योंकि भावका विषय है सो तो, अतिशय ज्ञानीके ही गम्य है, परंतु हम नही समज सकते है ॥ इत्यलं पलवितेन ॥ . ॥ इतिचतुर्थ भाव निक्षेपका तात्पर्य ॥ ढूंढनीजीके मनकल्पित चार निक्षेपका अर्थ- चंद्रोदय पृष्ट. १ में ॥ श्री अनुयोगद्दार सत्रमें आदिहीमें “ वस्तुके" स्वरूपके समजनेके लिए, वस्तुके सामान्य प्रकारसे, चार निक्षेपे, निक्षेपने (करने) कहै हैं । यथा-नामनिक्षेप१ । स्थापनानिक्षेप २ । द्रव्यनिक्षेप ३ । भावनिक्षेप ४ । For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्वतीजीका लेख. (२७) ॥ अस्यार्थः-*नामनिक्षेप सो-वस्तुका आकार, और गुणरहित, नाम, सो नामनिक्षेप १ । स्थापनानिक्षेप सो-वस्तुका आकार, और नामसहित, गुणरहित, सो स्थापनानिक्षेप २ । द्रव्यनिक्षेपसो-वस्तुका वर्तमान गुणरहित, अतीत अथवा अनागत गुणसहित, और आकार, नाम भी सहित, सो द्रव्यनिक्षेप ३। भावनिक्षेप सो-वस्तुका नाम, आकार, और वर्तमान गुणसहित, सो भावनिक्षेप ४। । इति पार्वती ढूंननीजीके मनकल्पित चार निक्षेपका अर्थ ॥ पाठक वर्गको पुनः पुनः याद करानेके लिये इहांपर लिखके दिखाये है. ॥ __ अब सत्यार्थचंद्रोदय पृष्ट २ सें सूत्र. ॥ सेकिंतं श्रावस्सयं, आवस्सयं चउविहं पण्णात्तं, तंजहा-नामावस्सयं १ । ठवणावस्सयं २ । दव्यावस्सयं ३ । भावावस्सयं ४ । ॥ सेकिंतं नामावस्सयं, नामावस्सयं जस्सणं-जीवस्स वा, अजीवस्स वा, जीवाणं वा, अजीवाणं वा, तदुभयस्स वा, तदुभयाणं वा, आवस्सएत्ति-नामं, कज्जइ सेतं नामावस्सयं. १ ____* वस्तुमें-नामादि चार निक्षेप, भिन्न भिन्न स्वरूपसें, समजने है, ( देखो निक्षेपके लक्षणोंमें ) तो भी नामके स्वरूपमें-आकार, और आकारके स्वरूपमें-नाम, इत्यादि, विपर्यासपणे लिखती है । For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) पार्वतीजीका लेख. । अस्यार्थः-प्रश्न-आवश्यक किसको कहिये-उत्तर-अवश्य करने योग्य यथा आवश्यक नाम सूत्र, जिसको चार विधिसे समजना चाहिये, तद्यथा--जाम आवश्यक ११ स्थापनाआवश्यक २। द्रव्यावश्यक ३ । भावआवश्यक ४। । प्रश्न-नामआवश्यक क्या-उत्तर-जिस जीवका, अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, आदिकका। तथा अजीवका, अर्थात् किसी मकान काष्ट, पाषाणादिक । जिन जीवोंका । जिन अजीवोंका । उन्हें दोनोंका । नाम आवश्यक, रख दिया सो, नाम आवश्यक १। इति ढुंढनीजीका लिखा हुवा, प्रथम निक्षेप सूत्र. . और अर्थ. सेकिंतं ठवणा वस्सयं, २ जण्णं, १ कठकम्मे वा, २ चित्तकम्मेवा, ३ पोथकम्मेवा, ४ लेपकम्मेवा, ५ गंठिकम्मेवा, ६ वेढिकम्मेवा, ७ पुरिमेवा, ८ संघाइमेवा, ९ अख्खेवा, १० वराडए वा, ११ एगो वा, अणेगोवा, सम्भाव ठवणा ए वा, १२ असभ्भाव ठवणाए वा, श्रावस्सएत्ति ठवणा कजइ सेतं ठवणावस्सयं २। .अस्यार्थः-प्रश्नस्थापना आवश्यक क्या-उत्तर--१काष्टपैलिखा, २ चित्रोंमें लिखा, २,३ पोथीपै लिखा ४ अंगुलीसे लिखा, ५ गूंथ १ हमारी अवश्य क्रिया " वस्तुका" बोध करानेवाला, अजीव रूप पुस्तकमें, नाम निक्षेप, समजना ॥ २ इस स्थापना निक्षेप सूत्रमें-पोथी मैं लिखा, आदिसें, तीथंकरोंका ज्ञान गुण वस्तुके,- अक्षरोंकी स्थापना ॥ । For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्वतीजीका लेख. (२९) लिया, ६ लपेटलिया, ७ पुरलिया, ८ ढेरीकरली, ९ कारखचली, १० कौडी रखली, ११ 'आवश्यक करनेवालेकारूप, अर्थात् हाथ जोडे हुये, ध्यान लगाया हुवा, ऐसारूप उक्तभांति लिखा है। अथवा १२ अन्यथा प्रकार स्थापन करलिया कि, यह मेरा आ वश्यक है, सो स्थापना आवश्यक २ ॥ ॥ मूल-नाम ठवणाणं को पइ विसेसो, णाम श्राव कहियं, ठवणा इतरिया वा होजा, आव कहिया वा होजा ॥ . ॥ अर्थ-प्रश्न-नाम, और स्थापनामें--क्या, भेद है. उत्तर-नाम जावजीव तक रहता है, और स्थापना-थोडे काल तक रहती है, वा जावजीव तकभी रहती है। ॥ इति ढुंढनीजीका-दूसरा निक्षेप, सूत्र, अर्थ. ।। ॥ सेकिंतं दवावस्सयं २ हुविहा पण्णात्ता, तंजहा-आगमओ य, नो आगमत्रो य २ । सेकिंतं आगमओ दव्वावस्सयं २ जस्सणं आवस्सएत्ति पयं सिरिकयं, जाव नो अणुपेहाए, कम्हा अणुवउगो दव्वमिति कटु॥ ___ अस्यार्थः-प्रश्न-द्रव्य आवश्यक क्या-उत्तर-द्रव्य आवश्यक २ भेद, यथा षष्ट अध्ययन, आवश्यक सूत्र } । आवश्यक के पडनेवाला आदि २ । प्रश्न-आगम द्रव्य आवश्यक क्या! उत्तर-आव: १. हाथ जोडै हुये ध्यान लगाया हुवा, आदिसें आवश्यक क्रिया: करने वाला,साधुकी स्थापना, अर्थात् मूर्ति, सिद्भरूप है। For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) पार्वतीजीका लेख. श्यक सूत्रके पदादिकका-यथाविधि सीखना, पढना, परंतु विना उपयोग, क्योंकि विना उपयोग द्रव्यही है । इति इस द्रव्य आवश्यकके उपर ७ नय उतारी हैं, जिसमें तीन सत्य नय कहीं है. ॥ यथासूत्र-तिएह सद्दनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवथ्थु ॥ अर्थ-तीन सत्यनय । अर्थात् सात नय, यथाश्लोक नैगमः संग्रहश्चैव व्यवहार ऋजु सूत्रको शब्दः समाभिरूढश्च एवंभूति नयोऽमी । १।। अर्थ-१ नैगमनय, २ संग्रहनय, ३. व्यवहारनय, ४ ऋजु सूत्रनय, ५ शब्दनय, ६ समभिरूढनय, ७ एवं भूतनय.॥ इन सात नयोंमेंसे पहिली, ४ नय, द्रव्य अर्थको प्रमाण करती हैं। और पिछली ३ सत्यनय, यथार्थ अर्थको ( वस्तुत्वको) प्रमाण करती हैं, अर्थात् वस्तुके गुणविना वस्तुको अवस्तु प्रकट करती हैं । ॥ नो आगम, द्रव्य-आवश्यकके भेदोंमें-जाणग शरीर, भविय शरीर, कहै हैं ॥ ३ ॥ ॥ इति ढूंढनीजीका-तिसरा निक्षेप, सूत्र, अर्थ ।। || भाव आवश्यकमें-उपयोग सहित, आवश्यकका करना कहा है ४ ॥ इन उक्त निक्षेपोंका सूत्रमें-सविस्तार कथन है. ॥ १. एवंभूतो नयाअमी ।। इहां एसा पाठ चाहीये, एसा. बहुत जगे पर फरक है हम लिख दिखावेंगे नही. ॥ - २ तिसरा निक्षेपके, और चोथा निक्षपके, सूत्रादिकमें, गोटा ला कर दिया है सो, हमारा लेखसे विचार लेना ।। For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामनिक्षेप समीक्षा. (३१) ... ॥ इति ढूंढनीजीका लिखा हुवा-मूल सूत्र, और अर्थ, पाठक वर्गका ध्यान खैचने के लिये लिखा है ॥ . ॥ अब जो ढूंढनी पार्वतीजीने-मतिकल्पनासे, चार निक्षेपका अर्थ लिखके, सूत्रपाठ दिखाया है, उनका परस्पर विरुद्ध, और हमने लिखे हुये सूत्र, और अर्थ, और निक्षेपोंका लक्षण, तरफ पाठक वर्गका ध्यान खैचते है. ॥ . ___ ढूंढनीजीका लेख-अनुयोगद्वारका आदिहीमें "वस्तुके" स्वरूपके समजनेके लिए, वस्तुके सामान्य प्रकारसे, चार निक्षेपे निक्षेपने (करने ) कहे है । वैसा लिखके-नाम निक्षेप सो " वस्तुका" आकार, और गुण रहित, नाम १ ॥ ___ और सूत्र पाठसें-नाम आवश्यक १ । स्थापना आवश्यक २ । द्रव्य आवश्यक ३ | भाव आवश्यक ४ । लिखती है. ॥ समीक्षा-पाठक वर्ग ?-वस्तु कहनेसें, गुण क्रियावाली, कोई भी एक चिज माननी पडेगी, और उनमेंही चार निक्षेपे निक्षेपने ( करने ) होंगे, जब वस्तु, वस्तु रूपही न होंगे तब निक्षेपने किसमें करेंगे? जब एक चिज रूपसें निश्चय हो गया, तब आकार रहित, गुण रहित, कैसे कह सकेंगे ? सूत्रकारने तो-एक आवश्यक वस्तुका ही, चार निक्षेप करनेका कहकर, नाम निक्षेप-मात्र--जीव अजीवादिकमें करनेका दिखाया है, जैसे-साधुपदका निक्षेप, नवदीक्षितमें करते है, तैसें यह आवश्यक पदकाभी-नाम निक्षेप, पुस्तकादि किसीभी वस्तुमे करणेका है. ॥ ____ ढूंढनीजी-देखो सत्यार्थ पृष्ट ७ ओ ९ से-किसी गूजरने अपने पुत्रका नाम " इंद्र" रखा सो 'नामनिक्षेप' करा है. For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) नाम निक्षेप समीक्षा. फिर पृष्ट १२ ओ ६ से कन्याका नाम " मिशरी " रख दिया सो " नाम निक्षेप " है इत्यादि. 1 ' / समीक्षा - पाठक वर्ग ? नाम निक्षेप-तीन प्रकार से होता है, देखो नाम निक्षेपका लक्षणमें, तीन प्रकार में से यह दूसरा जो, इंद्र अ शुन्य, और इंद्रके दूसरे पर्याय नामका अनभिधेय, सो नाम निक्षेप, गुज्जरके पुत्रमें किया गया है । इस वास्ते यह वस्तुही दूसरी माननी पडेगी || वैसे कन्याका भी “मिशरी” नाम समजना | क्योंकि - किसी राज पुरुषमें - "राजन् " पदका । अथवा दीक्षित पुरुप - साधुपदका, जैसे- गुण क्रियावाची शब्दका अभिप्रायसें, ना•मका निक्षेप करते है, तैसें - गुज्जर के पुत्र में, और कन्यामें - नाम निक्षेप नही किया गया है । इस वास्ते गुज्जरका पुत्र इंद्र, और मिशरी नामकी कन्या, यह दोनोभी पदार्थ, अपने अपने स्वरूपसे, भिन्न भिन्न वस्तुरूपे होनेसें, कार्य होगा जब दूसरेही चार निक्षेपे करने पडेंगे । चाहे एक नामसे अनेक वस्तु हो, परंतु जिस जिस अभिप्राय से, निक्षेप करेंगे, सोही माने जायगे. जैसे - " हरि " यह वर्ण तो दोई है, और संकेत अनेक व स्तुरूपमें है - कृष्ण, सूर्य, सिंह, वानर, अश्व, आदिमें, परंतु वस्तुरूपे भिन्न भिन्न होने से, कृष्ण के अभिप्रायसे किये हुयें निक्षेपमें सूर्य, सिंह, वानर, आदि कभी न गूसड सकेंगे । ऐसें जो जो वर्ण समुदाय, अनेक वस्तुका वाचक है, उनका चार चार निक्षेप, भिन्न भिन्नसे होगा । जैसे- राजन् कहने से चंद्रमा भी होता है, परंतु पुरुपमें जे राजन्पदका निक्षेप किया है सो तो भूमिपालके अभिप्रायसें किया गया, चंद्रमाका वाचक कभी न हो सकेगा । इश वास्ते यह ढूंढनी ढुंढ ढुंढकभी थक्की तोभी- निक्षेप शब्दका अर्थ ही समजी नही है । क्योंकि सूत्र पाठसे तो-नाम, आकार, भिन्न भिन्न -- For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना निक्षेप समीक्षा. ( ३३ ) पणे कहती है। और नाममें आकार, और आकार में नामकोभी, गूसती जाती है । इनकी पंडितानीपणा तो देखो ! ॥ ॥ इति ' प्रथम निक्षेप ' समीक्षा. ॥ अथ ' द्वितीय निक्षेप ' समीक्षा ॥ ढूंढनीजी - स्थापना निक्षेप सो वस्तुका आकार, और नाम सहित, गुण रहित, । सूत्रपाठसें-काष्टपै लिखा, पोथीपे लिखा, इत्यादि, सदसद्रूपसे दश प्रकारकी शास्त्रकारने मानी है, उनका बारां प्रकार करके लिखती है. 1 समीक्षा - पाठक वर्ग ? वस्तु है सो तो-गुण और आकार विना, कभी न होगी । और इहां - स्थापना निक्षेपमें तो, जो एक भिन्नरूपें वस्तु है उनको, दूसरी वस्तुमें स्थापित करना है । इसी ही वास्ते सूत्रकारनेभी, " स्थापना " दश प्रकारसें कही है । और आवश्यक सूत्रका, दूसरा निक्षेपभी, दश प्रकारमें ही किया है । और ढूंढनभी-काष्टपैलिखा, पोथीपै लिखा, और आवश्यक करनेवालेका रूप - हाथ जोडे हुये, ध्यान लगाया हुवा, लिखती है। तो क्या - पोथी लिखा हुवा आवश्यक सूत्र, पुण्यात्माको अना दरणीय है ? और आवश्यक क्रियाका ध्यानवाली, साधुकी मूर्ति, क्या -- अप भ्राजना करने योग्य होती है ? । जो यह सूत्र से सिद्ध, और सर्वथा प्रकार मान्य स्थापना निक्षेपको, सत्यार्थ पृष्ट ९ में - निरर्थक लिखती है। बाहरे पंडितानी ? यह सूत्र सिद्धस्थापना निक्षेपको, निरर्थकपणे करनेको प्रयत्न करती है ? जैसें आवश्यक सूत्र, और क्रिया युक्त साधुकी मूर्ति, अमान्य नही । तैसे ही - वीतराग देवकी मूर्ति, अनादरणीय कभी न होगी । हे For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४) द्रव्यनिक्षेप समीक्षा. ढूंढनी ! तूं नाम आवश्यक तो-भिन्न निक्षेपसे कह कर आई, और अब स्थापना निक्षेपमें भी-नाम निक्षेपको गूसडती है, तो क्या कुछभी विचार नहीं करती है ? क्योंकि तूंही अपणी पोथीमें-नामका, और स्थापनाका, यावत् काल, और इतर कालसें-भेदभी कहती है । तो पीछे नाम, स्थापना, यह दोनो, एकही स्थानमें, कैसे लिखती है ? ॥ इति । द्वितीय निक्षेप' समीक्षा | ॥ अथ तृतीय 'द्रव्य निक्षेप' समीक्षा । ढूंढनी-वस्तुका-वर्तमान गुण रहित, अतीत अनागत गुण सहित, आकार नामभी सहित-सो द्रव्य निक्षेप. ॥ सूत्रपाठार्थमें,-आवश्यकके २ भेद-षष्ट अध्ययन, आवश्यक सूत्र ॥ १। आवश्यकके पढनेवाला आदि २।। . समीक्षा-आगमसे 'द्रव्य निक्षेप' यह है कि-जो साधु-उपयोग विना, आवश्यक सूत्रको पढ़ रहा है--सो, आगमसे-द्रव्य निक्षेप, माना है । और यह एकही भेदको-नैगमादि सातनयसे वि चारा है । सो देखो हमारा लिखा हुवा, द्रव्य निक्षेपके सूत्र पाठमें । और ढूंढनी हे सो सूत्रमें हुये विना, दो भेद करती है, उसमेंभी -पोथीपै लिखा हुवा, षष्ट अध्ययन, आवश्यक सूत्ररूप, स्थापनाको, द्रव्य निक्षेपमें दिखाती है, और वस्तु जो होती है सो तो-गुण विना, वस्तुही न कही जायगी । तो पीछे वर्तमानमें गुण विना कैसे कहती है ? कहा है कि द्रव्यं पर्याय वियुक्तं, पर्याया द्रव्य वर्जिताः । किं कदा केन रूपेण, दृष्टा मानेन केन वा । १ । अर्थः-द्रव्य है सो-अपणे गुणोसें रहित, और गुणों है सो-द्र For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यनिक्षेप समीक्षा. (३५) व्य विना, क्या ? किसी कालमें, अथवा किसी रूपसे, किसी पुरुबने देखा ? | अगर देखा तो किस प्रत्यक्षादि प्रमाणसे देखा ? दिखादो ? १ । इस वास्ते वर्त्तमानमें गुणरहितपणे वस्तुको, कहना, सोई झूठ है । और कारणमें- कार्यका आरोप करणा, उसका नाम द्रव्यनिक्षेप है । सो-नाम, और स्थापनासे, भिन्न रूपसे, वस्तुका तिसरा - द्रव्य निक्षेप है । उसमें नामनिक्षेप, और स्थापनानिक्षेप, क्यौं लिख दीखाती है ? क्योंकि - सूत्रपाठसेही भिन्नरूपे सिद्ध हो चूका है। इस वास्ते ढूंढनीजीका यह अगडंबगड लिखनाही निरर्थक है. ।। ढूंढनी - इस द्रव्य आवश्यक के ऊपर ७ नय उतारी है, जिसमें तीन सत्यनय कही है. यथासूत्र - तिएह सद्दनयाणं जाणए अणुवउत्ते अवत्थ्यु. अर्थ:- तीन सत्यनय अर्थात् सातनय. समीक्षा - हे पंडिते! तीन सत्यनय- इसीका फलितार्थमें क्या ? सत्यशब्दका अर्थ, सात करके, सातनय, ठहराती है ? प्रथम तो यही पूछते है कि - सत्यनय, वैशा अर्थ, सूत्रमेंसें किस पदका नि काला ? क्योंकि सूत्रों तो - शब्द, समभिरूढ, और एवंभूत, यह तीन नय- अनुपयुक्तको, वस्तु नहि मानते है। इतनाही मात्र अर्थ है, तो पिछे - सत्य और सात, बैशा कहांसे लाके टेकती है ? तुम नयोंका ज्ञान, गुरु विना- कैसे समजोंगें ? ॥ || पार्वतीजी फिर लिखती है कि- पहिली. ४ नय, द्रव्य अर्थको प्रमाण करती है। पिछली ३ सत्य नय, यथार्थ अर्थको प्रमाण करती है । वस्तुके गुण विना वस्तुको अवस्तु प्रकट करती है. ॥ समीक्षा - है सुमतिनी । जब पिछली तीन नयको -सत्य, ठहराती है, तो क्या ? पहिली ४ नय जूही है ? यह अर्थ किस गुरुके ! For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) द्रव्यनिक्षेप समीक्षा: पास पढी ? तूं कहेंगी कि जूठी तो नही है । तो हम पुछते है किं सत्यका विपरीत क्या ? तूंही दिखाव ? क्योंकि - जैनोंको तो साते नयों प्रमाणभूत है। परंतु तेरा कल्प्या हुवा द्रव्यनिक्षेपको निरर्थक ठहराने के लिये, यह प्रपंच करना पडा होगा ? परंतु हम तेराही लेखका निरर्थकपणा, फिरभी दिखादेंगे. , इस वास्ते इहां पर विशेष विवेचन छोडके, लक्षणादिकमें कहा हुवाभी, द्रव्य आवश्यकका स्वरूप, सुगमता के लिये, प्रगट करके दिखाते है. ।। जो वस्तु - पूर्व, किंवा अपर कालमें, कार्यस्वरूपका कारणरूपे निश्चय हो चुकी है, उसका नाम " द्रव्य" है. उस कार्य स्वरूपका, कारणस्वरूपमें, आरोप करणा, उसका नाम " द्रव्यनिक्षेप" कहा है। जैसे - मृतक साधु, अथवा साधु होनेवाला है, उसमें साधुपणा वर्तमानकालमें नही होनेपरभी, साधुपणे का आरोप करके, साधु--कहते है सो- द्रव्य निक्षेप ही कहा जाता है. उनका नाम " द्रव्य निक्षेप" है । क्योंकि शास्त्रकारने भी जीवादिक वस्तुमें ' आवश्यक ' वैशी संज्ञा रखनी, उसका नाम -- नाम निक्षेप, माना है १ || और काष्टादिक दश प्रकारमेंसे - किसीभी प्रकार में, 'आवश्यक वस्तुको स्थापित करणा, उसका नाम - स्थापना निक्षेप, माना है. २ ॥ तैसे ही - आगम के भेद से- वर्तमान में जीवका उपयोगरूप, भाव विना, आवश्यकका पढनेवाला साधुको कारण मानकेही ' द्रव्य निक्षेपमें कहा है । और नो आगमके भेद से- १ जाणग सरीर - कहनेसें, मृतक सा'बुको । और ' २ भविअ सरीर ' कहनेसें - साधु होनेवालेको, द्रव्य निक्षेपमें, कहा है । सोभी कारण ही कार्यका आरोप किया है ।। , १ अवश्य क्रिया वोधक वस्तुको For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनिक्षेप समीक्षा. ( ३७ ) -- आवश्यक क्रियाका कारणरूप साधुमें, भाव आवश्यकका, आरोप करकेही, द्रव्य आवश्यक कहा है. ॥ परंतु ढूंढनीजीका कल्प्पा हुवा - गुण रहित, नाम, आकार, सहित द्रव्य निक्षेप, कैसे बन सकेगा ? इसीही वास्ते द्रव्य निक्षेप के पाठयें, अर्थभी करणा छोड दिया है। केवल जूठा नयोंका डोल दिखाके - आडंबर किया है, इत्यलं विस्तरेण ॥ इति तृतीय निक्षेप समीक्षा. ॥ अथ चतुर्थ निक्षेप समीक्षा. ॥ ढूंढनी - वस्तुका - नाम, आकार, और वर्त्तमान गुण सहित, सो-भावनिक्षेप | सूत्रार्थसें--भाव आवश्यक में - उपयोग सहित, आव. श्यकका करणा, कहा है ॥ ४ ॥ ? समीक्षा - पाठक वर्ग ! उपयोग सहित, आवश्यकका करणा, सो-भाव आवश्यक, । उस आवश्यककी किया मात्रमें नाम, आकार, कैसे गुस गया ! अगर नाम, और आकार, आवश्यक वस्तुका गुडनाथा तो सूत्रसे - नामावश्यक, स्थापना आवश्यकका निक्षेप, भिन्नपणे, कहकर कैसे आई ? विचार करोकि--गणधर महाराजाओंसें विपरीतपणे जाती है कि नहीं ? ॥ इति चतुर्थ निक्षेप समीक्षा ॥ ४ ॥ पाठक वर्ग ! हम चारों निक्षेपोंकी समीक्षा, करकेभी आये है, तोभी सुगमता के लिये, किंचित् विशेष विचार दिखावते है इसी ढूंढनीजीने-अपने लक्षणमें, आकार और गुण रहित, For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) नाम स्थापना निक्षेपमें विशेष. नाम, सो-नाम निक्षेप, लिखाथा । और मूल सूत्रकारने-जीवादिकमें-नाम निक्षेप, करना कहा । और शास्त्रकारके लक्षणसें-तीन प्रकारका नाम निक्षेप ' है । सो अब विचार यह है कि-गूजरका पुत्रमें जो 'इंद्रपदका निक्षेप है, सो । और मिशरी नामकी कन्यामें-मिशरी पदका निक्षेप है सो । क्या ? कुछ आकारवाले, और मनुष्यपणेका जीवके गुणवाले, नहीं है ? जो आकार रहित, और गुण रहितवाला, नाम निक्षेपमें डालती है ? इस वास्त दृढनीजीका मन कल्पित ' नाम निक्षेप' ही निरर्थक है ।। परंतु सूत्रकारका अ भिमायसें-जीवादिकमें । और लक्षणकारके अभिप्रायसे-पर्यायका अनभिधेयरूप, जो दूसरा प्रकारका नाम निक्षेप है, सो । गूजरके पुत्रमें तो-इंद्रपदका, और मिशरी नामकी कन्यामें-मिशरीपदका निक्षेप, सदाही सार्थकरूप ही है । इसी वास्ते हम कहते कि-'निक्षे पोंका अर्थ क्या है, सो यह ढूंढनी समजाही नहीं है. ॥ ॥ इति 'प्रथम निक्षेप "विशेष समीक्षा ॥ ॥ अथ 'द्वितीय निक्षेप ' विशेष समीक्षा. ॥ ढूंढनीजी-अपणे लक्षणमें-वस्तुका आकार, और नाम सहित, और गुण रहित सो- स्थापना निक्षेप, लिखती है । और मूल सू. प्रकारने काष्ठपै-पोथीपै, लिखा । आदि दश प्रकारकी वस्तुमें-आकृति, अनाकृतिरूपे--स्थापना निक्षेप, करना दिखाया है । और लक्षणकारने-वस्तुमें जे गुण है उस गुणोंसें तो रहित, और उसीके अ. भिप्रायसें, उनके सदृश--आकृति, अथवा अनाकुतिरूपे, इछित व. स्तुको स्थापित करना सो-स्थापना निक्षेप । तो अब इसमें-नामका समावेश कैसे होगा. ? अगर जो नामका समावेश करनेका For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यनिक्षेपमें, विशेष. (३९) प्रयत्न करेंगे तो, सूत्रकारसेभी विरुद्ध होगा, क्योंकि सूत्रकारने नाम निक्षेपको, अलग दिखाके, भिन्नरूप दश प्रकारकी वस्तुमें स्थापना निक्षेप, करना दिखाया है | इस वास्ते सूत्रकार, और लक्षणकारके अभिप्रायसें तो, मात्र मूल वस्तुको-आकृति, अनाकृति सें, उस पदार्थको समजनेका है । इस वास्त सूत्रसे, और ल. क्षणकारसेभी, विपरीत, इस ढूंढनीजीकाही लेख, निरर्थक है। परंतु स्थापना निक्षेप, निरर्थक, कभी न ठहरेगा.॥ इति द्वितीय ' स्थापना निक्षेप ' विशेष समीक्षा.॥ ॥ अथ तृतीय · द्रव्य निक्षेपकी ' विशेष समीक्षा. ढूंढनीजी--अपणे लक्षणमें-लिखती है कि--वस्तुका वर्तमान गुण रहित, अतीत अथवा अनागत गुण सहित, और आकार ना. मभी सहित, सो--द्रव्य निक्षेपः॥ और सूत्रार्थमें-द्रव्य आवश्यकके २ भेद-यथा षष्ट अध्ययन आवश्यक सूत्र ? । आवश्यकके पढनेवाला आदि २ । इसमें विचार यह है कि वर्तमानमें आवश्यक सूत्रका, . गुण रहितपणा क्या हुवा ? क्या सूत्रका गुणथा सो, उडकर झाडपर बैठ गया ? जो गुण राहतपणा हो गया ? ( और आवश्य- . कका पढनेवालेमेंभी-गुण रहितपणा क्या है ? तूं कहेंगी कि-उपयोग नहीं है, सो तो जीवका नहीं है, परंतु आवश्यक से क्या चला गया? तूं कहेंगी कि--क्रिया,और क्रियावालेको,एक मान के कहते है । तब तो--उपयोग विनाकी करनेरूप, क्रिया मात्रका नाम--द्रव्य आवश्यक' हुवा। तो पीछे जो सूत्र पाठसें--नाम निक्षेप, और स्थापना निक्षेप,भिन्नपणे कहकर आइ,सो,इस द्रव्य निक्षेपमें,कैसे गूसडती है? इस वास्ते यह तेरा लेख--सूत्रकारसे विपरीत है सो तो, आलजाल For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) भावनिक्षेपमें, विशेष. रूपही है । क्यों कि-सूत्रकारने तो-आगमसे, मुशिक्षित आवश्यक. क्रियाका करनेवाला उपयोग विनाके साधुमें 'द्रव्य निक्षेप' कहा है। और नो आगमसें मृतक साधुमें-पूर्वकालकी, आवश्यक क्रि. याका आरोप, और साधु होनेवालेमें-भविष्यकालकी, आवश्यक क्रियाका आरोप करके वह आगमका कारणस्वरूपमें “द्रव्य आव. श्यक' माना है, सोइ लक्षणकारनेभी दिखाया है ॥ . इति 'द्रव्य निक्षेप' विशेष समीक्षा समाप्ता ॥ ॥ अब चतुर्थ ' भाव निक्षेप ' विशेष समीक्षा ॥ ढूंढनीजी-अपणे लक्षणमें-वस्तुका-नाम, आकार, और वर्तमान गुण सहित, सो-भाव निक्षेप, लिखती है । और सूत्रार्थसेंउपयोग सहित, आवश्यकका, करणा कहा है, वैशा लिखती है। अब जो उपयोग सहित, आवश्यकका करना है सो तो-उपयोग सहित आवश्यककी क्रिया हुइ, सो-भावनिक्षेप ॥ तो अब सूत्रसेंभिन्नपणे नाम, और स्थापना निक्षेप, कहकर आई सो, इस भाव निक्षेपका विषयमानमें कैसें गूसडेगा ? अब देखो हमारा तरफ केसूत्रपाठमें । और लक्षणों ।। सूत्रपाठमें-आगमसें तो-उपयोग सहित, आवश्यक क्रियामें प्रवृत्ति कर रहा हुवा साधुमें-भाव निक्षेप । और नो आगमसे,-लोकिक, लोकोत्तर, और व्यतिरिक्त, के सबं. धवाले पुरुषों जो अवश्य क्रिया प्रवृत्ति कर रहे है, उस पुरुषोंमे 'भाव निक्षेप' माना है । और शास्त्रकारके लक्षणसें देखो कि-जे जे नामवाली वस्तुमें जो जो क्रियाओं सिद्ध है, उसी क्रिया व. स्तुका वर्तन होना, सो-'भावनिक्षेपका' लक्षण कहा है । सो, सूत्रकारका, और लक्षणकारका, एकही अभिप्राय मिलता है। इस For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप चार । ढूंढनीका-आठ.. वास्ते ढूंढनीजीने जो जूठी कल्पना किई है, सो तो सूत्रकारसें, और कक्षणकारसेभी, तदन विपरीत होनेसे निरर्थकही है... - इति चतुर्थ भाव निक्षेप' विशेष समीक्षा समाप्ता ।। अब सिद्धांतकारोसें, निरपेक्ष होके, ढूंढनी, आठ, विकल्प, करती है. ढूंढनी-सत्यार्थ पृष्ट ११ ओ. ९ सें-अथ पदार्थका नाम १ । और नाम निक्षेप २ । स्थापना ३ । और स्थापना निक्षेप ४ । द्रव्य ५ । और द्रव्य निक्षेप ६ । भाव ७ । और भाव निक्षेप ८। स्वरूप दृष्टांत सहित लिखते है इत्यादि. . समीक्षा-हे ढुंढनी ? तीर्थकरोका, और साथमें गणधरोंकामी, अनादर करके यह ' आठ विकल्प ' कल्पित लिखनेके वख्त तेरी बुद्धि कैसे चली ? गणधर महाराजाओने, जो चार चार निक्षेप, वस्तुका किया है, उनके पूर्वापरका विचार तूं देखतीही नही है ? । हम इतनाही कहते है कि-जो किसीभी जैन सिद्धांतमेसें तेरे किये हुये आठ विकल्पका पाठ दिखावेगी, तबही तेरी गति होगी ? नहितर गति न होगी। आजतक तो तेरे ढूंढको परोक्षपणे गणधरोंका, और प्रत्यक्षपणे महान् महान् आचार्योका--अनादर करनेसें अवि. वेकका क्लेश पावतेरहें, अब प्रत्यक्षपणे गणधरोके वचनका--अनादर करनेसे, न जाने तुमेरी क्या दशा बनेगी । वाचकवर्गको भी ढूंढनीने कियेली, अनादरपणेकी खातरी हो-जायगी. ॥ ॥ अब नाममें-कुतर्कका विचार ॥ ढूंढनी-सत्यार्थ पृष्ट ११-१२ में-जो 'द्रव्य ' मिशरीनाम है For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) नाममें, कुतर्कका विचार. सो, सार्थक है । और-मिशरी नामकी, कन्या है सो, नाम निक्षेप है, सो-निरर्थक है । ___ समीक्षा-ढूंढनीजी-अपणे लक्षणमें लिखती है कि-आकार और गुण रहित, नाम सो, नाम निक्षेप, तो क्या--कन्या कुछ आकार रूप नही है ? और क्या मनुष्यपणेका गुणवालीभी नहीं है ? जो आकार और गुणविना के लक्षणमें, डालती है ? पाठक वर्ग : नाम निक्षेप, तीनमकारसें, किया जाता है, देखो प्रथम निक्षेप के लक्षणमें-यथार्थ गुणवाली, मिष्ट रूप, द्रव्य मिशरीमें, प्रथम प्रकारसे नाम नि. क्षेप' है। और कन्या रूप वस्तुमें-दूसरा प्रकारका नाम नि. क्षेप' किया गया है, सो भी कन्यारूप वस्तुको जनानेवाला ही है। तो पिछे निरर्थक कैसे होगा ? वस्तु रूपे कन्या होनेसे, कन्याका दूसरेही ' चार निक्षेप ' करने पड़ेंगें । इस वास्ते हम कहते है कि ढूंढनीने, निक्षेपका अर्थ ही, कुछ समजा नहीं है । जैसें-हरि, यह दो वर्ण ही है, परंतु कृष्णके वख्तमें, कृष्णका, भाव, प्रगट करेंगे । और-सूर्य, सिंह, के अभिप्रायके वख्तमें, सूर्य सिंहादिकका 'भाव' प्रगट करेंगे । परंतु एकसें दूसरी वस्तुमें 'हरि' नामका निक्षेप, निरर्थक केसे होगा ?जब नामवाली वस्तु, वस्तुरूपे न होवें, तबही निरर्थक होगा । और यह ढूंढनीभी-वस्तुके चार चार निक्षेप करना, वैसा कहकर, सूत्रसें-आवश्यक रूप, एक वस्तुका, दिखाके भी आई है, तष कन्यारूप वस्तुमें, निक्षेप निरर्थक है, वैसा कैशे कहती है ? सोतो वाचकवर्ग ही विचार करें । इति नाममें-कुतर्कका विचार ॥ For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना में, कुतर्कका विचार. (४१) ढूंढनी - सत्यार्थ पृष्ट ८ ओ १० - काष्ट पाषाणादिकी मूर्ति, कार्य साधक नही || और पृष्ट ९ ओ ३ से दोनो निक्षेप अवस्तु है ।। ओ १२ से इन दोनो निक्षेपोंको, सात नयोंमेंसे, ३ सत्य नय वालने, अवस्तु माना है । क्योंकि, अनुयोग द्वार सूत्रमें - द्रव्य, और भाव निक्षेपो परतो, सात २ नय-उतारी है, परंतु नाम, और स्थापना पै, नही उतारी है इत्यर्थः समीक्षा - पाठकवर्ग, ? लक्षणसें जो तीन प्रकारका नाम निक्षेप किया गया, सो तो, अपनी अपनी वस्तुपणाका, भाव-प्रकट करनेवाला ही, हो चुका है | और स्थापनाभी - जिस वस्तु के अभिमायसें, स्थापित किई जावे, उस वस्तुका भावको क्या नही जनाती है ? जो ढूंढनी निरर्थकपणा, और अवस्तुपणा, कहती है ?||और अपणा किया हुवा लक्षणमें- आकार, और नाम, सहितपणा लि. खती है, तो अब स्थापनामें अवस्तुपणा कैसें होगा ? जो वस्तुपणा न होगा तो आकारपणाभी न होगा | और सूत्रकारने - पोथी पै लिखा आदि, अथवा आवश्यककी क्रियायुक्त साधुकी मूर्ति, कही है, सो क्या विचारवाले पुरुषको आवश्यककी क्रियाका 'भाव' प्रगट करनेवाली, स्थापना नही है ? जो ढूंढनी दोनो निक्षेपको, निरर्थक, कहती है । ? और लिखती है कि सूत्रमें, द्रव्य, और भाव निक्षेपों पर तो सात २ नय उतारी हैं, परंतु नाम, और स्थापना पैं, नहीं उतारी है इत्यर्थः, और उपर लिखती है कि इन दोनों नि क्षेपोंको, सातनयोंमें, ३ सत्यनयवालोंने, अवस्तु माना है । पाठकवर्ग ! इस ढूंढनीने कुछभी विचार है ? कि में क्या बकवाद करती हूं, जब दोनों प्रथमके निक्षेपोंपर, सातनय उतारीही नहीं है, तब सातनयोंमेंसे, ३ सत्यनयवालोंने, अवस्तु माना, वैसा कहांसे लिखती हैं? अरे ढूंढनी ! यह विचारही कुछ और है, तेरे बडे For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) स्थापनामें, कुतर्कका विचार. बडे ढूंढीये तो यूंही कहत कहते चले गये, कि, यह अनुयोगद्वार सूत्र-न जाने क्या है, कुछ समजा नही जाता है । ऐसा हमने गुरुजीके मुखसे ही सुनाथा तो पिछे तूं क्या समजनेवाली है ? जब यह अनुयोगका विषय समजेगा, तब तुमेरा ढूंढकपणाही काहेकुं रहेगा? और यह मेरा सामान्य लेखमात्रसेंभी तुमको समजना कठीनही मालूम होता है । . ढूंढनी-सत्यार्थ पृष्ट १२ ओ १२ सें-मिशरीका कूजा सो स्थापना, ।। पृष्ट १३ सें-मिट्टी, कागजका,-आकार बनालिया सो, स्थापना निक्षेप है, सो-निरर्थक है. ॥ ___ समीक्षा-पाठवर्ग, ? जे मिशरीका कूजामें, मिष्ट क्रिया रही हुइ है, सो तो ' भावरूप' है। उसमें-नाम, और स्थापना, कैसे गूसडती है ? जब वैसाही होता तो, शास्त्रकार-दश प्रकारकी भिनरूप वस्तुमें, स्थापना, किस वास्ते कहते ? ढनी-स्थापना अलग है, और-स्थापना निक्षेप, हम तो अलंग २ मानते है. समीक्षा-हे विचार शीले ! जो तूंने स्थापना, और स्थापना, निक्षेप, अलग २ लिखके, जूठी मनः कल्पना किई है, सो तो, जैनीयोंके करोडो पुस्तक लिखा गयेथे उसमेंसें, लाखो परतो विद्यमान है, उसमेंसें एकभी पुस्तकमेसे, न मिल सकेगी.। तेरी जूठी कल्पना तो तेरेही जैसे कोई होगे सो भले मानेगे । परंतु दूसरे जैनी हे सो न मानेगे ।-इस वास्ते चारही निक्षेप के विना, जो तूंने कल्पना किई है, सो तो सर्व जैन सिद्धांतों काही विपर्यासपणा किया है। ... .... .. . . . For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य में-- कुतर्कका विचार. ॥ इति स्थापनायें- कुतर्कका विचार || || अब द्रव्य निक्षेपमें- कुतर्कका विचार || ढूंढनी - पृष्ट १३ ओ ६ से, द्रव्य, खांड, आदि, जिससे मिशरी बने, सार्थक है, ॥ ओ ८ से, -द्रव्य निक्षेप, मिशरी ढालनेके, मिट्टी के कूज्जे, इत्यादि. | ( ४५ ) ) समीक्षा - पाठक वर्ग ! पूर्व कालमें, किंवा अपर कालमें, जो कार्य कारण रूप -- एक वस्तु है, उस कारण रूप वस्तुमें - कार्यका आरोप करणा, उसका नाम द्रव्य निक्षेप है । सो द्रव्य, और द्रव्य निक्षेप, अलग कैसे मानती है ? | खांड है सो क्या, वर्त्तमानमें मिशरी रूप है ? जो एकपणा कर देती है ? मात्र आरोप करके मिशरी मानने की है ? देखो - लक्षण - ओर सूत्रपाठार्थ। ढूंढनीजीकी मति तो भ्रम चक्र में गिरी हुई है। और ढूंढनीजी कहती है के, द्रव्य निक्षेपमिशरी ढालने के कूज्जे । और आपने लक्षणमें लिखती है कि-वस्तुका वर्तमान गुण रहित, अतीत अनागत गुण सहित, सो द्रव्य निक्षेप, । तो अब मट्टीके कूज्ज़ेमें- अतीत, अनागतमें, मिशरपिणेका गुण, ढूंढनीजीने क्या देख्या ? जो द्रव्य निक्षेप करके दिखाती है ? और क्या मिट्टी के कूज्जेको, अतीत अनागत कालमें, मिशरी करके खाये जायगें ? जो मिशरी वस्तुका ' द्रव्य निक्षेप' कूज्जेमें करती है ! हे सुमतिनि ? विचार कर ? । तेरी जूठी कल्पना कहांतक चलेगी. ? ॥ इति द्रव्यमें- कुतर्कका विचार || || अब भावनिक्षेपमें कुतर्कका विचार || ढूंढनी - पृष्ट १३ ओ १५ से भाव, मिशरीका मिठापण, ॥ For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) 'भाव, कुतर्कका, विचार. पृष्ट १४ ओ ३ से मिट्टी के कूज्जेमें, मिशरी हुई सो 'भाव निक्षेप' इत्यादि । समीक्षा - पाठक वर्ग ! मिशरी में मिठापन है सो तो 'भाव निक्षेप' है । परंतु ' कूज्जा' जो मिट्टीका है, उसमें, मिठापणेका ' भाव क्या है ! जो ढूंढनी मिशरी वस्तुका भाव निक्षेप मिट्टी के कूज्जेमें करती है ? क्योंकि कूज्जा जो है सो तो, एक वस्तु ही अलग है, उनके तो 'चार निक्षेप' अलग ही करने पडेंगे । और कूज्जा जो मिट्टोका है सौ क्या खाया जायगा ? जो मिट्टी के कूज्जेमें, मिशरीका भाव निक्षेप, करती है ? और अपणा किया लक्षणसे, मिशरी वस्तुका 'भाव' मिट्टी के कूज्जेमें, कैसें मिलावेगी ? क्योंकि वर्तमान में गुण सहित, भाव निक्षेप, कहती है, । तो मिट्टी के कूज्जेमें; वर्त्तमानमें मिशरीपणेका भाव क्या है ? सो दिखा देवें ।। ढूंढनी - " इदं मधुकुंभं आसी " उहां तो द्रव्य 'निक्षेप ' मानाथा, तो इहां मिशरी युक्त कूज्जेमें 'भाव निक्षेप' क्यौं नही मानते हो ? क्यों कि 'निक्षेप नाम, डालना. " समीक्षा - है सुमतिनी ? उहां तो-जो मधु भरणरूप क्रिया है, उस क्रिया मात्रकोही, वस्तुरूप मानोथी, सो वर्त्तमानमें मधु भ रणरूप क्रिया नही होनेसें, मात्र भरण क्रियारूप वस्तुका, आरोप मान के ' इंदं मधुकुंभ आसी' ऐसा दृष्टांत दियाथा। जैसें आवश्यकके निक्षेपमें - ज्ञान वस्तुका उपयोग विनाका साधुको 'द्रव्य निक्षेप' रूपसे मानाथा, तैसें इहांपर समजनेका है परंतु कुंभको- द्रव्य निक्षेपपणे, नही मानाथा । क्यों कि कुंभका, द्रव्य निक्षेप करणा पडेगा जब तो, मिट्टीही करणा पडेगा । इस वास्ते भाव निक्षेपमें मिशरी है, सोई हैं । कुछ मिट्टी के कूज्जेमे - मिशरीका भाव निक्षेप, " For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरों में- कल्पित निक्षेप. S ( ४७ ) न होगा । कूज्जेमें तो जो कोइ -भरण क्रिया आदि - - विशेष गुण - है सोई' भावरूप है. ? ॥ , इति ढूंढनाजीके मनः कल्पित, आठ विकल्पकी, सामन्यपणे समीक्षा. || ढूंढनीजीने तीर्थकरोंमें चार-निक्षेपकी, जूठी कल्पना किंई है, उनका विचार दिखावते है | ढूंढनी - पृष्ट १४ ओ ८ से - नाभिराजा कुलचंद नंदन इत्यादि, सद्गुण सहित, ऋषभदेव, सो नाम ऋषभदेव, कार्य साधक है. इत्यादि ॥ पृष्ट १५ ओ. ३ सें- किसी सामान्य पुरुषका नाम, स्थंभादिका नाम, ऋषभदेव, रख दिया सो, -नाम निक्षेप, निरर्थक है | समक्षा - पाठक वर्ग ! ढूंढनी-अपणा किया हुवा लक्षणमें, आकार और गुण रहित, नाम सो ' नाम निक्षेप लिखती है। तो क्या पुरुषमें - कुछ आकार नही है ? और क्या मनुष्यपणेका, गुणभी, कुछ नही होगा ? ॥ और तैसेंही, स्थंभामें-- आकार, और धारण करणरूप गुण क्या नही हैं. ? । जो आकार और गुण विनाका ' नाम निक्षेपमें, दिखाती है । हे सुमतिनी ! देख - हमारा लिखा हुवा लक्षणसूत्रमें तीन प्रकारसे, नाम निक्षेप करना, दिखा या है। सो तो वर्णसमुदायमात्रपणे से संकेत है, जिसने - जिस वस्तु १ पुरुष - स्थंभायें - और तीर्थकर में - ऋषभ और देव यहदोनो शब्दोका, सर्वजगे एक सरीषा संयोग होनेसें ' नाम निक्षेप' का फरक नही है, मात्र बस्तुओंका ही फरक से ढूंढनी, भ्रम हुवा है || For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) में, किया, सो उस वस्तुको, समजदा है, ॥ क्यों कि -- ऋषभदेव, कहनेसें कुछ, म्लेछोको 'नाभिराजाका पुत्र' याद न आवेगा । हां इतनाही मात्र विशेष है कि, दूसरे पुरुषमें-- ऋषभदेव नाम हैं सो, नाभिराजाका पुत्रके गुण पर्यायका वाचक न होगा । क्यौं कि वह वस्तुही दूसरी है, इस वास्तेसो ऋषभदेव नाम है सो तो, अपणाही पुरुषपणका भाव प्रगट करेगा । इस वास्ते जो ढूंढनीने कल्पना किई है, सो जैनमतसें ( अर्थात् तीर्थकर गणधरोके मतसें ) तदन विपरीत होनेसें महा प्रायश्चितकी प्राप्तिको देनेवाली है । देखो नाम निक्षेपका लक्षण सूत्रमें || तीर्थकरों में कल्पित निक्षेप. - दूढनी - पृष्ट १५ ओ ९ से - औदारिक शरीर, स्वर्ण वर्ण, पद्मासन सहित, वैराग्य मुद्रा पिछाने जाय सो, स्थापना ऋषभदेव, कार्य साधक है । ओ १५ सें पाषाणादिकका बिंव, पद्मासनादिकसे, स्थापन कर लिया सो, - स्थापना निक्षेप, निरर्थक है | समीक्षा - पाठक वर्ग ? जब ऋषभदेव - पद्मासनादि सहित, साक्षात् होंगे, सो तो 'भाव' रूपही है, उसको स्थापना, कैसें कहती है ? | फिर स्थापना, और स्थापना निक्षेप, अलग है वैसा हे सुमतिनी । तुं कहांसे ढूंढकर लाई ? शास्त्रकारने तो दश प्रकारकी ही स्थापना, भिन्नरूप वस्तुसें, मूलपदार्थकी करनी दिखाई है । इस वास्ते - स्थापना निक्षेप, निरर्थक, नही है किंतु ढूंढनीकी कल्पना ही निरर्थक है. 1 ढूंढनी -- पृष्ट १६ ओ ६ --संयम आदि केवल ज्ञान पर्यंत, गुण सहित शरीर सो ' द्रव्य ऋषभदेव ' कार्य साधक है ।। ओ १३ सें-- निर्वाण हुए पीछे, यावत् काल शरीरको दाह नही किया, ताबत् काल शरीर रहा सो 'द्रव्य निक्षेप ' निरर्थक है. ॥ For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरों में- कल्पित निक्षेप. ( ४९ ) ' समीक्षा - ढूंढनीने सूत्रार्थमें - पष्ट अध्ययन सूत्र १ । और पढ नेवाला २ । यह दो विकल्प ' द्रव्य निक्षेपमें ' कहाथा । इहां तीर्थकर पद रूप भाव प्राप्त होनेवाला प्रथम अवस्थारूप जीवतेको छोडके, एकीला मृतक ही द्रव्य निक्षेप कहती है । इस वास्ते यह कल्पनाही जूठ है । पाठकवर्ग ! द्रव्य, और द्रव्य निक्षेप, शास्त्रका - रने- कुछ अलग नही माने है; मात्र आगम, नोआगम के भेदसे, माने है । और - नोआगमके, तीन भेद किये है। १ जागग सरीर, अर्थात् भाव प्राप्त मृतक शरीर । २ भवि सरीर, अ. र्थात् भावको प्राप्त होनेवाला शरीर । ३ व्यतिरिक्तके अनेक भेद है । अब इहां पर ढूंढनीजीने ऋषभदेवका - भविअ शरीरको तो 'द्रव्य' बनाया । और जाणग शरीरको 'द्रव्यनिक्षेप' ठहराया । विचार करो कि - गणधर पुरुषोंसे विपरीतता कितनी है ! इसीही वास्ते ढूंढनीने, द्रव्यनिक्षेपमें सूत्र, और अर्थ, छोडकर, सात नयोंका जूठा भंडोल दिखाके, अजान वर्गको भुलानेका ही उपाय किया है। जिसको तीर्थंकरोका, और गणधर महाराजाओका भी, भय नही है, उनको कहेंगे भी क्या ? | ढूंढनी - पृष्ट १७ ओ ६ सें भगवान् असें नाम कर्मवालाचे - तन, चतुष्टयगुण, प्रकाशरूपआत्मा, सो ' भाव ऋषभदेव ' कार्य साधक है | ओ ९ से- शरीरस्थित, पूर्वोक्त चतुष्टयगुणसहित आत्मा, सो 'भावनिक्षेप. यह भी कार्य साधक है । यथा घृतसहित कुंभ घृतकुंभ इत्यर्थः ॥ समीक्षा - पाठकवर्ग ? इस ढूंढनीने भी अपने सूत्रार्थमें - आarunक्रिया और क्रियाकारक साधुरूप एक ही वस्तुमें, भाव निक्षेप लिखा है । और इहां' एक भावनिक्षेप' है, उनके दो रूप For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) तीर्थकरोंमें-- कल्पित निक्षेप. कर के दिखाती है | परंतु भाव, ओर भात्र निक्षेप, शास्त्राकारने, अलग नही माने है | तीर्थकरोकी विभूतिसहित, उपदेशादि क्रियायुक्तपणा है सोई भावनिक्षेप माना है, देखो हमारा लक्षण और पादार्थ । और घृत घटका दृष्टांत दिया है सो निरर्थक हैं, क्योंकि घृतमें घटपणेका भाव नही आजाता है जो घट है सो घृतका भाव रूप होजावे | क्योंकि घटरूप वस्तु अलग होनेसें घटका भाव, घटही रहेगा, कार्यप्रसंगे घटका चार निक्षेप अलग ही करने पडेंगे. ढूंढनी - पृष्ट १८ ओ १ से - जेठमल ढूंढक साधुका पक्ष ले के लिखती है के वस्तुका नाम है सो नाम निक्षेप नही | फिर ढूंढनी ओ १० से-सूत्र में तो लिखा है कि-- जीव, अजीवका नाम आवश्यक निक्षेप करे सो ' नाम निक्षेप | अर्थात् नाम आवश्यक है, कि, आवश्यकहीमें ' आवश्यक निक्षेप कर घरे. , समीक्षा- पाठकवर्ग ? जो जो पदार्थ ' वस्तुरूपे ' एक चिज है, उसकी ‘संज्ञा' समजने के लिये, इच्छापूर्वक वर्ण समुदायका, निक्षेप करके समजना, उसका नाम, नामनिक्षेप है, इस वास्ते नाम, और नामनिक्षेप, अलग कभी न माने जायगे, सोइ विचार पिछे दिखाकेभी आये है, और जो ढूंढनी लिखती है कि-जीव अजीवादिकमें, आवश्यक निक्षेप करें, सो नामनिक्षेप है कि, आवश्य कहीमें - आ. वश्यक निक्षेप करधरे । हम पूछते है कि - पुस्तकरूपे जो वस्तु है सो क्या 'अजीवरूप वस्तु' नहीं है ? जो ढूंढनी छिनकती है । जब 'पुस्तक ' अजीवरूप से वस्तु है तो, आवश्यक नामका निक्षेप, आवश्यकसूत्रमें करना युक्तही है । सो 'नामनिक्षेप' शब्दार्थयुक्त होनेसें, लक्षण कारकेमतसें प्रथमप्रकारका कहाजायगा । और दूसरी वस्तु ओंमें बह नामका निक्षेप दूसरा प्रकारका कहा जावेगा। देखो नाम निक्षेपका लक्षण सूत्र में, इस वास्ते नाम, और नामनिक्षेप, अलग कभी न बनेगा. 1 For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरोंमें-कल्पित निक्षेप. (५१) ढूंढनीने-पृष्ट १९ से लेके-पृष्ट २१ तक, जो कुतर्क किई है सो तो, हमारा पूर्वका लेखसे, निरर्थक हो चुकीहै । तोभी ढूंढनी. की अज्ञता दूरफरनेको किंचित् लिख दिखाते है. ढूंढनी-भगवान्में नामनिक्षेप किया 'महावीर' तो कोई मानभी लेवें । परंतु भगवान्में भगवान्का ' स्थापनानिक्षेप ' कैसे हो. गा, । एसा कहकर, गाथार्थके अंतमें, लिखतीहै कि-गाथामें ऐमा कहां लिखा है कि-चारों निक्षेप वस्तुत्वमें मिलाने, वा चारों निक्षेपे वंदनीय है. समीक्षा-हे सुमतिनि! तुमेरे ढूंढकोंको 'निक्षेपोंका अर्थ, समज्या होतातो, ऐसी दूरदशा ही काहेको होती ? अब देखो सूत्र, और लक्षणकारके, अभिप्रायसें कि-तीर्थकर नामकर्म उपार्जित 'जी.. वरूप वस्तु' है, ते तीर्थकरका जीवसें अधिष्टित पुद्गलरूप भिन्नशरीरमें 'महावीर' संज्ञा दिई, सो 'नामनिक्षेप' तीर्थकरमेंही दाखल हुवा. १ । और दशप्रकारकी भिन्नरूप वस्तुमेंसें-जो पाषाणरूप एकभेदमें, उस तीर्थकरका शरीरकी आकृति ' किई गई सोभी 'स्थापना' उस तीर्थकरमेंही दाखल हुई २ । और जिस वर्तमानकालमें, तीर्थकरकर्मका उपदेशरूप कार्यकी प्रवृत्ति करनेकी, योग्यता नहीं है. उनका अतीत, किंवा अनागत कालमें, आरोप करके 'ती. थंकर' कहना सो 'द्रव्यनिक्षेपभी' उस तीर्थकरमेंही होता है. ३ । जब उपदेशरूप कार्यकी प्रवृति करनेकी योग्यता प्रगटपणे विद्यमान रूपसेंहै तब सो 'जीवरूपवस्तु' भाव तीर्थकरपणे, कहा जाता है, ४ । अब विचार करों कि, यह चारों निक्षेप, तीर्थकरका जीवरूपवस्तुमें मिलें कि, कोई दूसरी वस्तुमें जाके मिलें ? जब एक निक्षेप, वंदनीय होगा, तब तो 'चारों निक्षेपभी' वंदनीयरूपही होगा ॥ For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) आत्मारामजी, बूढेरायजी. और जिसका एक निक्षेप, वंदनीय न होगा, उनका चारों निक्षेपभी 'वंदनीय' कभी न होगा || किस वास्ते खोटी कुतर्कों करके, अपणा, और अपणा अश्रितोंका, बिगाडा करलेतेहो, ? सद्गुरुका शरणालियाविना कभी कल्याणका मार्ग हाथ नही लगेगा. इति पर्याप्त मधिकेन ॥ ॥ और पृष्ट २१ ओ १० सें लिखा है कि- आत्मारामजी तो, बिचारा पढा हुआथा ही नही. ॥ यहभी ढूंढनीका लेख सत्यही है । क्योंकि, आत्मारामजी पढा हुवा ही नही था, यह बात सारीआलम जानती ही है. मात्र हठीले ढूंढकों के वास्ते तो तूंहीही साक्षात् पार्वतीका अवताररूपे हुई है, उनके वास्ते आत्मारामजी नहीथा, कवत है कि, अंधेमें काणा राजा, तैसा तूं आचरण क रके जो महापुरुषोंको यद्वा तद्वा बकती है सो तो तेरेकोही दुखदाई होगा. ढूंढनी - पृष्ठ २९ ओ १२ से-बूटेरायजी आदिक संस्कृत नहीं पढेंथे, वे सब मिथ्यावादी है, और असंयमी है, उनका इतबार नही करना चाहीये. 1 समीक्षा - पाठक वर्ग ! संस्कृत पढे विना, वचनशुद्धि, नही होती है । यह बात तो सिद्धही है । और जो गुरु मुखसें धारण करके, उतनाही मात्र कहता है. उनको बाधकपणा कम होता है. । और गुरुका अनुयायीपणेही, संयममें प्रवृति करता है, उनका संयममें, कोइ प्रकारका बाधक नही होता है. ॥ परंतु तुम दृढको तो, आजतक जो जो महा पुरुष होते आये उनका सबका, अनादर करके, उठपणा करते हो इस वास्ते, तुमेरा सब निरर्थक है. ॥ संवेगी तैसें नही है. ॥ For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृतिमें-चारनिक्षेप. ॥ इति आत्मारामजी बूटेरायजी ॥ ॥ अब मूत्तिमंचार निक्षेप ॥ ढूंढनी-पृष्ट २८ ओ. १५ से-मूत्ति-भगवानके चारों नि. क्षेपे ' उतारके दिखाओ. इत्यादि । समीक्षा-हे सुमतिनि ! अभीतक तेरेको निक्षेपका अर्थही समजा नहीं है, इसी वास्ते कुतर्को कर रही है । जो निक्षेपोंका-अर्थ, समजी होनी तो, एसी एसी कुनकों करतीही किस वास्ते ? देख सूत्रपाठसे-निक्षेपोंका अर्थ कि,-वस्तुमें, प्रचलित वर्णसमुदायमात्रसें, संज्ञापणाको, आरूढकरना, उसका नाम 'नामनिक्षेप' है. १ ॥ और वस्तुको, दश प्रकारमेंसे किसीभी दूसरी प्रकारकी वस्तुमेंआकृति, अनाकृति रूपे, स्थापित करना उसका नाम ' स्थापनानिक्षेप' है. २॥ और जो वस्तु कार्यरूप है; उनका पूर्व अपरकालमें जो कारणरूप स्वभाव है, उसमें कार्यरूप वस्तुका, आरोप करना, उसका नाम 'द्रव्यनिक्षेप' है. ३ ।। और जो वस्तु, वस्तुरूपमें स्थित होके, अपणी क्रिया प्रवृत्ति करती है सो भावनिक्षेप है. ४ ।। जब शास्त्रकारने निक्षेपोंका अर्थ-ऊपर लिखे मुजब किया है। तब तूं हमारी पाससे मूर्तिमेही, भगवान्का चारों निक्षेप, कैसे कराती है ? क्योंकि-मूर्ति तो, हमने, भगवान्का, केवल एक 'स्थापनानिक्षेप' ही किया है । तूं कहेगी कि-ऋषभदेव, आ. दिका ' नामभी' देते हो, तो ' नामनिक्षेपभी' तो मूर्तिमें रखतेही हो, हे विचार शीले ! नाम देते है सो तो, उस वस्तुकीही, यह मूति, स्थापित किई है, उनका पिछान करनेके वास्ते है। और 'नामनिक्षेप' तो नाभिराजाका 'पुत्ररूप वस्तुमें' यावत् कालतकका For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) चारनिक्षेपमें-ढूंढनीजीका ज्ञान. हो चुका है. । मूर्ति तो पाषाणरूप वस्तुही अलग हैं. । अगर जो मूर्तिरूप वस्तु है, उनका 'चार निक्षेप' कराना चाहती होगी तो, तूने अलग रूपसें करकेभी दिखा देवेगे । इस वास्ते जो तूंने पृष्ट ३१ तक-कुतर्क फिई है सो तो, वृथाही मगज मारा है. ॥ और पृष्ट ३१ ओ. १२ सेलेके ३२ तक-दो मित्रका, दृष्टांत खडा किया है, सोभी निक्षेपोंका अर्थ समजे विना, अजानको परचानेके लिये अपणी चातुरी दिखाई है ॥ ॥ इति मूर्ति में 'चार निक्षेप ' का विचारः ।। . ॥ अब. चार निक्षेपके विषयमें, ढूंढनीजीको, जो ज्ञान हुवा है सो लिख दिखाते है. ॥ इंद्र १ । मिशरी २ । ऋषभदेव ३ । यह नाम रखनेके वर्ण समुदाय है । और देवताका मालिक १ । इक्षु रसकासार २ । और प्रथम तीर्थंकरका शरीर ३ । यह तीन वस्तुमें नामको रखके उनका चार चार निक्षेप करणेको, ढूंढनीजीने प्रवृत्ति किई है । परंतु, देवताके मालिकों-इंद्र नामको रखके तीनही निक्षेप घटाके दिखाया, । और इक्षु रसकी सार वस्तुमें-मिशरी नाम रखके एक स्थापना निक्षेपही, घटाके दिखाया। और तीर्थकरका शरीररूप वस्तुमें-क्रमभदेव नाम रखके अढाई निक्षेप घटाके दिखाया ॥ कोई पुछेगेकि, यह कैसे हुवा, सो दिखाते है । - ढूंढनीजीने, सत्यार्थके प्रथम पृष्टमें, यहलिखाहै कि-"श्रीअनु.योगद्वार सूत्रमें-आदिहीमें, वस्तुके स्वरूपके समजने के लिए,वस्तुके सामान्य प्रकारसे, चार निक्षेप निक्षेपने(करने) कहै है.गायह सूत्रका · अभिप्राय लेके, लिखा हुवा ढूंढनोजीका लेखसे सिद्ध हुवाके, एक वस्तुके ही; चारनिक्षेप, होने चाहीये ? सो ढूंढनीजीका लेखमें, For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारनिक्षेपमें-दूंढनीजीका मान. (५५) एक भी जगे सिद्ध नही हो सकता है ? जैसे कि "इंद्र" यह दोवर्णसे, नामका निक्षेप करनेको लगी है, देवताके मालिकमें, और करके दिखाया केवल गूजरके पुत्रमें, इस वास्ते देवताका मालिक रूप वस्तुमें, प्रथम नाम निक्षेप, घटा सकी ही. न ही है.॥ देखो, सत्यार्थ पृष्ट. ७ सें. ११. तक. ॥ ॥ और इक्षु रसकी सार वस्तुमें, केवल एक स्थापना निक्षेप ही घटा सकी है. । क्योंकि-कन्यारूप वस्तुमें, " मिशरी" ऐसा नामका निक्षेप करके दिखाया । और-द्रव्य निक्षेप इशु रसके सार वस्तुकी पूर्वावस्थामें, किंवा, अपर अवस्थामें, करनेका था, सो नहीं किया, और केवल मिट्टीका कूज्जारूप दूसरी ही वस्तुमें करके दिखाया. । और ‘भाव निक्षेप' साक्षात्पणे जो इक्षु रसकी सार वस्तु में, करनेका था, सो नही करती हुई मिट्टीके कूज्जेमें ही करके दिखाया, इस वास्ते जैन सिद्धांतके मुजब इस वस्तुमें एक ही निक्षेप घटा सकी है. ॥ ॥ अब देखो तीर्थकरका शरीर रूप वस्तुमें, ढूंढनीने अढाई निक्षेप ही घटाया है. जैसे कि ' नाम निक्षेप करनेको लगी तीथंकरकी शरीररूप वस्तुका, और करके दिखाया दूसरा मनुष्यमें.।। और द्रव्य निक्षेप, तीर्थंकरकी बालकपणे रूप पूर्वाऽवस्थामें, और मृतक शरीर रूप अपर अवस्थामें, करणेका था, सो केवल अपर अवस्थामें ही, करके दिखाया, इस वास्ते तीर्थंकर ऋषभदेवके, चार निक्षेपकी सिद्धिमें, अढाई निक्षेपकी ही सिद्धि करके दिखलाया. । देखो इसका विचार, सत्यार्थ पृष्ट. १२ से लेके पृष्ट. १७ तक. ॥. ॥ और. पृष्ट. ७ से लेके, पृष्ट. १७ तक, ऐसे मनः कल्पित लेख लिखके, प्रथमके तीन निक्षेपेको, निरर्थकपणा भी कहती For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) चारानिक्षेपमें-ढूंढनीजीका ज्ञान. जाती है, परंतु चारनिक्षेपेमें से एक भी निक्षेप, निरर्थक रूप नही है। मात्र विशेष यह है कि जिस निक्षेपसे जो कार्यकी सिद्धि होनेवाली है, सोई सिद्धि होती है. ॥ " जैसे कि " १ हेय पदार्थके चारनिक्षेप है सो तो त्याग पणेकी सिद्धिके करानेवाले है. । और २ ज्ञेय पदार्थके चार निक्षेप है सो ज्ञान प्राप्तिकी सिद्धि करानेवाले है. । और जो परम ३ उपादेय रूप पदार्थ है उनके, चार निक्षेप है सो, आत्माकी शुद्धिकी सिद्धिके करानेवाले है. ॥ ॥ देखोइस विषयमें, 'ठाणांग' सूत्रका चोथा ठाणा. छापाकी पोथी के पृष्ट. २६८ में यथा-१ नाम सच्चे, २ ठवण सच्चे, ३ दब सच्चे, ४ भाव सच्चे, ॥ इस पाठसे, चोरो ही निक्षेपको, सत्यरूपे ही ठहराये है. । परंतु, निरर्थकरूपे नही कहे है। प्रश्र-यह चार प्रकारके सत्यमें, निक्षेप शब्द तो आयाही नहीं है, तुमने कहांसे लिखके दिखाया. ? ॥ ॥ उत्तर-जिस जिस जगें सिद्धांतमें, १ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, और ४ भाव, इन चारोंका वर्णन होगा उहां पर चार निक्षेपोंका ही वर्णन समननेके है, परंतु भिन्नरूपसे तुमेरे किये हुये, आठ विकल्पतो, दिगंबर, श्वेतांबर, के लाखो पुस्तकमेंसे, एक भी पुस्तकमेंसे न निकलेगा, किस वास्ते तीर्थंकरोंसे और गणधर महापुरुषोंसे, विपरीतपणे जाते हो ? कोइ तो एक बातका उलटपणा करें, अगर, दो चार बातांका, उलटपणा करके दिखावे, परंतु इस ढूंढनीजीने तो, तीर्थकर, गणधरोंका भी, भय छोडके, स्वछंदपणासे, सर्व जैन सिद्धांतोका, तत्व पदार्थोंको ही, उलटपणा करके दिखाया है, न जाने इस ढूंढनीजीको कौनसा मिथ्यात्वका उदय हुवा होगा?॥ For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार निक्षेप में-ढूंढनीजीका ज्ञान. (५७) प्रथम इस ढूंढनीजीने, द्रव्यार्थिक चार नयोंका विषय रूप पदार्थ को निरर्थक ठहराके, द्रव्यार्थिक चार नयका विषयरूप, तीन निक्षोपोंको भी, निरर्थक लिखती रही, परंतु इतना विचार न किया कि, साधु, साध्वीका वेश, आहार, विहारादिक जो जो सिद्धांत में, विचार दिखाया है सो . सर्व, बहु लतासें द्रव्यार्थिक चार नयोंका ही विचारसें, लिखा हुवा है. || और श्रावक, श्राविकाका सामायिक, पोषध, प्रतिक्रमण, अर्थात् सम्यक्त्व मूल बाराव्रतादिकके जो जो आचार विचारका वर्णन हैं, सो भी सर्व प्रायें द्रव्या थिंक चारनयों का विषय रूपसे ही कहे गये है. इस वास्ते, द्रव्याथिंक चारनयोंका विषयको निरर्थकपणा ठहरानेसे, सर्व जैन मार्गकी क्रिया बिगरेका ही, निरर्थकपणा, ठहरता है, और जैनमार्गकी क्रियाका निरर्थकपणा ठहरनेसे, जैनमार्गका लोप करनेका महा प्रायश्चित्त होता है, इस वास्ते, ढूंढनीजीने, लेख लिखती वखते पुतपणेका एक भी विचार नहीं किया है ? केवल थोथा पोथाको ही लिख दिखाया है | || अगर जो ढूंढनीजीके मनमें, यह विचार रह जाता होगा कि, मैंनें आठ विकल्प किये है, उसमें कोई भी प्रकारका बाधकपणा नही आता है, मात्र संवेगालोको ही, जूठा आक्षेप करके, हमारा लेखको निरर्थकपणा ठहरा देते है. इस संकाको दूर कर नेके लिये, समजूति करके दिखाते है. ।। " 1 || ढूंढनीजका कहना यह है कि नाम १ । स्थापना २ । द्रव्य ३ | और भाव ४ | यह चार विकल्प है सो, जो जो मूलकी वस्तु होती है, उसमें पाया जाता है. "जैसे कि" इंद्र नाम है सो इंद्रमें, । और मिशरी नाम है सो साक्षात् रूपकी मिशरी 1 For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) . चार निक्षेपमें-ढूंढनीजीका ज्ञान. वस्तुमें, । तीर्थकरोके नामादिक है सो तीर्थंकरोंमें, जब यहीनामादिक, चार विकल्प, पिछेसें दूसरी वस्तुमें दाखल किये जावें, तब ही निक्षेप रूपसे कहे जावें, यह जो ढूंढनीजीके मनमें, भूत भराया है, सो केवल सद्गुरुके पाससे सिद्धांतका पठन नही करनेसे ही भराया है, अगर जो सद्गुरुके पाससे, सिद्धांतका पठन किया होत तो, यह शंका होनेका कारण कुछ भी न रहता, क्यों कि, १'इंद्र' २ मिशरी, ३ ऋषभ, ४ देव, आदि जितने शब्द है, सो तो अनादिसें सिद्ध रूपही है, और वस्तुकी उत्पत्ति हुये वाद, योग्यता प्रमाणे, अथवा किसी वस्तुमें रूढिसें, नामका निक्षेप किया जाता है. . जिस वस्तुमें, गुण पूर्वक नामका निक्षेप किया जाता है उ. सको योगिक भी कहते है. । और दो शब्दका मिश्रण करके नामका निक्षेप किया जाता है उनको मिश्र कहते हैं, इसमें विशेष समजूति है सो देखो लक्षणकारका नामनिक्षेपका लक्षणके श्लोकमें, इस वास्ते इंद्ररूप वस्तुमें, इंद्र नामका निक्षेप है सो, व्याकरणादिककी व्युत्पत्तिसें सिद्धरूप “योगिक" शब्द है. । और-मिशरी रूपकी वस्तुमें मिशरी नामका निक्षेप है सो भी "योगिक" ही है. । और तीर्थकरमें, " ऋषभ " शब्द, और "देव" शब्द, यह दोनो शब्दोका मिश्रण करके नामका निक्षेप किया गया सो "मिअरूप" समजनेका है.॥ जब यही इंद्रादिक नामका निक्षेप, दूसरी वस्तुमें किया जाता है, तब इंद्रकी पर्यायके वाचक जो-पुरंदर, वज्र धरोदिक है, उसकी प्रवृत्ति दूसरी वस्तुमें, किई नही जाती है. परंतु दोनो ही वस्तुमें, कहा तो जावेंगा नामका ही निक्षेप । क्यों कि-दोनो ही वस्तुमें, जो इंद्र पदसें-नामका निक्षेप किया है, सो वस्तुकी उत्पत्तिके बाद ही किया गया है, इस निक्षेपके विषयमें कुछ भी फरक नहीं है ? मात्र विशेष यही रहेगा कि, गूजरके पु. For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिद्धांतरूपसें-चार निक्षप. ॥ (५९) में, इंद्र पदका नामनिक्षेपसें, गूज्जरके पुत्रका हो वोधकी प्राप्ति होगी ? और पुरंदरादिक पर्याय वाची, दूसरा " नामोका " बोधकी प्राप्ति न रहेगी. परंतु गूज्जरके पुत्रमें, इंद्र पदसें नामका मिक्षेप, निरर्थक कभी न ठहरेंगा ? क्यों कि इंद्रपदके उच्चारण करनेके साथ, गूज्जरका पुत्र भी, हाजर होके, संकेतके जाननेवालेको, बोध ही कराता है. इसवास्ते जो जो वस्तुका, जो जो नामादि चार निक्षेप हैं, सो अपणी अपणी वस्तुका बोधका कारणहर होने नेसे, सार्थक रूपही है, परंतु निरर्थक रूप नहीं है, इसी वास्ते सिद्धांतकारने भी "१ नाम सच्चे। २ ठवण सच्चे ।३दव्व सच्चे । और ४ भाव सच्चे, " कहकर दिखाया है.।। ॥ और जिस वस्तुका एक निक्षेप भी असत्य अथवा निरर्थक रूपसें मानेगे सो वस्तु वस्तु स्वरूपकी ही नहीं कही जावेगी। कारण यह है कि-वस्तु स्वरूपका जो पिछान होता है सो उनके चार निक्षेपके स्वरूपसें ही होता है इस वास्ते ढूंढनीजीका लिखना ही सर्व आलजाल रूपका है. ॥ इति चार निक्षेपके विषयमें-ढूंढनीजीका ज्ञान ॥ अब जो प्रथमके लेखमें-ढूंढनीजीने इंद्रमें त्रण निक्षेप । मिशरीमें एक निक्षेप । और ऋषभदेवमें अाई निक्षेप । घटायाथा सो अब सिद्धांतका अनुसरण करके चार चार निक्षेप पुरण करके दि. खलाते है। ॥ इंद्रमें जो इंद्रनाम है, सोई नाम निक्षेष है १ । और पाषाणादिकसें इंद्रकी जो आकृति बनाई है, सो स्थापना निक्षेप है २ । और इंद्रका भवकी जो पूर्वाऽपर अस्था है, सो द्रव्य निक्षेपका वि. For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) सिद्धांतरूपसें-चारनिक्षेप षय है ३ । और साक्षात्पणे अपणी ठकुराईका भोग कर रहा सो भाव निक्षेपका विषय है ४ ॥ ॥ अब गूजरके पुत्रमें भी, चार निक्षेप घटाके दिखाते है । जो गूजरके पुत्रमें, "इंद्र" नाम रखा है सो भी नाम निक्षेप ही है १ और उस गूज्जरके पुत्रकी, पाषाणादिकसें, आकृति बनाई, सो स्थापना निक्षेपका विषय है २ । और गूज्जरपणाके ला यककी, पूर्वाऽपर अवस्था है सो, द्रव्य निक्षेपका विषय है ३ । और साक्षात्पणे गूज्जरका कार्यको कर रहा है सो, 'भावनिक्षेप' का विषय है ४। - अब मिशरी वस्तुमें, ढूंढनीने, एक स्थापना निक्षेप ही घटाया था, उनके भी चारो निक्षेप बतलाते है. जो मिशरी वस्तुका नाम है सोई, नाम निक्षेप है १ । और मिट्टीका, कागजका, आकार बनाना सो, मिशरी नामकी वस्तुका 'स्थापना निक्षेपका विषय है २। और मिशरीकी, पूर्वाऽवस्था खांडरूप, अपर अवस्था मिशरीका पानीरूप है सो, 'द्रव्य निक्षेप' का विषय है ३ । और साक्षात् मिशरी है सो, 'भाव निक्षेप ' का विषय है ४ ॥ ॥ अब 'मिशरी' नामकी, कन्याका, चार निक्षेप, करके दि · खाते है-कन्याका नाम मिशरी है सो, नाम निक्षेप है १ । और उ स कन्याकी, पाषाणादिकसें, आकृति बना लिई सो ' स्थापना नि. क्षेप' का विषय है २ । और कन्याभाव प्राप्त होनेकी, पूर्वाऽपर अवस्था है सो, द्रव्य निक्षेप' का विषय है ३ । और जो कन्या भाबको, प्राप्त हो गई है सो ‘भाव निक्षेप ' का विषय है ४ ॥ अब मिट्टीके कूज्जेका, चार निक्षेप, करके दिखावते है-जो 'कूज्जा' ऐसा नाम है सो, कूज्मेका, नाम निक्षेप' है १ । कागद, कपडा For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत रूप सें - चारनिक्षेप. ( ६१ ) दिक, अथवा चित्र, कूज्जेकी आकृति ( मूर्त्ति ) करके समजाना सो, ' स्थापना निक्षेप' का विषय है २ । कूज्जेकी पूर्वाऽवस्था मि ट्टीकापिंड रूप, अपर अवस्था टुकडे रूप है सो, ' द्रव्य निक्षेप ' का बिषय हैं ३ | और जो साक्षात्पणे मिट्टीका कूज्जा बन्या हुवा है सो, कूज्जाके 'भाव निक्षेप' का विषय है ४ । इति मि कूज्जेका, चार निक्षेपका स्वरूप. ॥ | अब ऋषभदेव के, चार निक्षेप दिखलाते है- जो नाभि राजा के पुत्र में, ' ऋषभ देव ' नाम है सोई, नाम निक्षेप है ? | और जो पाषाणादिककी आकृति है सो ' स्थापना निक्षेप' का विषय है २ । और जौ पूर्वाsपर बाल्यअंत शरीर रूप अवस्था है सो द्रव्य निक्षेपका विषय है ३ । और साक्षात् तीर्थकर पदको प्राप्त हुये है सो भाव निक्षेपका विषय है ४ || अब पुरुषके, चार निक्षेप, दि खाते है - जो पुरुषका नाम, ' ऋषभ देव ' है सो, नाम निक्षेप है १ । उस पुरुषकी, पाषाणादिककी आकृति है सो ' स्थापना निक्षेप ' का विषय है २ और जो पुरुष भावकी, पूर्वापर अवस्था है सो 6 और जो पुरुषार्थ करनेके कौ, ' द्रव्यनिक्षेप' का विषय है । योग्यताको प्राप्त हो गया है सो ' भावनिक्षेप ' का विषय है ४ ॥ इसी प्रकार सें - चार चार निक्षेपका स्वरूप, सर्व प्रकारकी दृश्य वस्तुओंमें, योग्यता प्रमाणे विचार लेना ॥ ॥ इसी - ढूंढनीजीने इंद्रमें त्रण, । मिशरीमें एक. । और ऋषभदेव, अढाई निक्षेप करके दिखायाथा । उनके हमने चार चार निक्षेप, स्पष्ट पणे लिख दिखाया सो भ्रम तो पाठक वर्गका दूर हो गया होगा, परंतु मूर्ति नामकी वस्तुके, चार निक्षेपको दिखाये बिना, शंकाही रहजायगी, सो, शंका दूर करनेके लिये, मूर्त्ति नामंकी वस्तु के भी 'चार निक्षेप करके दिखलाता हूँ ।। For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) सिद्धांतरूपसें-चारनिक्षेप. - पाषाणरूप दूसरी 'वस्तुसें' तीर्थकर स्वरूपकी आकृति ' बनायके, उनका नाम रख दिया 'मूर्ति' सो पाषाणरूप वस्तुका नाम निक्षेप हुवा १ ॥ अब इसी मूर्तिकी आकृतिका, दूसरा उतारा करके, दूर देशमें, स्वरूपको समजना सो, मूर्ति नामकी वस्तुकादूसरा ' स्थापना निक्षेप' २॥ ते मूर्ति रूपका घाट घडनेकी पूर्व अवस्था, अथवा खंडितरूप अपर अवस्था है सो, मूर्ति नामकी 'वस्तुका ' ' द्रव्यनिक्षेप ' ३ और साक्षारूप जो मूर्ति दिखने में आ रही है सो मूर्ति नामकी 'वस्तुका' भाव निक्षेप ४ ॥ इसमें विशेष समजनेका इतना हैकि-जिस महापुरुषकी आकृति बनाई है उनका ' स्थापना निक्षेप ' काही विषय है । और तें साक्षात् स्वरूपकी मूर्ति है सो अपणा स्वरूपको प्रगट करनेके वास्ते 'भावनिक्षेप' का विषय स्वरूपकी ही है। क्योंकि साक्षात् रूप जो जो वस्तुओ है सो तो प्रगटपणे ही अपणा अपणा स्वरूपको प्रकाशमान करती ही है । कारण यह हैं कि-वस्तु स्वरूपका जो साक्षात् पणा है सोई भाव निक्षेप के स्वरूपका है ।। इस वास्ते प्रत्यक्ष रूप जो मूर्ति नामकी वस्तु है सोई मूर्ति नामकी वस्तुका भावनिक्षेप है ॥ इति मूर्ति नामकी वस्तुके चार निक्षेप ॥ सत्यार्थ-पृष्ट. २८ सें-ढूंढनीजी-भगवान्की मूत्तिमेंही, भगवानके चारो निक्षेप हमारी पाससे मनन कराती हुई, लिखती है कि-त्तिका--महावीर नाम, सो नाम निक्षेप १ । महावीरजीकी तरह आकृति सो ' स्थापनानि निक्षेप' २। अपणे आप कबूल करती हुइ लिखती है कि-मूर्तिका द्रव्य है सो भगवानका द्रव्य निक्षेप है, ऐसा हमारी पाससें-मनन कराती हुई उत्तर पक्षमे-हेमका कहती है कि-यहां तुम चूके। ऐसा उपहास्य करती For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीके - आठ विकल्प. ( ६३ ) 1 है । परंतु इस ढूंढनीको इतना विचार नही हुवा कि मैं -मूर्ति के द्रव्यका, और भगवानके द्रव्यका, प्रश्न ही अलग अलग वस्तुका करती हुं तो, दोनोही भिन्नस्वरूपकी 'वस्तुका ' चार निक्षेप एक स्वरूपका कैसें हो जायगा ? हे ढूंढनी जी ! तो सिद्धांतकार चूके है, और न तो हमारे गुरुवर्य चूके है, केवल गुरुज्ञानको लिये विना तूं, और तेरा जेठमल, आदि ढूंढक साधुओं, इस चारनिक्षेपके विषय में- जगे जगें पर चूकते ही चले आये है, क्योंकि - मूर्त्ति यह नाम - पाषाणरूप वस्तुका है । और महावीर यह नाम-सिद्धार्थ राजाका पुत्र तीर्थंकर रूप वस्तुका है। इस वास्ते दोनो ही भिन्न भिन्न स्वरूपकी वस्तु होनेसें, चार चार निक्षेप भी अलग अलग स्वरूपसें ही करना उचित होगा ? किस वास्ते जूठा परिश्रमको उठा रही है ? न तो तुम निक्षेपका विषयको समजते हो ? और न तो नयोंका विषयको समजते हो ? एकंदर वारिक दृष्टिसें जो विचार करके तपास क रोंगे तो, तुम लोक जैनधर्मका सर्व तत्वका विचारसें ही चुके हो ? इस वास्ते ही तुमेरा विचारोंमें, इतनी विपरीतता हो रही है ? नहीतर जैनधर्मके सिद्धांतों में कोई भी प्रकारका फरक नही है, किस वास्ते महापुरुषों की अवज्ञा करके - जैनधर्मसें भ्रष्ट होते हो ? ॥ इति अलमधिक शीक्षणेन ॥ - इति मूर्त्तिमें- भगवान के ' चारनिक्षेप' का विचार || इहां पर्यंत चारनिक्षेपके विषयमें ढूंढनीजीका जूठा मंडन, और हमारा तरफका खंडन, और अनुयोगद्वार सूत्र पाठसें एकता देखके पाठकवर्ग अवश्य मेव गभराये होंगे, न जाने किसका कहना For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ( ६४ ) ढूंढनीजीके- आठ विकल्प. सत्य होगा ? सो इस शंकाको दूर होनेके लिये, किंचित् पुनरा वृत्ति रूप, सिद्धांत से मेलन करके दिखाते है, जिससे विचार करनेका सुगम हो जावें । देखियेके- अनुयोग सूत्रकारने, चार निक्षेपके विना, दूसरा एक भी विचार नही दिखाया है. । तदपि ढूंढनी, तीर्थकर और गणधर महाराजाओंसें-- विपरीत हुई, पूर्वाऽपरके विरोधका विचार किये विना, सत्यार्थ पृष्ट ११ में- अपणी मनः कल्पनासें-- १. नाम, २ नाम निक्षेप, । ३ स्थापना, ४ स्थापना निक्षेप, । ५ द्रव्य, । ६ द्रव्य निक्षेप, । ७ भाव, । ८ भाव निक्षेप, यह आठ विकल्प खडा करती है । परंतु इतना सोच न किया के, तीर्थकरके सिद्धांतको धका पुहचाके में मेरी क्या गति कर लउंगी ? प्रथमं इस ढूंढनीने - यह लिखाया के श्री अनुयोग द्वार सूत्रमें आदिही में, वस्त स्वरूपके समजने के लिए, वस्तुके सामान्य प्रकारसे चार निक्षेपे निक्षेपने ( करने) कहै है, वैशालिखके फिर सूत्रपाठका आडंबर दिखाया, फिर आठ विकल्प करके, मिशरी नामकी वस्तुमें, और ऋषभदेव नामकी वस्तुमें, केवल मनः - कल्पना घटाने का प्रयत्न किया. क्यों कि निक्षेप तो करने लगी है इक्षु रसका सारभूत, मिशरी नामकी ' वस्तुका ' उसको ' नाम ' उह राय के, कन्यारूप स्त्रीकी दूसरी वस्तु, ' नामनिक्षेप' बतलाती है सो कौनसा सिद्धांत दिखाती है ? क्यों कि वस्तुरूपे दोनोही अलग अलग है. । और सूत्रकारने वस्तुमें ही, चार निक्षेप करने, वैशा कहा है. । तो क्या इक्षु रसका 'सारभूत ' मिशरी नामकी वस्तु कुछ वस्तुरूपसें नही है ? जो नामका निक्षेपको उठाती है ? | प्रथम ढूंढनी इतनाही समजी नही है के, वस्तु क्या ? और अवस्तु चिज क्या ? तो पिछे 'निक्षेपका' विषयको For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना, और 'स्थापना निक्षेपका विचार. (६५) क्या समजेगी ? । तैसें ही तीर्थकर गोत्र उपार्जन किया हुवा जीवने, नाभिराजाके कुलमें, शरीररूप वस्तुको धारण किये बाद, माता पिता विगरेने गुणपूर्वक, 'ऋषभ' नामका निक्षेप किया है, उनको ढूंढनी 'नाम' ठहरायके, पुरुषरूप दूसरी. 'वस्तुमें' ' नामनिक्षेप' ठहराती है। तो क्या नाभिराजाके पुत्रका शरीर, कुछ वस्तुरूप नहीं है ? जो ढूंढनी सूत्रको धक्का पुहचाके 'नाम' मात्रको ठहराती है ? सूत्रकारने तो वस्तुमें 'नाम निक्षेप करना कहा है । इस वास्ते यह प्रथम निक्षेपके विषयमें, दो विकल्प ही, ढूंढनीका निरर्थक रूपसे हुवा है ।। क्यों कि, इश्शु रसका 'सारभूत ' वस्तु है उसमें, मिशरी नामका निक्षेप करके ही लोको समजते है. । तैसें, प्रथम तीर्थकरका शरीररूप 'वस्तुमें, ऋषभ नामका 'निक्षेप' हुये बाद, जैनी लोकोने तीर्थकरपणे ग्रहण किया है । इस वास्ते, नाम, और नाम निक्षेप, अलग अलग है, वैशा तीनकालमें भी नही होसकता है. ॥ इति प्रथम-नाम, और नामनिक्षेप,का विचार. ___ अब ' स्थापना' और ' स्थापना निक्षेप ' ढंढनीनीने किया हैउनका विचार देखिये.॥ ढूंढनीने-साक्षारूप मिशरीके कूज्जेका आकार मात्रको, ' स्थापना ' ठहराई, । और, मिट्टीका, तथा कागजका, मिशरीके कूज्जेका आकारको,-स्थापना निक्षेप, ठहराया । परंतु इतना सोच न कियाके, जो साक्षारूप मिशरीका आकार है सो तो, भाव निक्षेपका विषयरूप वस्तु है, में स्थापना किस हिसाबसें ठहराती हुं ? क्यों कि उस मिशरीका आकारमें, मिठापण विगरे सर्वगुण 'मिशरीका' विद्यमान है, सो तो भाव निक्षेपका विषय, ढूंढनीके ल For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) द्रव्य, और 'द्रव्य निक्षेप' का विचार. क्षणसे भी-सिद्धरूप है। इस वास्ते यह विकल्प ही जूठा है. । और . स्थापना निक्षेप है सो, मूल वस्तुकी आकृति अनाकृति रूपे, दू. सरी 'दश' प्रकारकी वस्तुमें स्थापित करके, पिछान करनेका शाखकारने दिखाया ही है. । इस वास्ते ' स्थापना, और ' स्थापना निक्षेप ' अलग अलग तीनकालमें भी नहीं बन सकते है । और म शास्त्रकारने दिखाया भी है.॥ ॥ अब देखिये, ऋषभदेवके विषयमें, ढूंढनीका कहना-औ दारिक शरीर, स्वर्ण वर्ण, समचौरस संस्थान, वृषभ लक्षणादि १००८-लक्षण सहित, पद्मासन, वैराग्य मुद्रा, जिससे पहिचाने जायें कि-यह ऋषभदेव भगवान है, सो स्थापना.॥ पाठकवर्ग ? ढूंढनीजीकी धिठाई दखियेके जो तीर्थकर-पद्मासन युक्त, और वैराग्य मुद्रा सहित,सर्व लक्षण लक्षित,साक्षात् भगवानरूपे, भाव तीर्थकर पणाको प्राप्त हुयें है, उनको स्थापनारूपे कर दिखाती है? नतो सिद्धांत तरफ देखती है, और न तो अपणा किया हुवा ल. क्षणके तरफ भी देखती है, इनकी अज्ञता-कौनसें प्रकारकी समजनी, और साक्षात्पणे भगवान् सो,-स्थापना, यह विचार किस गुरुके पाससे पढकर आई ?। और, पाषाणादिकमें-स्थापना निक्षेप, करणा सो तो सूत्रके कहने मुजब योग्य ही है.। इस वास्ते 'स्थापना', और ' स्थापना निक्षेप, तीनकालमें भी नहीं बन सकता है. दंढनीजीकी तो अकल ही ठिकानेपर नही है। इति स्थापना, और स्थापना निक्षेप,का विचार - अब ढूंढनीजीका-द्रव्य, और द्रव्य निक्षेपका विचार करके दिखावते है.॥ For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव्य, और 'द्रव्य निक्षेप 'का विचार. ( ६७ ) मिशरीका ' द्रव्य ' खांड आदिक, जिससे मिशरी बने सो ' द्रव्य ' | और चासनी भरनेके पहिले, और मिशरी निकालने के पिछे भी, मिशरीके कूज्जे कहते हैं सो ' द्रव्य निक्षेप ' !॥ 1 पाठकवर्ग अब विचार किजीये के, मिशरी नामकी वस्तुका कारण - जो पूर्वावस्थारूप खांड है, उसमें मिशरी वस्तुका 'द्रव्य निक्षेप ' करनेका शाखकारने कहा है, उसको ढूंढनी मिशरीका ' द्रव्य ' मात्र कहती है. । और जो मिट्टीका कूज्जा में, मिशरी वस्तुका गुण, एक अंश मात्र भी नही हैं, उसमें मिशरी वस्तुका ' द्रव्य निक्षेप' ठहराती है । अब देखो ढूंढनीका पोथा सें द्रव्य निक्षेप कालक्षण-वस्तुका वर्तमान गुण रहित, अतीत अथवा अनागत गुण सहित, और नाम आकार भी सहित, सो, द्रव्यनिक्षेप, । यह ढूंढनीका लक्षण, मिट्टीके कूज्जे में मिशरी वस्तुका क्या है ! क्या अतीत अनागतमें, मिट्टीका कूज्जा है सो, मिशरी पणेका गुणको, अथवा मिशरी पणेका नामको, कुछ धारण करता है ? जो मिशरी वस्तुका ' द्रव्यनिक्षेप कर दिखाती है ? । और, ढूंढनी सूत्रसं, नो आगमके भेद, १ जाणग सरीर, और २ भविअ सरीरमें - द्रव्यनिक्षेप, करना कहती है, सो तो, वस्तुकी पूर्वकाल अवस्था, किंवा अपरकाल अवस्था सिद्ध होती है, तो पिछे मिशरी वस्तुका - द्रव्य निक्षेप, मिट्टीके कूज्जेमें करनेका, किस गुरुपास से पढकर दिखाती है ? , अब देखिये ऋषभदेव के विषयमें ढूंढनीका ' द्रव्य ' और द्रव्यनिक्षेप' सत्यार्थ- पृष्ट. १६ सें - यथा भाव गुण सहित, पूर्वोक्त शरीर, अर्थात् संयम आदि केवल ज्ञान पर्यंत, गुण सहित शरीर सो ' द्रव्य ' ऋषभदेव, ॥ और पूर्वोक्त ' जाणगसरीर ' और 'भविअ सरीर, अर्थात् अतीत अनागत कालमें, भाव गुण 6 For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) भावं, और 'भाव निक्षेप' का विचार. सहित, वर्त्तमान कालमें भावगुण रहित शरीर, अर्थात् ऋषभदेवजी निर्वाण हुए पीछे, यावत्काल शरीरको दाह नहीं किया, तावत्काल जो मृतक शरीर रहाथा सो ' द्रव्यनिक्षेप ? | ऋषभदेवजी वाले गुण करके रहित, कार्य साधक नही, ताते निरर्थक है ॥ " T ॥ इहां पर देखिये ढूंढनीजी की धिठाई, जो ऋषभ देवका २ भविअ शरीर, ( अर्थात् भविष्य कालमें, तीर्थंकरकी ऋ द्धिका भोग करने वाला शरीर, सो तो ठहराया ' द्रव्य ' । और जाणंग सरीर ' ( अर्थात् ऋषभ देवजीका मृतक शरीर ) सो तो ठहराया ' द्रव्य निक्षेप' और सूत्रपाठसें,-नो आगम के भेदमें, १ जाग सरीर, और २ भविअ सरीर, यह दोनो भेदको भी लिखती है ' द्रव्यनिक्षेप' । तो अब विचार किजीये-ढूंढनीके लेखमें, कितनी सत्यता है ? | यह ढूंढनी अपणाही लेखमें पूर्वाऽपरका वि चार किये बिना, विवेक रहितपणेका आचरण करती है या नही ? सो पाठक वर्ग- लक्षण, और सूत्र पाठसें भी, वारंवार विचार करें ! में कहां तक लिखके पत्रे भरूंगा ? यह ढूंढनीजी कभी दूसरेका लेख तरफ ध्यान न देती, परंतु अपणा लेख तरफ तो ध्यान देके लिखती ? तब भी हमको इतना परिश्रम नही करना पडता, परंतु जहां कुछ विचार ही नहीं है ऐसेंको हम कहें भी क्या ? || इति ढूंढनीजीका - द्रव्य और द्रव्यनिक्षेप, का विचार. || अब देखिये ढूंढनीका ' भाव ' और ' भावनिक्षेप' का बिचार || मिशरीका मिठापण, तथा स्निग्ध, ( शरदतर ) स्वभाव (तासीर ) सो भाव मिशरी ॥ For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव, और , भावनिक्षेप' का विचार. (६९) __ और पूर्वोक्त मिट्टीके कूज्जेमें, मिशरी भरी हुई सो, भाव निक्षेप ॥ ___ अब देखिये इसमें विचार-जो इक्षुरसका सार, मिठापण विगरेसे, वस्तुका भाव निक्षेपपणाको प्राप्त हुवा है, उनको ढंढनी 'भाव' ठहराती है. । और जो मिट्टीके कूज्जेमें, मिशरीपणेका-एक अंशमात्र भी गुण नहीं है, उनको मिशरी नामकी वस्तुका 'भाव निक्षेप, ठहराती है. । और अपणा किया हुवा लक्षणमें-वस्तुका नाम, आकार, और वर्तमान गुग सहित, सो,-भाव निक्षेप, वैशा लिख दिखाती है. | तो अब मिट्टीके कूज्जेमें, मिशरी वस्तुका गुण क्या है ? और मिट्टीके कूज्जेको-मिशरी नामसें, कौन कहता है. ?। और यह ढूंढनी सूत्रसें तो, भाव आवश्यकमें, उपयोग सहि आवश्यकका करणा, वैशा लिखके आवश्यकका भावनिक्षेप लिख दिखाती है, और इहां मिशरी वस्तुका ‘भाव निक्षेपमें ' मिट्टीका कूज्जा दिखाती है. । भाव निक्षेप करने तो लगी है मिशरी वस्तुका, और दिखाती है मिट्ठीका कूज्जा, क्या मिट्ठीका कूज्जेको मिशरी करके, ढूंढनी खा जाती है ? । हे ढूंढनीजी होरीके विवाहमें, वीरीको कैसे घर देती है ? | ___अब देखिये ऋषभदेवके विषयमें, भाव, और भाव निक्षेप ढूंढनीजीका. ॥ भगवान् ऐसे नाम कर्मवाला चेतन, चतुष्टय गुण, प्रकाशरूप आत्मा, सो 'भाव' ऋषभदेव. ।। ___ और, शरीर स्थित, पूर्वोक्त चतुष्टय गुणसहित, 'आत्मा' सो 'भावनिक्षप' है.॥ अब देखिये इसमें विचार-जो भगवान् ऐसे नाम कर्मवाला For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) आठो विकल्पका तात्पर्य.. चेतन है सो, तीर्थकरकी पूर्वकालकी अवस्था रूपे, ' द्रव्यनिक्षेपका' विषय है, उनको ढूंढनी 'भावरूपसे' लिखदीखाती है, और अपणी चातुरी प्रगट करती है, परंतु अपणा जूठा लिखा हुवा, द्रव्यनिक्षेपका लक्षण तरफभी ख्याल नही करती है. । देखो ढूंढनीका द्रव्यनिक्षेपका लक्षण-पस्तुका वर्तमान गुणरहित, अतीत अथवा अनागत गुणसहित, और आकार, नामभी सहित, सो द्रव्यनिक्षेप, । अ व इस जूठा लक्षणसे भी, पाठकवर्ग विचार करेंकि, भगवान ऐसे नाम कर्मवाला चेतन, तीर्थकर पदके अतीत कालकी अवस्था रूपसे है या नहीं ? जब अतीत कालमें भगवान् ऐसे नामकर्मको धारण किया तबतो अवश्य मेव द्रव्यनिक्षेपका विषय हुवा, उनको ढूंढनी भाव मात्र किस हिसाबसे दिखाती है ? सो पाठकवर्ग अछी तरांसें विचार करें। जब तीर्थंकरकी ऋद्धिको प्राप्त होके तीर्थकर पदका भोग कर रहै है, उनको भावनिक्षेप कहना सो तो युक्ति युक्तही है.। और आजतक जितने ढूंढक होते आये सोभी, यूंही कहते आये है के, साक्षात् तीर्थकर पदमें विराजते होवे, उस 'भावनिक्षेप' को हम मानते है, परंतु इस ढूंढनीने तो, कोई नवीन प्रकारकी चातुरी काही आचरण करके दिखाया है. ॥ इति भाव, और भावनिक्षेप,का विचार. देखिये इस विषयमें तात्पर्य-सूत्रकारने वस्तुमें ही 'चार निक्षेप' का करणा निश्चयसें कहा है. अब ढूंढनी-निक्षेप तो करने लगीहें-इक्षुरसके सार वस्तुका,उनका निर्वाह किये विना, मिशरी वस्तुका ' नाम निक्षेप ' कन्यारूप दूसरी वस्तुमें कर दिखाया. । तैसें ही ऋषभदेव वस्तुका 'ना. मनिक्षेप' पुरुषरूप दूसरी वस्तुमें कर दिखाया. । और दोनो व For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीकी मूत्तिसे-काम जागे. स्तुका ' स्थापना निक्षेप, शास्त्रकारके कहने मुजब कर दिखाया. । अब 'द्रव्य निक्षेप, मिशरी वस्तुका, अपणा किया हुवा लक्षणसें भी विपरीतपणे, मिट्टीके कूज्जेमें, कर दिखाया, जिस मिट्टीमें मिशरी पणेका भाव, न तो पूर्वकालमें है, और न तो अपरकालमें, है। और ऋषभदेव नामकी वस्तुका 'द्रव्य निक्षेप, केवल आतीतकालमें तीर्थकर भाव वस्तुका कारणरूप मृतक शरीरमें, कर दिखाया.। और भविष्य कालका कारणरूप शरीरमें, केवल 'द्रव्य ' पणा ठहराया.॥.. अब मिशरी नामकी वस्तुका 'भाव निक्षेप' मिट्टीके कून्जेमें ठहराया. । और ऋषभदेव नामकी वस्तुका ‘भाव निक्षेप, तीर्थकरमें ठहराया. । यह तो ठीकही है, परंतु मिशरी वस्तुका भाव निक्षेप' मिट्टीके कूजमें ठहराया यह हिसाब कैसे मिलेगा । निक्षेप तो करने लगी है किसका,और करके दिखाती है किसमें ढूंढनीकी इतनी चातुरी दिखानेके वास्ते, यह लेख फिर लिख दि. खाया है. ॥ सो पाठकवर्ग पुनः पुनः विचार करें. ! ॥ ॥ अब स्त्रीकी मूर्तिसें काम जागे ॥ ढूंढनी-पृष्ट ३४ ओ. ३ सें-स्त्रीकी मूर्तियोंको ' देखके तो, सबी कामियोंको काम जागता होगा । परंतु भगवान्की 'मूर्तियोंको' देखके, तुम सरीखे श्रद्धालुओमेसें, किस २ को बैराग्य हुवा, सो बताओ ? || ओ. १२ से-अथवा किसीको किसी प्रकार 'यूनियों ' देखनेसे, वैराग्य आभीजाय, तो क्या वंदनीय हो जायेंगी इत्यादि ॥ समीक्षा-इहांपर ढुढनीजीने, यह क्या चातुरी दिखादीई है For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) मूर्त्तिसे ज्यादा समज होती है. कि- स्त्रीयोकी मूर्ति से तो काम जागे, परंतु भगवानकी मूत्ति देखके भगवान् पणेका भाव न जागे, परंतु सो किसके भाव न जागे किवीतराग देवकी मूर्तिपर द्वेष करके, जिसको अधिकपणे संसार परिभ्रमण करना होगा, उसके तो भले भाव न जागें, परंतु जिस भविक पुरुषको, भव भ्रमणकाल अल्प रहा होगा सोतो वीतराग देवकी मूर्तिको देखके सदाही प्रमुदित रहेगा, यहतो निःसंशय बात है, । जब वीतरागदेवकी मूर्ति देखके भक्ति आजाये, तब वंदनिक न होगी, तो क्या निंदनिक होगी ? किस गुरुने तूंने यह चातुरी दिखाई कि - वीतराग देवकी' मूर्त्ति ' निंदनिक है ? ॥ || अब मूर्त्तितें ज्यादा समज ॥ ढूंढनी - पृष्ट ३५ ओ १५ सें - हांहां सुननेकी अपेक्षा आकार ( न कसा ) देखने से, ज्यादा, और जल्दी समज आजाती है, यह तो हमभी मानते है, परंतु उस आकारको 'वंदना ' नमस्कार करनी, यह मतबाल तुम्हें किसने पीलादी || " समीक्ष:- हे सुमतिनि ! जो हम, मेरु, लवणसमुद्र, भद्रशालवन, गंगानदरूप 'भावस्तुको नमस्कार नहीं करते है, तो उनकी ' स्थापनारूप ' नकसाको, कैसे नमस्कार करेंगे ? जिस वस्तुका भावको ' वंदनिक मानते होंगे, उनका ' नामादि तीनोभी निक्षेपको, वंदनिक मानेंगे, तूंहि समजे विना, मतवाली बनी हुई, ग पड सपड लिख देती है | 6 ढूंढनी - पृष्ट ३६ ओ १३ से - जो वंदने योग्य होंगें, उनकी मूतभी बंदी जायगी, तो क्या जो चिज खानेके योग्य होगी, उ For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशुका ज्ञान. (७३) सकी - मूर्तिभी, खाई जायगी । असवारीके योग्यकी मूर्ति पेंभी, असवारी होगी. इत्यादि. समीक्षा - हे विचार शीले ! तूं ही लिखती है कि-मेरु. गंगानदी आदि, सुननेकी अपेक्षा, नकसा देखनेसें, जल्दी समज आ जाती है । तो क्या मेरुका - आकार पै चढाईभी तूं कर लेती है ? और गंगानदी के आकारका - पाणीभी पीई लेती होगी ? जो खानेकी चिजका - आकारको, खानेका बतलाती है ? और असवारीकी चिजकी आकृति पैं - असवारी करनेका बतलाती है, ? ॥ जिस चिजकी 'मूर्ति' जितना कार्य के वास्ते बनाई होंगी, उनसे उतनाही कार्य प्राप्त होंगे, ज्यादा फलकी प्राप्ति कैसे होंगी ? | तूंने जो मिशरीका भावनिक्षेपमें- कल्पित ' मिट्टीका कूज्जा ' कहाथा, सो क्या तूं खा गईथी ? जो हमको आकारमात्रको, - खानेका, दिखातीहै ? बसकर तेरी चातुरी ॥ , ॥ इति मूर्त्तिसे ज्यादा समजका विचार || || अब पशुक़ा ज्ञान ॥ ढूंढनी - पृष्ट ३७ ओ १४ सें- असल और नकलका ज्ञान तो, पशु, पक्षीभी, रखते है ॥ यथा - सवैया, पृष्ट ३८ से. जटही प्रवीन नर पटके बनाये 'कीर' ताह कीर देखकर बिल्ली हुन मारे है, कागजंक कोर २ ठौर २ नाना रंग ताह, फुल देख मधुकर दुरहीते छारे है, चित्रामका चीत्ता देख श्वान तासौं डरेनाह, बनावटका अंडा ताह पक्षी हु न पारे है, असल हुं नकलको जाने पशुपखी राम, मूढ नर जाने नाह नकल कैसे तारे है. For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) बाप, पापेकी, मूर्तियां . समीक्षा-हे पंडिते ? हजारो जैनशास्त्रका ज्ञान छोडके, याही उत्तम ज्ञान, ढूंढ २ के लाई, ? कुछ विचार तो करणाया किजब बनावटकी चिज पर, पशु, विगरे दोर नहीं करते है, कभी भ्रममें पडजावे तो, दोर करेभी, परंतु तेरे कहने मुजब निःफल होवे । हमभी तेरी यह बात मान लेंगे ।। परंतु कोइ 'पुरुष-बिल्लीके आगे-पोपट पोपट । मधुकर आगे-फुल फुल । और श्वानके आगेचित्ता चित्ता। पंखीके आगे-अंडा अंडा । वैशैं वारंवार पुकार करें, तो क्या ? पोपटके नाम पै बिल्ली-दोड करेगी. ? तूं कहेंगी . दोर न करें । तैमें फुलके नामसें -भमराभी न आयगा । चित्ताके नामसे-कुत्ताभी न डरेगा । हां कभी ' आकृति देखनेसें' तो ते पशु, भूलभी खा जावें. परंतु-नाम ,मात्रका, उच्चारण सुनके तो, कभी न प्रवृति करें । तो पिछे भगवान् भगवान् ऐना 'नाम' लेनेसे भी, तुमेरा तरणा कभी न होगा. ? तो क्या होगा कि, तमेरा नास्तिकपणा जाहेर होगा, इस वास्ते यह सवैयाका बनानेवालाभी, पंडितोंकी पंक्तिसें-अलगही मालूम होता है, क्योंकि विचार पूर्वक नहीं है.॥ ॥ इति पशु ज्ञानका विचार ॥ ॥ अब बाप, बावेकी, मूर्तियां ॥ ढूंढनी-पृष्ट ३८ ओ १४ सें-हमने तो किसीको देखा नहीं कि-अपने बापकी, वावेती, मूर्तियों बनाके, पूज रहै हैं । और उसकी न्हुं (बेटेकी बहु ) उस स्वरकी-मूर्तिसें, चुंगट, पल्ला, करती है। हां किसीने कुलरूढी करके, वा मोहके वस होकर-क्रोध करके, भूल करके, कल्पना करली तो, उसकी--अज्ञान अवस्था है.।। For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मल्लदिन कुमार जैसें ज्ञातासुत्रमें-मल्लदिन कुमारन, चित्रशालीमें-मल्लि कुमारीकी 'मूर्तिको देखके-लज्जा पाई, और अदव-उठाया, और चित्रकार पै-क्रोधकिया, ऐसा लिखा है ॥ - समीक्षा-पाठकवर्ग! बाप, बावेकी, मूर्ति, बनाके नही पूनते है सो सत्य है. तो वह विद्यमान हुभी, कौन पूनते है ! जब विद्यमान हुयेको नहि पूजत है, तो पिछे उनकी-मूर्तिकी, पुजा, ढूंढनी कैसे-कराती है, यह तो केवल कुतर्क है ।। और समुन रकी मुर्तिसें-टेकी बहु, चूंघट नही खैची है तो, स्वसुरकी बातां करनेके वख्त परभी-बूंघट न बँचेगी । और जो बाप, बाबेकी 'मूर्ति' पै-अदब नहीं करता है. सो बाप बावेका-नामपैभी, अदव न करेंगा । तो उनोका नामभी निरर्थक हो जायगा ।। जब वैसा हुवा तब तो तुमको,-भगवान्का-नामसेभी, कुछ लाभ न होगा, तेरी कुतर्क तेरेकुं ही-बाधक रूप है ॥ और तूं लिखती है किमल्लादिनकमारने, चित्रशालीमें-मल्लिकुमारीकी-मूर्तिको, देखके-लज्जापाई, अदब, उठाया, इस्यादि. जब मोहके वससेभी, मल्लादिनकुमारने-मल्लिकुमारीकी मूर्तिकी लज्जा किई, और अदब उठाया, । तब अरिहंतदेवके-परमरागी, प. रम भक्त, जो होंगे सोतो, वीतरागदेवकी-मूर्तिको, देखतेकि साथ, आनंदितहोके अवश्य ही अदब उठावेगा, और रंगतानमें-मनभी होजायगा ।। और जिसको महामोहके उदयसे गाढ मिथ्यात्वकी प्राप्तिहुईहोंगी सो, और बहुतकालतक संसार परिभ्रमण करना रहा होगा सो-निर्लज्ज होकेही वीतरागदेवकी ' मूर्तिकी' बेअ. दबी करेगा. परंतु भव्यपुरुषतो कभीही-बै अदबी न करेगा.॥ For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) वज्रकरण में कुतर्क. दंडनी - पृष्ट ३९ ओ. ९ से हर एकने - मूर्त्तिको देखके, ऐसानहिं किया, क्योंकि यहशास्त्रांक्त क्रियानही है इत्यादि । भगवंतने उपदेश कियाहोकि - यहक्रिया इसविधिसे, ऐसे करनी योग्य है इत्यादि ॥ समीक्षा - पाठकवर्ग ? ढूंढनी लिखती है कि - हरएकने मृति देखके, ऐसा नहिं किया. यहशास्त्रोक्तक्रिया नहीं है । विचार यह हैं कि - जे वीतरागदेवकी - मूर्तिकी स्थापना, हजारो वरस से होतीआई, और सारी पृथ्वीकोभी मंडित कर रही है, और हजारो सालो में लेखभी हो चुका है, तोभी ढूंढनी कहती है कि - यह शास्त्रोक्त विधि नही है. ॥ यह कैसा न्याय है कि - अंधेके आगे हजारो - दीपक, प्रगट करनेपरभी, और ऊलको सूर्यका - प्रकाश, दिखानेपरभी, कहदेवें कि दीपकका, और सूर्यका - प्रकाश तो है ही नही. उनको हम कैसे समजावेंगें ? ॥ इति मल्लादिन कुमार || || अब वज्र करणमें कुतर्क || ढूंढनी - पृष्ट. ४० ओ. ९ सें पद्मपुराण ( रामचरित्र ) में - वज्रकरणने - अंगुठीमें 'मूर्ति' कराई, ॥ आगे ओ. १२ सें - यह सब उच्च, नीच, कर्म, मिथ्यादि पुण्यपापका, स्वरूप दिखानेको, संबंधमें कथन, आजाता है, यहनहीं जानना कि सूत्र में कहें हैं तो करने योग्य होगया ॥ समक्षा — ढूंढनीका हढतो देखो, कितना जबरजस्त है, कि, जिस वीतराग देवकी - मूर्तिका पुजनसे, श्रावकोंको- पुण्यकी प्राप्ति होती होवे सोभी, करनके योग्य नहीं । और वज्रकरणको परम For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिका मुकद्दमा. (७७) सम्यक्कधारी श्रावक जानके, रामलक्षमण दोनो भाईने पक्षमें होके, जय दिवाया । सो वज्रकरणभी- वीतरागदेवकी मूर्ति शिवाय दूसरेको नमस्कार करनेवाला नहीथा. उसीही पुण्यके प्रबलसें, जय भी प्राप्त हुवा. ढूंढनी लिखती है कि करने के योग्य नहीं, हठकी प्रबलता तो देखो ? जो कार्य दुखदाई हो, सो कार्य करने के योग्य नही होता है । परंतु जो कार्य इस लोकमें, और परलोकमें, सदा सुखदाता है, सो भी कार्य करने लायक नही ? ऐसा किस गुरुके पास पढी ? .. ॥ इति वज्रकरण में कुतर्कका विचार. ॥ | अब मूर्त्तिके आगे मुकद्दमा || ढूंढनी - पृष्ट ४२ ओ ३ से - राजाकी मूर्त्तिको लावें तो, मुकहमें, नकलें, कौन उस मूर्त्तिके आगे, पेश करता है. ॥ -C " .. समीक्षा - पाठक वर्ग ! राजाकी मूर्त्तिके आगे - मुकद्दमें, नकलें, पेश नही होतें है, यह मान लिया । परंतु दूर देश में जब राजा चला गया, तब उसके नाम मात्रसेंभी - मुकद्दमें, नकलें, पेश न किई जायगी । तो पिछे तीर्थकरों के अभाव में तीर्थकरों के ' नामसें ' यह ढूंढ़को, हे भगवन २ का नाम, दे दे के, क्यौं कुकवा करते है ? क्यौंकि ढूंढनीके मानने मुजब कुछ सिद्धि तो, होनेवाली है नही । यह ढूंढनी - कुतर्कों से थोथी पोथी भरके, अपणी पंडितानीपणा दिखलाती है, परंतु विचार नही करती है कि, ऐसा लिखनेसे मेरी गतिभी क्या होगी. ।। For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) मित्रकी मूर्तिसें प्रेम.. ॥ इति रानाकी मूत्तिके आगे मुकुद्दमें ।। ॥ अब मित्रको मूर्तिको देखने में प्रेम ॥ - ढूंढनी-पृष्ट ४२ ओ १० सें-हमभी मानते है की-मित्रकी मूर्तिको देखके--प्रेप, जागता है, परंतु यह तो मोह कर्मके रंग है ।। - समीक्ष:-ढूंढनीकी मूढना तो देखो कि,-मित्रकी मूर्तिको देखतो 'प्रेम' जागता है. परंतु जे-बीतगग देव, हमाग परम न. , रन तारन, संमार समुद्रसे पार उतारन, उनकी-मूर्ति, देखके 'प्रेम' न जागे, तो पिछे दूर भव्य बिना, अथवा अभय के पिना, यह लक्षण दूभरेमें कैसे होगे ? हमभी यही समन ते है कि, जिसको संसार भ्रमण, करनेका रहा होगा, उसकीही वीतरागदेव पर बहुत 'प्रेम' न जागेगा. ॥ . ॥ अब मूर्तिको वंदना नही ॥ ढूंढनी-पृष्ट ४३ ओ. ९ से-ऐसेही भगवान्की मूर्तिको देख• के, कोई खुश हो जाय तो हो जाय, परंतु नमस्कार, कौन विद्वान् करेगा. और दाल चावलादि, कौन विद्वान् चढावेगा.॥ - यथा गीत, " चाल" लूचेकी कूक पाडे सुनता नाही, रागरंग क्या । आखो सेती देखे नाही, नाच नृत्य क्या, ॥ ताक थइया ताक थइया ताक थइया क्या, इकेंद्र आगे पंचेंद्री नाचे, यह तमासा क्या, १ । नासिकाके स्वर चाले नाही, धूप दीप क्या। मु. खमें जिव्हा हाले नाही, भोग पान क्या, || ताक थइया २ । परम त्यागी परम वैरागी, हार श्रृंगार क्या । आगमचारी पवनविहारी, ताले जिंदे क्या, ॥ ताक थइया ३ । साधु श्रावक पूजी नाही, देव For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्त्तिको वंदना नही. (७९) रीस क्या । जीत बिहारी कुल आचारी, धर्म रीत क्या, ॥ ताक थइया ४ ।। इति. समीक्षा - धर्मकी प्राप्तिको प्राप्त होनेवाले जीव, वीतराग भग. वानकी मूर्तिका देखके तो, सभी खून हो जाते है, केवल निर्भाग्य शेखरोंकी हां खुशी होती न होगा। और वंदना, नमस्कार भी करना उचित ही है. क्यों कि जब हम भगवान्का, नामके वर्ण मात्रको उच्चारण करके नमस्कार करते है. तो पिछे उनकी - वैराग्य मुद्रामयी, परम शांत मूर्त्तिको, देखके, नमस्कार करनेमें हमको क्या हरकत आति है ? जो तूं कुतकों से पेट फूगाती है। जिनका नाम मात्र, हमारा - वंदनाय है, तो उनकी मूर्ति, वंदनीय क्यौं न होगी ? | और जो फल फलादि चढाते है. सो तो उस भगवान् के नामसें-- खेराद करते है. 11. जैसे-आगे राजा लोको, भगवान्का नाम मात्रको सुनेकी साथ, मुकट विना सर्व अलंकार खेराद कर देतथे । तैसें हमभी हमारी शक्ति मुजन, प्रथम भेटके अवसर में, खराद करते है, । और जिनको खानेको हो न होगा, तो वह खेराद भी क्या करेंगा ? और तूं लिखती है कि कूक पाडे सुनता नाही रागरंग क्या. इत्यादि. यहभी समज विनाका बकवाद है । क्योंकि पृष्ट ४८ ओ. ३ - तूंही लिखती हैं कि गुणियों के नाम, गुण सहित लेने से ( भजन करने से ) महा फल होता है, अर्थात् ज्ञानादिक कर्म क्षय होते है. और इंटक लोकोभी बडा तडके ( पिछली रात से ) उठकर -- तवन, सज्जाय, पढकर कूका पडते है. तो पिछे कैसे कहती है, कि कूक पाइनेसे सुनवग्रही नहीं, जो ऐसाही है तो तुम मौनकर, एक ** For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (60) जगोपर बैठ क्यों नही रहते हो ? -- और भगवानको, एकेंद्रिपणा कैसे कहती है ? तूं कहेगी. हम तो - मूर्तिको एकेंद्रि कहते है || हे सुमतिनी ! उसमें एकेंद्रिपणा है कहां, सोतो वीतरागदेवकी - आकृति है । और जो धूपादिक, करते है सो तो--भक्तिका अंग है. क्योंकि भगवान् साक्षात् विराजतेथे, तभी भक्तजनो--धूपादिक, करतेही थे। और भोगभी कुछ भगवानको नही करते है, सोतो उनके नामपै- खेराद करते है । हार श्रृंगारादि करते है सोभी, हमारा भावकी - वृद्धि के वास्तेही करते है. कुछ भगवान् के वास्ते नही करते है. जैसें साक्षात् भगवान् विचरतेथे, तबभी--समवसरणकी रचना, और भूमिकी पवित्रता, विगरे देवतादिक करतेथे, सो कुछ भगवानके वास्ते नही करते थे. तैसें यहभी हम लोक- हमाराही कल्याणके वास्ते करते है. तो पिछे भगवान् के वास्ते किया, वैसा क्यौं सोर मचाती है ? जो समवसरणादिक, भगवान् के वास्ते होताथा, वैसा कहेंगी तो, तूंही कलंकित होगी. कुछ भगवान् कलंकित न होंगे. मूर्त्तिको वंदना नही. और साधु श्रावक पूजीनाही, यह जो कहा है सौभी अयोग्य पका ही है, क्योंकि साधुको -- मूर्त्ति पूजनेका, अधिकारही नही है. और श्रावको तो- हजारो वरससे पूजते आते है. और पूजतेभी है. तूम अज्ञोंको दिखे नाही हमभी करे क्या. ॥ इति मूर्त्तिका - वंदना विचार || || अब मूर्तिको पूजन विचार || ढूंढनी - पृष्ट ४४ ओ. १४ से हम मूर्ति, मानते है, परंतु For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- -- - मूर्चिका पूजन नही. (८१) 'मूत्तिका पूजन' नहीं मानते है. वैसा कहकर एक-दृष्टांत दिया है कि ढूंदनीवहुको, सासु-मंदिर, ले चली, उहां शेरको देखके बहु, सासुको समजानेके लिये-गिर पड़ी. और कहने लगी, यह मेरेकोखा लेंगे. सासुने कहा यह तो पत्थरका-आकार है, नहि खा सक्ते, आगे वहु-एक गौ पास वछा है, वैसी पत्थरकी गौ देख-दोहने लगी. सासने कहा, यह दुधकी-आशा पूरण न करेगी. आगे देवकी मूर्तिको जुक २ सीस निवाती सासु, बहुकोभी कहने लगी, तूं क्यों शीस नही निवाती-तब वहु. छप्पा. कहकर, सासुको समजाने लगी. पर्वतसे पाषाण फोडकर-सिला जो लाये, बनी गौ, और सिंह, तीसरे हरी पधराये; गौ जो देवे दुध, सिंह जो उठकर मारे, दोनों बातें सत्य होय, तो हरी निस्तारे; तीनोका कारण एक है, फल कार्य कहे दोय; दोनों वाले जूठ है, तो एक सत्य किम होय. सासु लाजबाब हुई, घरको आई, फिर-मंदिरको न गई. समीक्षा-शेरकी मूर्ति, उठकर मारती नहीं है. और गौकी मूर्ति, न दुध देती है, । तैसें-जिनप्रतिमा, न तार सकेगी। यह तेरी बातभी मान लेवे । तो क्या शेर २ ऐसा-नामका उच्चारण करतेके साथ-शेर आके, तेरी और तेरे सेवकोकी-मिट्टीतो खराब करता ही होगा ? और-गौ, गौका, पुकार करनेकेही साथ-दुधका मटका भी, भरही जाता होगा ? तूं कहेंगी, कि, शेरकान्नाम उच्चारण कर For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) मूर्त्तिका पूजन नही नामभी तुमेरा जैसा नही. नेसे तो शेर कभी नही - मारता है, और गौका - नाम उच्चारण करनेसे, नतो-दुधका मटका भरता है। जब तो तुम ढूंढको जे भगवानका - नाम, ले, लेके, पुकार करते हो, सोभी तुमेरा- निरर्थक ही हो जायगा, तब तो तेरा दिया हुवा दृष्टांत तुमको ही धर्मसें, भ्रष्ट करनेवाला होगा || हमको तो नाम, स्थापना, दोनो ही कल्याणकारी है । पाठकवर्ग ! इस ढूंढनीने, प्रथम एक सवैया लिखा । फिर ताकथइया ताकथइयासे, नाच कर दिखलाया । अब इस तिसरा दृष्टांत देके, भगवान्का - नाम स्मरण मात्र भी छुडवाके, न जाने उनके भोंदू सेवकोंको-कौनसें खड्डमें गेरेंगी ? | और पृष्ट १६२ ओ. ३ से-ढूंढक मतपणाको सनातनसे दावा बांधती है, तब तो आज ह जारो वरस से इनके पूर्वजो, मूर्तिपूजकोंके - खंडन करतेही आये होंगे, सो पुस्तके उनके पूर्वजों क्या-मरती वख्त साथ लेके चले गयेथें ? सो उनका कोईभी प्रमाण नही देती हूई, आजकालके मूढों का प्रमाण देती है ? और साक्षात् पार्वतीरूपका अवतार लेके, क्या तूंही दुनीयामें उतर आई है ? जो परमपवित्र रूप जिनमूर्त्तिका - खंड करनेको, इतना धांधल मचाया है. ? ढूंढनी - अजी मूर्ति तो हम मानते हैं, परंतु मूर्तिका पूजन, नही मानते है | हम पुछते है कि, मूर्त्ति है सो - कोइमी जातकी कामना तो पूरी करनेवाली है नही, तो तूं मानतीही किस वास्ते है, ? क्या भोले जीवोंको भरमाती है. ? जिनमूर्त्तिके बदल तेरी कुतर्कों है सो तो तेराही - घात करनेवाली होगी. धर्मात्मा पुरुषोंको तो, जिनमूर्त्ति - सदाही कल्याणदाता - बनी हुई है, तेरी कुतकों सें क्या होनेवाला है ? || अब नाम भी तुमेरे जैसा नही || ढूंढनी - पृष्ट ४७ ओ ७ सें - हम तो-नामभी, तुम्हारीसी सम For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवर और भेषधारी. (३) जकी तरह-नहीं मानते हैं, क्यों कि हम जानते हैं कि-बिना गुणों के जाने, बिना गुणों के यादमें ग्रहें-नाम लेनेसे, कुछ लाभ नहीं. हम तो गुण सहित-नाम लेते हैं, सो तो-भावमें ही दाखल है. ___ समीक्षा-हे ढूंढनी ! तूं क्या साक्षात्-पर्वत तनयाका, स्वरूप धारण करके आई है ? जो हमारी समज तूंने मालुम हो गई । तूं भगवान्का-नाम, गुणोंको याद करने के वास्ते लेती हैं. तो हम क्या-गालीयां देने के वास्ते, भगवान्का-नाम लेते है ? वाहरे तेरी चतुराई. ? ॥जीवर और भेषधारी.॥ __ढूंढनी-पृष्ट ४८ ओ ८ से-किसी जीवरका-नाम-महावीर है, तो तुम उसके पैरोंमे पडते हो. ! - समीक्षा-हे ढूंढनी ! किसने तेरे आगे ऐसा कहा कि,-जीवरका नाम महावीर, सो, सिद्धार्थ राजाका-पुत्र है. क्योंकि-महावीर, यह नाम तो, अनादिका अनेक वीर पुरुषोंमें रखाता आया है. परंतु हमारा जो-महावीर नामका, संकेत है, सो तो-त्रिशला नंदनमें ही होनेसे, हम तो उनोंको ही याद करनेवाले है. जिसने जिस वस्तुमें जिनका संकेत किया है, सो तो उनकाही समजता है. दूसरे के अ. भिमायमें-तिसरेकी जरूरी ही क्या है ? ___ ढूंढनी-पृष्ट ४९ ओ. १ लीसें-भेषधारी, और मूर्तिके, विवादमें-कहती है कि, मूर्तिमें-गुण अवगुण दोनोही नहीं, ताते-वंदना करना कदापि योग्य नही. ___ समीक्षा-हे ढूंढनी ? जो भ्रष्ट थयेलो भेषधारी ते, और जो सर्वगुणसंपन्न वीतरागदेवकी-आकृति ते, क्या एक प्रमाणमें करती है ? इहांपर थोडासा विचार कर कि, जिस तीर्थकरोके साथ केवल संबंध हुयेले वर्णका समुदायरूप-नाम मात्र हे,सोभी-कल्याणकारी है. For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४ ) पार्श्व अवतार अक्षरोंसे ज्ञान नहीं. और तिनकी आकृतिभी, भव्य पुरुषोंका - भावकी वृद्धि करनेवालीही है. उनको क्या भेषधारीकी तरें - निषेध करती है. ? क्यों कि परम योगावस्थाकी - मूर्त्तिको देखके तो, सारी आलमभी खुस हो जायगी। परंतु तेरी जैसी - साध्वी, कोई पुरुष के संगमें, चित्र निकालेली देखे तो, सभीही निर्भछना करेंगे, तो साक्षात् - भ्रष्ट भेषधारीकी अपभ्राजना सभी क्यौंन करेंगे? जब भ्रष्टकी मूर्ति होगी, तबही निंदनिक होगी ? परंतु सर्वगुणसंपन्न वीतरागदेवकी - मूर्ति, यद्यपि राग गुणोंसे रहितभी है, तोभी महा पुरुष संबंधी होनेसे, अनादरणीय कभी न होगी. तुम ढूंढको ही चेलेको शिक्षा देते हो. कि, गुरुके आसन पै-बैठना नही. पैर लगाना नही. इत्यादि, तेतीस आसातना सिखाते हो, तो क्या आसनमें- गुरुजी, फस बैठे है. हे ढूंढनी ! तेरेको-लोकव्यवहार मात्र की भी खबर नही है तो शास्त्रका गुज्यको क्या समजेगी. ? || अब पार्श्व अवतार ॥ ढूंढनी - पृष्ट ५० ओ ६ से- तुम्हारा पार्श्व अवतार, ऐसे कहके गालो दे तो द्वेष आवे, कि देखो यह कैसा दुष्ट बुद्धि है. समीक्षा - जब कोई - पार्श्व अवतार, ऐसे कहकर - गालो देवे, उनपर तो ढूंढनीको द्वेष आ जावे. और जो लाखो महापुरुषो, भगवंत संबंधी मूर्ति बनायके, उनके आगे भजन बंदगी करते है, उस मूर्त्तिकी अवज्ञा करने को - पत्थर आदि कहती है, इनका भगवान् पै भक्तानीपणा तो देखो ? कितना अधिकपणाका है. ? || अब अक्षरोंसें ज्ञान नही || ढूंढ़नी - पृष्ठ १४ ओ १ से. ॥ जिसने गुरुमुखसे - श्रुतज्ञान नहीं पाया, अर्थात् भगवानका स्वरूप नहीं सुना, उसे मूर्तिको For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्थ अवतार अक्षरोंसें शान नही. (८५) देखके कभी ज्ञान नहीं होगाकि, यह किसकी-मूर्ति है. जैसें अनपढ-अक्षर, कभी नहीं वाच सकता, फिर तुम-अक्षराकारको देखके, तथा-मूर्तिको देखके, ज्ञान होना किस भूलसे कहते हो, ज्ञान तो ज्ञानस होता है. क्योंकि अज्ञानीको तो पूर्वोक्त-मूर्तिसे ज्ञान होता नहिं. और ज्ञानीको-मूर्तिकी गर्ज नहीं इत्यर्थः समीक्षा-वाहरे ढूंढनी वाह ! अक्षरोसे, और मूर्ति से तो, ज्ञान होता ही नहीं है, यह बात तो तेरी निशानके जंडेपर चढानेवाली ही है। क्योंकि ढूंढकों तो-जबसे माताके गर्भ में आये है, तबसे ही-तीन ज्ञान लेके आये होंगे, इस वास्त न तो-अक्षरोंकी जरूरी रहती है. और न तो-मूर्तिकी जरुरी रहती है. यह बात तो तेरे पास बैठनेवाले, ही मान लेवेंगे. दूसरे कोइभी मान्य न करेंगे । क्योंकि हमको तो-अक्षरोंको, मास्तर दिखाके शिखाता है. जद पि. छेसे-बांचना, और पढना, आता है । तैसे ही हमारे माता पिता, अथवा गुरुजी, हमको पिछान करा देते है कि-यह वीतरागदेवकी मूर्ति है. पिछेसे उनके गुणोकोभी समजाते है. तब ही हमारी समजमें आता है. इस वास्ते-अक्षराकी स्थापना, और हमारे परमोपकारी वीतरागदेवकी-मूर्तिकीभी स्थापना, हमारा तो निस्तारही करनेवाली होती है । और तुम ढूंढकों तो त्रण ज्ञान सहित जन्म लेते होंगे ? इस वास्ते न तो-अक्षरोकी स्थापनाकी, और न तो वीतरागदेवकी-मूर्तिकी स्थापनाकी, जरुरी रहती होगी। ? जब वेशाही था तो, प्रथम पृष्ट. ३६ में-आकार (नकसा) देखनेसें ज्यादा, और जल्दी समज आती है. यह तो हमभी मानते है, वेशा क्यों लिखाथा ? कुछ पूर्वाऽपरका विचार तो करणाथा ? हमको सो-नाम, और स्थापना, इन दोनोकोभी जरुरी रहती ही है । ॥ इति अक्षरोंसें ज्ञानका विचार ।। For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ merenceMAmaingan (६) लाहीका घोडा--खांडके खिलोने... ॥ अब लाहीको घोडा ॥ ढूंढनी-पृष्ट ५६ ओ १३ सें-बालकने अज्ञानतासे उसको ( लाठीको ) घोडा कल्प रखा है, तातें उस कल्पनाको ग्रहके, घोडा कह देते है, परंतु घास दानेका-टोकरा तो नहीं रख देते है। वैसें भगवान्का-आकार, कह देते है, परंतु वंदना, नमस्कार तो नहीं करे । और लडु पेंडे तो अगाडी नहीं धरें। समीक्षा-भला हमनेभी तेरा लिखा हुवा-मान लियाकै, भगवानका आकारको देखके-आकार कह देते हो, परंतु नमस्कार नहीं करते हो । तो-नाम देके तो-नमस्कार, करतेही होंगे कि नहीः ? जो भगवान्का-नाम, देके-नमस्कार, करते हो, तव तो घोडाका नाम देकेभी-घास दानेका टोकरा रख देनेकी-सब क्रिया करनी पडेगी ? तुम कहोंगे लड्ड पेंडे तो, भगवान्का-नाम देके नही चढाते है ? हम यह अनुमान करते है कि-जिसको खानेको नहीं मिलता होगा उनको, भगवानके-नामपै, खेराद करनेका कहांसे मिलेगा ? इसमें मूढता तो देखो कि, जिस भगवानका-नाम देके, नमस्कार करें, उस भगवान्की-मूर्ति देखके, नमस्कार करें तो हम डुब जावे. यह किस प्रकारके कर्मका उदय समजना ? ॥ इति लाठीका घोडा ।। ॥ अब खांडके खिलोने ॥ ढूंढनी-पृष्ट. १७ ओ. १३ से-खांडके हाथी, घोडा, खानेसे दोष है ॥ पृष्ट. ५८ में-मिट्टीकी-गौ, तोंडनेसें हिंसा लागे. परंतु मि ट्टीकी गौसे-दुध, न मिले, दोष तो हो जाय, परंतु लाभ न होय । इत्यादि-पृष्ट. ५९ तक सुधि । For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिट्टीकी गौ दुध न देवे. (८७) ___ समीक्षा-जब कोइ मिट्टीकी गौ बनाके मारे, उसको तो हिंसा दोषकी प्राप्ति होवे । वैसा तो ढूंढनी मानती ही है. परंतु मि. ट्टीकी गौको पूजे तो-लाभकी प्राप्ति न होवे । वैसेही भगवान्की मूर्तिसे-प्रार्थना निःफल मानती है । हम पुछते है कि-कोइ पुरुष, है गौ माता ! हे गौ माता ! दुध दे, दुध दे, वैसा पुकार करनेवाला है उनको-दुध मीले के नहीं मिले ? तूं कहेंगी के उसकोभी-दुध काहेका मिले ? तब तो तूं, भगवानका-नाम, जपना भी निःफलही मानती होगी ? क्योंकि उसमें-लाभकी तो प्राप्ति मानती ही नहीं है। तूं कहेंगी के, भगवान्का-नाम देनेसे तो, हमको-लाभ होवें, तब तो गौ माताके-नामसेभी, तुमको-दुधकी प्राप्ति होनी चाहीये, तूं कहेंगी वैसा कैसे बने, तो पिछे भगवान्के नामसे भी, लाभ कैसें । होवे. इस वास्ते तेरा मंतव्य मुजब--नतो तुमको भगवान्के-नामसभी लाभ, और नतो भगवान्की--मूर्तिसेभी लाभ होगा, तो यह तुमको जो मनुष्यजन्म मिला है, सोभी निःफल रूप हो जायगा. और भगवान के साथ द्वेष करनेसे न जाने तुमेरे ढूंढकोंको-क्या क्या गति करनी पडेगी ? हमको तो-भगवान्का, नाम देतेभी कल्याणकी प्राप्ति होती है. और उनकी-मूर्ति देखनेसे, और उनके नामपै-खेरादभी फरनेसे परम कल्याणकी प्राप्ति होती है ।। और निर्भाग्य शेखरोंकों, भगवान्के--नामसे, और भगवान्की--मूर्तिसेभी, अकल्याणकी प्राप्ति होती होंगी तब इसमें दूसरेभी क्या करेंगे ! । ___ और विशेष यह है कि, नतो हम-दुधके वास्ते, गौका नाम लेते है, और नतो उनकी--मूर्तिके पाससेभी, दुधकी प्राप्ति होनेकी इछा करें. मात्र जिस* उद्देशसे ( अर्थात् जिस-कार्यके वास्ते ) ___* वीतरागसें प्रेम, और उनकी भक्तिसे-हमारा अघोर कर्मका नाशके वास्ते ॥ For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (66) मूर्तिपूजा पंडितोंसे सुनी है. भगवान्का नाम जपते है, तिस उद्देशसेही मूर्तिकीभी उपासना करते है. तूं किस वास्ते - कुतर्कों करके, वीतरागकी - भक्ति सें दूर होती है. ? ढूंढनी - पृष्ट १९ ओ. ११ सें - कोइ पुरुष-- लोहेमें, सोनेका भाव करले कि, यह हे तो-- लोहेका दाम, परंतु मैं तो भावोंसे - सोना मानता हूँ. इत्यादि. समीक्षा - तूंने जे पृष्ट ४८ ओ. ८ में-जीवरमें, महाबीर नामा निक्षेप करके, पैरामे पडनेका किया है, उस जीवरके भावसे, तूं जो महावीरका - नाम, जपती होगी, तब तो जरुर तेरा भाव-लोहेमें सोनेका, रखने जैसा हो जायगा । परंतु हमतो जे परम त्यागी वीतरागदेव हैं, उनकाही भाव करके - - नामसे भी, और आकृति से भी, जपते है, इस वास्ते - सोनेके भावमे ही सोना समजते हैं । अगर जो तूं वीतरागदेवका भावको -- लोहारूप ठहराती होवें, तब तो, ते कोही -- दुखदाई होगा, हम तेरेको कुछभी नही कहते है . - || अब पंडितोंसे सुनी हुई पूजा || ढूंढनी - पृष्ट ६१ ओ ६ से - और हमने भी बडे बडे पंडित, जो विशेषकर - भक्ति अंगको मुख्य रखते हैं, उन्होंसें सुना है कि, यावत् काल -- ज्ञान नहीं, तावत् काल - मूर्ति पूजन है, और कई जगह लिखाभी - - देखने में आया है. ॥ समीक्षा - पाठक वर्ग ! विचार करो कि, यावत्काल ज्ञान नहीं तावत्काल - मूर्तिपूजन है, बैशा ढूंढनी पार्वतीजीने, कई जगह शाखोंमें लिखा हुवा देखा है, और भक्ति अंगको मुख्य रखनेवाले पंडितों से भी सुना है । इससे यह सिद्ध हुवा कि, तत्वरहित लोकोको, मूर्तिपूजनभी, भगवानकी भक्ति प्राप्त करनेको एक परम -- For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोणका पाठ. ( ८९ ) साधन है ? तो पिछे जिसको नीति रिति मात्रकीभी खबर नही है, वैसे-ढूंढकोंकी पाससे, यह ढंढनी वीतरागदेवको मूर्त्तिकी भक्तिमात्र छुडवाती हुई, और अपना परमपूज्य वीतरागदेवकी -अवज्ञा करानेका प्रयत्न करती हुई, और यह जूठा थोथा पोथाकी रचना करती हुई, अपर्णाभी क्या गति कर लेवेगी ? और उनके सेवकोकोभी - किस गतिमे डालेगी ? क्योंकि जिसको परमतत्त्व प्राप्त हो गया है, अथवा परम- ज्ञानकी प्राप्तिमें ही, सर्व संगत्याग करके - लगा हुवा है, वैसा साधुकी पाससे तो, शास्त्रकार भी - पूजन करानेका निषेध ही लिखते है, तो फिर किसवास्ते यह थोथा पोथा में कुतर्कों का जालकी रचनाकरके, अपणा, और अपने आश्रित हुयेले भद्रिक सेवको का - नाश करनेका प्रयत्न कर रही है ? | क्योंकि जब साधुपदको प्राप्त होके - परमतत्त्वकी प्राप्ति - लालेवेगा, तब सभी क्रियाओं - आपोआप छुट जाती है । उस पुरुषको तरे जैसा, मर्त्तिपर - द्वेषभाव ही, काहेको करणा पडेगा ? अगर जो तूं तेरे मन में अपने आप-तत्त्वज्ञानका पुतलापणा मानती होवें, तब तो यह मेरा छोटासा लेख मात्र से ही विचारकर ? | क्योंकि तेरा लेख यह शास्त्ररूपसे नही है, किंतु तेरे को और तेरे आश्रित सेवकोको - शस्त्ररूप होनेवाला जानकरही, मेरेको यह कलम चलानी पडी ह. ॥ 1 ॥ इति पंडितोंसे - मुनी हुई, मूर्तिपूजाका विचार | || अब नमोत्थका पाठ ॥ ढूंढनी - पृष्ट. ६५ ओ. १४ से - जो " नमोसिद्धाणं " पाठ पढना है इससे तो सर्व सिद्ध पदको नमस्कार है. और जो “नमोत्थुका " पाठ पढना है इससे जो - तीर्थकर, और तीर्थकर पदवी For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) नमोत्थुणका पाठ. · पाकर परोपकार करके - मोक्ष हुये है, उन्हींको नमस्कार है. इत्यर्थःसमीक्षा - हे ढंढनी 'नमोत्थुणका' पाठसे, वर्तमान तीर्थंकरोको, और मोक्षमें प्राप्त हुये तीर्थंकरोंकोभी, नमस्कार करना तूं मानती है ? परंतु मोक्षमें प्राप्त हुयें तीर्थकरो तो अपरकालकी अवस्थारूपसे 'द्रव्यनिक्षेपका ' विषय है । देखो सत्यार्थ पृष्ट. १६ में - ' द्रव्य ' संयमादि केवल ज्ञान पर्यंत, गुण सहित शरीर, सो मानाथा । और ' द्रव्यनिक्षेप' जो भगवानका मृतक शरीर सो, तूने नि रर्थकपणे मानाथा || अब इहांपर लिखती है कि, जो 'नमोत्थुर्णका' पाठ पढना है इससे. तीर्थंकर, और तीर्थंकर पदवी पाकर परोपकार करके - मोक्ष हुये हैं, उन्हींको नमस्कार है । विचारना चाहीये कि, जो तीर्थकरपणे २० विहरमान है, उनको तो नमस्कार करना युक्तियुक्त हो जायगा, परंतु जे ऋषभादि तीर्थकरो, हो गये है, उनको नमस्कार, किस' निक्षेपाको ' मानके करेंगे ? | जो ' द्रव्य निक्षेपाको ' मानके नमस्कार करें तो, ढूंढनीने मृतक शरीर पिछेसें निरर्थकपणा माना है । और दूसरा निक्षेपभी कोइ घटमान होई सकता नहीं । इस वास्ते 'नमोत्थुर्णका' पाठ, और जे लोगस्स के पद - " अरिहंत कित्त इस्सं चउवीसंपि केवली " यह पाठ पढने का है सोभी - निरर्थक हो जायगा ? इस वास्ते शास्त्रकारनेजिस प्रमाणे निक्षेप माना है, उस प्रमाणे निक्षेपका स्वरूपको मानेंगे, तब ही ' अरिहंते कित्त इस्सं ' यह पाठ और ' नमोत्थुणकामी ' पाठ, सार्थक होगा। परंतु ढूंढनीजी के मन कल्पित - निक्षेप से नमस्कारका लाभकी सिद्धि न होगी | ॥ इति नमोत्थुणं पाठका विचार || For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्त्तिमें श्रुति लगानी नही || और सूत्र पाठ - कुतक. (९१) || अब मूर्त्तिको घरके श्रुति लगानी नहि || ढूंढनी - पृष्ट ६७ ओ ६ से - मूत्तिको धरके उसमें श्रुति लगानी नहीं चाहीये. समीक्षा - पाठक वर्ग ! इस ढूंढनीको, कोई मिध्यात्वके उदय से, केवल वीतरागदेवपर ही परमद्वेष हुवा मालूम होता है ? नही तो ध्यानके अनेक आलंबन है. उसमेंभी - नासाग्र दृष्टियुक्त, और पझासन सहित, परम योगावस्थाकी सूचक, वीतरागदेवकी - मूत्ति, प्रथमही ध्यानका आलंबनरूप है. तोभी ढूंढनी लिखती है के, मूर्तिका धरके - श्रुति लगानी नहीं चाहीये, कितना वीतरागदेव उपर द्वेष जागा है । नहीं तो देखो कि--समुद्र पालीको, चोरके वंधनों कों देखने से भी--धर्म ध्यानकी प्राप्ति हुई। और 'प्रत्येक बुद्धियोंको' बेलादि देखके, धर्म ध्यानकी प्राप्ति हुई । यह सब तो ध्यानकी प्राप्तिके कारण हो जाय. मात्र वीतराग देवकी - मूर्त्तिको देखनेसे ढूंढनके ध्यानका नाश हो जाय ? यह तो ढूंढनीको द्वेषका फल उसमें दूसरे क्या करे ? ॥ इति मृतिमें श्रुति लगानेका विचार || || अब सूत्रपाठी - कुतर्कों का, विचार करते है | पाठक वर्ग ! ढूंढनीने - इहां तक जो जो--कुतर्कों किईथी, उसका सामान्य मात्र तो - उत्तर लिख दिखाया है, उससे मालूम हो गया होगा कि, ढूंढनी के वचन में सत्यता कितनी है ? और इसीही प्रकारसें आगे सूत्रकारोंका लेखपैंभी, जो जूठा आक्षेप किया है, सोभी, स्वजन पुरुष तो समज ही लेंगे. परंतु अजान वर्ग तो शं For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) सूत्रपाठमें कुतकी. कितही रहेंगे ? वैसा समजकर, उनकी शंका दूर करनेके लिये, सूत्रपाठका खोटा आक्षेपों पै, किंचित् मात्र--समीक्षा करके भी दिखला देते है. इससे यहभी मालूम हो जायगा कि, ढूंढको जैनाभास होके केवल जैनधर्मको कलंकित करणेवालेही है! सुज्ञेषु किमतिविस्तरेण. ॥ अब सूत्रोंमें मूर्तिपूजा नहीं ॥ ढूंढनी-पृष्ट ६७ ओ४ सें-सूत्रोंमें तो--मूर्तिपूजा, कहीं नहीं लिखी है, । यदि लिखा है तो हमें भी दिखाओ. ___ समीक्षा-पाठक वर्ग ! स्वमत, परमतके, हजारो पुस्तकोपर, 'जिन मूर्तिका' अधिकार--लिखा गया है. । और आज हजारो वरसोंसें, श्वेतांबर, दिगंबर, यह दोनोभी बडी शाखाके,-लाखों आदमी, पूजभी रहें है, । और कोई अबजोंके अवजोंका खरचा लगाके, संपादन किई हुई, करोडो 'जिन मूत्तिके विद्यमान सहित, आजतक एकंदरके हिसाबसे-छत्रीशहजार ( ३६०००) जिन मंदिरोंसे--पृथ्वीभी मंडित हो रही है । और यह ढूंढनीभी पृष्ट ६१ मेंलिखती है कि-हमनेभी बडे बडे पंडित, जो विशेषकर भक्ति अंगको मुख्य रखते हैं, उन्होंसे-सुना है कि,-यावद् काल ज्ञान नहीं, तावत् काल-मूर्तिपूजन हैं। और कई जगह-लिखाभी देखनेमें आया है। वेसा प्रथमही लिखके आई, और इहांपै लिखती है कि-सूत्रोंमें तो मूर्तिपूजा कहीं नहीं लिखी हैं, यदि लिखी होवें तो हमेंभी बताओ | विचार करो अब इस ढूंढनीको हम क्या दि. खावें ? क्योंकि जिसके हृदयनेत्रोंमें वारंवार छाई-आजाती है, उनको दिखेगाभी क्या ? ॥ और जो मूलसूत्रोंमें-जिन प्रतिमा पूजनके प्रगटपणे साक्षात् पाठ है, उनकोभी-कुतकों करके बिगाडनेको, प्रवृत हुई है, तो अब इसको, हम किसतरां समजावेंगे ? हमारी For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वती जिन प्रतिमाओ है. (९३) समीक्षा तो उसके वास्ते होंगी कि, जिसका भव्यत्व निकट होगा; सोई पुरुष तीर्थकरोंसे - विपरीत वचनपै, विश्वास न करें. और आचारण पै दृढ होवे. शुद्ध इति सूत्रोंमें 'मूर्तिपूजा नहीका विचार || || अब शाश्वती जिन प्रतिमाओंका विचार || ढूंढनी - पृष्ट ६९ ओ. ९ से - देव लोकोंमें तो, अकृत्रिम अर्थात् शाश्वती, बिन बनाई मूत्तिर्ये, होती है, । और देवताओका 'मूत्तिपूजन ' करना - जीत व्यवहार, अर्थात् - व्यवहारिक कर्म होता है, । कुछ सम्यग्दृष्टि, और मिथ्यादृष्टियों का नियम नहीं है । कुल रूदिवत् । समदृष्टिभी पूजते है, मिथ्यादृष्टिभी पूजते है. ॥ समीक्षा - देवलाक में जो इंद्रकी पदवीपर होते है सो तो, नियम करके - सम्यग् दृष्टिही होते है, वैसा शास्त्रकारने - नियम दिखाया है, । और वही इंद्रो, अपणा हित, और कल्याणको समजकर, 1 शाश्वती जे ' जिन प्रतिमाओ ' ( अर्थात् अरिहंतकी प्रतिमाओ ) हैं, उनका पूजन करते है । उसको ढूंढनी - कुल रूढीवत् व्यवहारिक कर्म कहती है. । भला - दुर्जनास्तुष्यंतु इति न्यायेन, तेरा मान्या हुवा, व्यवहारिकही कर्म, रहने देते है । हम पुछते है कि - करने के योग्य व्यवहारिक कर्म, कुछ - हित, और कल्याण के वास्ते होता है या नही ! | तूं कहेगी कि करनेके योग्य - व्यवहारिक कर्मसे, कुछ हित और कल्याणकी प्राप्ति, नही होती है, । वैसा कहेगी, तबतो, तूं जो मुखपै मुहपत्ति बांधके, हाथमें 1 ओघा लेके - फिरती है सो । और श्रावकके कूल में - रात्रिभोजन नहीं करना सोभी, व्यवहारिकही For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) शाश्वती जिन प्रतिमाओ है. कर्म है, उनकोभी-छुडानेकाही उपदेश करती होगी । और दो वख्त जो-आवश्यक क्रियादि, कर्तव्यको तूं करती है, सोभी नित्य कर्तव्य होनेसे-व्यवहारिकही कर्म रहेगा । और श्रावकोकों-जीवहत्या नहीं करनी, यहभी तो श्रावकोकों कुलका-व्यवहारसेंही चली आती है. यह सब व्यवहारिक कार्यभी करनेके योग्य है, उसको क्या तूं-छुडानेका उपदेश करती है ? जो हमारा परम पूजनिक वीतरागदेवकी-मूर्तिका पूजनको, व्यवहारिक कर्म कहकर, भक्तजनोको भ्रममे गेरके छुडानेके वास्ते शोर मचा रही है ? .. तूं कहेगी कि-मुख पै मुहपत्तिका-बांधना, और हाथमें ओघा लेके-फिरना, यह तो आत्मिक धर्म है । और रात्रिभोजन श्रावकोंको नहीं करना, सोभी आत्मिक धर्मही है । वैसा कहेंगी तब तो, तेरा ही वचनसे-तेरेकु ही बाधक होता है. क्योंकि तूंही पृष्ट ६४ ओ. ४ से लिखती है कि-बहुत कहानी-क्या, ज्ञानका कारण तो, ज्ञानका अभ्यासही है । इस प्रकारका तेरे लेखसें तो-तत्त्वज्ञानके पिछेसेही-आत्मि धर्मकी प्राप्ति होनी चाहिये, तो पिछे मुहपत्ति और ओघा ही, तेरेको-आत्मिक धर्म कैसे करादेगा ? यहभी तो . तेरा गुडियोंकाही खेल है ? तूंभी जबतक यह-व्यवहारिकरूप मुहपत्ति और ओघा-न छोडेगी तवतक कभीभी-ज्ञानिनी नहीं बनेगी? वैसे औरभी श्रावकोके-करणे योग्य कर्तव्योका, विचारभी समज लेना । परंतु इस बातमैं हम तो यह कहते है कि-जबतक रात्रि भोजन त्याग व्यवहार आदि, श्रावक कुलका आचार रहेगा,तबतक यह-जिन प्रतिमाका-पुजनभी अवश्यही रहेगा ? सोई-हित, और कल्याणकारी है । और तुंभी कहती है कि-समीटभी पुजते है, मिथ्या दृष्टिभी पुजते है । हमभी यही कहते है कि-मुहपत्ति, और औषा समष्ठिभी रखते है. मिथ्यादृष्टिभी-रखते है । तुं क For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवताओंका नमोस्युणं. (९९) हेगीक सोतो सब समदृष्टिही होते है, ऐसा कहना, या ऐसामान लेना, सब गलत है | क्योंकि जैन धर्मकी क्रिया करनेवाले में भी -- निश्चयसें तो सेंकडोंमें दो चार भी समदृष्टि मिलाना कठीन ही है | वैसें श्रावकोंमैभी- रात्रिभोजन त्याग, आ दि क्रियाओको समदृष्टिभी करते है, मिथ्या दृष्टिभी करते हैं. सो क्या सब छुडाने के योग्य है ? तूं कहेगी कि यह सब - व्यवहारिक क्रि 'याओ - छुडाने के योग्य नही है. तो पिछे - जिनप्रतिमाका पूजनको, व्यवहारिकपणेका-आरोप रखके, छुड़ाने के वास्ते-द्वेषभाव कर रही है. सो तेरी - किस गतिके वास्ते होगा ? इत्यलं. विस्तरेण ॥ F || अब देवताओंका - नमो त्थूणंका, विचार ॥ ढूँढनी - पृष्ट ७० ओ० १३ से - और नमोत्थुर्ण के पाठ विषयमें - तर्क करोंगे तो, उत्तर यह है कि, पूर्वक भावसे मालुम होता है कि, देवता - परंपरा व्यवहारसे कहते आते है. ॥ भद्रबाहु स्वामी जीके पिछे, तथा वारावर्षी कालके पिछे-लिखने लिखाने में फरक पड़ा. हो । अतः ( इसी कारण ) जो हमने अपनी बनाई - ज्ञानदीप - कां नामकी पोथी - संवत् १९४६ की छपी पृष्ट ६८ में - लिखाया कि, मूर्त्तिखंडनभी हट है, ( नोट ) वह इस भ्रम से लिखा गयाथा कि- जो शाश्वती मूत्र्त्तियें हैं वह २४ धम्मवितारामकी हैं, उनका उ स्थापकरूप- दोष लगने के कारण, खंडनभी- हठ है, परंतु सोचकर देखा गया तो, पूर्वोक्त कारण से वह लेख ठीक नहीं । और प्रमाणिक० जैन सूत्रोंम - मूर्त्तिका पूजन, धर्म प्रवृत्ति, अर्थात् श्रावकके सम्यक्त्व व्रतादिके अधिकार में, कहीं भी नहीं चला इत्यर्थःसमीक्षा - अब इहां पर ढूंढनीका विचार देखो कि - पृष्ट. ६९ For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६) मूर्तिपूजन व्यवहारिक कर्म. .. . में-देवताओंका मूर्तिपूजन-व्यवहारिक कर्म, कुल रूढीवत् , कहकर दिखाया । और फिर कहाकि-सम्यग् दृष्टिभी पूजते है, मिथ्या ह. ष्टिभी पूजते है । अब इहां पै-नमोथ्थुणका पाठ, शास्वती जिनमूर्तियांके आगे, देवता-परंपरा व्यवहारसे कहते आते है, वैसा लिखके दिखाया | और इस लेखके-नीचेका भागमें-जैन सूत्रोंमें मूर्तिका पूजन, धर्म प्रवृत्तिमें, अर्थात् श्रावकके--सम्यक्त्व व्रतादिके अधिकारमें, कहींभी नहीं चला. ॥ अब विचार यह है कि-समदृष्टि भी पूजते है, मिथ्या दृष्टिभी पूजते है । बैसा लेख ढूंढनाही-अपणी पोथीमें लिखती है, यहभी तो सूत्रमेंसेही लिखा होगा ? । तब कैसे कहती है कि-सम्यक्त्व व्रतादि अधिकारमें-मूर्ति पूजन कहीभी नही चला ?। विशेषमें तूं इतनाही मात्र-कह सकेगी कि-व्रताधिकारमें ' मूर्तिका पूजन' कही नहीं चला है । परंतु है विमतिनी ! सम्यक्त्व विनाके ढंढकोका, जो व्रत है सोतो, केवल पोकलरूपही है, और ब्रतादि मेहलका पायारूप सम्यक्त्व है, उनकी दृढ प्राप्तिका कारण 'जिन मूर्तिका पुजनभी ' है | किस वास्ते विपरीत तकॊ करके भोंदू लोकोंको जिन मार्गसें भ्रष्ट कर रही है ? हे ढंढनी अपणे लेखमें-तही लिखती है कि-मूर्तिको सम्यग दृष्टिभी पुजते है. तो पिछे " नमोत्थुणं अरिहंताणं." इत्यादि यह उत्तम पाठभी पढनेका, उत्तम व्यवहारसेंही चला आया होगा? तो यह परंपराभी उत्तमही होगी ? जैसे श्रावकके कुलमें, रात्रिभोजन त्याग, सामायिक, पोसह, करनेका परिपाठ है, और दो टंक आवश्यक क्रिया आदिक व्यवहारिक जो जो कर्म है, उनको, जबसे बालक अज्ञान: पणे होता है, तबसेही उत्तमपणेका व्यवहारिक कर्तव्य जानके, सब प्रवृत्ति करनेको लग जाता है ! तूं कहेगी यह बालक तो सम्य क्वधारी है, तो अभी जिसको शरीर ढकनेकी तो खबरभी नहीं For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALLA . .. 'काही जागा सही भीतक कुलमें मूर्तिपूजन ध्यान वर कालीन "कोमा महावर, सिडन करणका प्रयत्न है सोनी, तेरा और आ शितोके धर्मका नाश करमेकाही प्रयत्न, इस साधिक फलको विगी । और जो तूं अनुमान करती है कि बाह स्वामीजी के पैरों, तथा बौरा वर्षी बालके पीछे-लिखत लिन खकिय कर्क पडा ही? यहभी तेरा अनुमान, भोले जीवित प्रमा 'नेकाही -आज हजारो वरस हुक चला आता मूर्तिका पूजन विगंवा श्वेतांबर, यह दोनों सदके, लाल र स्तकार चढ गया हुवा है, उस पाठको लिखने-लिवान, फरूप मान, औरती हैं। हम पुंछते है कि, सनातनप्रणेका जैन दावा कुस्ताले इंढको, कितने जैन पुस्तकोशी रचना करके, पंह जूद अमान कर गये है ? यह तेरे जैसे एक दो माधुनिक ढूंढकका किया हवा अनुमानतो, कोइ भोंदु,अथवा होगा सोई मान्य करेगा, परंतु विचक्षण पुरुष ते विचारही को और लिखती है कि प्रत्ति खंडनी हठ है, वह इस भ्र.. मसे-लिखा गयाथा कि, जो शाश्वती मूर्तिये हैं वह २४ धर्मावत .. रोमें की हैं, उनका उत्थापकरूप, दोष लगनके मारणा-खंडममी इढ़ है, परंतु सीपकर देखागया तो, पूर्वोतं कारणसे वह लेख . हीक नही ..: पाठकग ! ढूंढनी कहती है कि, शीत मतमा २४ अव गारों की जानकर खंडन करणा, हठ मानाथा तो अब २४ . F . For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजन-व्यवहारिक कर्मः . A 65 " १९८) वतारों की नहीं है-इसका प्रमाण तो कुछ लिखा नही है ? और चोवीश अवतारोंकी " मूर्ति पूजनका " प्रमाण तो तेरा ही थोथा मोथामें--जगे जगें पर सिद्ध रूपही पड़ा है। प्रथम देख-पृष्ट. १४७ का सूत्र पाठ ॥ जिण पंडिमाणं भंते, वंदमाणे, अच्चमाणे । इंता गोयमा, वंदमाणे, अच्चमाणे, इत्यादि ।। पृष्ट. १४८ सें तेराही अर्थ देख-हे भगवन् जिन पडिमाकी-चंदना करे, पूजा करे, हां गोतम-वांदे, पुजे ॥ यह तेरा ही लेखसे तीनो चोवीसीके-धर्मावतारोकी-मूर्तिका पूजन सिद्धरूप, ही है ॥ ' और दूसरा प्रमाण भी देख-पृष्ट. ६१ में-तूंने ही लिखा है कि-बडे बडे पंडितोंसे सुना है कि--यावत्काल ज्ञान नही तावत्काल-मूर्ति पूजन है ! और कइ जगह, लिखा भी देखने में आता है। यह लेख भी तो तेरा हाथसें ही-तूंने लिखा है । केवल तूं, विचार मूढ-हो गई है ।। और इनके सिवाय १ महा निशीथ सू त्रका पाठ । २ उपाशक दशा सूत्रसें-आनंद काम देवादिक महा श्रावकका पाठ । और ३ उवाइ सूत्रसें-अंबड परिव्राजकका पाठ ॥ ४ ज्ञाता सूत्रसें-द्रोपदी महा सतीजीका पाठ । और ५ भगवती सूत्रसे-जंघा चारणादिका पाठ ॥ इत्यादि । जगे जगे पर तूंने लिखा हुवा, तेरा ही थोथा पोथामें--जिनमूर्तिका अधिकारको, प्रगटपणे दिखा रहा है परंतु कोइ मिथ्यात्वरूप-कमलाका रोग होनेसें, अब तेरेको-विपरीतरूप ही हो गया है, तो अब दोष के कारणसे कैसे मिट जायगी ? हम अनुमान करते है कि, ढूंढनीको उत्तम प्रवृत्ति उठानेका तो भय-शेश मात्रभी नही है. परंतु उसवख्त श्री आत्मारामजी बावाका भयसे-वैसा लिखा होगा ? अब बावाजीका भयभी छोडके, अनादि सिद्ध जिनमूर्तिका खंडन करनेको, प्रबल पापके उदयसे प्रवृति किई है. परंतु यह विचार न For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण भद्रादि-यक्षोंका, पूजन. (९९) किया कि, बावाजी तो चला गया है, परंतु बावाजीके मुंडे हुये - बावाजी तो बैठे है. सोभी यह मेरी कागजकी- गुडीयां, कैसें चलने देंगे ? ॥ इति मूर्तिपूजन - व्यवहारिक कर्मका, विचार || || अब पूर्ण भद्रादि यक्षोंका - पूजन विचार || ढूंढनी – पृष्ट ७४ ओ. ८ से - वह जो सूत्रों में- 'पूर्णभद्रादि यक्षों के 'मंदिर' चले है सो, वह यक्षादि - सरागी देव, होते हैं । और वलिबाकुल आदिककी - इछा भी रखते हैं । और रागद्वेषके प्रयोगसे - अपनी 'मूर्तिकी' पूजाsपूजा देखके, वर, शराफ, भी देते हैं। ताते हर एक नगरके बहार - इनके 'मंदिर' हमेशां से चले आते है, सांसारिक स्वार्थ होनेसें । परंतु मुक्ति के साधनमें - मूर्त्तिका पू· जन, नही चला । यादे जिनमार्गमें- जिनमंदिरका पूजना, सम्यक्त्व धर्मका लक्षण होता तो, सुधर्म स्वामीजी अवश्य सविस्तार प्रकट सूत्रोंमें, सर्व कथनों को छोड, प्रथम इसी कथनको लिखते. १ उब्वाईजी में - पूर्णमद्र यक्ष के मंदिर, उसकी पूजाका, पूजाके फलका, धन संपदादिकी प्राप्ति होना, सविस्तर वर्णन चला है | और अंतगडजीमें-- मोगर पाणी यक्षके - मंदिर पूजाका, । हरिणगमेषी देवकी - मूर्त्तिका पूजाका । और विपाक सूत्रमें -- ऊँबर यकी - मूर्त्तिमंदिरका, और उसकी पूजाका फल - पुत्रादिका होना, सविस्तर वर्णन चला है । यहभी ढूंढनी काही लेख. पृष्ट ७३ सें लिखा है | और यह सर्व मूर्तियों को, और मंदिरोंकोभी, “ चैत्य" शब्द करकेहि, मायें - सूत्रोंमें लिखा गया है. जैसें कि- पुण्णभद are इत्यादि. • For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) पूर्ण भद्रादि यक्षोंका पूजन. समीक्षा - प्रथम इस ढूंढनीने - वैसा लिखाया की, पथ्थरका - शेर, क्या मार लेता है ? और पथ्थरकी गौ क्या-दुध देती है ? वैसादृष्टांतोसे - मूत्तियों का, सर्वथा प्रकार - निःफलपणा, प्रगट कियाथा। अब इहां पै “ पूर्णभद्र यक्ष " और " मोगर पाणी यक्ष " आदकी - पत्थर की मूर्तियांका, पूजन करवाने का कहकर, अपणा सेबकोको, धन, दौलत, पुत्र, राज्य, आदि रिद्धि सिद्धिकी प्राप्ति करा देती है । मात्र वीतरागदेवकी मूर्त्तिका नजिक, इनके आश्रित जाते होंगे, तबही न जाने विमार पडजाती होगी ? या न जाने जिनंप्रतिमाका पूजन अधिक हो जानेसे, जो पूर्णभद्रादि यक्ष है सोअपणी पूजा, मानताका कमीपणा देख के, इस ढूंढनीके अंगमे - प्रवेश किया हो ? और तीर्थकरोंका, और गणधर महाराजाओं का, अनादर कराने के लीये, यह जिनमूत्तिका निषेधरूप-लेख, इस ढूंढनीकी पास लिखवाया हो ! क्योंकि जो विचार पूर्वक लेख होता तबतो-यह ढूंढनी सामान्यपणेभी - इतना विचार तो, अवश्यही करती कि -- जब पूर्णभद्रादि यक्षोंकी - पत्थररूप मूर्तियों की प्रार्थना, भक्ति सें-पुत्र, धन, दौलत, राज्य रिद्धि आदिक ते यक्षादिक देवताओ, दे देते थे, वैसा शास्त्र सम्मत है, तब क्या वीतरागदेवकी मूर्तियोंका भक्तिभाव देखके; जो वीतराग देवके भक्त - सम्यक धारी देवताओहै सो, प्रसन्न हो के हमारा इस लोकका दुःख, दालिद्रादि । तथा आधि, व्याधिभी, दूर करके अवश्य परलोक में भी -- सुखकी प्राप्ति करानेके, कारणरूप होतें । और परंपरासे अवश्यही - मोक्षकी प्राप्तिभी हमको होजाती । क्योंकि मनुष्यको दुखादिकमेही - अकत्ते - व्य करने पर लक्ष हो जाता है ? उस अकर्त्तव्योकाही - नरकादिक फल भोगने पडते है । फिर बहुत कालतक- संसार परिभ्रमण भी 1 करना पडता है । जब हमको दुःख, दालिद्र, आधिव्याधि सर्वथा 1 For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण भद्रादि यक्षोंका पूजन. (१०१) प्रकारसे न रहेगी । तब हम-दान, दया, शील, तप, भाव आदि मेभी-अधिक अधिक प्रवृति करके, हमारा आत्माको अनंत दुःखकी जालमेंसेभी-छुडानेको समर्थ, हो जायगें । एक तो वीतरागदेवकी भक्तिकाभी-लाभ होजायगा, और हमारा आत्माभी-अनंत दुःखकी जालसे सहज छुट जायगा। इतना सामान्य मात्रभी विचार करके, ढूंढनी-लेख लिखनेको प्रवृत्ति करती तब तो, तीर्थकर गणधर महाराजाओंका, अघोर पातक रूप-अनादर, कभी न करती, वैसा हम अनुमान करते है । परंतु क्या करेंकि--जिसके अंगमें-यक्ष राक्षसोका, अथवा मिथ्यात्वरूप भूतका, प्रवेश हो जाता है, तब परा धीनपणे--उस जीवके बशमें, कुछ नही रहता है, तो पिछे विचार ते कहांसे आवे ! क्योंकि जिस-- चैत्य' शब्द करके-पूर्ण भद्र, मोगरपाणी, यक्षोंके विषयमें-मूर्ति मंदिरका अर्थ करती है, उसी 'चैत्य' शब्दका अर्थ-अरिहंतके विषयमें--जब जिस जिस शास्त्रमें आता है, तब यह ढूंढ पंथिनीढूंढनी प्रत्यक्षपणे लिखा हुवा मंदिर मूत्तिका अर्थको छुपाने के लिये, अगडंबगडं-लिख मारती है. । इसी बास्ते हम अनुमान करते है कि, 'यक्ष' या 'मिथ्यात्वरूप' महा भूतका प्रवेश हुये विना, ऐसा-अति विपरीत पणेका आचरण,क्यौं. करती, ? और देखोकि-एक तो अपणा आत्माको, और अपणे आश्रित सेवकोका-आत्माको, वीतरागदेवकी भक्तिसे-दूर करके, और सेवकोंको धनादिककी लालच दिखाके, यक्षादि मिथ्यात्वदेवके वशमे करनेको, यह अघोर दुखका पायारूप-ग्रंथकी,रचनाभी क्यों करती ? " अहो कर्मणो गहना गतिः" || और यक्षादिकोंकी जो मूर्ति-पत्थररूपकी है, उनकी प्रार्थनासे, धन पुत्रादिककी प्राप्ति होनेका लिखके, नीचेके भागमे यों लिखती है कि-जिन मंदिरका पूजना, सम्यक धर्मका-लक्षण होता तो, सुधर्मस्वामीजी-अवश्य For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२) सूत्रोंका लेखमें--अधिकता. सविस्तार लिखते । अब इस विषयमें ढूंढनीको हम क्या लिखेंक्योंकि-जिन प्रतिमापूजनका लेख--दिगंबर, श्वेतांबरके, लाखो शास्त्रोंमें हो चुका है, और पृथ्वीभी-हजारो वरसोसें, जिन मंदिरोसेंमंडितभी हो रही है, तोभी यह ढूंढनी--अखीयां भींचके, लिखती है कि, सम्यक धर्मका लक्षण होता तो, सुधर्मस्वामीजी अवश्य लिखते ? अब ऐसे निकृष्ट आचरणवालेको, हम किसतरे समजानेको सामर्थ्यपणा करेंगे ? इत्यलंविस्तरेण. . ॥ अब गणधरोंका लेखमें भी-अधिकताका, विचार ॥ ढूंढनी-पृष्ट. ७५ ओ. ७ सें-हम देखते हैं कि, सूत्रोंमे ठाम २, जिन पदार्थोंसे-हमारा विशेष करके, आत्मीय-स्वार्थभी सिद्ध नहीं होता है, उनका विस्तार-सैंकडे पृष्टॉपर-लिखधरा हैपर्वत, पहाड, बन बागादि ॥ पुनः 'पृष्ट. ७६ से-परंतु-मंदिर मूतिका विस्तार, एक भी प्रमाणीक-मूलसूत्रमें, नहीं लिखा.॥ समीक्षा-पाठक वर्ग ! यह ढूंढनी क्या कहती है ! देखो कि-सूचनमात्र सूत्रको, सूत्रका तो-मान देती है। फिर कहती है कि-आत्मीय स्वार्थभी-सिद्ध नहीं होता है, उनका-विस्तार, सैंकडे पृष्टों पर, गणधर महाराजाओने लिखधरा है । वैसा कहकर-अपणी पंडितानीपणाके गमंडमें आके-तीर्थंकरोंको, तथा गणधर महापुरुषोंकोभी-तिरस्कारकी नजरसे, अपमान करनेको-प्रवृत हुई है। वैसी-ढूंढनीको-क्या कहेंगे ? क्योंकि मूत्रमें तो एक 'चकार, मात्रभी रखा गया होता है. सोभी अनेक अर्थोकी सूचनाके लिये ही रखा जाता है वेसें महा गंभीरार्थवाले-जैन सूत्रोंका लेखको, सैंकडे पृष्टोतक-निरर्थक ठहराती है ? अरे बिना गुरुकी ढूंढनी ! गणधर महाराजाओके लेखका रहस्य, तुजको समजमें आया होता तो-वैसा लिखतीही क्योंकि, हमारा स्वार्थकी सिद्धि For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहवे अरिहंत चेइय. (१०३) नहीं होती है ? इहांपरही तेरी-पंडितानीपणा, वाचकवर्म समज लेवेगे ? हम कुछ विशेष लिखते नहीं है । और जो तूं लिखती है कि--मंदिर मूर्तिका विस्तार एकभी-प्रमाणिक सूत्रमें, नहीं लिखा, सोतो तेराही लेखसें तेरी अज्ञता सिद्ध करके दिखा देवेंगे.॥ ॥ इति सूत्रोंका लेखमेंभी-अधिकताका, विचार ।। - - ॥ अव बहवे अरिहंत चेइय प्रक्षेपका विचार ।। ढूंढनी-पृष्ट. ७७ में. “ बहवे अरिहंत चेईय." ( यह प्रश्नके उत्तरमें ) लिखती है कि, यदि किसी २ प्रतिमें, यह पूर्वोक्त पाठभी है, तो वहां ऐसा लिखा है कि--पाठांतरे । अर्थात् कोई आचार्य ऐसे कहते है. एसा कहकर-प्रक्षेप, पणाकी सिद्धि कीइ है. ॥ समीक्षा-हे पंडितानी ! पाठांतरका अर्थ *तूंने . प्रक्षेपरूपसे समजा ? क्योंकि-उवाईजीमे तो प्रथम--' आयारवंतचेइय १, इनके बदलेमें यह " बहवे अरिहंतचेइय २, पाठांतर करके लिखा है. परंतु केवल-प्रक्षेपरूप नहीं है. और दोनों पाठोंका अर्थभी एकही जगे आके मिलता है. । प्रथम पाठका अर्थ यह है कि--आकारवालें अर्थात् सुंदर आकारवाले, वा आकार चित्र देवमंदिराणि यह अर्थ होता है । और दूसरे पाठसे-बहुत अरिहंतके मंदिरों, वैसा खुला अर्थ होता है । उस पाठको तूं प्रक्षेपरूप कहती है ? परंतु ___ * देख तेरी थोथीपोथी- इतारिये (थोडा) पृष्ट ९ में ॥ मांडले (नकसा) पृष्ट ३५ में ।। न्हु (बेटेकी बहु ) ऐसा तूंने जगें २ पर लिखाहै सो पाठ क्या प्रक्षेप' रूप के है ? ॥ For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) . अंबडजीका-सूत्रपाठ. प्रक्षेपपाठ किसको कहते है, और पाठांतर किसको कहते है, यहभी तेरी समजमें कहांसे आवेगा ? केवल मिथ्यात्वके उदयसे प्रगटपणे-मंदिरोका पाठोंको, उत्थापन करनेके लिये प्रयत्न करती है । परंतु शोच नहीं करती है कि--हम ढूंढको सनातनपणेका तो दावा करनेको जाते है, और प्रतिमापूजन निषेधका पाठ तो एकभी सूत्रसे दिखा-न सकते है, और मंदिरोंके जो जो पाठ सूत्रोंमें है. और जिस मंदिरोंकी सिद्धि रूप पागके हजारो शास्त्रों तो साक्षीभूत हो चुके है. और पृथ्वी माताभी-जिनमंदिरोकों गोदमें बिठाके, साक्षी दे रही है. उन पाठोंकी उत्थापना करनेको हम प्रयत्न करते है. सो तो वीतरग देवकी महा आशातना करके अधिकही हमारा आ. स्माको संसारमें फिरानेका प्रयत्न करते है. इतना विचार नहीं करती है. उनको अधिक-हम क्या कहेंगे? . ॥ इति प्रक्षेप पाठका विचार ॥ ॥ अब अंबडजी श्रावकके-पाठका विचार ।। ढूंढनी-पृष्ट. ७८ । ७९ में--उवाईजीका पाठ--" अम्मडस्सण परिव्वायगस्स, णोकप्पई अणउत्थिएवा, अणउत्थिय देवयाणिं वा, अणउत्थिय परिग्गहियाणिं वा अरिहंते चेइयंवा, वंदित्तएवा, नमंसित्तएवा, जावपज्जुवासित्तएवा, णण्णत्थ अरिहंते वा, अरिहंत चेइयाणिवा" ॥ ढूंढनीकाही अर्थ. लिख दिखाते है-अम्बडनामा परिव्राजकको ( णोकप्पई ) नहीं कल्पे. ( अणुत्थिएवा ) जैन मतके सिवाय अन्ययुत्थिक शाक्यादि साधु १ । (अणः) पूर्वोक्त अन्ययु For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबडजीका सूत्रपाठ. (१०५) त्थिकोंके माने हुये देव, शिवशंकरादि २। (अणउत्थिय परिग्गहियाणिवा अरिहंतचेइय) अन्यउत्थिकों से किसीने (परिग्गहियाणि) ग्रहण किया ( अरिहंतचेइय ) अरिहंतका-सम्यक् ज्ञान, अर्थात् भेषतो है परिव्राजक, शाक्यादिका, और सम्यक्त्व व्रत, वा अणु व्रत, महाव्रत रूप, धर्म अंगीकार किया हुआ है जिनाज्ञानुसार ३ । इनकी (वंदित्तएवा) वंदना ( स्तुति) करनी (नमांसत्तएवा).नमस्कार करनी, यावत् ( पज्जुवासित्तएवा) पर्युपासना (सेवाभक्तिका करना) नहीं कल्पै ! पृष्ट ७९ ओ. ११ में लिख. तीहै कि, नया क्या इस पाठका यही अर्थ यथार्थ है. ... समीक्षा-पाठकवर्ग ! इस ढूंढनीजीका हठ तो देखो कितना है कि-जो इसने अर्थ किया है, सो अर्थ नतो टीकामें है, और नतो टब्बार्थमें-कोइ आचार्य ने किया है. ॥ और (गण्णत्थ अरिइंतेवा, अरिहंत ( चेइयाणिवां) इस सूत्रका अर्थको छोडके, केवल मनोकल्पित अर्थ करके कहती है कि, नया क्या इस पाठका यही अर्थ यथार्थ है । ऐसा कहती हुई को कुछभी विचार मालूम होता हे ! हे सुमतिनी प्रगटपणे अनर्थ करनेको, ईश्वरने साक्षात् तेरेकुं भेजी है ? कि, जो आजतक हो गये हुये भाष्यकार, टीकाकार, टब्बाकार, यह सर्व जैन आचार्योंसे निरपेक्षहोके, अनर्थ करके क. हती है कि इस पाठका यही अर्थ यथार्थ है, तेरेको क्या कोईभी पुछने वाला न रहा है, कि, हे ढूंढनीजी यह अर्थ जो आप करते। हो सो किस प्रमाणिक ग्रंथके आधारसे करतेहो ? इनता मात्र भी कोई सुज्ञ, संसार भ्रमनका भयसें, पुछने वाला होता तो, तेरी स्त्री जातीकी क्या ताकातथी जो मन कल्पितपणेसे इतना अनर्थ कर सकती? परंतु कोई सुज्ञ पुछनेवाला ही हमको दिखता नहीं है। । अब इस पाठका अर्थ सर्व जैन महा पुरुषोंकोसम्मत यथार्थ क्या For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) अंडजीका सूत्रपाठ है, सो, और इस ढूंढनीका मरोड क्या है सो भी, किंचित् लिख कर दिखाते है - यथा पाठार्थ-अंबडपरिव्राजकको न कल्पे, अन्यतीai ( शाक्यादिक साधु ) अन्यतीर्थी के देव ( हरिहर | दि ) अन्य - तीयोंने ग्रहण किये हुये अरिहंतचैत्य ( जिनप्रतिमा) को - वंदना, नमस्कार करना, परंतु अरिहंत और अरिहंतकी प्रतिमाकों वंदना नमस्कार करना कल्पे. इति पाठार्थ. || अब ढूंढनीका मरोड दिखा ते है कि - ( अएणउत्थिय परिग्गहियाणिवा अरिहंत चेइयंवा ) इस पाठका अर्थ, अन्यथने ग्रहण किई जिन प्रतिमाका है. उसका ढूंढनी अर्थ करती है कि अन्य यूत्थिकों में से किसीने ग्रहण किया अरिहंतका सम्यक् ज्ञान, अर्थात् भेषतो है परिव्रजाक, शाक्यादिक, और सम्यक्तव व्रतवा अनुव्रत रूप धर्म, अंगीकार किया हुवा है जिनाज्ञानुसार यह अर्थ करके. ! पाठके अंतपदका जो. - अरिहंत, और अरिहंतकी प्रतिमाको, वंदन, नमस्कार करना, कल्पे, इस प्रतिज्ञाकरने रूप पदका अर्थको छोडदेके, जिसका कुछ भी संबधार्थ नहीं, है, वैसा अगडं बगडं लिखके अपणी सिद्धिक रनेको, ८० । ८१ । ८२ । ८३ । पृष्ट तक — कुतोकोंसे फोकटका पेट फुकाया है। इससे क्या विपरीतपणाकी सिद्धि होयगी ! सिद्धि न होगी; परंतु तेरेको, और तेरा वचनको अंगीकार करने वालोंको, वीतराग देवके वचनका भंग रूपसें, संसारका भ्रमण रूप फलमाप्तिकी, सिद्धि हो जावे तो हो जावो ! परन्तु जिनप्रतिमाका नास्तिकपणाकी सिद्धितो तेरा किया हुवा विपरीतार्थ से कभी भी न होगी || ढूंढकीनी पृष्ट. ८३ ओ. १४ ( गण्णत्थ अरिहंतेवा अरिहंतचे - इयाणिवा ) पूर्व पक्ष में लिखके - पृष्ट. ८४ के उत्तर पक्षमें अर्थ लिखती हैं । यथा - ( णण्णत्थ ) इतना विशेष, इनके सिवाय और For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Janumanuman अंबडजीका सूत्रपाठ.. (१०७) कीसीको नमस्कार नहीं करूंगा, किनके शिवाय (अरिहंतेवा) अरिहंतजिको ( अरिहंतचइयाणिवा) पूर्वोक्त अरिहंत देवजीकी आज्ञानुकूल संयमको पालनेवाले, चैत्यालय, अर्थात् चैत्य नाम ज्ञान, आलय नाम घर, ज्ञानकाघर अर्थात् ज्ञानी, (ज्ञानवान् साधु ) गणधरादिकों को वंदना करूंगा, अर्थात् देव गुरुको । देव पदमें-अरिहंत, सिद्ध, गुरुपदमें, आचार्य, उपाध्याय, मुनि इत्यर्थः॥ फिर-पृष्ट ८५ ओ ५ से-अब समजनेकी बात है कि-श्रावकने, अरिहंत, और अरिहंतकी मूर्तिको, वंदना करनी तो आगार ररकी । और इनके सिवा सबको वंदना करनेका त्याग किया। तो फिर-गणधरादि, आचार्य, उपाध्याय, मुनियोंकों, वंदनाकरनी बंदहुई ॥ क्योंकि देवको तो-वंदना, नमस्कार, हुई, परंतु गुरुको वंदना नमस्कार करनेका त्याग हुआ । क्यों कि-अरिहंत भी देव, और अरिहंत की मूर्ति भी देव, तो गुरुको वंदना किस पाठसे हुई । ताते जो प्रथम हमने अर्थ किया है वही यथार्थ है। समीक्षा-पाठक वर्ग ! आत्माराम तो बिचारा संस्कृत पढा हुआथा ही नहीं. वैसा. पृष्ट २१ में-ढूंढनीने लिखाथा सो क्या सत्य होगा, ? क्योंकि सम्यक शल्योद्धारमें-( अरिहंतेवा, अरिहंत चेइयाणिवा) इसका अर्थ-अरिहंत, और अरिहंतकी प्रतिमा, इतना किंचित मात्रही अर्थ दिखाया। और, इस ढूंढनीने तो, ढूंढढूंढ कर अर्थात् मेंसेंभी अर्थात् निकाल निकालाकरके गूढार्थको दिखाया, कि-जो जैनमतमें आजतक लाखो आचार्य हो गये उसमेंसे किसीनेभी नहीपाया । धन्यहै ढूंढनीकी 'धनगरी, माताको फि-जिसने ऐसी पुत्रीको जन्म देदिया। इसीवास्ते कहती है, केअरिंहत, और अरिहंतकी प्रतिमाका-अर्थ करें तो, गुरुको वंदना नमस्कार, करनेका त्याग हुआ। क्योंकि-अरिहंत भी देव, और For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) आनंद श्रावकमीका-सूत्रपाठ. अरिहंतकी-मूर्तिभीदेव, तो गुरुको-वंदना किसपाठसे हुई । ताते हमने-अर्थ किया, वही यथार्थ है। हे सुमतिनी ! तूं अपणे सेवकोंमें-सर्वज्ञपणेका, डोलतो दिखाती है, परंतु इतना विचारभीनही करती है, कि-जब अन्ययूथिक शाक्यादिक-साधुको, वंदना, नमस्कार, करना-नही कल्पें तो, जैन के-साधुको तो, वंदना, नमस्कार, करनेका अर्थापत्तिसे ही-सिद्धरूप, पडाहै. इसवास्ते यहतेरालेख, सर्व आचार्योंसें-निरपेक्ष रूप होनेसें, तेरेकों, और तेरे आश्रितों को-बाधक रूप होगा, परंतु-साधक रूप, न होगा। इत्यलं ॥ ॥ इति अंबडजी श्रावकके, पाठका विचार ॥ ॥ अब आनंद श्रावकजीके सूत्र पाठका विचार ॥ ढूंढनी-पृष्ट. ८७ सें-आनंद श्रावकके विषयका पाठ लिखके. पृष्ट ८९ ओ. ३ से लिखतीहै कि-संवत् ११८६ की लिखी हुई-उपाशक दशासूत्रकी, ताडपत्रकी प्रतिमें ऐसा पाठ सुना है ( अण्णउथिय परिग्गहियाई चेइया) परंतु ( अरिहंत चेहयाई) ऐसे नहीं है । यह पक्षपातीयों ने प्रक्षेप, किया है । समीक्षा-हे ढूंढनी ? यह ११८६ के सालका ताडपत्रका पुस्तक है, वैसा-सुना है, परंतु तूंने-देखा तो, है नहीं, तो पिछे यह पाठका-फर्क कैसे लिख दिखाया ? तूं कहेगीके-ए. एफ रुडौल्फ हरनल साहिबके लेखके अनुमानसे-लिखती हुँ । तो भी इस पुस्तकका अनुमान-उस पुस्तकपै, कभी नही होसकता है । खेर जो तूं-साहिबके लेखसे भी, विचार करेंगी तो भी-तेरी जूठी कल्पनाकी-सिद्धि तो, कभी भी होने वाली नही है । क्यों कि, जो For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंद श्रावकजीका सूत्रपाठ. (१०९) amadimammee तूं (अण्ण उथ्थय परिग्गाहियाई, चेइयाई,) इतना पाठ मात्र, कोभी मान्यरखेगी, तोभी-आनंद-काम देवादिक महान्-श्रावको होनेसे, प्रत्याख्यानके अवसरमें-न कल्पें अम्ययूथिका, (शाक्यादि साधु ) और अन्य यूथिक-देवतानि, (हरि हरादि देवों) अब ( अण्णउत्यि यपरिग्गाहियाई, चेइयाई,) इसमें-अरिहंत शब्दको, न मानेगी, तोभी-हरि हरादि देवोंका प्रथमही निषेध हो जानेके संबधमें यह चेइयाई पाठसें, अन्ययूथिकोने-ग्रहण किई हुई-जिनप्रतिमाका हीअर्थ, निकलेगा, और उसको ही-चंदना, नमस्कार, करनेका-नियम, ग्रहण किया है ॥ परंतु तेरा-मनः कल्पित जो, अन्य यूथिकोमेंसे, किसीने-ग्रहण किया, अरिहंतका-सम्यक् ज्ञान, अर्थात् भेषतो है-परिव्राजक, शाक्यादिकका,और सम्यक्त्वव्रतवा, अनुव्रतरूपधर्म अंगीकार किया हुवा है-जिनाज्ञानुसार, यह-बे संबंध, लंबलंबायमान, अगडं बगडं रूप अर्थकी, सिद्धि तो तीनकालमें भी-नही होती है ॥ काहेको फुकटका प्रयास लेके और वीतराग देवकी, आ शातना करके पापका--गठडाको, शिरपर-उठाती है ? ॥ इति आनंद श्रावकजीके-सूत्रपाठका विचार ॥ For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११० ) द्रौपदीजीके- पाठ - कुतका. ॥ अव द्रौपदी के विषयमें- कुतकों का, विचार ॥ ढूंढनी - पृष्ट ९१ ओ. १ से - क्या जिनमंदिर के पूजने वालोंके घर --मद, मांसका - आहार, होता है, अपितु नहीं, तो सिद्ध हुवा कि- द्रौपदीने, जिनेश्वर का मंदिर, नहीं पूजा. ॥ - फिर पृष्ट. ९४ ओ. १५ से - बहुधा यह सुनने, और, देखमें भी आया है कि, अनुमानसे ७/७०० सैवर्षों के लिखितकी श्री ज्ञाता धर्मकथा, सूत्रको प्रती है, जिसमें इतनाही पाउहै, यथा-तणं सा दोवइ रायवर कन्ना, यावत् जिनघर मणु पविस इ २ त्ता, जिन परिमाणं - अच्चणं, करे इ २ ता ) बस इतनाही पाठहै । और नई प्रतियोंमें, विशेष करके तुमारे कहे मुजब पाउहै, ताते सिद्ध होता है कि मिलाया गया है. इत्यादि । फिर पृष्ट ९६ ओं. ३ सें--साबूती यह है कि प्रमाणिक सूत्रोंमें, तीर्थकर देवकी - मूर्ति पूजाका, पाठ नही आया । द्रौपदीने भी धर्म पक्षमें - मूर्ति नहीं पूजी || दूसरी साबूती - तुह्यारे माने हुये पाठ मेंसूरयाम देवकी - उपमा, दी है, परंतु श्राविकाको श्राविकाकी - उपमा, नदी. ॥ फिर पृष्ट ९७ ओ. १ से - किसी श्रावक, श्राविकाने - मूर्ति, पूजी होती तो उपमा देते ॥ जैसें-देवते, पूर्वोक्त जीत व्यवहार सेंमूर्ति, पूजते है । ऐसे ही - द्रौपदीने, संसार खाते मे - पूजीहोगी || फिर पृष्ट ९८ ओ. ३ सें - यहां संबंध अर्थसे - जिनप्रतिमाका अर्थ - कामदेवका - मंदिर, मूर्ति संभव होता है | ओ १० से -- विवाह केवक्त - वरहेतु, कामदेवकी - - मूर्ति, पूजी होगी || समीक्षा - हे ढूंढनी ! दौपदीने मद, मांस खाया, वैसा कहां For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदीजीके-पाठमें-कुतर्को. (१११) लिखा है, जो तूं महासतीकों-जूठा कलंक देके, जिन मूर्तिका पूजन-निषेध, करती है ? । क्योंकि-पंजाबखाते, वर्तमानमेंभी, क्षत्रियों में-मांसादिककी, प्रवृत्ति होतीहै, और स्त्रीयों तो-छूतीभी, नहींहै, उनके घरका आहार तेरेको और दूसरे ढूंढको भी लेनाही पडता है तोपीछे जैनमतको धारणकरके क्यों फिरते हो ! । इसबातसे-द्रोपदीको कलंकित, न कर सकेगी और, सातसो वर्षके पहिलेकी-ज्ञाताधर्मकथा, लिखी हुईहै, वैसा-सुनकर, देखेविना उस कापाठ-कैसे लिखदिखाया ? और सनातन धर्मका दावा करनेवाले-तेरे ढूंढको, ते ज्ञाता सूत्रकापाठ-लिखदिखानेको, कौनसीनिद्रामें पडेथे, जो लिखके--दिखाभी न गये ? क्या तूंही उनोंका उद्धार करनेको-जन्मी पडीहै, जो हजारो ' ज्ञाता धर्मकथाके, पु. स्तकोमें-प्रचलित पाठको, नया मिलाया गयाहै वैसा कहतीहै, ॥ हे ढूंढनी ! ज्ञाताधर्म कथाका पाठतो, यह नया नहीं मिलाया गयाहै, परंतु तुम ढूंढकोही-विना गुरुके मुंडेहुये, नवीन रूपसे-पेदाहोगये हो, सो, थड मूलविना-यद्वातद्वा, बकवाद-करतेहो, परंतु ___यह हद उपरांतका तेरा जूठ, मूढविना दूसरा कौन मानेगा। और--तूं साबूतीदेती हैकि--सूत्रोंमें, तीर्थकर देवकी--मूर्तिपूजाका, पाठ नहीं आया, सो तो तुमको, कुछ--दिखताही नही तो दूसराकोई क्या करें ? क्योंकि, पुण्यात्मा पुरुषोतो--तुमेरे जैसेंको, दिखानेकेलिये-करोडो, बलकन अब्जो, रूपैयेका--व्ययकरके, सूत्रोंका पाठकी-साबूनी करनेको, हजारो 'जिनमंदिरोंसे' यह पृथ्वी भी-- मंडितकरके, चले गयेहै । और धर्मात्मा--पूजतेभीहै । तोपिछे तूंकिस वास्ते पुकार करतीहै कि-द्रौपदीने, धर्मपक्षमें-मूर्ति नहीं पूजी, तो क्या-अधर्मके वास्ते पूनीथी ? जोतूं ऐसा जूठा अनुमान कर For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( ११२) द्रौपदीजीके-पाठमें-कुतर्को. -- और दूसरी साबूतीमें-ढूंढनी, कहती है कि-सूरयाम देवने-- पूजाकरी, ऐसें-द्रोपदीने करी, वैसें देवकी--उपमा, दीहै, परंतु श्रा. विकाको श्राविकाकी उपमा-नही दीई है । हे मुमतिनी ! क्या इ. तनाभी भावार्थ तूं समजी नहीं ? देख इसका--भावार्थ, यह है कितुमेरे जैसे जो, शाश्वती-जिन प्रतिमाको, मानके--कत्रिम, अर्थात्अशाश्वती, जिनप्रतिमाका लोप करनेका-प्रयत्न कररहे है, उनकाहृदय नयन, खोलनेकेलिये, यह-सूर्याभ देवकी-उपमा. दीई है। जैसे-देवताओं सदाकाल 'शाश्वती जिनमतिमाका' पूजनसे, अ. पणा भवोभवका-हित, और कल्याणकी-प्राप्ति, करलेते है, तैसे ही-श्रावक श्राविकाओंकोभी-अरिहंतदेवकी मूर्तिका, पूंजन, स. दाकाल करके, भवोभवका--हित, और कल्याणकी प्राप्ति, अवश्य ही करलेनी चाहिये, इस भावको-जनानेके लिये ही, यह सूरयाम देवताकी-उपमा, दीहै । जैसे-दश वैकालिककी, आद्य गाथामें क. हाहै कि देवावि तं नमस्संति जस्स धम्मे सया मणो देवताभी तिसको-नमस्कार करतेहै, जिसका मन सदा धर्ममें होता है. तो मनुष्य नमस्कार करें उसमें-क्या बड़ी बात है तैसें द्रौपदीजीके-पाठमेंभी समजनेका है ॥ और देवताकी-उपमा, देनेका-दूसरा प्रयोजन, यहहै कि-जितनी, देवता-भक्ति, करसकते है उतनी-मनुष्योंसे पाये, नही हो सकतीहै, परंतु इस द्रौपदीजीने तोमनुष्य रूप होके भी-सूरयाभ देवताकीतरां, सविस्तरबडा आडं. बरसे--अरिहंत प्रतिमाकी, पूजा कि है । इसभावको भी, जनानेके लिये, यह सूरयाभ-देवताकी-उपमा, दीइ है. ॥ और जैसी-शा. श्वती जिन प्रतिमाकी, भक्ति, करनेकी है, तैसी ही-अशाश्वती जिन प्रतिमाकी, भक्ति, करनेकीहै । और यह दोनोपकारकी-म. तिमाका पूजनसे, भावानु सार-एक सरखाही, फलकी प्राप्ति हो. For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदीजीके-पाठ में-कुतकों........... ( १९३) तीहै । यह भी विशेष प्रकार-बताने के लिये, यह-उपमा, दीई सिद्ध होतीहै । परंतु वीतरागदेवकी मूर्तिके-निंदकोकी, सिद्धिके लिये, यह-सूर्याभ देवकी, उपमा नही दिई है। किसवास्ते जूठ की-सिद्धि करनेको तरफडती है ? | और दूंढनी कहतीहैकि-जैसे-देवते, जीतव्यवहारसे-मूर्ति, पूजते हैं, ऐसेही द्रोपदीने-संसार खातेमें, पू. जीहोगी। अब इसमें-पुछनेका, इतनाही है कि-शाश्वतीजिन प्रति. माका पूजन-देवताओंका, जो जीत व्यवहारसे-कहतीहै सो क्याअधम फलदाताहै कि-कोइ उत्तम फलका-दाताहै ?। तूंकहेंगीकिअधम फलदाताहै, तो पिछे शाश्वती जिनप्रतिमाकी-भक्तिके साथ, यह अधमफलदाता-व्यवहारका, संबंध ही क्या ? । और जो यह जीतव्यवहार, उत्तम-फलका, दाताहै. तोपिछे तुमेरे जैसे-विचार श्रून्य ते-दूसरे कौन होंगे कि-जो उत्तम आचारसे-भ्रष्ट करनेको, थोयी पोथीयोंको-प्रगट करवावे ? और जीतव्यवहार, जीतव्यवहार, शाश्वती जिनप्रतिमा-पूजनी, सोतो, जीतव्यवहार. यहजो तेरा बकवादहै, सोभी जिनप्रतिमा पूजनका नास्तिकपणाकी-सिद्धिके वास्ते, कभीभी न होगा, किंतु आस्तिकपणाकीही-सिद्धिका, दाताहै । और तूं जो-जीतव्यबहार कहकर, उसको-संसारखाता, कहतीहै सो तुमेरा क्या चिजरूप है ? * और संसार खाताका, जो तुमेरा-जगें जगे बकबाद, सुनने में आताहै, सो किस माननिक-सूत्रमें, लिखाहै, जो फुकट लोकोको-भ्रममें, गेर ते हो ? । और ढूंढनी कहतीहैकि-संबंधार्थ से काम देवका-मंदिर, मूर्ति, सं. भवहोता है, क्योंकि विवाहके वक्त, वरहेतु-काम देवकी-मूर्ति, * हमारे ढूंढकोंमें-संसार खाता, जो-चलपडा है। उनकाकिंचित् स्वरूप, अवसर पाके, कोइ अलग भागमें-लिखके, दिखावेंगे॥ For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४) द्रौपदीजीके-पाठमें-कुतकों. पूजी होगी ! अहो इस ढूढनीने ढूंढढूंढकर, काम देवकी-मूर्तिका, संवधार्थ तो खूबही निकाला । क्योंकि-द्रौपदीजीका जिनप्रतिमाके पूजनको, शाश्वती जिनप्रतिमाका सविस्तारसे पूजनकरनेवाला जो. सूरयाभदेव है उनकी भलामण, शास्त्रकारने-दीईहै, इससे, काम देवक-मंदिर, मूर्तिकाही, संबंध, यथार्थ निकलनेवाला होताहोगा ? परंतु वीतराग देवकी-मूर्ति पूजनका, संबंध-योग्य नही होताहोगा ? और नमोत्थुगं, का पाठभी, जो पढाहोगा, सोभी, काम देवकी मूर्तिके-आगेही, पढाहोगा ? क्योंकि, यह दूंढनी जब संसारमें होगी, तब इसीनेभी सब विधि-काम देवकी मूर्तिके आगे, किई होगी ? इसी वास्तही यह-संबंधार्थ, निकाल कर-दिखाती है ? दूसरे संसारसे अनभिज्ञ-आचार्योंकी, क्या ताकात कि-वैसा गूढ संबंधार्थ-हमको, निकालकर दिखादेवे ! यहतो ढूंढनीही ढूंढकर-निकाल सकतीहै, दूसरा क्यादिखा सकताहै ? ऐसा तदन विपरीत-लिखने वालोंके साथ, क्या हम ज्यादाबातकरेंगे? वाचकवर्ग आपही-समजलवंगे. ॥ इति द्रौपदीके विषयम-कुतकोंका विचार ॥ - For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यका अर्थ प्रतिमा-नहीं. (११५) ॥ अब चैत्यका अर्थ-प्रतिमा, नहिका विचार ।। ढूंढनी-पृष्ट. १०० ओ. १ से-चैत्य चैत्यानि ( चइयाणि) शब्दका अर्थ ज्ञानवान्, यति, आदि-सिद्ध होता है, मूर्ति (प्र. तिमा ) नहीं ॥ ओ. १० सें-यदि कहीं-टीका, टब्बाकारोंने, चेइय शब्दका-अर्थ-मतिमा, लिखा भी है, तो, मूर्ति पूजक-पूर्वाचार्योंने, पूर्वोक्त पक्षपातसे-लिखा है ॥ . . समीक्षा-हे सुमतिनी ! इतना-जूठ लिखतें तेरेको कुछ भीशंका नहीं होतीहै ! क्योंकि नीतिमे भी कहा है कि-"पादावऽसत्यवचनं पश्चाज्जाता हि कुस्त्रियः अर्थ-नीचस्त्रीयों होती है सो प्रथमसेही-असत्य वचनको जन्म देके, पिछेसेही आप-जन्म ले. तीयां है, इस नीतिका वचनको-सार्थक कियाहो, वैसा-सिद्धहोता है, नही तो इतना-जूठ, क्यों लिखती ? । तूं 'चेइय' शब्दका अर्थ, ज्ञान, ज्ञानवान् , यति, आदिविना-मंदिर, मूर्तिका, नहीं होता वैसा जो-लिखती है । तो क्या-उवाई सूत्रम-चंपानगरीका जे वर्णन है, उनकी-आयमें ही-"पुण्णभद चेहए होथ्था, " वैसा कहकर-सवि. स्तर पणासें 'चेइए' शब्दसे मंदिर, मूर्तिका वर्णन किया है । सो क्या तुंने दिखा नही ? और--पृष्ट ७७ में-बहवे अरिहंत चे. इय, ऐसा-उवाइ सूत्रका, पाठसे-जो तुने--चेइय, शब्दका अर्थमंदिर, मूर्तिका, करके, पाठांतरके बदलेमें-प्रक्षेप रूप, ठहरानेका-- प्रयत्न, कियाथा, सो क्या-भूल गई ? इसका विचार-देख-इस ग्रं. थका पृष्ट. १०३ में।। और पृष्ट. १४३ में-चैत्यस्थापना,करवानेलगजायगे, द्रव्य ग्रहणहार मुनि-हो जायगे॥ ऐसा लिखके "चैत्य स्थापना" से -मंदिर, मूर्तिकी, स्थापना दिखानेके वखत चैत्य श For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६) rest अर्थ प्रतिमा- नहीं. व्दका अर्थ-मंदिर, मूर्ति, रूप - तेरा लक्षमें क्या नही आया ? जो चेइय शब्दका अर्थ - ज्ञान, और ज्ञानवान्, यतिका कहकर - मंदिर, मूर्तिका अर्थको निषेध करती है ? और ज्ञाता, उपाशकदशा, विपाक सूत्रो में भी ( पुण्णभद्दचेइए) के पाठसे - मंदिर, मूर्तिका अर्थको ही जनता है, ॥ और तूं भी पृष्ठ ७३ में - पूर्णभद्र यक्षका - मं दिर, मूर्तिका अर्थपणे लिखकेही आई है । तो पीछे तेरा- जूठा बकवाद, मूढ विना- दूसरा कौन सुनेगा ? और ढूंढनी कहती है कि यदि कही, टीका, टब्बा कारोने- चेइय, शब्दका अर्थ- प्रतिमा, लिखा भी है, तो पूर्वाचार्याने पक्षपात सें, लिखा है । हे सुमतिनी ! तूं तेरा ढूंढकपणाको - सनातनपणेका तो दावाकरनेको जाती है, तो क्या आजतक तेरे ढूंढकोमेंसे, कोइ भी ढूंढक- टीका, अथवा टब्वार्थ, करनेको - जीवता, न रहाथा ? जो तेरेंको उनका एक भी प्रमाण, हाथमें न आया ? । जिस आचार्योंका टीका, टव्वार्थ, वाचके-गुजारा चलाती है. उनकोही निंदती है ? तुमेरे जैसे मंद बुद्धिवाले कौन होंगे कि - जिसडालपर बैठना, उसीकोही-काटना, और जिसपात्र में - जिमना ( अर्थात् खाना ) उसी पात्रमें - मूतना, अब इससे अधिक मंद बुद्धिवाले दूसरे कहांसे मिलेंगे ? इस वास्ते जो - टीकाकरोने- अर्थ, किया है, सोई प्रमाणरूप सिद्ध है । परंतु तेरी स्त्री जातिका तुछपणेका किया हुवा अर्थ तो, कोई मूढ होगा सोइ मानेगा, परंतु सुज्ञ पुरुषो तो अवश्यही विचारकरेंगे और जो मूढपणे के दिन सो तो चलेगये, अबतो सुज्ञ पुरुषों का ही समयप्रचलित है, काकु फुकट फजेता, कराती है ? ॥ इति चैत्यका अर्थ - प्रतिमा नहीका विचार || For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदीवरद्वीप-शाश्वती प्रतिमाओ. (११७) ॥अब नंदीश्वरद्वीपे-जंघाचार, गयेका, विचार ।। ढूंढनी-पृष्ट. १०२ ओ. २ सें-ठाणांगजी-सूत्रमें तथा जीवाभिगम-सूत्रमें-नंदिश्वर द्वीपका, तथा पर्वतोंकी रचनाका, विशेष वर्णन-भगवंतने, किया है, और यहां-शाश्वती मूर्ति, मंदिरोंकाकथन भी है,परंतु वहां मूर्तिको-पडिमा नामसेही,लिखा है इत्यादि। ___ओ. ८ सें. और भगवतीजीमें--जंघा चारणके, अधिकारमेंचेइयाइं बंद ऐसा-पाठ लिखा है । इससे निश्चय हुआ कि-जंघा चारणने-मूर्ति, नहीं पूजी, अर्थात्--वंदना, नमस्कार, नहीकरी यदि करीहोती तो एसा पाठहोता कि-जिनपडिमाओ, वंदइनमस्सइता, सिद्ध हुवा कि-भगवंतके ज्ञानकी, स्तुतिकरी । अर्थात् धन्य है केवल ज्ञानकी शक्ति, जिसमें सर्व पदार्थ, प्रत्यक्ष है ॥ यथा सूत्रं पृष्ट. १०३ से. . जंघाचारस्सणं भंते-तिरियं, केवइए गइ विसए, पण्णता, गोयमा सेणं इतो-एगणं उप्पाएणं, रुगवरे दीवे-समोसरणं, करेइ, करेइत्ता, तह-चेइयाई, वंदइ, वंदइत्ता, ततो पडिनियत माणेवि-एगेणंउप्पाएणं, नंदीसरे दीवे-समोसरणं करेइ, तह-चेइयाई, बंदइ, वंदइत्ता, इह मागछइ, इह चेइयाई, वंदइ, इत्यादि ॥ ढूंढनीकाअर्थ-भगवन् जंघाचारण मुनिका-तिरछी गतिका विषय, कितना है, हे गौतम-एक पहिली छालमें रुचकवर दीपपर विश्राम करता है, तहां-( चेहय वंदइ ) अर्थात् पूर्वोक्त ज्ञानकी स्तुतिकरे अथवा इरिया वहींका-ध्यान करनका अर्थ भी, संभव For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४) जंघाचारणे-मूर्ति, पूजी नही. होताहै, क्योंकि 'लोगस्स उज्जो यगरे ' कहा जाता है, उसमें-- चौविस तीर्थकर, और केवलीयोंकी--स्तुति, होती है। फिर दूसरी छालमें--नंदीश्वर द्वीपमें, समवसरणकरे, तहां. पूर्वोक्त--चैत्यवंदन, करे । फिर रहने के स्थान आवे, यहां पूर्वोक्त-ज्ञान स्तुति, अथवाइरिवही, चौवीस त्या, करे ॥ . पृष्ट. १०४ ओ १५ से. एकबात औरभी समजनेकी है. ॥ पृष्ट १०१ ओ. २ से चेइयाइं-वंदइ, नमसइं ऐसापाठ-नहीं आया ॥ ओ. ६ सें--केवलं--स्तुति, की गई है, नमस्कार किसीको, नहीकरी ॥ पृष्ट. १०६ ओ. ३ से-धातु पाठमें लिखाहै बदि अभिवादन स्तुत्योः अर्थात् "धदि" धातु, अभिवादन-स्तुतिकरनेके अर्थमें है ॥ ___ समीक्षा-पाठकवर्ग? देखिये ढूंढनीजीका ढूंहकपणा, लिखती हे कि,-ठाणांगनी सूत्रमें, और जीवाभिगम सूत्रमें,-नंदीश्वर द्वीपका, तथा पर्वतों की रचनाका, औरवहां-शाश्वती " मूर्ति मंदिरोंका" कथनतो आताहै ।। वैसा कहकरभी, जंघाचारणके पाठमें-अपणी चातुरी-प्रगट करतीहै, और कहतीहै, कि-जंघाचारण-रुचक वरद्वीपमें, पहिलीही छालमें जाते है, परंतु उहाँ रहे हुयें-शाश्वतें मंदिर, मातको-वंदना, नमस्कार, नहीं करतेहै । और जो-चैत्यवंदना, कहींहै, सोतो वहां-ज्ञानकी, स्तुतिकरी, अर्थात् धन्यह केवल ज्ञानकी शक्ति-जिसमें सर्व पदार्थ प्रत्यक्षहै, अथवा इरियावहीका, ध्यान करनेका-अर्थभी, संभव होताहै, उसमें लोगस्स उज्जोयगरे कहा जाताहै. । हे ढूंढपंथिनी ! चैत्य वंदनका अर्थ ज्ञानकी स्तुती होती है वैशा कौनसे सिद्धांतसें, और कोनसे गुरुके पाससे-तूंने पढा ? और उहां नंदीश्वरादिक द्वीपोंमें कौनसा केवल ज्ञानका देर-कर For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जपाचारणे-प्रतिमा, बांदी. (११९) रखाथा,? जो तूं कहती है कि,-ज्ञानकी स्तुति, करी, और इरिवहीका ध्यानका नाम-चैत्य वंदन है ? और जो-लोगस्स उज्जोय गरे का-ध्यानका नाम-चैत्य वंदन, कहती है सोभी तेरी समज विना काही है-नतो तुं पूजाका अर्थको समजतीहै, नतो-वंदनाका अर्थको समजतीहै, केवल थोथापोथा की रचना करके, अज्ञानांधो कों-धर्मसे भ्रष्ट करती है. । नतो जंघाचारण मुनिने-पूजा किईहै । और न शास्त्रकारने भी दिखाई है,। किसवास्ते पूजापूजाका पुका र करती है ? क्योंकि जिस मुनिको जंघाचारण की लब्धि होतीहै, सोही मुनि-नंदीश्वरादिक द्वीपोंमें, रही हुई-शाश्वती प्रतिमाओकी, यात्रा करनेको, अपणी-लब्धिका, उपयोग करते है। इसीवास्तेही यहशास्त्र सम्मत पाठ है । इसका लोपतो तेरे बावेकेभी बावेसे-नहीहो सकता है, किसवास्ते महापुरुषोंके वचनोका अनादर करके, अपणा आत्माको भवभ्रमणमें जंपापात कराती है ? । और-केवल ज्ञानकी, जो-स्तुति करनी दिखाती है, सोतो एकवचन रूपसे है। और- चेइयाई, यहपाठ है सोतो--बहुवचन रूपहै । नतो तेरेको - एकवचनकी, खबर है, और नतो-बहुवचनकी खबर है, केवल बे भान पनी हुइ, जूठाही पुकार करती है, इससे क्या--तेरी हितपणा की सिद्धि, हो जानेवाली है ? ॥ और उन मुनियोंने रुचकवर द्वीपमें नंदीश्वर द्वीपमें-जानेका जो उपयोग किया है. सो भी वहां के, शाश्वतें--मंदिर मूर्तियोंकी, यात्रा करने के लियेही, अपणी जं. घाचारणपणेकी लब्धिका उपयोग किया है । परंतु वहां--केवल ज्ञानका, ढेर को-वंदना, करनेके वास्ते नही गये है। और इहांपर भी अर्थात्--भरतादिक क्षेत्रमें, जो अपणी जंघाचारणपणेकी लब्धिसे-फिरते है, सोभी-जोजो महान् महान् तीर्थोंमें--वीतराग देवकी--अशाश्वती मूर्तियां, स्थापित किइ गई है, उनकी यात्रा कर. For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) जंघाचारणे- पतिमा वांदी. " नैको ही फिरते है | परंतु तेरा मान्य किया हुवा - ज्ञानका ढेरकों, वंदना करनेको, नहीं--फिरते है, ॥ और ढूंढनी कहती है किasयाई वंदs नमसइ ऐसा पाठ नही आया, सो केवल - स्तुति कीगई है, नमस्कार किसी को नही करी ॥ बैसा लिखकर, धातुका अर्थ, दिखाती है, कि - वदि अभिवादन स्तुत्योः अर्थात् 'वदि' धातु, अभिवादन - स्तुति करने के अर्थ में है । हे पंडिते ! तुने क्या वदि' धातुका अर्थ - एक स्तुति करने मात्रका ही दिखा ? तो क्या अभिवादन, और स्तुति, यह दोनो अर्थ, द्विवचनसे, दिखाई न दिया ? जो स्तुतिमात्र एकही अर्थ करती है ? । देख अभिवादन शब्दका अर्थ, शब्दस्तोम महानिधि कोशमें- अभिवादनं स्वनामोचार पूर्वक- नमने, अर्थात् नमन अर्थमें, अभिवादन शब्द होता है । इस वास्ते वदि धातुका प्रयोग करनेसे - वंदना काभी, और स्तुति करने aria - यहहोनो अर्थ काही समावेश किया गया है, किस वास्तेस्तुति मात्र अर्थका जूठा पुकार करती है ? | पाठक वर्ग ! इहां समजने का यह है कि - प्रथम अंबड परिव्राजक के विषय में अरिहंत चेइयाई, इसका अर्थ- इस ढूंढनीजीने- अरिहंतका सम्यक् ज्ञान, अर्थात् भेष तो हे परिव्राजक, शाक्यादिका, । और सम्यक्त्व व्रत । वा अणुव्रत । महाव्रतरूप धर्म । अंगीकार किया हुआ जिनाशानुसार कियाथा | और गणथ्य अरिहंतेवा अरिहंत चेइया शिवा इहांपर, अरिहंतजीको, और - अरिहंत देवजीकी आज्ञानुकुल - संयमका पालनेवाले - चैत्यालय, अर्थात् चैत्यनाम ज्ञान, आलय नाम घर, ज्ञानकाघर । वैसा अर्थ कियाथा, । सो यह संबधार्थ तो इस ढूंढनीको मिलगया | और द्रौपदीजी के विषयेकुतर्कों पैभी कुतर्कों करके मगटरूप- जिनप्रतिमाका, अर्थको छोड़ " For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमरेंद्रका पाठ ( १२१ ) देके, और विवाहार्थका संबंध जोडके, कामदेव के मंदिरका अर्थकरनेका प्रयत्न किया। अब जंघाचारण मुनि-जो अपणी लब्धिके प्रयोग से - रुचकर द्वीपमें, और नंदीश्वर द्वीपमें कि जिहां शाश्वते मंदिरोंमें शाश्वती जिनप्रतिमाओको, वंदनाकरनेको जाते है, उसका खास जो संबंधार्थ है, उनको छोडके, इनके बावेने रखा हुआ ज्ञानका - ढेरको, बतलाती है ? । अब ऐसी यह हठ दृढ ढूंढपंथिनी ढूंढनीको, क्या उपमा देंगे ? क्यों कि जो कोई आप नष्टरूप होके दूसरोंको भी - नाश करनेका प्रयत्न करें, उसको क्या कहेंगे ? ॥ ॥ इति नंदीश्वर द्वीपमें जंघाचारण गयेका विचार || || अब चमरेंद्रके - पाठका विचार || ढूंढनी - पृष्ट. १०६ ओ. १० से चमर नामा- भसुरेंद्र, जोप्रथम स्वर्गमे, गया है ।। पृष्ट १०८ ओ. १५ से - तहां सक्रेंद्रने - वि चार किया कि । यह चमरेंद्र, ऊर्ध लोकमे आनेकी शक्ति तो, र खता नहीं है, परंतु - ३ महिला किसी एकका - शरणा लेके आसक्ता है || पृष्ट १०९ यथा सूत्र - गणत्थ अरिहंतेवा १ | अरिहंत चेइयाणिवा २ अणगारेवा भाविपप्पाणो णीसाए उदढं उपयंति || ढूंढनीका अर्थ- ३४ अतिशय, ३५ वाणी संयुक्त - अरिहंत १ | अरिहंत चैत्यानि - अर्थात् चैत्यपद - अरिहंत छस्था यति पदमें, क्योंकि अरिहंत देवको जबतक केवल ज्ञान, नहीं होय, तबतकपंचमपदमे, होते है, जब केवल ज्ञान होवे तत्र - अरिहंत पदनें होतें है. २ सामान्य साधु - भावितात्मा. ३ | इनतीन में से किसीका शरण - For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) चमरेंद्रका-पाठ. लेके आवे ।। पृष्ठ. ११० ओ. ७ से - अरिहंत - चैत्यपद । किस पाठ से निकाला है ? इसके उत्तरमें लिखती है कि जिसपाठसे तुम मूर्ति पूजकों ने देवयं चेइयं का अर्थ - प्रतिमावत् ऐसे निकाला है. ॥ पृष्ट. ११२ ओ. १२ - वंदना तो करे प्रत्यक्ष - अरिहंतको, और कहे कि - प्रतिमाकी तरह, तो अरिहंतजी से प्रतिमा- जड, अछीरही. ॥ 1 समीक्षा - अब इहांवर सर्व महापुरुषोंसे, निरपेक्ष होके ढूंढनी है सो उघडपणे ठाणाको प्रकट करती है || देखोकि - अरिहंत चेइयागि, इस पदका अर्थ - अंबड परिव्राजकके विषय में सम्यक् ज्ञान, अर्थात् भेषतो है परिव्राजक, शाक्यादिका । और सम्यक्क व्रत | वा अणुव्रत । महाव्रतरूपधर्म | आदि कराया || और, इसी पदका अर्थ- जंघाचारण' मुनिके विषयमें - भगवानका ज्ञानकी स्तुति, दिखाईथी कि धन्य है केवल ज्ञानकी शक्ति, जिसमें सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष है | और इस चमरेंद्र के विषय में - उसी चैत्य शब्दका अर्थ- चेत्यपद, करके दिखाती है, अर्थात्- अरिहंत छद्मस्थ यतिपदमें, करके दिखातिहै | फिर प्रश्न उठाया है कि चैत्यपद, यह किस पाठसे निकाला है, तब धिडाईपणा दिखा के कहती है कि जिस पाठसे तुम मूर्तिपूजकोने - देवयं चेइयं का अर्थ-प्रतिमात्रत् ॥ ऐसे निकाला है । इसमें विचार करने का यह है कि, जो अरिहंत चेइयाणिं, शब्द ह सो, सर्वजगें पर- अरिहंतकी-प्रतिमाओका, अर्थको प्रगटपणे दिखा रहा है, उसपदका अर्थ एकजगें तो- परिव्राजक | दूसरीज - केवल ज्ञान । और, तीसरीजगें-अरिहंत - उपस्थ - यतिपद | आदि भिन्न २ पणे संबंध विनाका अर्थको प्रगट करती है । जैसें कोई पुरुष, एकजगों पर भूल जाता है, तब जगों जगों पर, गोतेंही खाता है. ॥ कहवतभी है कि-ता For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमरेंद्र में देवयं चेयं. ( १२३ ) लोंसे चुकी डुमनी गावे चाल पाताल, तैसे ही यह ढूंढनी भी जैसा मनमें आता है तैसेही बकवाद करदिखाती है । और अपणा ढूंढक पंथको सनातनपणेका, दावाभी करनेको जाती है, परंतु एकभी जैन सिद्धांत का प्रमाणतो दिखातीही नही है । केवल टीकाकार - महापुरुषोंको, और टब्बाकार - महापुरुषों को निंदती हुई, सर्व पंडितोंमें अपणी ही पंडिताइपणेका प्रमाणको प्रगट करती है | परंतु इतना विचार भी नही करती है, कि टीका, टब्बाकार, म हापुरुषो ते कौन, और हुं ढूंढनी स्त्रीजाती मात्र ते कौन ? परंतु तुछ हृदय वालोंको विचार होता नही है. ॥ 1 • - और देवयं चेइयं, पदका अर्थ- प्रतिमाकी तरहका जो सares शल्योद्वार में किया है सो यथार्थही किया गया है, क्यों कि ' जिनप्रतिमा ' है सो - जिनेश्वर देवके -सदृशही, सिद्धांतकाराने -मानी है । और जिन प्रतिमा है सो तीनोही लोक में विराजमान है || देख तेराही थोथाका, पृष्ट १०२ में-ठाणांग सूत्रमें, तथा जीवा भिगम सूत्र में नंदीश्वर द्वीपका, तथा पर्वतोकी रचनाका, विशेष वर्णन - भगवंतने, किया है। और वहां शाश्वती - जिन मूर्ति मंदिरोंका, कथन भी है । तुं कहेगी कि यह शाश्वती जिन प्रतिमाओ तो जैन सिद्धांतों में है, और हम मानते भी है, परंतु अशाश्वती म तिमाओ, सिद्धांतो में नही है, यह भी तुमेरा कहना - विचार रहित - पका ही है, - देख तेरीही पोथीका पृष्ट. १४७ में कि-जोतेरे ढूंढकोंने अंगी कार कीया हुवा - नंदी सूत्र है, उसी नंदीसूत्र में, वर्तमान कालके कि तक - सूत्रोंकी, नोंध दीई है, उसीही नोंधकी गीनती में आया हुआ, जो विवाह चूलीया, सूत्रका तूं ने पाठ, लिखा है सोई लिख दिखाता हुँ - तद्यथा || For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) ___ चमरेंद्र में -देवयं चेइयं. ___कइ विहाणं भंते मनुस्स लोए-पडिमा, पण्णत्ता, गोयमा अणेग विहा पण्णत्ता-उसभादिय वडमाण परियंते, अतीत, अनागए, चोवीसंगाणं तिथ्ययर पडिमा, इत्यादि ॥ पुनः-जिन पडिमाणं भंते-वंदमाणे, अच्चमाणे, । हंता गोयमा-बंदमाणे, अच्चमाणे. ॥ पृष्ट. १४८ में, तेराही लिखा हुवा अर्थ देख-हे भगवान् मनुप्ष लोकमें, कितने प्रकारकी प्रतिमा ( मूर्ति ) कही, गौतम अनेक प्रकारकी कहीहैं । ऋषभादि महावीर ( वर्द्धमान ) पर्यंत २४ तिथैकरोंकी । अतीत, अनागत-चौवीस तीर्थकरोंकी पडिमा, इत्यादि ।। हे भगवान् जिन पडिमाकी, वंदना करे, पूजाकरे, हां गौतमवैदे, पूजे. ॥ ___यह तेराही लेखसे, शाश्वती, तैसेही अशाश्वती, ऐसे दोनोही मकारकी 'जिन प्रतिमाओको, मूल-सिद्धांतोंका-पाठही, अना दि कालकी सिद्धिको दिखा रहा है, ॥ और जैन धर्मानुरागी है सो-अपणी अपणी योग्यता प्रमाणे-वंदन, पूजन भी, करतेही चले आते है,। और ते अनादि कालकी-जिन प्रतिमाओ, जिनेश्वर देवकेही सदृश होनेसें, वर्तमान कालके तीर्थकरको वंदन करनेवाले भक्तजनो है सो, होगये हुयें, और होनेवाले, सर्व तीर्थकरोंकी प्रति माओंका, और-देवलोकादिकमें रही हुई-शाश्वती जिनप्रतिमाओंका आदर, सत्कार-प्रदर्शित करनेके, बास्तेही-देवयंचेइयं, का पाठको -पठन करतेहुये, विद्यमान तीर्थकराको वंदन करते है, नहीके मू ढोंकीतर-पूढताको, प्रगट करते है. । इसवास्ते टीका, टब्बाकरोने, जो-अर्थ किया है सोई-यथार्थ है. ॥ और अलंकारके ग्रंथों के ममा For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥ चमरेंद्रमें देवयं चेइयं ॥ - (१२१) णसे, 'इवपद' गर्भित होनेसे, यह अर्थ टीका, और टब्बाकार, महापुरुषोंने, गुरु परंपरासे-चला आया हुवा, लिखा है । सोइ अर्थ-सम्यक सल्पोद्धारमें लिखा है। परंतु तुमेरी तसं-स्वकल्पित अर्थ, नहीं लिखा है, जोतूं दूषितकर सकेगी ? किस वास्ते वीतराग देवकी आशातना करके-संसार भ्रमनका बोजा-उठाती हुई, लो कोंकोभी-देती है ? ___ और ढूंढनी-पृष्ट. ५० ओ. ६ सें-लिखती है कि-कोइभी, तु मारा "पार्थ " अवतार, ऐसे कहके, गालीदे तो-द्वेष आवे कि-. देखो यह कैसा दुष्ट बुद्धि है, जो हमारे-धर्मावतारको, निंदनीय वचनसे बोलता है. ॥ अव इस लेखसें भी विचारकरोकि-गालीदेने वाला तो, पार्श्वनाथके नामसे-अवतार, समजता नही । अथवा, समजके भी-अवतार रूप, मानता नहीं है, । तोपिछे ढूंढनीको-द्वेष, किसवास्ते आता है ? । इहांपुर ढूंढनी कहेंगी कि-वह पुरुष पार्श्व अवतार, नही मानता है, परंतु हमतो अवतार मानतेहै, इसवास्ते द्वेष आ जाताहै । तो अब इहांपर थोडासा सोचकर देखोकि जिसजिस, भव्य पुरुषोंने, परमशांत, पद्मासन आकृतिरूप, स्थापनाके आगे बैठकरके, वीतराग देवके गुणोंमें मन्नता होनेके लिये, जो यह वीतरागी मूर्तियोंकी रचना रची है, उस वीतरागदेवकी परमशांत मूर्तिको, कभी तो जड, कभी तो पाषाण, कभी तो अज्ञानरूप, कहकर जो अपभ्राजना करके उस भव्य पुरुषोंका चित्तको द्वेष उत्पन्न कराते है उनके जैसे दुष्ट बुद्धीवाले दूसरे कौन होंगे?॥. वीतराग देवकी मूर्तिकी तो अपभ्राजना, कभी होनेवाली नहीं है, परंतु ते निंदको ही वीतरागकी आशातनाके योगसे, अनेक भवों में, अपणा आत्माको अपभ्राजनाका पात्र बनालेते है, उसका विचार क्यों नहीं करती है ॥ ॥ इति चमरेंद्रका पाटकी साथ, देवयं चेझ्यं, का विचार ॥ For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) ढूंढनाका-चैत्य शब्द .. ॥ अब ढूंढनीके चैत्य शब्दका विचार ॥ .. ढूंढनी--पृष्ट. ११५ ओ. ६ से-चेतति जानाति इति चितः ज्ञानवानित्यर्थःतस्यभावः चैत्यं ज्ञानमित्यर्थः ॥ . - पृष्ट. ११६ में चैत्यशब्दका दश अर्थ दिखाके, पृष्ट. ११७ में, श्लोक, । चैत्यः ११ प्रासाद विज्ञेय, चेइ १२ हरि रुच्यते । चैत्यं १३ चेतना नाम स्यात्, चेइ १४ सुधा स्मृता ॥१॥ चैत्यं १५ज्ञानं समाख्यातं, चेइ १६ मानस्य मानवं । चैत्यं १७ यति रुत्तमः स्यात् चेइ १८ भगवनुच्यते. ॥ २ ॥ चैत्यं १९ जीव मवानोति, चेइ २० भोगस्यारंभनं । चैत्यं २१ भोग निवर्तस्य, चैत्यं २२ विनउ नीचउ ॥ 3 ॥ चैत्यः २३ पूर्णिमाचंद्रः, चेई २४ गृहस्यारंभनं। चैत्य २५ गृह मगवाहं चेइ २६ गृहस्य छादनं ॥ ४॥ चैत्यं २७ गृह स्तं. भोवापि, चेइ च २८ वनस्पतिः चैत्यं पर्वते २९ वृक्षः चेइक्ष स्थूलयोः॥ ॥ ५ ॥ चैत्यं ३१ वृक्षसारस्य, चेइ ३२ चतुःकोणस्तथा । चैत्यं 33 विज्ञान पुरुषः चेइ ३४ देहस्य उच्यते॥६॥ चैत्यं ३५ गुणज्ञो ज्ञेयः चेइच ३६ जिन शासनं ॥ इत्यादि ११२ ॥ पुनः नाम अलंकार सूरेश्वर वार्तिकादि वेदांते शब्द कल्पद्रुम प्रथम खंड पृष्ट ४६२चैत्यं क्ली-आयतनं, यज्ञ स्थानं देवकुलं ॥ यज्ञायतनं यथा पत्र, युपामणि मयाश्चैत्या, श्वापि हिरण्मयाः चैत्य पुं करिभः कुंजरः । इत्यादि और ग्रंथों में चले है । अब हठवादियोका कथन कौनसे पा. तालमें गया। __समीक्षा-हमारे ढूंढक जैसें, अविचारी दूनीयामें दूसरे-होंगे या नहीं ? । क्योंकि, आप जैन-पतको कलंकभूतहोके, व्याकरणादिक कोभी दूषित कर देते है ॥ देखो ढूंढनीने कीईहुई-चैत्य शब्दकी, व्युत्पत्ति-चेतति जानाति इतिचितः ज्ञानवानित्यर्थः । तस्यभाव चैत्यं ज्ञान मित्यर्थः । समजनेका यह है कि-जब "क" For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य शब्दका-विचार. (१२७) प्रत्यय आके-चितः शब्द सिद्धहुवा, तबतो ज्ञानवान्, अर्थात् ज्ञानका आधारभूत जीवरूप अर्थ होगया । और फिर उसके भावमें "यण " प्रत्यय आ गया तब जीवके बिना ज्ञान मात्रका-अर्थ, करती है । कैसी व्याकरण वालोंमें, अपणी पंडितानीपणा दिखा देती है ॥ ____ अब आगे देखो-श्लोकोंकी रचना,कि-जिसमें नतो वर्णमाण, नतो विभक्तिका ठिकाना, नतो छंद भंगपणेका पत्ता, केवल जंगली भाषारूप किसी मूढने मनकलित जूट लिखके-वेदांतका नामको भी, कलंकित किया है. ॥ देखो श्लोकका लक्षण, अक्षर ८ के प्र. माणसे ॥ पांचमे लघुता तोलो, गुरु छठो लख्यो गमे ॥ बीजे चोथे पदे बोलो, श्लोकमां लघ सातमे ॥ १॥ ढूंढनीके लेखका विचार–प्रथम श्लोक,-प्रथम पादमें-प्रसाद, और विज्ञेय, शब्दमें-विभक्ति ही नहीं है. ॥ दूसरे पदमें-वर्णही सातहै । और चैत्यः शब्दका ' चेइ' नतो संस्कृत व्याकरणसे-सिद्ध होता है, और नतो प्राकृत व्याकरणसें-सिद्ध होता है, और नतो इनके आगे-विभक्तिका भी ठिकाना है । ऐसें जिस जिस पदमें "चेह" शब्द लिखा है, उहांपै सर्वथा प्रकारसे-निरर्थक पणे रखके, और वेदांतका सिद्धांतको कलंकित करके, अपणी ही पंडिताईपणेको प्रगट किई है. । तिप्सर पादम-पचमा अक्षर हस्तके स्थानमे-दीर्घ रख दिया है । और चौथे पादमें चेइ शब्दभी निरर्थक, और अक्षर भी ८ के स्थानमे ६ ही रखा है. ॥ अब दूसरा श्लोक, दूसरा पादमें-'ई' निरर्थक, और विभक्तिभी नहीं है । तिसरे पादमें-पंचम अक्षर इस्व चाहिये सो दीर्घ है, और छठा दीर्घ चाहीये उहां इस है. । चौथे पादमें'चेई' शब्दही निरर्थक है । For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) चैत्य शब्दका-विचार. ... अब तीसरा श्लोक-दूसरे पादमें-'चेइ' शब्द निरर्थक । और तिसरे पादमें-सातमा अक्षर इस्व चाहिये, उहां दीर्घ रखा है । चौथे पादमें-विनउ, नीचउ, निरर्थक, संस्कृतसे सिद्ध होता ही नहीं है, और नतो विभक्ति भी कोई रखी है, और अक्षर भी सात ही है ॥ . ॥ अब चौथा श्लोक-प्रथम पादमें-अक्षर ही सात है, पंचम हस्त्र चाहिये वहां दीर्घ रखा है । दूसरे पादमें-चेई, शब्दही संस्क तमें सिद्ध नहीं होता है । तिसरे पादमें-छठा अक्षर दीर्घ चाहिये वहां -हस्वलिखा है । और चौथा पादमेंतो-'चेई' शब्दही निरर्थक, है। जव वाचक रूप शब्दही न रहा तब " वाच्य" पदार्थकी भी सिद्धि क्या होने वाली है, इसवास्ते जहां जहां " चेइ " शब्द रखा है वहां सर्वथा प्रकारसे निरर्थकपणा समजनेका है ॥ ___ अब पंचम श्लोक-प्रथम पादमैं-पंचम अक्षर हस्व चाहिये दीर्घ रखा है । और दूसरे पादमे-'चेइ' शब्दका ही नीरर्थकपणा है। तिसरे पादमे-अक्षरही ८ केजगे सात है, सिद्धि ही क्या करेंगे ? । चौथापादमें-अक्षर भी सात है, और 'ई' शब्दभी निरर्थक होनेसे सभी निरर्थकपणा है. ॥ ॥ अब छठा श्लोक, प्रथम पादमें-अक्षरही ८ केस्थान में, सात हीहै । दूसरे पादमें-'इ' शब्दही निरर्थक है, वाचक नही तो वा. च्यकी सिद्धि क्या होनी है ?। तिसरे पादमें-अक्षरही सात है सिद्धि ही क्या करेंगे, और 'विज्ञान' पदभी विभक्ति विनाका है । चौ. थापाद-चेइ, शब्दसेही सर्वथा निरर्थक है. ॥ ॥ अब सातमा श्लोक-आधाही है, प्रथम पादमे-'चेई' भन्द हि निरर्थक रूप है तो आगे सिद्धि किस बातकी करेंगे। For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य शब्दका - विचार. ( १३९ ) पाठक वर्ग ! यह हमारी किंचित्मात्रकी समीक्षासे आपही वि. चार किजीयेकि यह ढूंढनी, इत्यादि कहकर ११२ अर्थ ' चैत्य ' शब्दका कहती है, सो, और नाम अलंकार सुरेश्वर वार्तिकादि वेदांतका - जूठा प्रमाण दाखल करती है, सो; सत्यरूप मालूम होता है ? * || अब शब्द कल्पद्रुम प्रथम खंड पृष्ट. ४६२ का जूठा प्रमा णकी भी सत्यासत्य समीक्षा देखीये । प्रथम श्लोक-पहिले पादमेंक्लीव शब्दका वकारही उडादिया है, और विभक्तिकाभी - ठिकाना नही है, पंचम अक्षर - हस्व चाहिये, उहांपर दीर्घ है, और छठा सातमा अक्षर दीर्घ चाहिये, उहां हस्व है। दूसरे पादमें- पंचम अक्षर-हस्व चाहिये, उहां दीर्घ है, और छठा दीर्घके ठिकाने -हस्व है । तिसरा पादमें - अक्षरही ९ करदीये है, क्या सत्यपणा समजेगे । ' करिभः ' शब्दभी कोई कोशमे दिखता नही, तैसें 'हिरण्मय' भी शब्द नही दिखता है, तो किस अर्थकी सिद्धि करेंगें, जितना स्त्रीकी जातिमें जूठपणा, शास्त्रकारोंने वर्णन किया है, उतनाही जूठापणा, इसमें भी ढूंढलो, । ऐसा - महा जूठा लेखको, लिखके भी कहती है कि - हटवादियों का कथन - कौनसे पातालमें गया. है ढूंढनी अब इसमें थोडासा तो विचार कर कि - हठवादी हम हैं के तेरे ढूंढको ? और यह तेरा लेखही पातालमें गुसडने जैसा है कि सम्यक्क शल्योद्धारका । अछी तरांसें विचार कर । क्योंकि—सम्यक्क शल्योद्धारमें- चैत्यं जिनोक स्तद् बिंबं, चै त्यों जिन सभातरुः यह जो प्रमाण दिया है सोतो - श्री कुमा: * || हमारे गुरुजी महाराज यह कल्पित अर्थका एक पत्रा, ढूंढक पाससें देखा हुवा कहतेथे, सो हमने भी सुनाया । अब यह जूठा लेख, प्रत्यक्ष पणे भी देख लिया !! For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) मूर्तिपूजनमें-मिथ्यात्वादि दोष... रपाल राजाको प्रतिबोध करनेवाले श्री हैमचंद्राचार्य महाराजका दिया है कि, जिस हैमचंद्राचार्यको, वर्तमान कालमें-जो अंग्रजे लोको-बडे प्रवीन गीने जाते है, सोभी, सर्वज्ञपणेकीही उपमा देके-बढामान दे रहे है, उस महापुरुषोंको-यद्वातद्वा लिखनेवाली सेरे जैसी-विचार शून्याते दूसरी कौन बनेगी ? । अगर जो तेरा ढूंढकपणेका पंथको ढकके रखा होतातो,क्यों इतना फजेता होता। ॥ इति ढूंढनीके चैत्य शब्दका, विचार ॥ ॥ अब मूर्तिपूजनमें-मिथ्यात्वादि दोषका, विचार ॥ ढूंढनी-पृष्ट. ११८ मेंसे-लिखती है कि-मूर्तिपूजनमें, षट्कायारंभादि दोष है, ॥ और पृष्ट १२०, ओ. ७ सें-और दूसरा बडा दोष-मिथ्यात्वका है । क्यों कि-जड को चेतन मानकर मस्तक जूकाना, यह मिथ्या है. ॥ समीक्षा-हमतो जैन सिद्धांतोका-अक्षरे अक्षर चिंतामणि रत्नके तुल्य, मान्यकरनेवाले है, परंतु तुमेरे ढूंढकों जैसे नहीं है कि, यह तो माने, और यह तो न माने,क्यौं कि केवल मूर्तिपूजनमेंहीषटकायाका आरंभ दिखाके, उनका निषेध करनेके लिये यह योथापोथाकी रचना किई,। परंतु तेरे ढूंढक सेवको, जे-स्थानक - धाते है, । और दीक्षा महोत्सव, और मरण महोत्सव करते है, । संघ निकालकर तुमको-वंदना, करनेको आते है । उसमें तो पूर्णअविवेकसे, महा आरंभका कार्य करते है, उसका, और तूं ने लिखा हुवा सूत्रका पाठका-विचार, करती वखत-तुमेरे ढूंढकोकी मति, नजान कौनसा-खेतचरणको, जाति है ? सो उनका विचार किये बिना, केवल-मूर्ति पूजनमें ही, षटकायाका आरंभ दिखानेको, थोथापोथा-लिख मारते हो, ? क्या उसमें तुमको-पटकायाका आ For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || मूर्तिपूजन - मिथ्यात्वादि दोषं ॥ ( १३१.) रंभ, नहीं लगता है ! तुम कहोंगे कि लगता तो है, तो तुमको कौनसी अधोगतिका दाता है ? उनका भी तो विचार लिखके, साथमेही दिखा देनाथा, जिससे तेरे ढूंढक श्रावको को भी ज्ञान हो जाता कि, हम तो सभी प्रकारसें- दुर्गातिके ही बंदे बननेवाले है ! हम तो सुनते हे किं-जिस गावमें, स्थानक नहीं होता है उहांपर, ढूंढक साधुको रहनेकी विनती करते है तब, धम धमाटसे पुकारकर उठते है कि- स्थानक तो बंधाते नही हो, काहैकी विनतीकरते हो | और उपदेश करके, पैसेकी वर्गनी कराने भीसामील हो जाते है, उहां पर तुमेरी दया माता, कहां जाती है ? केवल जूठा बकवादही करतेहो कि, कुछ तत्त्वकाभी- विचार करते हो ! हमतो यही समजते है कि जोकोइ तवका विचार करनेवाला होगा सोतो - तुमेरा ढूंढक पंथकी नजिकमें भी न खडा रहेगा । कारण उनको भी कलंकित ही होना पडेगा । और जो अजान होगे सो तुमेरा पकडाया हुवा - हठषणेका अनघड पथ्थरा लेके फगाता फिरेगा और बुद्धिमान होंगे सो सूत्रका - पाठको, और अपणाकर्त्तव्योंको, और साथही उनका - तात्पर्यको विचार करके ही अपणा पांउ धरेंगे, उनको कोइभी- दुर्गतिका कारण न रहेंगा. के वल मूढ काही - फजेता होता है । और तूं जो दूसरा, मिथ्यात्वकादोष कहती है-- सोतो तेरे को ही प्राप्तहोता है । क्योंकि - प्रतिमारूप अजीव पदार्थको दूसरेकी पास - जीवपणको, पुकार रही है ? और अपणा आत्माको मिथ्यात्वसे, मलीन कररही है । और हम है सोतो, योग्यायोग्यका विचार करणेमेंही तत्पर रहते है, किस वास्ते जुठा कलंक देके जडको-चेतनपणे, मनाती है ? हम कहते है कि अब भी विचार करों, और सद्गुरुका शरणास्यो, आगे जैसी तुमेरी भवितव्यता, हम तो कहने में निमित्त मात्र है. ॥ ॥ इति मूर्तिपूजनमें मिथ्यात्वादि दोषका विचार || " • | For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( -१३२ ) महा निशय सूत्रका - पाठ. || अब महा निशीथ सूत्र के पाठका विचार || ढूंढनी - पृष्ट. १२१ से -- काउंपि जिणाययोहिं, मंडिय सब्व मेयणीवहं । दाणाइ चउक्केणं, सढूढो गछेज - च्चु जाव ॥ १ ॥ समीक्षा -- इस महानिशीथ सूत्रकें पाठसें, केवल श्रावककी करणी से गतिका प्रबंध किया है कि जिनमंदिरोंको, करवायके सर्व पृथ्वी भी मंडित करदेवे, और दानादि चार धर्मको भी करें, तोभी१२ मा देवलोकसे, अधिक गति - श्रावककी करनी से न होवे || इसका अर्थ ढूंढनी लिखती है कि- संपूर्ण भूमंडलको मंदिरों करके भरदे, (रचदे) दानादिचार करके, अर्थात् दान, शील, तप, भावना, इनचारोंके करनेसे, श्रावक जाय अच्युत १२ में देव लोक तक. || अब इहांपै यह ढूंढनी - मंदिरोंका अर्थको गपड सपड कर देके, केवल-दानादिकसे ही १२ में देवलोककी गति, दिखाती है । परंतु बारमा देवलोककी गति कराणेमें- दूसरा कारण भूत- जिन मंदिरों का धर्मको, साथमें क्यों नहीं लिखके - दिखाती है ? यह बे संबंध- तात्पर्य दिखाना, किस गुरुकीपाससे पढी ? ॥ फिर. पृष्ट. १२२ ओ. २ से-लिखती है कि इसगाथा में मंदिर बनवानेका, खंडन है कि, मंडन है | हाम पूछते है कि इस गाथामें मंदिर बनवाका खंडन है, वैसा किस गुरुने तूंने दिखा दिया ? ॥ फिर. ओ. ७ से कहती है कि- मंदिरको उपमा वाची श ब्द में लाके-ऐसें कहा है कि - मंदिरों करके चाहे सारी पृथ्वी भरदेतोभी- क्या होगा, दानादि करके - श्रावक १२ में देवलोक तक जाते है || पाठक वर्ग ? इस ढंढनीका, उद्धत्तपणा तो देखो कि-मं For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कबाल कम्मा' में कुतको. (१३३ ) दिरोंको, उपमा वाची, करती है, और मंदिर बनवानेका खंडनभी कहेती है, और कुतों पैं, कुतको करके-पृष्ट. १२३ ओ. ४ सें-लिखती है कि-नतो सारी मेदिनी (पृथ्वी) मंदिरों करके-भरी जाय, न १२ मा-देवलोक मिले ॥ ऐसा जूठा सोच करके-प्रत्यक्षपणे जिन मंदिरोंका-पाठका, लोप करती हुई-फिर लिखती है किसाते भली भांतिसे सिद्ध हुवाकि-सूत्र कतीने-उपमा, दीहे ॥ परंतु इहांपर ढूंढनी-इतना विचार,नही करती है कि-हजारो जैन सिद्धांतों में-जिस मंदिरोंका पाठकी-साक्षी होचुकी है, और पृथ्वी माता भी-आपणी गोदमें लेके,साथमें-सिद्धि दिखा रही है, उनका लोप करनेको-में कैसे प्रवृत्ति करती हुं ॥ फिर पृष्ट. १२४ ओ.३से-लिखती हैकि-द्वितीय यहभी प्रमाण हैं कि-प्रथम इसही,निशीथ के ३ अध्याय में-मूर्तिपूजाका-खंडन, लिखा है, ताते निश्चय हुवाकियहांभी-खंडन नहीं है, सूत्रमें-दो बात तो, होही नहीं सकतीहै । पाठकवर्ग ? महानिशीथतिसरा अध्यायके-पाठका अर्थभी, विपरीतही लिखाहै । सोहमारा लेखसे-ध्यान देके, विचार लेना, इस ढूंढनीको तो-सर्व जगेंपर, पीलाही पीला दिखताहै । न जाने क्या इनकी मतिमें--विपर्यासपणा हो गया है जो वीतराग देवसेंही, इत.. ना--द्वेषभावको प्रगट कर रही है ॥ इत्यलं पलवितेन ॥ से ॥इति महा निशीथ सूत्रके-पाठका, विचार॥ - । अब फवयाल कम्मा में—कुतकाओं, विचार ।। ढूंढनी-पृष्ट. १२१ से-(कयवलिकम्मा ) के पाठमें,-अनेक कुतर्कों कर के-पृष्ट. १२६ ओ. ५ से-लिखती है कि-कही २टीका, टब्बामें, रूढिसें-कयबली कम्मा का अर्थ-घरका देव पूजा For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) 'कर्यबल कम्मा में कुतर्कों. लिखा है, फिर पक्षपाती - अर्थ करते है कि श्रावकों का घरदेवतीर्थंकर देव होता है। ओ. ९ से तीर्थंकर देव - घरके देव, नहीं, घरके देवतो - पितर, दादेयां, बाबे, भूत, यक्षादि होते है ।। ओ. १५ सें - कुल-- देवका मानना, संसार खाते में, कुछ और होता है ॥ पृष्ट. १२७ ओ. १ सें - तुम्हारेही ग्रंथो मे -- २४ भगवान्के, शांसन यक्ष, यक्षनी, लिखे है, उन्हें कौन पूजता है इत्यर्थः।। ओ . ७ से - रायप्रश्नी में -- कठियाराने, वनमें स्नान किया, वहां बलिकर्म पाठ, लिखा है । समजने की बात है कि उसकठियारा पामरने तो--घर देवकी, वहां उजाड - पूजाकरी, जहां घर ना, घरदेव, उत्तम राजायोंकी - देवपूजा -- उडगई ।। पृष्ट. १२८. ओ. २ से--उक्तपाठ ओसकी - बुंदे टटोल २ के, मंदिर पूजाकी सिद्धिके - आसा रूपी कुंभको, भरसकोगे ? अपितु नहीं ओ. १६ सें-- निशीथादिमें, साधुको बहुत प्रकारके, व्यवहारकी विधि, लिख दी है, परंतु मूर्तिपूजाका न फल, न विधि, नना पूजने का दंड, लिखा है - ॥ .. • " समीक्षा - पाठकवर्ग ! देखिये ढूंढनीजीकी चतुराई- 'बलिकर्म्मका ' अर्थ, अस्त व्यस्त हुई -कभी तो बलवृद्धि । कभी तो -स्नानकी, पूर्णविधि । कभी तो पंचयज्ञोमेंसे भूतयज्ञ । कभी तो दानाथे | कभीतो -- नवग्रह बालिका अर्थ - दिखाके, फिर --लिखती है कि कहीं कहीं - टीका, टव्वाकारोंने, रूढीसें- कयबलीकम्मा' का अर्थ, घरकादेव पूजा लिखा है, । फिर पक्षपातीओंने श्रावकों का घरदेव - तीर्थकर देव, करदिया, सो ठिक नहीं । पाठकवर्ग ? जो गुरुपरंपरासे, चला आया हुवा अर्थ- टीकाकार, और टव्त्राकार महापुरुषाने किया सोतो, रूढीका ठीक नहीं, तो क्या विनागुरु की ढूंढनीका किया हुवा, अगडं वगडं रूप अर्थ -ठिक होजायगा ! हे ढूंढनी तेरेको लिखतें-- कुछभी विचार, नही आता है ! ॥ For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कयवलि कम्पा में, विचार. (११५ ) फिर लिखती है कि-घरका देवतो-पितर, दादेयां, भूत, यक्षादि । तीर्थकर देवतो-त्रिलोकी नाथ, होते है । हे ढंढनी तूं क्या नित्य कर्तव्यके लिये, ते परम श्रावकोको-पितर, दादेयां, भुत, यक्षादिककी, पूजा दिखाती है ? । प्रथमही देखकि, वर्तमानकालके ढूंढको, मलीन रूप बने हुयें-पितर, दादेयां, भूत, यक्षादि-नित्य पूजते है ? जो तूं उस उत्तम महा श्रावको कीपास–पितर, भूत, यक्षादि, दररोज पूजाती है ? ।। फिर कहती है कि-तीर्थकर देवतो, त्रिलोकी नाथ, होते है, घरके देव नही ।। है सुमतिनी ! त्रिलोकी नाथ है जबीही ते परम श्रावको, अपणे घरमें, महा मंगल स्वरूप मूर्तिको-पधरायके, सदाही उनकी सेवामें तत्पर रहते है, दूसरे देवोंकी उनकों-गर्नही क्या है ? जोतूं अपणा पंडितानी पणा प्रगट करके बकबाद करती है ? । फिर लिखती है कि-सहाय वांछना, कुछ और है, और कुलदेवका-मानना, संसार खातेमें-कुछ और होता है. ॥ हे शुद्ध मतिनी ! तेरे दूंढक सेवकोंकी पाससें, तूं भूत, यक्षादि, नतो-स्वर्ग, मोक्षादिकके वास्ते-पूजाती है, और न तो कोई कार्यकी सिद्धिके वास्ते, पूजाती है, तो फिर कौनसा तेरा-संसार खाताके वास्ते, पूजाती है ? सो तो दिखानाथा ? क्या अधोगतिमें पटकनेके वास्ते -भूत यक्षादि, पूजाती है ? जो-संसार खाता का, पुकार करती है ? बसकर तेरा पंडितानी पणेका विचारको ॥ फिर लिखती है कि-तुमरे ही ग्रंथोमें-२४ भगवानके शासन यक्ष, यक्षनी, लिखे है, उन्हें कौन-पूनता है इत्यर्थः।। हे सुमतिनी ! तूं यह-चकचादही, क्या कररही है, इस लेखो तो, तेरीही कुतर्कोका नास, हो जाता है । क्यौ कि जब वर्तमान कालमें यत् किंचित् श्रद्धावाले श्रावकों भी, सम्यक्रष्टि यक्ष, यक्षिनी, का, पूजन, विनाकारण, For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) 'कraja कम्मा' में, विचार. , दररोज नहीं करते है, तोफिर पवित्र कालके - -ते महा श्रावको कि पाससें, मिथ्यादृष्टि-- पितर, दादेयां भूत, यक्षादिक-तूं कैसे पूजाती है ? | और टीका, टव्त्राकार महा पुरुषोंका, किया हुवा अर्थसे — निरपेक्ष होके, यह ढूंढनी - ऐसा बकवाद, कर रही है किजाने ते महा श्रद्धालु श्रावको थे सो दररोज भूत यक्षांदिको की ही --पूजना, करते थे ? और उनकाही पूजनकी सिद्धि करने को - यह थोथा पोथा लिखके अपणी पंडितानीपणा करतीचली जातीहो ! ॥ और यही ढूंढनी, राय प्रश्नीय संबंधी कठियाराका वनमें 'बलिकर्मके पाठसे देवपूजा दिखाके, कहती है कि - उत्तम राजाओंकी घरकी देवपूजा - उडगई, ॥ हे शून्य मतिनी ! उत्तम राजाओंकी - देव पूजाकी, सिद्धिहुई कि -- उडगई ? क्योंकि - जिसको जो इष्ट देव पूजनका, नित्य कर्त्तव्यरूप है, उसका नाम - शास्त्र कारोंका संकेतसे " बलिकर्म " कहा जाता है, सो बलिकर्म, इस कठियारे - जंगलमभी करकेही, भोजन किया । अर्थात् जोदेव सेवारूप-नित्यकर्तव्यथा सो, जंगल में भी - साथही रखाथा, और उनकीही सेवा, पूजना, करके भोजन किया तैसेही— उत्तम राराओ और ते श्रावको, आदि - परम श्रद्धालुओं ने भी — वीतराग देवकी - मूर्तिका पूजनरूप, अपणा नित्य कर्त्तव्यको, किये बादही, दूसरे कर्त्तव्यों -- प्रवृति कि है | इसवास्ते ते परम श्रावकोकों, वीतराग देवकी - पूजा, नित्य कर्तव्य रूपहीथी उनकी सिद्धिही हुई है ?|| और इस लेखरूप - सूर्य की किरणोका प्रसारसें, तेरीही--कुतर्कों रूप, ओसकी बुंदे - उडजानेपर भी, जोतूं कुतर्कों रूप -- ओसकी बुंदे, टटोलती टटोलती, विपरीत पणेकी बुद्धि रूप कुंभको, भरनेकी इछा रखेगी सो ra न भरसकेगी | और निशीथादिकसें, जोतूं साधुको -पूजन विधि, और - पूजनका फल, आदिको ढूंढती है, सोभी तेरी पंडिता - For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमबलि कम्मा' में विचार. ( १३७ ) नी पणाका एक चिन्हही, प्रगट करती है, क्यों कि साधुको मूर्ति पूजनेका अधिकारी ही, शास्त्रकारने नही दिखाया है, तो पिछेसाधुको पूजनेकी विधि, और पूजनका फल, किस वास्ते लिखेंगे । हां विषेशमें, इतना जरूर है कि साधु, और श्रावक मंदिर हुये, मंदिर में दर्शन करनेको जावे नही तो, उनको जरुर ही - प्रायछित, होता है, वैसा - श्री महाकल्प सूत्रमें लिखा है-यथा सेभयवं, तहारूवं समणं वा, माहणं वा चेइयघरे-- गछेज्जा ? हंता गोयमा, दिणे दिणे - - गछेज्जा, सेभयवं जस्स दिणे-ण गछेज्जा, तओकिं पायच्छित्तं हवेज्जा ? गोयमा पमायं पडुच्च तहारूवं समणं वा, माहणंवा, जो जिणघरं न गच्छेज्जा, तओ छठं, अहबा दुवालसमं, पायछित्तं हवेज्जा. इत्यादि ॥ 2 अर्थ हे भगवन् ! तथा रूप श्रमण ( अर्थात् श्रावक ) अथवा माह--तपस्वी, चैत्य घर, यानि जिनमंदिर जावे?, । भगवंत कहते है, हे गौतम! रोज रोज अर्थात हमेशां जावे. फिर गौतम स्वामी पुछते है. हे भगवन् ! जिस दिन-न जावे तो उस दिन क्या प्रायवित्त होवे ! भगवंत कहते है, है गौतम ! प्रमादके वशसे तथा रूपश्राक्क, अथवा तपस्वी, जो जिनगृहे न जावे तो छह, अर्थात् बेला, ( दो उपवास ) अथवा पांच उपवासका प्रायश्चित्त होवे. ॥ वैसाही श्रावकके, पोषध विषयमेंभी, सविस्तर प्रायश्चित्तका पाठ है सो विशेष देखना होवेसो. नवीन छपा हुवा सम्यक्क शल्योद्धार पृष्ट. १९७ से देखलेवे ॥ इसवास्ते साधुकी पूजन विधि आदिका, लेख ही तेरा विचारशून्यपणेका है, किस वास्ते विपरीतपणे जूठी तर्कों करती है ? ॥ ॥ इति कयवलि कम्मा-में, कुतर्कोंका विचार || For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८) सावधाचार्य-और ग्रंथों. ॥ अब सावद्याचार्य-और ग्रंथोंका, विचार, करते है । - ढूंढनी-पृष्ट १२९ से ग्रंथोंमें सविस्तार-पूजा है ! इस प्रश्न के उत्तरमें लिखती है कि-हम ग्रंथोंके-गपौडे, नहीं मानते है, हां जो सूत्रसे मिलती बातहो, उसे मानभी लेते हैं, परंतु जो सावधा चार्योंने-मालखानको, मनमाने-गपौडे, लिख धरहैं, " निशीथ. भाष्यवत् ," उन्हें विद्वान् कभी नहीं प्रमाण करेंगें ॥ फिर. पृष्ट. १३० से-(३२) सूत्रको माननेमें-गणधर, प्रत्येक बुद्ध, दशपूर्व धारीयोंके रचे हुवे है, ऐसा-प्रमाण देके, दूसरे ग्रं. थोंको-सावधाचार्यका, कहती है । और कहती है कि-जिन ग्रंथोके माननेसे, श्री वीतरागभाषित-परम उत्तम, दया, क्षमा रूप, धमको-हानि, पहुंचती है। पृष्ट. १३२ से-अर्थात् सत्यदया धर्मकानाश, कर दिया है । फिर नियुक्तिके, प्रश्नमें-लिखती हैं कि-तुम्हारीसी तरह-पूर्वोक्त आचार्योंकी बनाई, नियुक्तियांक पोथे, अनघडितकहानीये गपौडेसे भरे हुये-नहीं मानते हैं । - यथा-उत्तराध्ययनकी, नियुक्तिमें-गौतम ऋषिजी-सूर्यकी किगोंको-पकडके, अष्टापद पाहाडपर-चढगये, लिखा है ।। आवश्यककी, नियुक्तिमें-सत्यकी सरीखे, महावीरजीके--भक्ता, लिखे है, इत्यादि. . __पृष्ट. १३५ सें-सूत्रके मूलमें, और सूत्रक के अभिमायसें, संबंधभी नहो-उसका कथन-टीका, नियुक्ति, भाष्य, चूणी में-सविस्तर कर धरना. मूर्ति पूजक ग्रंथोंमे-गपौडे लिखे है । ऐसा कहकर एक गाथा लिखी है-सेतुजे. पुंडरीओ सिद्धो, मुनिकोडि पंच सं. ज्जुत्तो । चित्तस्स पूणीमाए, सो भणइ तेण पुंडरिओ. १॥ इसमें सो १०० पुत्रवालेका दृष्टांत-पृष्ट. १३६ से-दे के १३७ में लिखती For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधाचार्य-और ग्रंथो. (१३९) है कि,१०० मेसे सात मरगये ९३ रहैतो-आनंद, और ९० मरजावे १० रहे तो बडा-अफसोस, इत्यादि ॥ पृष्ट. १३८ सें-ऐसे मिथ्या वाक्योंपर-मिथ्यातीही, श्रद्धा न करते है ॥ओ.१० से-सूतथ्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्ति मिसिओ भणिओ। तइओए निरविसेसो, एसविही होइ अनुयोगो. १॥ ___ अर्थ-प्रथम सूत्रार्थ कहना । द्वितीय-नियुक्तिके साथ कहना, अर्थात्-युक्ति, मामाण, उपमा, (दृष्टांत देकर-परमार्थको, प्रगट करना । तृतीय-निर्विशेष अर्थात्-भेदानुभेद खोलके, सूत्रके सा. थ-अर्थको मिला देना । इसप्रकार-नियुक्ति माननेका अर्थ, सिद्ध है कि-तुम्हारे कल्पित अर्थ रूप, गोले-गरडानेका । वाचने लगे तो, प्रथम-सूत्रार्थ, कहलिया, । द्वितीय जो नियुक्तिये नामसे-बडे २-पोथे, बना रखे हैं, उन्हें धरके वांचे । तीसरे जो-निरविशेष-अ. र्थात् ' टीका, चूर्णी, भाष्य, आदि ग्रंथों वांचे. । ऐसा तो होता नहीं है. साते तुम्हारा-हठ, मिथ्या है। १ सूत्र १ टीका २ नियुक्ति ३ भाष्य ४ चूर्णि ५ यह पंचोंही प्रकार 'आगम' स्वरूपही कहेजाते है । उसमेंसें एक ३२ सूत्रके बिना, सर्वको जूठा ठहरायके, ढूंढनीही-टीकादिक सर्व प्रकार-अपणे आप वनबैठी है । परंतु सत्यार्थ-पृष्ट ३८ में-मूर्तिखंडनके वास्ते, जिसका 'सवैया' लिखाहै-सो ढूंढक-रामचंद-तेरापंथीका. खंडनरूप एक स्तवनमें-लिखताहैकि-बत्रीश सूत्र मानां मेंतो, ते पण मानां पाठ, आगम पंच प्रकार बरोबर, निंदें गेहली ठाठ, इस कहनेसें भ्रष्टी कहीये, ग्रही नरककीवाट ।। इत्यादि। फिरभी लिखाहैकिटीका उत्थापेखरा ॥ यहस्तवन, अमोए इस ग्रंथके अंतमें, दाखल कियाहै, उहाँसें विचार करलेना ॥ For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) सापचाचार्य - और ग्रंथों. पृष्ट. १४० -- १४१ तकरें - नंदीजी वाले सूत्रोंके नामसें, ग्रंथ है भी, तो वह - आचार्य कृत- साल संवत्, कत्तीका नाम, लिखा है, इस कारण प्रमाणिक नहीं है ।। पृष्ट. १४१ में है भ्राता -जिस २ सूत्रोंमेसें - पूर्व पक्षी "चेइय" शब्दको ग्रहण करके - मूर्ति पूजाका पक्ष करते है, उस २ का, मैंने सूत्र के संबंधसें-अर्थ लिख दिखाया। अपनी जूठी कुतकों का लगाना, छति अछति निंदा करना, गालीयोंका देना, स्वीकार, नहीं किया है। जूठ बोलने वाले, और गालयों देने वालेको, नीच बुद्धिवाला समजती हुं ॥ - समीक्षा - वाचक वर्ग ! ख्याल करनेकी बात है कि जो आज हजारो वर्षोंसे - हजारो ग्रंथोंकी साक्षी रूप, " जिन प्रतिमा " पूजनका पाठ चला आता है उनको जूठा ठहरानेके लिये, ढूंढनी कहती है कि हम ग्रंथोंके - गपौडे, नहीं मानते है, तो पिछे अभी थोडे दिनोपै, जगे जगें पर अपमानके भाजन रूप, अज्ञानी-जेठ मल आदि ढूंढकोंके, बनाये हुये-छप्पे, सवैयेका - प्रमाण देनेवालेको, क्या कहेंगे ? | और ढूंढनी कहती है कि जो सूत्रोंसे मिलती बात हो उसको - मानभी लेते है ।। इसमें कहनेका यह है किआजतक हजारो आचार्य. कि- जो सर्व सूत्रपाठी, धर्म धुरंधर, ममाणिक स्वरूप, महा ज्ञानकी मूर्ति रूप थे, उन महापुरुषोंका बचनको, सूत्रसे अमिलित कहकर, अब अपने आप सूत्रसें मिलानेका कहती है, सो क्या यह ढूंढमतिनी, कि, नतो जिसीको -विभक्तिका, नतो छंदका, और नतो शास्त्र विषयका भान है, सो सर्व महापुरुषोंसे - निरपेक्ष होके, सूत्रका मिलान करेगी ? । क्या कोई साक्षात् पेण पर्वत तनयाका स्वरूपको धारण करके आई है? जो सर्व सूत्रों की मिलती बात हमको दिखा देगी ? । इमतो यही कहते है कि - यहभी एक मूढोंका - मूढपणेकाही बकवाद है । क्या 1 For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावृधाचार्य-और ग्रंथों. (१४५ ) उस महाचार्योको, तेरा जितनाभी विवेक नही था? और क्या तूंही विवकिनी जन्मी पडी है ! हे ढूँढनी ! इतना गुरुद्रोहीपणा क्यों करती है ? फिर कहती है कि-माल खानेको मनमाने-गपौडे, लि खघरे है-निशीथ भाष्यवत् ,उन्हें विद्वान् कभी नहीं प्रमाण करेंगे। इस लेखसे मालूम होता है कि-इस ढूंढनीको, आज तक खा. नेको कुछ माल--मिला न होगा, परंतु, गप्य दीपिका, निकालने पर, माल-बहुत मिलने लगा होगा, वैसा अनुमान होता है । उसीही माल खानेकी लालच करके-यहभी 'गपौडे, लिखकर, प्रगट करवाया होगा ? । नहीतो क्यों कहती कि-मालखानेको लिखधरे है। और इस लेखमें, इतना अछा किया है कि-गणधर म. हाराजाओको, इस कलंक से-बचाये है, अगर कलंक दे देती तो, तुच्छरूप स्त्री जातीको,कहतेभी क्या ! और दूंढपंथिनी-निशीथ भा. ज्यको 'गपौडे. कहकर ' कहती है कि, विद्धान् कभी नहीं-प्रमाण, करेंगे. । परंतु इस ढूंढनीको यह मालूम नहीं है कि-विद्वान् पुरुषो तो आजतक निशीथ भाष्यका एकैक वचनको-शिरसा वंद्य करके, मानते आये है, और आगेभी-मानेगे, केवल तुम ढूंढको कोही, विधाताने इस महा ग्रंथका अधिकार नही देके, केवल मूढता रूप पाषाण दिया है, सो इधर उधर फगाया करतेहो..॥ फिर ३२ मुत्र के बिना, दूसरे ग्रंथोंको सावधाचार्य रचित कहती है. ॥ हे एंटनी ! जिस ढूंढकोंका-फजिता प्रगटपणे, हो रहा है, सो तो-निरबद्याचार्य, और आजतक जिनोने जैन शासनको सूर्यकी तर प्रकाशमान किया, और जिनोंके गुणोंमें रंजित हुई " सरस्वती" देवी साक्षातपणे वश हुई है, ऐसे अनेक महापुरुषों, सो तो-सायद्याचार्य, ऐसा लिखती हुइ-तेरी गुरु द्रोहिणीकी, लेखनी स्तंभित क्यों न हुई ? ॥ फिर लिखती है कि-जिन ग्रंथोंके माननेसे, बीत. For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) सावधाचार्य-और ग्रंथो. रागभाषित-परम उत्तम दया क्षमा रूप, धर्मको-हानि पहुंचती है ॥ हे ढुंढनी ! तुं सत्यरूप जैन धर्मका वारसा, करती है किस वास्ते, क्यों कि, तूंही तेरी गप्प दीपिकामे, लिखती है कि-ढूंढत ढूंढत ढूंढलिया, सब वेद पुराण कुरानमे जोई ॥ ज्युंदही माहेसे म. खण ढूंढत, त्युं हम ढुढीयांका मत होई. १॥ ___यही तेरा वाक्यका-विचार कर कि, इसमें सत्यरूप जैन धर्म का, कोइ नाम मात्रभी है? केवल जैनाभास बनके, किस वास्ते जैन मतको कलंकित करतीहै!| फिर लिखती है कि-सत्य दया धर्मका नाश कर दिया है ॥ हे ढूंढनी ! इहांपर थोडासा तो विचार करकि, उन महा आचार्योंने--सत्य दया धर्मका,जंड लगाया हैकि,नाश कर दिया है ?। तेरी मति क्यौं बिगडी हुई है, जरा इतिहासोकी तरफ तो देख कि-मालवा, मारवाड, गूजरात, काठियावाड,दक्षिण, आदि देशोमें, यज्ञ याज्ञादिकमें--हजारो पशुओंका होम कियाजाताथा, उनका प्रतिबंध-राजा, महाराजाओंको, प्रतिवोध करके-करवा दिया, सो उस महापुरुषोंने सत्य दया धर्मको-स्थापित किया कि,नाश कर दिया? हे ढूंढनीजी तेरेको इतना गर्वकिस करतूत से-होगयाकि जो कुछभी दिखता नही है||फिर लिखती है कि-तुम्हारीसी तरह,पूर्वोक्त आ. चार्यों की बनाई--नियुक्तियोंके पाथे,गपौडेसे भरे हुये-नही मानते हैं । हे ढूंढपंथिनी ! चउद पूर्व धारी भद्रबाहु स्वामिजीकी रची हुई-नियुक्तियोंको, तूं गपौडेसे भरे कहती है, तो पिछे, कौनसे ते रे-बावेकी रची हुई-नियुक्तियांको,निर्दोष मानती है, उनका नाम तो लिखनाथा ?। और नियुक्तियोंको दूषित करनेको, तूंने गौतम स्वामि विषये-कुतर्क किई है,सोभी विचार शून्यपणेसेंही किई है,क्योंकि-जब जंघाचारण जंघाके बलसे-नंदीश्वर द्वीप तक जाते है, तो पिछे सूर्यको किरणोका-आधारसे, गौतम स्वामीजीका-अष्टापद उ For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधाचार्य - और ग्रंथों. ( १४३ ) पर चढ जानेकी लब्धिका कोई पण आश्चर्यकारक नही है | केवल मिथ्यात्वके उदयसेही 'तुमको - विपरीत दिखता है, नहीतर इसमें सूत्रसें अमिलितपणाही क्या है | और " सत्यकी " महावीरका भक्त नही, इसमें क्या तेरी पास प्रमाण है, जो निर्युक्तियोको जूठी ठहराती है । हमको तो प्रमाण, इत नाही दिखता है कि- जो भ्रष्ट होते है सो-सभी ही बातसेभ्रष्ट ही रहते है || फिर लिखती है कि-सूत्र के मूलमें, सूत्रके अभिप्राय से - संबंधभी न हो, उसका कथन - - टीका, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णी में - सविस्तार कर धरना ॥ हे गर्वि ष्टिनी ! तूंने इतनाभी विचार न आया कि जिस मतमें- एकैक वचनकी, विपरीत - श्रद्धान करनेवाले, " जमाली " जैसे महान् साधुओको - निन्दव मानके, कोइ भी आचार्योंने-मान दिया नही है, वैसा निर्मल जैन मतमें, लाखो पुस्तको का - गोटाला, कहती हुईकोकुछभी लज्जा, नही आई ? इसमें शास्त्रोंका - विपरीतपणा है कि, तेरी विपरीत मतिका ? और तेरा वचनपै- विश्वास करनेवालोंका ! फिर लिखती है कि- मूर्तिपूजक - ग्रंथों में गपौडे, लिखे है | इसमें भी थोडीसी निघा करके देखतो-जैसें तूंने, और जेठमल ढूंढने --गपौडे लिखे है वैसा तो कोइ भी गपौडे लिखने वाले--न मिलेंगे ? क्योंकि जिस शास्त्रको मान्य करना - उसीसे ही विपरीतपणा । देख तेरी गप्प दीपिका के गपौडे--- गप्प दीपिका समीरमें || और तेरे जेठमलके--गपौडे, देख- सम्यक्क शल्योद्वार में || और यह तेरा. चंद्रोदय केभी--अनुयोग द्वारसूत्र से सर्वथा प्रकार से विपरीत - गपौडे, देख यह हमारी कई हुई- समीक्षा सें ॥ ऐसे अनेक दर्फे, गुरु बिनाके तुम जैन तत्वका रहस्यको समजे विना, मूढपणे - उपाधि तो कर बैठते हो, फिर मूर्ति पूजकोकी तरफसें प्रत्यु For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) सावद्याचार्य - और ग्रंथों. तर हुये बाद, जिसका उत्तरपै उत्तर देनेके वास्ते तुमको कुछ भी जभ्या नही रहती है, तो पीछे तुम किस वास्ते नवीन २ उपाधि करके वारंवार बहार आते हो ? ॥ और शत्रुंजय महात्म्यकी - गाथा लिखके जो तूंने चिकित्सा किई है, सोभी विचार शून्य पणेसे किई है । और इस गाथाके विषयमें, १०० पुत्रवालेका दृष्टांत दिया है-सोभी निरर्थक हैं, क्योंकि- भगवानकी हयातीमें, मोक्ष गये, यह तो पूरण भाग्यशालीपणेका सूचक है, सो १० पुत्र वालेके साथ कभी न जुड सकता है, किसवास्ते अगडं वगड लिखती हुई, पंडितानीपणा दिखाती है ? || फिर लिखती है कि ऐसे वाक्योंपर, मिथ्यातीही - श्रद्धान, क रते है | इसमें भी देख तेरी चातुरी - कोइ तो सिद्धांतका एकवचन न माने उनकेपर, अथवा एकाद ग्रंथको न माने उनके पर तो मिथ्यात्वका आरोप, करते हैं परंतु तूं ढूंढनी तो, हजारो महान् आचायोकी - अमान्य करके, और जैन मतके लाखो ग्रंथोको-अमान्य करके, महा मिथ्यात्वनी - बनी हुई, जो जैनाचार्य महा पुरुबोको, और जैन मतके प्रमाणिक सर्व शास्त्रोंको, सर्वथा प्रकार से आदर करनेवाले है उनको मिथ्यात्वी कहती है, क्या तेरी अपूर्व चातुरी है कि अपणा महान् दोषको, छुपानेके लिये, जो सर्वथा कारसे - अदूषित है, उनको अछता- दोष देके, दूषित करनेको चा हती है। परंतु जो अदूषित है सो तो, कभी भी - दूषित, होई सकते ही नही है । किम वास्ते अपणी वाचालताको प्रगट करती है ? || फिर ढूंढनी - सूत्त छोखलु पढमो || इस गाथाका मन कल्पितअर्थ, करती है कि - प्रथम सूत्रार्थ कहना । द्वितीय-निर्युक्ति के साथ कहना, अर्थात् युक्ति, प्रमाण, उपमा, ( दृष्टांत ) देके परमार्थकोमगढ़ करना । तृतीय- निर्विशेष अर्थात् भेदानुभेद खोलके, सूत्रके - For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधाचार्य और ग्रंथोंका विचार. (१४५ ) साथ --अर्थको, मिला देना, इस प्रकार---नियुक्ति माननेका अर्थ सिद्ध है ॥ वाचक वर्ग ! दोखये इसमें-ढूंढनीजीका बेढंगापणा. कहती है कि-सूत्रार्थ कहकर-युक्ति, प्रमाण, उपमा, दृष्टांत देके, परमार्थको प्रगट करना । इसमें विचार यह है कि-जो टीकाकारोंने-अर्थ किया, सो तो सूत्रार्थ नहीं, परंतु जिस मूढके मनमें, जो आ जावे-सोही बकना, सो तो ढूंढनीका-सूत्रार्थ । और दूसरा-नि युक्तिका अर्थ, युक्ति, प्रमाण, उपमा, दृष्टांत, देके, परमार्थको-प्रगट करना, कहती है, । अब इसमेंभी विचार दखिये कि-जो युक्ति नियमित हो, सो युक्ति प्रमाण होती है कि-जिस मूढके मनमें जो आया सोही । बके, सो युक्ति-प्रमाण होगी ! और प्रमाण भी शास्त्रकारका दिया सो तो अप्रमाण, और अपने आप जो। मनमें आ जावे सोही बकना, सो तो-प्रमाण । यहभी कैसा न्याय कहा जायगा? ऐसेही, उपमा, दृष्टांतके विषयमेंभी-विचारनेका है, क्योंकि-जो हमारसे लाखापट ज्ञानको धारण करनेवाले-महान् २ आचार्यों है, उनोका किया हुवा-सूत्रार्थ, और उनोंकी दिई हुई-युक्ति, और उनोंने दिखाया हुवा-प्रमाण, दृष्टांतादि, सो तो-अप्रमाण, और हमारे मूढोंके मनमें-जो आया, सोही बकना, सो तो-प्रमाण, यह बात-महामूढोंके बिना दूसरें कौन-प्रमाण क. रेंगे? ॥ प्रथम-यह अनर्थ करनेवाली ज्ञान गर्विष्टिनी जो-ढूंढनी है, उनकाही विचार देखिये, यह हमारी बनाई हुई-समीक्षासें, किचैत्य शब्दके; अर्थमें-विभक्तिका, छंदका, अर्थका-कितना भान है ? जो महापुरुषोंका किया हुवा-अर्थको, त्याग करके, अपने आप-सर्व सूत्रोंका अर्थ, और युक्ति, प्रमाण, उपमा, दृष्टांतोसेंसिद्ध करके, और भेदानुभेदसेभी-सिद्ध करके, दिखला देगी ?।। For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) सावद्याचार्य और ग्रंथोंका विचार. यह लिखना - उन्मत्तपणेका है कि, योग्य रितीका है ? सो तोवाचक वर्गही, परीक्षा - कर लेवेंगे ॥ फिर लिखती है कि-नंदी जीवाले, सूत्रोंके नामसे -ग्रंथ है भी, तो वह - आचार्य कृत- साल, संवत्, कर्त्ताका नाम लिखा है, इस कारण- प्रमाणिक नहीं है । यहभी विचारशून्या ढूंढनीजीका लेख विचारने, जैसाही है, क्योंकि - प्रथम - जितने जैनके विशेष प्रकार करके सूत्रों है, सोभी- भगवान् महावीर स्वामीजीके पीछे - ९८० वर्षे, "देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण " महाराजा वगैरह - अनेक आचायौने, एकत्र मिलकेही - लिखे हैं. तो साल, संवत्, तो सभी सूत्रों पैं मगटपणे है, और उस वख्तही अनेक आचार्योंने, मिलकर - एक कोटी, पुस्तकों को लिखवा के - उद्धार, कराया है. उन सबको जबनिरर्थक माने जावे, तब तो जैनमतकाही - निरर्थकपणा, हो जायगा. इस वास्ते यह लेखभी विचार शून्यपणेकाही है ? ॥ और अपना लेख जो - मूढपणे लिखा, सो तो प्रमाण, और महा पुरुषोंका लेख - प्रमाण नही, वेसा लेख लिखनेवालोंका छुटका कौनसी गतिमें होगा, जो महा पुरुषोंका अनादर करके, सर्व जगेपर अपair पंडितानीपणा दिखाती है | फिर लिखती है कि - जिस २ सूत्रमेंसे, पूर्वपक्षी - चेइय, शब्दको ग्रहण करके, मूर्त्ति पूजाका पक्षग्रहण करते है, उस २ का मैंने, सूत्र के संबंधसे- अर्थ, लिख दिखा या || पाठक वर्ग ! यह हमारी कई हुई समीक्षासे - विचार किजीये कि, सूत्र से संबंधवाला, ढूंढनीका किया हुवा अर्थ है कि-सर्व महा पुरुषोंसे निरपेक्ष होके, केवल अपनीही पंडिताईको प्रगट किई है ? | फिर लिखती है कि अपनी जूठी कुतर्कों का लगाना. और निंदा गालियोंका-देना नही किया है || देखिये इसमें भी ढूंढनीका भाइपणा कितना है कि वीतराग देवके तुल्य वीतराग For Personal & Private Use Only - Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधाचार्य और ग्रंथोंका विचार. (१४७ ) देवकी मूर्तिकी अवज्ञा करके-कभी तो लीखती है-जड पूजक, और कभी तो-पाषाणोपासक, और सर्व महापुरुषोंका लेख तो-गपौडे, ठहराकर, कहती है कि मैंने निंदा गालियां देना, नहीं स्वीकारा है, सो क्या इतने कहने मात्रसे-इनका भलेपणा हो जायगा ? ॥ फिर लिखती है कि-जूठ बोलनेवाले, और गालियां देनेवालेको, नोच बुद्धिवाला समजती हुँ । अब विचार करो कि-सर्व महा पुरुषों का वचनको-गपौडे गपौडे, कहकर-पुकारा यह तो सब ढूंढनीने सत्यही कहा होगा! और सिद्धांतसे सर्वथा प्रकारसे विपरीतपणे कुछका कुछ लिख मारा, सो भी इस ढूढनीकासत्यपणा ? और कलि कालमें, शासनके आधार भूत-पहान् २ आचार्योकोहिंसा धर्मी लिखे, सोभी इस दूंढनीकाअमृत वचन ? और गणधर महा पुरुषोंनेभी-सत्रोंमें ठाम ठाम-सैंकडो पृष्टोंपर, एसा लिखा है कि-जिससे ढूंढनीका आत्मीय स्वार्थभी सिद्ध नहीं होता है, सोभी ढूंढनीका-परम सत्य वचन ! इनका साध्वीपणा तो देखो ? । हमकोतो यह मालुम होता है कि-ढूंढनीने, जो बात नहीं करनेकीलिखी है, सोही बात-करकेही दिखलाई है क्योंकि-नतो वीतराग देवकी, परम प्रिय मूर्तिकी-अवज्ञा करनेसें हटती है । नतो गणधरादिक, महा पुरुषोंकी-अवज्ञा करनेसें हटती है ? मात्र कोइ एक प्रकारका उन्मत्तपणा हो जानेसें-बकवादही करती चली जाती है। सोतो हमारा लेखसें, वाचकवर्ग आपही-विचार कर लेवेंगे. हम बारबार-क्या लिखके दिखावेंगे? ॥ ॥ इति सावधाचार्य और ग्रंथोंका विचार समाप्तः ॥ For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) मूर्ति निषेधके-पाठो. ॥ अब ढूंढनी-जिन मूर्तिके निषेधमें, सूत्र पाठोंको-दिखाती है ॥ ढूंढनी-पृष्ट. १४२ से-लिखती है कि-सूत्रोंमे तो, धर्म प्रवृतिम-मूर्तिपूजाका, जिकरही-नहीं। परंतु तुह्मारे माने हुये-ग्रंथोंमेंही,निषेध है,परंतु तुह्मारे बडे सावधाचार्योंने-तुमको मूर्ति पूजाके पक्षका, हठ रूपी-नशापिला रखा है। फिर. ओ. १० से,भद्रबाहु स्वामीकृत-सोला स्वमके अधिकारसें-पंचम स्वप्नके फलमें-प्रथम पाठ लिखा है, इति प्रथमः ॥ फिर. पृष्ट. १४४ ओ. ११ से-महानिशीथ अध्ययन (३) तीसराका पाठ, इति द्वितीय।फिर,पृष्ट.१४७ विवाह चूलिया सूत्र, ९ वां पाहुडा, ८ वां उदेशाका पाठ, इति तृतीयः ॥ फिर. पृष्ट. १५० में-जिनदत्तसूारिकृत, संदेह दोलावली प्रकरणकी गाथा षष्ठी, सप्तमीका, पाठ. इतिचतुर्थः ॥ पृष्ट १५१ में, ढूंढनीका २४ अधिकारकी समाप्ति हुई.॥ समीक्षा-ढूंढनी लिखती हैं कि-सूत्रोमें तो, धर्म प्रवृत्तिमेंमूर्ति पूजाका जिकरही नहीं ॥ सोतो यहां तक किइ हुई हमारी समीक्षासेही विचारलेना । और विशेष यह है कि-जो अब बुद्धिमान गिने जाते है, सो अंग्रेजों तो, जगे जगेपर यही लिखते हैं कि-अपना ईश्वरोंकी-मूर्तिपूजाका मान,जो-जैनोने, और बौद्धोंने दियाहै, वैसा किसी भी मत वालोंने-नहीं दिया है । और आर्य समाजका संस्थापक-जो दयानंदजी है,सोभी-अपना प्रथम सत्यार्थ प्रकाशगंभी, लिख चुकेथे कि यह-मूर्तिपूजा, जैनोंसेही चली है, और उनके मानने मुजब-उनकी मूर्ति, सिद्धभी हो सकती है. परंतु दूसरोंकी-सिद्ध, नहीं होती है ॥ वैसा हमने गुरुमुखसेहीमुनाथा । और यह ढूंढनी है सो-केवल अपना परम पूज्य, वीतराग देवसेंही द्वेष भाव धारण करके-१ श्री महानिशीथ, २उवाई, For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्ति निषेध के पाठो. ( १४९ ) ३ उपाशकदशा, ४ ज्ञाता, ५ भगवती, आदि सूत्रों के जिनमंदिर, मूर्त्ति का, संक्षिप्तरूप मुख्य पाठार्थका, तदन विपरीतार्थ - लिखता हुई, किंचित मात्र भी विचार नहीं करती है कि मैं अपना थोथा पोथामें, अपनेही हाथसें- पृष्ट. ६१ में लिखती हूं कि हमने भी बडे बडे पंडित, जो विशेषकर - भक्ति अंगको, मुख्य रखते हैं, उन्होंनें - सुना है कि - यावत् काल - ज्ञान नहीं, तावत्काल मूर्त्तिपूजन है । और कई जगह लिखाभी देखनेमें आया है । तो अब -- वीतराग देवकी, मूर्तिपूजनका विपरीतार्थ में कैसे करती हुं ? क्या हमारे ढूंढक माईयोंके - हृदयमंसे, वीतराग देवकी भक्ति, नष्ट होगइ है ? जो ऐसें विपरीतार्थ करती है ? || फिर पूष्ट. ७३ में पूर्णभद्रादिक यक्षोंकी, पथ्थर से बनी हुई - मूर्तिपूजाको, सिद्ध करके अपने, भोंदू ढूंढकों, को--धन, दौलत, पुत्र, राज्य ऋद्धि सिद्धिको प्राप्त करवा देती है । तो पिछे जैनके मूल सिद्धांतोंकें - जिनपडिमा, अरिहंत चेइयाई, बहवे अरिहंत चेइय, आदि पाठोसे - तीर्थकरों के मंदिर, मूर्त्तिका, शुद्ध अर्थ करके, तीर्थकरोके - यक्ष यक्षणीही पाससें धन, दौलत, पुत्रादिक, की इछा - वाले ढूंढकों को वीतरागकी मूर्त्तिकी भक्ति करवायके, क्यों नहीं दिलाई देती है ? क्या ढूंढनीको तीर्थकरों की मूर्त्तिसें, कोई वैरभाव हुवा है ? ।।.. - • और वीतराग देवके, परमभक्त श्रावकोंकी, नित्य- देवसेवा करने का पाठ जो- “कयबालि कम्मा" केसंकेतसे, जैन सिद्धां तोंमें जगजगें आता है, उसमें अनेक प्रकारकी कुतर्कों करके, छेवटमें-भूत, यक्ष, पितर, दादेयांका अर्थ, करती है, और ते महा aant पास भी, वीतराग देवकी मूर्ति पूजाकी भक्तिको, For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) मूर्ति निषेधके-पाठी. छुडवायके, भूतादि पूजनेका कलंक भी चढाती है, और उन श्रावकोंके पर-मिथ्यात्वपणेका, आरोप रखती है, तो न जाने क्या इस ढूंढनीके-अंगमें, कोइ महामिथ्यात्व भूतका प्रवेश हुवा है ? अथवा भूत, यक्ष, पितरादिकोंमेसें-किसीने, प्रवेश किया है ? कारण यह है कि-जनके मूल सूत्रोंमें-जिनमूर्ति पूजनका पाठ, संक्षेपसें-किसी जगे-जिन पडिमा-किसी जगे-अरिहंत चेइयाणि ॥ के नामसे आता है उनका अर्थ, तदन विपरीत करके कोइ जगे तो-झानका, ढरको बतलाती है, और कोइ जगे परित्राजकका अर्थ करके दखलाती है ॥ और कोइ जगे पर-कामदेवकी मूर्तिकी-सिद्धि करके, दिखलाती है । और छेव. टमें-भगवानकी हैयातीके वख्तके, भगवान के परम श्रावकोंकी पाससें, वीतरागदेवकी-मूर्तिपूजारूप नित्य सेवा, छुडवायके, भूतादिक देवोंकीही, नित्य पूजा करवाती है, इससे सिद्ध होता है कि-ढूंढनी है सो जरुरही किसी भूतादिकके वशमें हुई है ! इसी लियेही कुछ विचार नहीं कर सकी है ॥ फिर भी कहती है किमूर्ति पूजाका-जिकर ही सूत्रोंमें, नहीं सो अब इनको-कौनसे दरजेपर, गिनेंगे कि-जिनको अपना घरकीभी खबर नहीं है । फिर लिखती है कि-तुह्मारे माने हुये ग्रंथों मेंही निषेध है, परंतु तुह्मारे बडे-सावधाचायाँने, तुझे मूर्ति पूजाका-नशा पिला रखा है. ॥ इसमें कहनेका इतनाही है कि-तुम ढूंढको, जब सनातनप का-दावा, करनेको जाते हो तब तुम्हारे बडे ढूंढकों कौनसी-कोटडीमें, छुपके बैठे थे, जो हमारे-बडेको निषेध करनेके लिये, ए. कभी खडा न रहा । और जो आज थोडे दिनसे, जन्मा हुवा-जेठ मल्ल ढूंढककी पिलाइ हुई नशामें चकचुर बनके, मनमें आवे सोही बकवाद कर उठते हो ? ॥ और जो-व्यवहार चूलिका सूत्र संबंधी For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलमेसें- पंचम स्वप्नका, पाठ. ( १५१ ) भद्रभाहु स्वामीकृत, सोला स्वप्नमेंसे - पंचम स्वमके पाठका अर्थ, लिखा है सो भी, उनका परमार्थ समजे बिना कुछका कुछही लिखा है, क्योंकि चैत्य द्रव्यका आहारक, भेषधारीको तो हम भी नालायकही गिनते हैं, । इसमें तुम-मूर्त्ति पूजनका - निषेध, क्या दिखाते हो ? जिसको जितना अधिकार शास्त्रकारने - दि.खाया होगा, सोही करना उचित होता है। अब इसमें तुम्हाराही लिखा हुवा सूत्र पाठ, और उनका अर्थ, लिखके, और इनकेपर समीक्षाभी करके, तुम्हारी - अज्ञानता दूर करते हैं, सो तुमको जो वीतराग देवके वचनका, विपरीत श्रद्धानसे- संसारका भय हो तो, विचार करके - शुद्ध श्रद्धानपर आजावेंगे, नहीं तो तुम्हरा किया हुवा कर्त्तव्यका फल, तुमही पावोगे, और हमको तो, सदाही-भगवंत भक्तिसे, परम कल्याणकी प्राप्तिही होनेवाली है. ॥ इति मूर्ति निषेध किंचित् विचार || अब भद्रबाहु स्वामिकृत सोला स्वप्नमैसे- पंचम स्वप्नका पाठ, और अर्थ, पृष्ट. १४२ से, - ढूंढनीकाही - प्रथम लिख दिखाते हैं, ॥ यथा- पंचमे दुवास्स फणी संजुत्तो, कण्ह अहि, दिट्ठो, तस्स फलं, तेणं दुवालरस वास परिमाणे- दुक्कालो, भविस्सर, तत्थकालीय सुयपमुहा सुर्या, बोछिज्जसंति चेइयं ठयावेइ, दब्बा हारिणो मूणी भविस्सर, लोभेन मालारोहण, देवल, उवहाण, उज्जमण, जिनबिंब पठावण, विहिउमाएहिं, बहवे तत्र पभावा पयाइस्संति, अविहि पंथे पंडिस्संति ढूंढनी काही - अर्थ - पांचवे स्वममें-- वाराफणी, काला सर्प देखा, तिसका फल-बारा वर्षी दुःकाल पडेगा । जिसमें कालिक सूत्र आदिसे, और भी बहुतसे सूत्र विछेद जायेंगे, तिसके पिछे 'चैत्य For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) पंचम स्वप्नका-पाठार्थ. १ स्थापना करवाने लग जायेंगे, द्रव्य ग्रहणहार--मुनि हो जायेंगे, लोभ करके मूर्ति के गलेमें -माला गेरकर, फिर उसका (मोल) करावेंगे, और- तप, उज्जमण, कराके--धन इकट्ठा करेंगे, जिन बिंब ( भगवानकी मूर्तिको ) प्रतिष्टा करावेंगे, अर्थात् मूर्तिके कानमें-- मंत्र सुनाके, उसे पूजने योग्य करेंगे, ( परंतु मंत्र सुनाने वालोंको, पूजें तो ठीक है क्योंकि- मूर्तिको मंत्र सुनानेवाला--मृत्तिका गुरु हुआ, और चैतन्य है, इत्यादि ॥ और होम, जाप, संसार हेतु पू. जाके-फल आदि बतावेंगे, उलटे पंथमें पडेंगे. ।। इत्यादि कहकर, मप्पदीपिका, विस्तार लेखका प्रमाण दिया है. ॥ इति ढूंढनीका लिखाहुवा सूत्र और पाठार्थ ।। समीक्षा-यद्यपि इस लेखपै-गप्पदीपिका समीरमें-उत्तर, हो गया है, तो भी-पाठक वर्गकी सुगमता के लिये, जो कुछ फरक है सो-लिख दिखाता हुं । देखिये कि-सिद्धांतमें जहां जहां "चैत्य" शब्द आता रहा उहां उहां तो, मंदिरका अर्थ-छोडनेके लिये ढूंढनीने उलट पलट करके, बेसंबंध-बकवाद करना, सरु किया। और इहांपै शीघ्रही " चैत्य " शब्दसे, मंदिरका अर्थ इनको मिल गया, हमतो योग्यही-समजते है, परंतु ढूंढनीजीका धिठाईपणा कितना है । खेर अब इस पाठमें, विचार यह है कि-मंदिर, मूर्तिको-बनवानेका, और पूजनेका--अधिकारी--केवल श्रावक वर्ग है । और माधु है सो-केवल भाव पूजाका अधिकारी है। परंतु यह निकृष्ट कालके प्रभावसे,अपनी साधुवृत्तिको छोडके, १ ढूंढनीको-चैत्य शब्दका अर्थ, ११२ से भी अधिक, जूठा मिल गया । मात्र मंदिर मूर्तिका अर्थ नहीं मिला। परंतु यहां पर, चैत्य स्थापना कहनसें " मंदिर स्थापना " ढूंढनीको-हम दिखा देते है, सो ख्यालकरके देख लेवें ॥ For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमस्वप्न पाठार्थका विचार. (१५३) कितनेक भेषधारी-पतित होके, यह नहीं करनेका भी काम-करनेको लग जायगे, सो कालकाही-प्रभाव दिखाया है। जब निः पक्षपात से-विचार करोंगे तबतो-ढढंकोमें क्या, और मंदिर मागियोंमें क्या-यह दोनोंही पक्षमें, पतित भेषधारी, जितने चाहते होंगे-इतनेही मिल सकेंगे ? मात्र फरक इतना है कि द्वंद्वको को दुकानदारी, अथवा दूसरी दूसरी प्रकारकी-ठगाईयां करनी पडती है । और मांदर मागीयोंमें, जो इस स्वमके पाठमें कहा है सो, करना पड़ता है। परंतु जो सबके वास्ते कलंक देते हो सो तो तुम ढूंढको,केवल महा मायश्चित्तकाही अधिकारी बनते । हो ? । अब पा. ठार्थसे भी कुछ तात्पर्य दिखाव ते. हैं, देखो कि-यह पंचम स्वाम,जो सर्पका हुवा है, इससे बारा वर्षी दुःकाल पडेगा, और कालिकादि सूत्रों से विछेद होंगे, और-चैत्यकी स्थापना, करवाके-द्रव्य ग्रह णहार, मुनि होजायगे, और लोभ करके--मालारोहण, देवल, उपधान, उज्जमण, जिन बिंव प्रति स्थापन, विधिओ आदि करके, बहुतसे भेष धारीओ-तप प्रभावोंको प्रकाशेंगे, और ऐसे आवधि पंथमें, पड जायगे ॥ ॥ अब इसमें विचार यह है कि-जो भेषधारी, लोभके वश होके-मालारोपण, देवल, उपधानादि-विधिओमें पडेंगे, सो अविधि पंथमें पडे हुये-गिने जायगे कि, सभीही दोषित गिने जायगे ? जैसे कि-जो साधुपणासे भ्रष्ट होंगे, सोई भ्रष्ट गिने जायगे कि-सभी भ्रष्ट गिने जायंगे ? ॥ अब इस लेखसे ढूंढकोंकी-सिद्धि हुई के, ढूंढकमतका पोकल जाहिर हुवा । जरा अंखियां खोलके देखो कि-जो मालारोपण, देवल, उपधान, उज्जमण, जिन विब ( मूर्ति ) (प्रतिमा स्थापना,) विगरे-कार्योंका विधिसे करना For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४), पंचमस्वम पाठार्थका विचार. चला आता है,उसको-लोभके वस होके,करनेकी-मना,किई है परंतुधर्मकी बुद्धिसे तो करना उचितही दिखाया है । और विधिसे तो करना-शास्त्रसे सम्मतही है । केवल तुम ढूंढकोही अपने आप जैन धर्मसें विपरीत होके विधिओं का भी विपरीतपणा करनेको चहाते हो परंतु यह सर्व प्रकारकी विधिमार्गका तो, तीन कालमेंभी विपरीतपणा होनेवाला नहीं है, और वर्तमान कालमें भी, जब तक वीर भगवान्का शासन रहेगा, तब तक यह विधिमार्ग भी रहेगा। विशेष इतनाही है कि-जो भेषधारी-पतित होगा, सोही-पतित, गिना जायगा । इसी वास्ते मूलपाठमें भी-( बहवे ) अर्थात् बहुतसे-पतित होंगे, वैसा कहा है, परंतु सभी ऐसा आवधि पंथमें कभी न पड़ेंगे। अगर तुम ढूंढको-अपने आप मनमें मान लेते होंगे कि-सब विधिवाले हमही रहें है, परंतु तुम तो मालारोषणही-नही समजतेहो, इसी वास्ते ही मूर्तिके गलेमें, गेरना लिखते हो ? ।। और न तुम्हारेमें-देवल है,न उज्जमण है,न जिन विंबकी स्थापना है,तो फिर तुम, विधिवाले कैसे बन सकोंगे ? । केवल जैनाभास स्वरूपके बने हुये हो ? क्योंकि-जहां यह विधि करने वाले है, उहाही-अविधिवाले होते है, परंतु तुम ढूंढको तो-कोईभी, रीतिविधिवाले नहीं बनते हो, इसी वास्ते कहते है कि तुम जैनाभास स्वरूपके बने हो! ॥ और जो यह कुतर्क किई हैं कि-मंत्रका सुनानेवाला-मूर्तिका गुरु, हुआ, सोभी अज्ञपणेही कोई है ! क्योंकितुम ढूंढकोको, व्याकरण पढानेवाला ब्राह्मणभी होता है सो और सूत्रादिक पढानेवाला श्रावकभी कभी होता है सो, तुम्हरा गुरु बन जायगा ! जबतो तुमको, और तुम्हारे सेवकोंकोभी, इछामि खमासमणकी साथ, वंदना उनकोंही करनी पडेगी ? तुमको किस वा For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यार्थसे - महानिशीथका, सूत्रपाठ. (१५) स्ते करते है ? क्योंकि तुम्हार में, ज्ञानकी योग्यता करानेवाला वही हुवा है | ऐसी कुत करनेसे कुछ तुमेरी सिद्धि नहीं हो सकती है. जो जिसका अधिकार होगा, सोही व्यवहार योग्य रहेगा. इत्थलमधिकेन. इति प्रथम पंचमस्वम सूत्रपाठार्थका विचार || अथ द्वितीय, महा निशीथ तृतीय अध्ययन संबंधी, पृष्ट. १४४ सें, ढूंढनीका लिखा हुवा सूत्र, और अर्थ - यथा सूत्रतहाकिल अम्हे, अरिहंताणं, भगवंताणं, गंध, मल्ल, पदीव, समयणोव लेवेण, विचित्त वत्थ बलि धुपाइ एहिं, पुजासकारेहिं, अणुदियहं 'पद्यवणं पकुवरण, तित्थुप्पणं करोमि, ! तंच गोणं तहत्ति, गोयमा समगु जाज्जा, । से भयवं केण अठेणं एवं बुच्चइ, जहाणं तंच गोणं तहत्ति समगु जाणेज्जा । गोयमा तयत्यागु सारेणं, असंयम बाहुल्लेणंच, मूल कम्मासवं, मूलकम्मा सवाउय अज्जवसायं पहुच बहुल्ल सुहा सुह कम्म पयडीबंधो, सब्व सावज्ज विरियागंच वय - भंगो, वयभंगेरणच आणाइकम्मं, आणाइकम्मेणंतु उमग्ग गामित्तं, उमग्ग गामित्तेणंच सुमग्ग पलायणं, उ१ पज्जु वासणं पकुव्वमाणा || ऐसा पाठ होना चाहिये. ।। २ करेमो ऐसा पाठ होना चाहिये. ॥ For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६) ढूंढनीकाही-सूत्र पाठार्य. मग्ग पवत्तणं. । सुमग्ग विप्पलोयणेणं च वढइणं महति अासायणा, तेण अणंत संसारय हिंडणं । ए एणं अठेणं गोयमा एवं वुच्चइ, तंच णोणं तहत्ति समणु जाणेज्जा ॥ ढूंढनीकाहि अर्थ लिखते हैं-तिम निश्चय कोइ कहे कि-मैं १अरिहंत भगवंतकी मूर्तिका, गंध, माला, विलेपन, धूप, दीप, आदिक विचित्र वस्त्र, और फल, फूल, आदिसे, पूजा, सत्कार, आदिकरके-प्रभावना करूं तीर्थकी उन्नति करता हूं, ऐसा कहनेकोहे गौतम ! सच नहीं जानना, भला नहीं जानना ।। हे भगवंत किस लिये आप ऐसा फरमाते हो कि-उक्त कथनको, भला नहीं जानना, हे गौतम ! उस उक्त अर्थके अनुसार, २असंयमकी दृद्धि होय, मलीन कर्मकी वृद्धि होय, शुभा ३ शुभ कर्म प्रकृतियोंका वंध होय, ४ सर्व सावद्यका त्याग रूप, जो व्रत है उसका भंग होय, १ यहांपर ख्याल करनेका है कि-महावीर भगवंतके विद्यमानमें भी, गंध मालादिकसे-अरिहंत भगवंतकी 'मूर्तिपूजाकी' प्रवृत्ति-हो रहनेपरही, गौतम स्वामीने-अपनी पूजाका (अर्थात् साधु पुरुषोंकी पूजाका) खुलासा कर लेनेके वास्ते, यह प्रश्न पुछा है । परंतु श्रावक तो सदा 'जिन पूजन करते ही चलेआते हैं । २ साधुओंकोही असंयमकी वृद्धि होय ॥ ३ जिनमूर्तिपूजामें शुभकर्मका बंध विशेष रहा हुवा है । ... ४ सर्व सावद्यका त्यागी जो साधु है उनकाही व्रतका भंगमाना है परंतु श्रावकको निषेध नहीं। For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानिशीथ सूत्र पाठका विचार. ( ११७ ) व्रत भंग होने से तीर्थंकरजी की आज्ञा उलंघन होय, आज्ञा उलंघ नसे, उलटे मार्ग के जाने से, सुमार्ग से विमुख होय, उलटे मार्गके जा से, सुमार्ग विमुख होनेसे, महा आसातना बढे, तिससे अनंत संसारी होय । इस अर्थ करके गौतम ऐसा कहता हूं कि, तुम पूर्वोक्त कथनको सत्य नहीं जानना, भला नहीं जानना, इति । अब कहो पाषाणोपासको - मूर्तिपूजा के निषेध करनेमें, इस पाठमें कुछ कसर - भी छोड़ी है जिसके - उपदेशकोंकोभी, अनंत संसारी कह दिया है । समीक्षा - पाठक वर्ग ! हम यहांतक जितना लिखान करके आये, उसमें अनेक प्रकारकी अशुद्धियां भी देखते आये, परंतु केबल तात्पर्य तरफ लक्ष देके, कुयुक्तियांकाही विचार किया है, परंतु इस जगोपर सूत्रका पाठ, और अर्थ, प्रथमसेही बेढंगा देखके, विचार करना पडता है सोभी तात्पर्यकेही लिये करके दिखाता हूं, परंतु दोष दृष्टिसे विचार करनेको फुरसद नहीं लेता हूं. तहाकिल अम्हे, इहां - अम्हे, जो पद है सो अस्मदूका बहु वचन है । तथाच हैमसूत्रं - [ अम्हा अम्हे - अम्हो मो वयं मे जसा . ] वृत्तिः -- अस्मदो जसा सह - एते षडादेशा भवंति ॥ प्राकृत व्याकरणका तृतीय पादे, सूत्र १०६ नंबरका है || अब इस कर्त्ता की क्रियाभी बहु वचनमेंही होनी चाहिये सो-करेमि, एक वचन रूपसे है, क्योंकि - अस्मद् प्रयोगका वह वचनमें क रेमो, क्रिया होवें - तबही वाक्यार्थ हो सकता है । इस वास्तेतित्थुपणंकरेमो, ऐसा पाठकी जरूरी है, क्योंकि अम्हे, यह कती बहु वचन रूप होने से, इनकी क्रियाभी बहु वचन रूप-करेमो, ही होनी चाहिये । तो अब सूत्रार्थसे जो संबंध ૧ १ तथाचसूत्रं --- तृतीयस्य मो, मु, माः ॥ त्यादीनां परस्मैपदा त्मने पदानां तृतीयस्य त्रयस्य संबंधिनो, बहुषु वर्त्तमानस्य वचनस्य For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) महा निशीर्थ सूत्रपाठका विचार. लगता है, सो हम लिखके दिखावते हैं, ॥ यहां गौतम स्वामी-भगवंतको प्रश्न करते हैं कि--हे भगवन् तथा, अ. थात्--जैसे गृहस्थ--श्रावक वर्ग, जिनपूजा करते हैं तैसे, निचय करके हम-साधु है सो, अरिहंत भगवंतोंकी मूर्तिको-गंध,माला, प्रदीप, विलेपन, विचित्र वस्त्र, बलि, धूपादिकसे-पूजा, ‘सत्कार, करके दिन दिन प्रतें पर्युपासना करते हुए-तीर्थ प्रभावना करें! । भगवंत जबाब देते हैं कि-हे गौतम ! यह बात साधुको योग्य नहीं समजनी. । फिर गौतम स्वामी पुछते हैं कि हे भगवंत ! किस वास्ते यह बात योग्य नहीं ?। फिर भगवंत कहते हैं कि-हे गौतम ! तदर्थानुसारसे असंयमकी बहुलता और उनकी बहुलता करके मूल कर्मका-आश्रव होता है, ? और मूल कर्मका आश्रवसे-और अध्यवसायके योग मिलनेसे, बहुत-शुभाशुभ कर्म प्रकृतिका बंध होता है. । तीनसे सर्व सावध-व्रतका भंग होय, अर्थात् साधुपणेके-व्रतका भंग होय । और साधुपणेके व्रतका भंग होनेसे-आज्ञाका अति क्रमण होय । और आज्ञाका अतिक्रमणसें उन्मार्गपणा हुवा | और सर्व सावद्यका त्यागरूप उन्मार्गपणेसे, सुमार्गका नाश होय । और ते साधु धर्मका उन्मार्ग प्रवर्तन से, और ते साधु रूप-सुमार्गका प्रलोपन करनेसें, महा आसातना बढ़े, तिससे अनंत संसार फिरना पडे. ।। इस वास्ते हे गौत्तम ? साधुओंको यह काम अछा नहीं समजना.॥ इसमें विचार यह है कि-जहां-अम्हे का अर्थ, हम साधु करना था, उहां ढूंढनीने-कोइ कहे, यह विपरीत अर्थ किया है । परंतु ऐसा अर्थकरनेका है कि-है भगवन्-हम साधुओं, गंधादिक. स्थाने, मो, मु, म, इत्येते आदेशा भवति ।। इस वास्ते "करेमि कभी न बनेगा. For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा निशीथ सूत्र पाठका विचार. (१५९) से-अरिहंत भगवंतोकी पर्युपासना करके ? तीर्थकी प्रभावना करें ! (इस सूत्रमें-प्रतिमाका बोध अरिहंत भगवंतका शब्दसेंही कराया है परंतु पथ्थर पहाड कहकरके नहीं कराया है-देखो ख्याल करके) तब भगवंतने साधुओंकोही-यह कार्य करणेका निषेध किया है। क्योंकिगंध, मालादिकसे, मूर्तिको उपासना करनेसें, साधुओंको-असंयमकी वृद्धि होय । और जो सर्व प्रकारसे-माणातिपात विरमण व्रतसे मूल कर्मका-त्याग किया है, उस मूल कर्मका-आश्रवकीभी प्राप्ति होय | और यह मूल कर्मका आश्रवसे-और अध्यवसायकेयोगसे (अर्थात् परिणामकी धारासें ) बहुत प्रकारकी-शुभ प्रक. तिर्योका, और अशुभ प्रकृतिर्योकाभी बंध होय, इस वास्ते, सर्व सावद्यका त्यागीयों को-व्रतका भंग होय । क्यौं कि--साधुओने, शुभ, और अशुभ, दोनों प्रकारकी, कर्म प्रकृतियांका नाश करनेको, व्रत लिया है, उस व्रतका भंग होता है । जैसे कि-अनेक प्रकारका दान धर्म-गृहस्थ करते है तैसे साधु-नही करते है, इसी प्रकारसें साधुओंको पूजाका भी निषेध है । और यह-सर्व प्रकारका त्याग रूप व्रतका भंग करनेसे-भगवंतकी आज्ञाकाभी, उलंघन होता है । और भगवंतकी आज्ञाका उलंघनसे-उलटे मार्गमें जानेका होता है । क्यों कि-जो सर्व सावद्यका त्याग करके-साधु व्रत, अंगीकार कियाथा, उसको छोडके-फिर-देश वृत्तिका, अधिकारको पकडना, यही-उलट मार्ग होता है । और यह-उलट मार्ग चलानेसे, जो साधु व्रत रूप-सुमार्ग है, उसका नाश होता है, और उलटेही मार्गकी प्रवृत्ति हो जाय । और सुमार्गका अर्थात् साधुमागेका सर्वथा प्रकारसें-नाश होय, और यह साधु व्रत रूप-सु. मार्गका नाश करनेसे महा आशातना प्राप्त होय ! ऐसा उ. लद मार्ग चलानेसे-साधुओंको अनंत संसार-भ्रमण करना पड़ें For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) महा निशीथ सूत्र पाठका विचार. इस वास्ते यह गंधमालादिसें, मूर्त्तिकी पूजा करनी साधुओं को उचित नहीं समजनी. - 5 पाठक वर्ग ! देखिये - इस सूत्र पाठसे - श्रावक वर्गकी पूजाकी सिद्धि हुइ के निषेध हुवा ? जो कभी श्रावक वर्गकी पूजाका-निषेध करना होता तो, सर्व सावयका व्रतवालोकोही क्यों ग्रहण करते, ? और शुभाशुभ कर्म प्रकृतिका -बंध है सो, साधुओं कोही इच्छित नही है, क्योंकि शुभ और अशुभ, यह दोनों प्रकारकी कर्म प्रकृतियांका नाश करनेकोही साधु उद्यत हुवा है, इस वास्तेगंध, मालादिकसे, पूजाका अधिकारी - साधु नहीं बन सकता है ॥ और गृहस्थ हैं सो-छकाय जीवोंका आरंभही सदा रहा हुवा है, इसकारण से - सदा अशुभ बंधन कोही बांध रहा है, उन श्रावकोंको - जिन मूर्ति पूजनसे बहुत प्रकारकी - शुभ कर्मकी प्राप्ति करने काही मार्ग योग्य है। क्यों कि इस जिन पूजासें शुभ कर्मकाही बंध अधिक होता है, इस वास्तेही सूत्रमें - प्रथम बहुत शुभ पदको रखके, पिछे से अशुभ पदको ग्रहण किया है। और जो गृहस्थाश्रममें रह कर केजिन मूर्ति पूजन का त्याग करता है, सो दो सर्वथा प्रकारसे मलीन रूप जो कुछ वीतराग देवकी भक्ति करने से - शुभ कर्मकी प्राप्ति हुवा, होनेवालीथी, उसीकाही त्याग करता है | और साधुओको-- पुष्यादिक पूजन करनेसे, जितना कर्मका बंध, अर्थात् संसारका भ्रमण रूप होता है, उतनीही श्रावक वर्गको, मूर्त्ति पूजाकी -अवज्ञा करनेसेही कर्म बंधकी अधिकता होगी । क्योंकि श्रावकका - धर्म, और साधुका धर्म, यह दोनों - भिन्न भिन्न प्रकारके हैं. । - ● 9 जैसे कि धर्मके स्थानक बंधाने, समरावने, मृतक साधुको गत "" करना, साधु वृत्ति ग्रहण करनेवालेका - महोत्सव करना, साधर्मीक भाईयांका- खान पान से आदर करना इत्यादि अनेक प्रकार के गृ For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा निशीथ सूत्र पाठका विचार. (१६१) हस्थ संबंधी धर्मके कार्यमें-साधु अधिकारी नहीं है,और वह साधु अनेक प्रकारके आरंभ समारंभवाले कार्यको करें तो-मार्ग भ्रष्टभी गिने जायगा । परंतु श्रावक है सो तो-शक्तिमान हुवा ते कार्यको नही करनेसें ही निंद्याकापात्र गिना जाता है. ॥ इस वास्ते, जो जिसका अधिकारी होगा-सोई व्यवहार योग्य माना जायगा, और लाभकी प्राप्तिभी-उसीसे ही होगी, परंतु विपरीत विचारसे तो कभीभी लाभकी प्राप्ति हो सकती नहीं है. । शरीरकी शोभादायक गहना है सोभी, योग्य स्थानपै पहना हुवाही शोभादायक होगा, और अयोग स्थानपै पहन लेंगे सो तो, केवल सर्व व्यवहारसे अज्ञ, हांसीकाही पात्र बनेगा, तैसें, तुम ढूंढको जिन मूर्तिको त्यागके इस भवमें, और परभवमें भी हांसीके पात्र मत बनो ।। और यह मूर्तिपूजन-निषेधका पाठ, क्या इस ढूंढनीकोही हाथ लग गया है, ? क्या और किसी आचार्यने पढा नही होगा ? हां बेशक, पाठ तो पढाही होगा परंतु तुमेरे ढूंढकोकी तरां विपरीत अर्थ नही स. मजे होंगे ? इस वास्ते इस पाठको जूठा चर्ची अपना और अपने आश्रितोंके धर्मका नाश करनेका उद्यम नहीं किया है ? तुमने इतना विशेष किया है । और नियुक्तिका अर्थमें, जो ढूंढनीने पृष्ट. १३५ से-मन कल्पित अर्थ करनेका दिखाया है, सोभी अपना, और अपने आश्रितोंके धर्मका नाश करनेकाही दिखाया है । इसी कारणेसेही बावीस टोलेमें-अनेक प्रकारका तो प्रतिक्रमण, । और विचित्र प्रकारकी-क्रियाओ, । और विचित्र प्रकारकाही-उपदेश करनेकी पद्धतिआं, हो रही है । और कोइ पुछे तब-उत्तरमें, परंपरा वताना । और सूत्रसे मीलती २ बात हम मानते है वैसा कहकर, कोईभी प्रमाण बताना नहीं । और यद्वा तद्वा कहकर-लो. कोंको बहकाना । और मनः कल्पितही अर्थ-ठोकते चले जाना । For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) अथ तृतीय विवाह चूलियाका. और सब पंडितोंको कुछ नही समजके-अपने आप पंडित मानी बन जाना । ऐसे विपरीत विचारवालोको तो साक्षात् तीर्थकरभी न समजा सकेगे । कहा है कि-ज्ञान लव दुर्विदग्धानां ब्रह्मापि तंनरं न रंजयति-तैसेंही हमारे ढूंढकोंके हाल हो रहे है ॥ और ढूंदनीने-इस पाठमेसें, उपदेशकोंको-अनंत संसारी ठहराया .सो तो सूत्रमें-एक अक्षरका गंध मात्रसेंभी नहीं है, तो पीछे ढूंढनी कैसे लिखती है ? परंतु जिसनेजो मनमें आवे सोइ बकना. ऐसेंको कहनाही क्या ? ॥ . ॥ इति महा निशीथका-द्वितीय पाठः॥ ॥ अथ तृतीय विवाह चूलियाका, ९ वा पाहुडा, और ८ वा उद्देशाफा, पाठ जो ढूंढनी पृष्ट. १४७ से-लिखती है, सोई ह. मभी लिखके दिखावते है.. ॥ कइ विहाणं भंते, मनुस्स लोए-पडिमा, प ण्णत्ता, गोयमा अणेग विहा पण्णत्ता । उसभा दिय वढमाण परियंते, अतीत, अणागए, चौवीसंगाणं तिस्थयर पडिमा । रायपडिमा । जरक पडिमा । भूत पडिमा । जाव धूमकेउ पडिमा. ॥ जिन पडिमाणं भंतेबंदमाणे, अच्चमाणे । हंता गोयमा वंदमाणे, अच्चमाणे॥ जइणं भंते जिण पडिमाणं-वंदमाणे, अच्चमाणे-सुय धम्मं,चरित्त धम्म,लभेजा,गोयमा णोणठे समठे। से केणठेणं भंते एवं वच्चइ, जिन पडिमाणं-वंदमाणे अच्चमाणेसुय धम्मं, चरित्त धम्म, नोलमेजा। गोयमा पुढविकाय For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीय विवाह चूलियाका. ( १६३ ) हिंसइ, जाव तस्सकाय हिंसइ, आउकम्म वज्जा सत्तकम्म पगडीउ सढिल बंधणय निगड बंधणं करिता, जाव चाउरंत कंतार अणु परियहयंति, साया वेयणि ज्जं कम्मं भुज्जो २ बंधइ, । से तेणठेणं गोयमा - जाव नोलभेजा ॥ - अब ढूंढनीकाही अर्थ - लिखते है-हे भगवन् मनुष्यलोकमें, कितने प्रकारकी " पडिमा " ( मूर्ति ) कही है। गौतम अनेक प्रका रकी कहीं हैं ऋषभादि महावीर ( वर्द्धमान) पर्यंत, २४ तीर्थकरोंकी । अतीत, अणागत, चौवीस तीर्थकरोंकी पडिमा । राजाओकी पडिमा । यक्षोकी पडिमा । भूतोंकी पडिमा | जाव धूमकेतुकी पडिमा || हे भगवन् जिन पडिमा की वंदना करे, पूजा करे, हां गौतम - वंदे, पूजे ॥ हे भगवन् जिन पडिमाकी - वंदना, पूजा, करते हुए - श्रुत धर्म, चारित्र धर्मकी, प्राप्ति करें, गौतम नहीं, किस कारण ! हे भगवन् ऐसा फरमाते हो कि जिन पडिमा की वंदना पूजा करते हुये, श्रुतधर्म, चारित्रधर्मकी प्राप्ति नहीं करे । गौतम पृथ्वी काय आदिछः कायकी हिंसा होती है, तिस हिंसासे, आयु कर्मवर्ज, सात कर्मकी प्रकृतिके ढीले बंधनोंको, करडे बंधन करें, ता ते ४ गतिरूप संसार में - परिभ्रमण करे, असांता वेदनी वारवार बांधे, तिस अर्थ करके हे गौतम-जिन पडिमा के पूजते हुए धर्म नहीं पावे. इति ॥ इसमें भी " मूर्ति पूजा " मिथ्यात्व और आरंभका कारण होनेसे - अनंत संसारका हेतु कहा है. ॥ || समीक्षा - पाठक वर्ग ! यही ढूंढनी - वीतराग देवकी - वैरिणी बनी gs, अपनी थोथी पोथीमें- जो मनमें आया सोही लिखती चली आई देखो. पृष्ट. ४८ में तो लिखा कि- मूर्तिको वंदना करना, For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) अथ तृतीय विवाह चूलियांका. कदापि योग्यही नहीं || फिर पृष्ट. ६९ में लिखती है कि सम्यक्क दृष्टिभी पूजते है मिथ्या दृष्टि भी पूजते है। फिर पृष्ट. ७१ में लिखती है कि सूत्रों में मूर्तिका पूजन- सम्यक्क व्रतादिमें कही नहीं चला। फिर पृष्ट. ७५ में - मंदिरका पूजन - सम्यक्क धर्मका लक्षण होता तो सुधर्मा स्वामी - अवश्यही लिखते । फिर पृष्ट ७६ में देश, नगर, पुर, पाट नमें - कत्रिम प्रतिमाका अधिकारही नहीं || फिर पृष्ट ९६ में - तीर्थकर देवकी मूर्तिका - पाठही नहीं ।। फिर पृष्ट १२० में - जिन मूर्तिको मस्तक जूकाना, मिथ्यात्व है | फिर पृष्ट १२८ - मस्त हुई लिखती है कि क्या मंदिर, मूर्ति पूजा जैन सूत्रोंमें सिद्ध हो जायगी || वैसे वैसें, जो मनमें आया सोई बकवादही करना सरु किया, परंतु एक लेशमात्र भी विचार करनेमें नहीं उतरी है। सो न जाने इनके आत्म प्रदेशमें मिथ्यात्व कैसे गाढपणे व्याप्त हुवा होगा ? जो सिद्धांतका- एक अक्षर मात्रकाभी, विचार नहीं कर सकती है ? ॥ खेर, जैनका सिद्धांत यह है कि प्रथम - सम्यक्त्वकी प्राप्ति होये बाद, पिछे ज्ञानकी प्राप्ति, और पीछे चारित्रकी प्राप्ति, उनके बाद जीवोंको - मोक्षकी प्राप्ति होती है. । ययाच सूत्र, - सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः इति तस्वार्थ महा सूत्रं । इहां कहनेका प्रयोजन यह है कि सम्यक्त्वधर्मकी प्राप्ति करानेका निमित्त भूत, भव्य जीवोको - वीतराग देवकी मूतिमी है ? और अभयकुमारने अनार्यदेशमें मूर्त्तिको, भेजकरके-आ कुमारको सम्यक्त्वकी प्राप्ति करानेका लेखोभी है, सोई हेतु शात्रकार - जगें जगें दिखाते भी आते है । और यह ढूंढनीभी-लिख ती ही है | परंतु विशेष यह है कि बेभानमेही बकवाद करती चली जाती है देखो पृष्ट १३१ में ढूंढनीभी लिखती है कि मूर्ति 1 For Personal & Private Use Only " Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथं तृतीय विवाह चूलियाका. (१६५) पूजकोने-मंदिर, मूर्तिका-पूजना, सम्यक्त्वकी पुष्टि मानी है, और जिनाज्ञा मानी है । सोई बात इस विवाह चूलियाके पाठसे-संपूणपणे सिद्ध है । परंतु हमारे ढूंढक भाईयोंकी मतिही मूढ बन जाती हैं, सो विचार नहीं कर सकते है. ॥ अब सूत्र, और अर्थके साथ, विचार करके दिखावते है. ॥ प्रथम केवल मूत्तिके विषये ही-गौतम स्वामीजीने-भगवान्को पुछा कि-हे भगवन् मूत्ति" कितने प्रकारकी होती है। उनके जूबाबमें भगवान् अनेक प्रकारकी मूर्ति कहकर-पथम, ऋषभदेव आदि २४ तीर्थकरोकी-मूर्तियां वर्तमानकाल आश्रित होके दिखाई । और अतीत काल आश्रितभी २४ तीर्थकरोंकी "मूर्तियां" दिखाई । और जो अनागत कालमें होनेवाले २४ तीर्थंकरो है, उनकीभी " मूर्तियां” दिखाई । पिछे राजादिककी-मत्तियांभी दिखाइ. ॥ अब विचार करो कि-तनिाही कालमें, वीतरागदेवकी " मूर्तियां " की स्थापना सिद्ध हुई या नही ! ॥ फिर, तीर्थकरोंकीही प्रतिमा ओंके वंदना, पूजाका, प्रश्न किया कि-हे भगवन्, जिन पडिमाको. वंदन, और पूजन, करना। उसके उत्तरमेभी भगवंतने यही जूबाब दिया कि-हंता गोयमा, वंदेंभी, और पूजेभी । और दूंढनीभी इसका अर्थ यही लिखती है, परंतु मिथ्यात्वके नशेमें विचार नहीं आया है. ॥ इसमें विचार यह है कि-जब भगवंतने, तीर्थकरोंकी मूर्तियोंको वंदना, करनेकी, और पूजन, करनेकी आझा फरमाई तो चतुर्विध संघके बिना-वंदन, और पूजन, दूसरा कौन करेगा ? और पिछे श्रावकोंके विना, वीतराग देवकी मूत्तियांका " पूजन" भी दूसरा करनेवाला कौन होगा ? ॥ और द्रौपदीके पाठमें, " जिन मूर्तिको ” उठाने के लिये जो मरडामरदी करके-कामदेवकी मर्तिकी सिद्धि करनेको गई हैं सो, उन्मत्तपणा For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) अथ तृतीय विवाह चूलियाका. किया है या नही ? क्यों कि यह विवाह चूलीयाके पाठसे तो "जिन " अर्थात् ऋषभादिक चोवीस तीर्थकरों के नाम से " मूर्त्तियां " का कथन होने से, दूसरा- कामदेवका अर्थ, कभी नही सिद्ध हो सकता है और सूत्रका अर्थके अंतमें, ढूंढनी लिखती है कि जिन पडिमाके पूजते हुए - धर्म नहीं पावें, इति हसे भी - मूर्तिपूजा, मिथ्यात्व, और आरंभका, कारण- होने से, अनंत संसारका हेतु कहा है | अब इसमें भी देखीये - ढूंढनीजीकी - पंडितानीपणा - जब ऋषभादिक ७२ तीर्थकरोंकी - प्रतिमा होनेका, मन - गौतम स्वामीने किया तब तीर्थंकर महावीर भगवंतने भी यही कहाके - हा गौतम होती है । फिर तीर्थकरोकीही प्रतिमाको वंदन, पूजनका दूसरा प्रश्न किया, तबभी भगवंतने - यही उत्तर दिया, कि - हा - गौतम-बंदें, और पूजें । तोपिछे यह ढूंढनी - मिथ्यात्व और अनंत संसारका हेतु कैसें कहती है ? ॥ क्योंकि, धर्म है सोतीन प्रकारका है -१ सम्यक्त्व धर्म, २ श्रुत धर्म, और ३ चारित्र धर्म | इनतीनो धर्ममेसे, जो प्रथमका सम्यक्त्व धर्म हे उनकी प्राप्तिका हेतुमें मूर्त्तिका, वंदन, और पूजन, विषये प्रश्न करनेका प्रगटपणे मालूम होता है, उसकी तो भगवंतने हाही कही है, और जो तीसरा प्रश्न -*श्रुतधर्म चारित्र धर्मकी प्राप्तिके विषयका था उसकी ही प्राप्ति होनेकी जिन मूर्त्तिका वंदन पूजनसें ना कही है, कारण- श्रुत धर्म, और चारित्र धर्मका अधिकारी - साधु पुरुष है, और साधुको मूर्ति पूजनका - सर्वथा निषेध है । वही इस पाठसें दिखाया है तो पिछे ढूंढको मिथ्यात्वी है कि मूर्तिको वंदन, पूजन, करनेवाले मिथ्यात्व है ! हे ढंढनी तूं अपनाही लेखका वि * श्रुतधर्म-गुरुमुख सिद्धांतों का पठन करनेसें, और चारित्रधर्म-अनेक प्रकारकी इछा वृत्तिको, रुकनेसे ही -माप्त होता है, इस वास्ते इनका अधिकारी मुख्यत्वे - साधु पुरुष ही, होता है ॥ For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीय विवाह चूलियाका. (१६७) चार कर कि-जब वीतराग देवकी प्रतिमाका वंदन, पूजन, मिथ्या त्वका हेतु होता तो,भगवंत वंदन पूजन करनेकी हा-किस वास्त कहते ? हां जो साधु पणासे भ्रट हो के, यूं कहें कि मैं तो इस मूर्तिका, वंदन, पूजनसे, मेरा-श्रुत धर्म, और चारित्र धर्म, की आराधना करता हूं, तब तो बेशक, सो साधु भवभवके आटेमें पडसकता है । नहीं तो तुम ढूंढकों ही,वीतराग देवकी,आज्ञाके भंगसें, और सम्यक धर्मकी प्राप्तिका हेतुरूप वीतरागी मूर्तिकी अवज्ञा करनेसे अनंत संसारके भ्रमणमें पडे हुये है ॥ परंतु सम्यक धर्मकी प्राप्तिका कारण रूप अथवा आत्माको निर्मलताका कारणरूप “जिनमूर्तिका"वंदन, और पूजन, अपनी अपनी योग्यता मुजब, करनेवाला-चारो प्रकारका संघ तो, संसार समुद्रके-किनारेपर ही, बैठा है । क्योंकि-जी वोंको प्रथम-सम्यक धर्मकी-प्राप्ति होनी, सोई संसार समुद्रका कि. नारा, शास्त्रकारोंने-वर्णन कियाहै । जिसको सम्यकी प्राप्ति नही, उनको-एकभी धर्मकी प्राप्ति नहीं, और उनको मोक्षभी नहीं । क्योंकि-तीर्थकरोंका जीबोकोभी-जहांसें सम्यककी प्राप्ति हुइ, उहाँसेंही भवोंकीभी गिनती हुईहै । इस वास्ते हठवाद छोडके, तुम तुमेराही लेखका विचारकरो और रस्तैपर आ जावों केवल कुतर्कों करके, और अपना जन्म जन्मका विगाडा करके, अपना आत्माको, अनंत दुःखकी जालमें, मत फंसाओ. इत्यलं विस्तरेण ॥ ॥ इति तृतीय विवाह चूलिया सूत्रपाठकी समीक्षा ॥ ॥ अब चतुर्थ जिनदत्त सूरिकृत संदेह दोलावली प्रकरण ग्रंथकी--पष्टी,सप्तमी, गाथाकाभी विचार करके दिखावते है ॥ प्रथम ढूंढनीजीकाही लिखा हुवा पाठ और अर्थ लिखते है पृष्ट. १४९ में से-१५१ तक देखो-तद्यथा । For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८ ) अथ तृतीय विवाह चूलियाका. गडडरिय पवाहओ,जे एइ नयरं दीसए बहुजणेहिं ॥ जिणगिह कारवणाइ सुत्त विरुद्धो असुद्धोय, ॥६॥ अस्यार्थः भेडचालमें, पडेहुये लोग, नगरोंमे-देखनमें आते है कि, (जिनगिह) मंदिरका बनवाना, आदि शब्दसे-फल, फूल, आदिक से पूजा करनी, यह सब सूत्रसे विरुद्धहै, अर्थात् जिनमतके नियमोंसे-बाहर है, और ज्ञानवानोके मतमें-अशुद्ध है ॥ ६ ॥ ___ सोहोई दव्वधम्मो, अपहाणो अनिव्वुई जणइ सद्धो धम्मो बीओ, महिओ पडिसोय गामीहिं. ॥ ७ ॥ ____ अर्थः-द्रव्यधर्म, अर्थात् पुर्वोक्त द्रव्य पूजा, सोप्रधान नहीं कस्मात् कारणात् किस लिये कि-मोक्षसे परांग मुख, अनुश्रोत्र गामी, संसारमें भ्रमाणे वालाहै, आश्रवका कारणसे ॥ दूजा भावधर्म, अर्थात्-भावपूजा, सो शुद्ध मोटा धर्म है. कस्मात् कारणात्, प्रतिश्रोत्रगामी,अर्थात् संसारसे विमुख,संवर होनेंते ॥ अब कहोजी, पहाड पूजको, जिनदत्त सूरिने-मूर्तिपजाके, खंडनमें, कुच्छ बाकी छोडी है । इत्यादि. समीक्षा-पाठक वर्ग ! इस ढूंढनीजीको-जो कुच्छ दिखता है, सोई-उलटा दिखताहै, नजाने इनके हृदयपरभी,क्या पाटा चढ गया होगा! जो कुच्छभी दिखताही नहीं है। क्योंकि-जो जिनदत्तसूरिजी महाराज, दादाजीके नामसे-सर्वजगें प्रसिद्ध है, और अनेक स्थलमें, दादाजीकी वाडी, दादानीकी वाडी, इस प्रसिद्ध नामसें, स्थानभी बने हुये है, और जिनकी पादुकाको अभीतक अनेक भक्तजन पूज रहै है, और जिनोने मारवाड आदि अनेक देशोंमे फिरके और रजपुत आदि अनेक जातों को प्रतिबोध करके, लाखो मनु.. १ इस गाथामें, अशुद्धपणाहै, जैसीहै वैसी लिख दिईहै For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह दोलावली में महा निशोथ साक्षी. ( १६९ ) arrai, श्रावक धर्ममें, दाखल किये है. । और अनेक जिन मंदिरों की, स्थापना करवाय के, प्रतिष्टाओ भी करवाई है सो, तैसे प्रभाविक जिनदत्तसूरिजी महाराजकी दो गाया, लिखके, यह ढूंढनीजी अ पना ढूंढक धर्मको स्थापित करनेको जाती है, सो यह कैसें बन सकेगा ! क्यौं कि, जो पिछे के, तीन पाठोमें विचार दिखाया, सोई विचार इस गाथामें दर्शाया है, तो अब इसमें ढूंढनीजीकी सिद्धि कहांसे हो गई ? जो पहाड पूजकोंका संबोध न देके - उपहास करती हुई, अपनी तुछताको दिखाती है ? और कुछ भी अपनी मर्यादाको समालती नहीं है ? क्योंकि - सिद्धि' तो जो होनेवाली है सोइ होगी, कुछ तुमेरा निंदनिक मार्गकी सिद्धि नही होनेवाली है, किस वास्ते जूठा, तरफडाट करती है ? ॥ | अब जो गाथाका तात्पर्य है, सो हम लिख दिखावते हैं बहुत लोकोंकी साथ, भेड चालसे, जो चलनेवाले है - सो भी नगर में दिखने में आते है । मंदिरका बनवाना आदि, सूत्र विरुद्ध और अशुद्ध है || ६ || ॥ ॥ || अब सप्तमी गाथाका अर्थ- जो मंदिरका बनवाना आदि है, सो - द्रव्यधर्म है, अप्रधान है, निर्वृत्ति जो प्रोक्ष, उसका देनेवाला नही है | और शुद्धरूप दूसराज - भाव धर्म है सो, प्रति श्रोत्रगामिभिः साधुभिः । अर्थात् द्रव्य धर्मसे उलटे जानेवाले, साधुने - सेवित किया है ॥ ७ ॥ || अब इसमें विशेष यह है कि- तीर्थंकर भगवानकी पूजा, दो श्रोत्रगामिहिं, कर्त्ता है, १ इस गाथा के अर्थ में, ढूढनी, प्रति उनको, भाव धर्मरूप कर्मका, विशेषण करके, विपरीत अर्थ करती है. For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७०) संदेह दोलावलीमें-पहा निशीथ साक्षी. प्रकारसें, महानिशीथ सूत्रमें दिखाई है। तथाच सूत्र-ते सिय तिलोग महियाण, धम्म, तिथ्यंकराणं जग गुरुणं, १ भावच्चण, २ दव्यच्चण, भेयेण-दुहचणं, भणियं ! १ भावञ्चण चारित्ताणुठाण, कठुग्ग घोर तव चरण ॥२ दबच्चण, विरयाविरय शील पूया सकारदाणाइ । तो गोयमा एसथ्थे परमथ्थे । तंजहा, १ भावच्चण मुग्गवि. हारयाय । २ दव्यच्चण तु जिन पूया, । पढमा जईण । दोन्निवि गिहीण । पढमच्चिय पसथ्था ॥ भावार्थ-तीनलोकसें पूनित ऐसें धर्मतीर्थकर, जगत् गुरुका " अर्चन " दो प्रकारका कहा है ॥ एक-भावार्चन । दुसरा-द्रव्यार्चन ॥ १ भावार्चन यह है कि-चारित्रानुष्टान, कष्ट, उग्र घोर तप चरण । और २ द्रव्यार्चन यहहैकि-श्रावकपणा शील, पूजा, सत्कार, दानादिक, इस हेतुसे, हे गौतम यही अर्थ परमार्थ है कि सो १ भावार्चन-उग्र विहारियोंके तांई । अर्थात् कष्ट करनेवालोंके तांइ करणेका है २ द्रव्यार्चन-जिन पूजा है । प्रथमा अर्थात् भावपूजा-गतिको । दोनोंभी गृहीकों । पहिली प्रशस्त है । अब इस पाठसे, समजनेका यह है कि-जो द्रव्यार्चन-(अर्थात् द्रव्य पूजा) जिन मंदिरका-बनवाना और फल फूलादिकसे जिन मूर्तिको पूजना, और दानादिक धर्मको सेवन करना । यह सर्व कर्त्तव्य, मुख्यताप्ले श्रावक धर्मको, अंगीकार करने वालेका है । और चारित्रानुष्टान, कष्ट घोर तपसा, विगरे कर्तव्य है सो-भा. वार्चन रूप मुख्यतासें साधुका कर्तव्य है ॥ और यह साधुका For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेह दोलावलीमें-महानिशीथ साक्षी. (१७१ ) भावार्चन, रूप कर्तव्यको छोडके, जो गृहस्थका-द्रव्याचन, रूप जिनमंदिर आदि करवानेको लगजाय, उसका व्रतको घातक हो ता है. । इसवास्ते जिनमंदिरको वनाना-यह साधुको, अप्रशस्त है ॥ और इसी साधुकोही मूर्ति पूजा करनेका निषेध रूप, प्रथम, भद्रबाहु स्वामीजीका-पंचम स्वप्नकाभी पाठ है, देखोकि, चेइयं ठ यावेइ दव्वहारिणो मुणीभविस्सइ ।लोभेन माला रोहण, आदि कहा है ॥ और दूसरा महा निशीथका पाठ है-सोभी, सर्व सावद्य त्यागी साधु है, उनकोही मंदिरादिकका कराना-अनुचितपणे दिखाया है । और तिसरा विवाह चूलिया सूत्रका पाठमेभी, श्रुतधर्म, चारित्रधर्म, का अधिकारी साधु है, उनकाही निषेधपणा किया है, परंतु सर्व श्रावकोके वास्ते जिनपूजाका निषेध पणा तो एकभी पाठमें नहीं है, ।। अब यह हमारी किई हुई समी क्षासे, ढूंढनीजीकाही लिखा हुवा पाठका विचारकरोंकि, हमारे ढूंढकोको जैनमतके एक अक्षरकाभी यथार्थ ज्ञान है ! केवल आप जैन मतसें, और जैन के तत्वस, सर्वथा प्रकारसे मूढ बने हुयें, औरभी भव्य जीवोको, भ्रष्ट करनेका दुर्ध्यान में ही कालको व्यतीत करते है. । परंतु जो धर्मका अभिलाषी जीव होगा, सोतो हमारी किई हुई समीक्षाको अमृत तुल्य मानके, अवश्य पान करेगा और जो हठीले बने हुये है, उनकोतो असाध्य रोगके उपर जैसे कोईभी उपचार नहीं लगता है, तैसें यह हमारी किई हुई समीक्षाका, एकभी वचन गुणदायक न होगा। सो तो उनकी भवितव्यत काही मुख्य कारण रहेगा.। अबीभी इस विषयमें हमको, कहनेकातो बहुत कुछ है, परंतु पाठक वर्गको वाचन करते कंटाला करनेको भयसे, केवल मुख्य बा. For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) ढूंढनीजीकी - मूर्त्ति पूजाका, विचार. artist समक्ष करके, अधिक लिखना तहकुबही करते चले आये है । जिससे पाठक वर्गको वांचतेभी कंटाला रहेगा नही. इत्पले बलविते. ढूंढनी -- पृष्ठ १११ से - मूर्त्ति पूजा कहांसे चली ऐसा प्रश्न उठाके उनकी हद, दिखानेको प्रवृतमान हुई पृष्ट. १५२ ओ, ४ से लिखती है कि जो बारावर्षी कालसे-पीछे कहते हैं, सो तो प्रमा णोंसों-ठीक मालूम होता है। हम अभी ऊपर, मूर्ति पूजा निषेधमें चार ग्रंथों का पाठ, प्रमाणमें लिखचुके हैं, जिसमें प्रथम स्वप्ना धिकारमें - १२ वर्ष ? काल पोछेही, मूर्तिपूजाका आरंभ, चलाया लिखा है || और जो महावीर स्वामीजी के समयम- कहते है, सोतो सिद्ध होती नहीं - वैसा कहकर, भगवती शतक १२, उद्देशा २ से जयंति श्रमणोपासकका, और ज्ञाता धर्म कथासे, नंदमणियारका उदाहरण दिया है । फिर. पृष्ट. १५३ ओ. १४ से - और जो कहते हैं कि - पहिले ही से, चली आती है, सो इसमें कोई पूर्वोक्त कारणसे, प्रमाण तो है नहीं || परंतु पहले भी मूर्ति पूजा, होगी तो आश्चर्य ही क्या है ? | क्योंकि ऐसे हीं - जिन साधुओंसे, संयम नहीं पला होगा, उन परिगृहधारियोंने अपना पोल, लुकानेको, और ज्ञानभंडारा नामसे - धन इकठा करनेको, थापली होगी । समीक्षा - पाठक वर्ग ! इस ढूंढनीजीने - हृदय उपरभी कोई नवीन प्रकारका पाठा, चढालिया होगा ? जो अपना लिखाहुवाका विचार आपभी नही कर सकती है ? केवल मिध्यात्व के नशे में बकवाद ही करती हुई चलीजाती है, क्यौं कि, १ भगवती सूत्र, २ ज्ञातासूत्र, ३ राज प्रनीय सूत्र, ४ जंबुद्वीपपन्नती सूत्र, ५ उपाशक दशा सूत्र, ६ उवाई सूत्र, ७ महा . For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीकी-मूर्तिपूजाका, विचार. (१७३ ) निशीथ सूत्र, ८ जीवाभिगमसूत्र, आदि सूत्रोंका मूलपाठोंमें, जो साक्षात्पणे, किसीजगें "शास्वती प्रतिमा ” ओंका पाठ। किसीजगे-अरिहंत चेइयाई. करके पाठ । और किसजगें, "जिनपडिमा ” करके पाठ-प्रगटपणे शास्त्रकारों लिख गये है। और शास्वती प्रतिमाओंका तो-अंगो अंगका, भिन्न भिन्नपणे, सविस्तर वर्णन, प्रमाण सहित-लिख गये है। और अशाश्वती प्रतिमाओंका भी-आकृति, उनके ही अनुसारसे बनाई गई है । सो जिनमूर्ति सिद्धांतसे भी सम्मत, और यह धरतीमाताकी साक्षीसे भी-स. म्मत, ते सिवाय परमतके शाखोंसे भी, यह वीतराग देवकी मूर्तिसम्मत | उस विषयमें, यह ढूंढनी, कभी तो कहती है कि-सूत्रोंमेमूर्ति, चली ही नही है । कभी तो कहती है, मूत्तिका जिकरही नहीं है, ॥ तो हम ढूंढकोंको, पुछते है कि--जब जिन मूर्तिका, सूत्रोंमे-जिकरही नहीं होता तो पीछे, ढूंढनीको, सूत्रोंका पाठकोलिख लिखके, जूठा खंडन करनेका-प्रयत्न ही, किस वास्ते करना पडा.॥ हे ढूंढकभाइयो । हृदय उपर अज्ञानका जो पाटा चढाया है उनको छोडके, विचार करो ? कि, हम लिखके क्या आते है, और पोछेसे क्या कहते है। केवल तुम अपना ही लिखा हुवाका-विचार करोकि-जिससे तुमको कल्याणका मार्ग हाथ लगजाय ? ॥ देखो सत्यार्थ पृष्ट. १४७ में-विवाह चूलियाका पाठमें, वर्तमान २४ तीर्थकरोंकी मूर्तियां । और अतीकालकी २४ तीर्थक रोंकी भी प्रतिमाओं । और अनागत २४ तीर्थंकरोंकी भी प्रतिमाओं होती है । और. वंदने, पूजने, भी योग्य है ॥ वैसा भगवंत महावीर स्वामी, गौतस्वामी महाराजको फरमा रहै है । तो पीछे तूं For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) ढूंढनीजी की मूर्तिपूजाका, विचार. ढूंढनेवाली ढूंढनी कैसे कह सकती है कि वारां वर्षों कालके पीछेसे, जिनमूर्तिका वंदन, पूजन, चला है । और भगवती सूत्रका, और नंदमणियारका, उदाहरण देती है, सो किस उपयोग वास्ते होगा ? सो तो प्रसंगही दूसरा है, इस जिनमूर्तिका खंडनमें क्या उपयोग होनेवाला है ? ऐसे तो हजारो प्रसंग शास्त्रों में आते है | और फिर लिखती है कि - जो कहते हैं कि, जिनमूर्त्तिं पहिलेसे ही चली आती है, इसमें कोई प्रमाण तो हे नहीं, ॥ तो अब इसमें कहने का यह है कि, तुमेराही लिखाहुवा, विवाह चूलिया सूत्र पाठका - प्रमाण, क्या तुमको दिखा नहीं, ? जो कहती है कि-- प्रमाण है नहीं. फिर लिखती है कि पहले भी - मृत्ति पूजा, होगी तो आश्रर्यही क्या है. ॥ इसमें आश्चर्य तो इतनाही हुवा है कि, तुम ढूंढको अपना और अपने आश्रितोंका, धर्मके विगाडा करनेवाले- अभीथोडे ही दिनोंसे - जन्म पडे. फिर लिखती है कि जिन साधुओंसे, संयम नही पला होगाउन परिग्रह धारियों ने, अपना पोल लुकानेको, और ज्ञानभंडारा नामसे धन इकठा करने को, थापली होंगी. ढूंढनी भद्रबाहु स्वामीसें पूर्व महाऋषियों को भी, कलंकित करनेका प्रयत्न करती है कि जिन साधुओंसे, संयम नही पला होगा, उन साधुओंन - मूर्त्तिपूजन, स्थापली होगी ? परंतु इतना विचार नही करती है कि जो भद्रबाहु स्वामी के पूर्व में साधु विचरतेथे, सो सवीभी निस्कलंकितही थे, और श्रावकोंमें मूर्त्तिका पू जन भी चला आताहीथा । परंतु चंद्रगुप्तने जबसे अनिष्ट स्वप्न For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वसे-पश्चिम, दोडना. ( १७५) हुवा, तबके पीछेसे, कोइ कोइ भेष धारीमें, अनिष्ट कालके प्रभावसे, पतितपना होनेका-सरु हुवा, ऐसा तेरा लेखही दिखा रहा है परंतु सभी मुनिमें कुछ पाते तपना नहीं हुवा है,जो तुमेरा कल्पित पंथकी सिद्धि हो जायगी ? ॥ हे ढंढको ! तूम आचारसे, और विचार आदिसे, भ्रष्ट होकर, पूर्वले महान् महान् पुरुषोकोभी, दूषित करनेको जाते हो ? । और अपने आप निर्मल बननेको चाहते हो? क्या तो तुमेरी चातुरी, और क्या तो तुमेरी स्वजनता, हम भी तुमको शिक्षा कहां तक देंगे? अब तो तुमेराही भाग्यकी कोइ प्र. बलता होनी चाहिये, नहि तो हमारा योग्य कहना भी तुमको विष पनेही परिणमन होगा? इस वास्ते अधिक कहना भी छोड ढूंढनी--पृष्ट. १५४ से-१ जैनतत्वा दर्श । २ सम्यक शल्योद्वार । ३ गप्पदी पिका समीर । यहतीन ग्रंथोका प्रश्न उठाके कहती है कि ? जैनतत्त्वा दर्शका स्वरूपतो मैं- ज्ञान दीपिका में,लिख चूकी हुँ। . और सम्यक शल्योद्वार, और ३ गप्प दीपिका समीरको तुमही देखलो, कैसे अर्थके अनर्थ, हेतुके कुहेतु, जूठ, और निंदा, और गालिये, अर्थात् दूंढियोंको किसीको दुर्गतिमें पडनेवाले, आदिकरके पुकारा है ॥ और प्रश्नोके उत्तर दिये है, और जो देते हैं, सो ऐसेहै कि-पूर्वकी पुछो तो, पश्चिमको दौडना, कुपत्ती रन (लु : गाई ) कीतरह, वातको-उलटी करके, लडना. फिर. पृष्ट. १५६ ओ. ११ से-भ्राता ! साधु, और श्रावक, नाम धराकर-कुछ तो लाज, निबाहनीचाहिये, क्योंकि-जुठ बोलना, और गालियोंका देना, सदैव बुरा माना है, For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६) पूर्वसें-पश्चिम, दोडना. __ समीक्षा-पाठकवर्ग ! ढूंढनी लिखती है कि-'. जैनतत्वाद का स्वरूप तो मैं-ज्ञान दीपिका, लिख चूकी हूं, वैसा लिखती वखत कुछ भी विचार नहीं किया होगा ! क्योंकि-इनकी ज्ञान दीपिका तो, गप्प दीपिका समीरके ( अर्थात् पवनके ) जपाटेमें, सर्वथा प्रकारसे बुज गइ है कि, न तो रहीथी वत्ती; और न तो रहने दियाथा-तैल, तो पिछे अपनी ज्ञानदीपिका-दिखाती ही कैसे है ? । अगर जो उसमें, तैल, और बत्ती, रह गई होती तो, क्या ! फिर जगाई न लेती ? परंतु जगावे क्या कि जिसमें कुछ रहा ही नहीं। ॥और लिखती है कि, अर्थके अनर्थ, हेतुके कुहेतु, कैसे किये है ? । जब तेरेको उसमें अर्थके अनर्थ, और हेतुके कुहेतु दिखातबतो प्रथम ही हमको भी दिखा देती, जो हम भी देख. लेते । अगर जो यह तेरा कहना-ठीक ही ठीक, होता तो, प्रथम उनका उत्तर देके, पिछेसे ही यह नवान धत्तंग खडा करती, तो योग्य ही गिना जाता ? परंतु सो तो तूने किया ही नही है । इस वास्ते सिद्ध है कि-जो जो उसमें लिखा है सो, सभी ही सत्यही सत्य लिखा गया है,। क्योंकि-जो जो तुमेरा जैन मतसें विपरीत कर्त्तव्य, और केवल जुठा बकवाद है, उनकाही उसमें केवल दिग्दर्शन मात्र किया गया है, ओर जूठका फल दुगतिरूप ही होता है, सोई कहा है, किस वास्ते जुठ लिखते हो ? ॥ और तूंने जो उनका उत्तर देना छोड देके, यह नवीन जूठा वचनोका-पूंज इकट्ठा किया है, सोई तेरा उदाहरण जैसा तंने ही किया है । अगरजो सम्यक्क शल्योद्वारका, और गप्प दीपिका समीरका, लेख अनुचित होता तो तूं प्रथम उनकाही उत्तर देनेमें प्रवृत्ति करती ? परंतु यह कुपत्ती रनके जैसा आचरण For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व से पश्चिम दोडनेका विचार. ( १७७ ) कभी न करती ? || और सम्यक्क शल्योद्वार, गप्प दीपिकासमीर के कर्त्ताने तो, तुम ढूंढकोंको, केवल हित शिक्षा के वास्तेही कहा है, परंतु उसबातकी जो रुची तुमको नही हुई है सो तो, तुमेरा आज्ञानपणेकी निशानी है, उसमें कर्त्ताका कुच्छ दोष नही है. फिर लिखती है कि - भ्राता ! साधु और श्रावक नाम धराकर कुछतो लाज निबाहनी चाहीये ॥ हे ढूंढकों ? तुमको साधुपणेकी, और श्रावकपणेकी लज्जा होती तो, अपना हो महान् महान् पुरुषोंका अपवाद ही क्यौं वकते ? और वीतराग देवकाही - महो त्सव देखके, मारामारीही किस वास्ते करते ? परंतु तुमतो आप ही जैनधर्मसे - विपरीत होके और दूसरांको भी विपरीत करने की चाहना कर रहे हो, तुमको साधु, और श्रावक, पणेकी लज्जाही कहां रही है ? जो अपना साधुपणा दिखाते हो ? | हां कभी, कृष्णका, महा देवका, पीरका, फकीरका, महोत्सव होवें, जब तो तुम राजी, और वीतरागदेवका - महोत्सव देखते ही तुमेरा हृदय फिरजाय, तो पिछे तुम अपने आप साधु, और श्रावकपणा ही कैसे प्रगट करते हो ? तुमतो केवल साधु, और श्रावकका आभास रूप बने हुये हो. ॥ और नीचे लिखती है कि जूठ बोलना, और गालियां देना, सदैव बुरा माना है, ॥ || अगर जो तुमको इतना ज्ञान होता तो, यह केवल जूटका ही पूँजरूप, थोथा पोथा लिखनेकी प्रवृत्ति ही क्यों करते ? तुमेरा ढूंढक पंथ में जूठ बिना तो दूसरी गति ही नही है ! तुमेरा कितना जूठपणा है, सो तुमको देखनेकी इछा होती होवें तो, देखो समकित सारका, उत्तररूप सम्यक्क शल्योद्धार " जिससे तुमको मालूम हो जावें. 66 For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८) ढूंढिये सनातन, ग्रंथोंके गपौडे. ॥और यह भी तेरा किया हुवा, सत्यार्थ चंद्रोदय है कि, केवल जूठार्थका उदय है, सोभी यह हमारी किई हुई समीक्षासे, विचार कर? । केवल मुखसे साधुपणा दिखानेसे तो कुछ साधु नही बन सकोंगे ? साधुपणा बनेगा तो आचरणसे ही बनगा।... केवल कथनरूप तुमेरा सत्यवादीपणा है सो तो, तुमेरा आ. स्माका निस्तार करनेवाला कभी नहोगा । . ढंढनी-पृष्ट. १५७ ओ. ४ से. प्रश्नके विषयमें लिखती है कि-जैनियोंमें जो-सनातन ढूंढीये जैनी हैं, वह मूल सूत्रोंको ही मानते है, पुराणवत्-ग्रंथोंके गपौडे, नहीं मानते है, और जो यहपीले कपडावाले, जैनी हैं, यह पुराणक्त्-ग्रंथोके गपौडोंकों, मानते हैं, क्यों जी ऐसे ही है ।। उत्तर-और क्या ॥ समीक्षा-पाठकवर्ग । दृष्टांत होता है सो, एक देशीय ही होता है । यह ढूंढको नतो तीनमें, और न तो तेरमें, और नतो छपनके भी मेलमें, तो भी अपने आप सनातन बन बैठे है ? । जैसे कि-एक मूढ । धनाढय, विचक्षण-वेश्याका, भावको समजे विना, अपनी मानके, और सर्व धन गमादेके, परदेशसे-मित्रकी साथ, धन भेजनेलगा। उस मित्रने उसी वेश्यासे-प्यारेका, नाम पुछा सो वह मूढ धनाढय न तो तीनमें, न तो तेरमें, और न तो छपन के भी मेलमें, तैसे ही यह ढूंढको चोरासी गछमेंसे एक भी गछकी शाखा विनाके, एक गृहस्थसे अभी सन्मूर्छन रूप उत्पन्न होके अपने आप जैनमतकी चातुरी सपजे विना सनातन बननेको जाते है ? सो कैसे बन जायगें: क्योंकि जिन ढूंढकोका प्राचीनपणेका For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनपणेका, और गपौडेका विचार. (१७९) एकभी निशान नहीं है ॥ कभी दिगंबर वारसा करनेको जावे तब तो, कुछ विचारभी करना पडे, परंतु तुमेरा-न तो गाममें घर, और नतो सीममें-खेत, किस कर्तुतसे-सनातनपणेका, दावा करनेको जाते हो ?॥ फिर लिखती क्या है कि-जूठ बोलना तो-सदैव बुरा, माना है । वैसा साध्वीपणाभी दिखाना, और गड्डे के गड्डे भरजावे इ. तना तो जूठा गप्प मारना ? तो क्या केवल वचन मात्रसें साध्वी. पणा होजाता है ? ॥ फिर लिखती है कि-हम पुराणयत्-ग्रंथोंके गपौडे, नही मा. नते ॥ हे ढूंढनी ? तूंने क्या जैनोंके ग्रंथोंको, पुराणवत् गपौडे समजे ? जो जूठा बकवाद करके जैनके लाखो सिद्धांतोंको कलंकित करती है ? । तूंने इतनाभी ज्ञान नहीं है कि-जो सर्वज्ञ पुरुषोंका ज्ञान-अनंत रूपमें था, उनकाही वीजरूप खतबनीके प्रकारसेसूत्रोंमें गूंथन करके, मेल आदि बहियांके प्रकारसे-प्रकरण ग्रंथों में विस्तार किया गया है, उनको पुराणकी तरां गपौडे लि. खती हुई तेरेको जरासी भी लज्जा न आई ? जो सर्वज्ञोंका वचनों को-अल्पज्ञकी साथ जोड देती है ? । क्यों कि-द्रव्यानुयोगमें, जो कर्म प्रकृतियांका विस्तार, जैन मतका मूल भूत है सो-प्रकरण ग्रंथोंके विना, मूल सूत्रोंमे-कभी न मिल सकेगा, सो क्था पुराणकी तरां गपौडे हो जायगे ?। और कथानु योगमें-२४ तीर्थकरो काचरित्र, और चक्रवर्तीयांका चरित्र, बलदेव, वासुदेव, आदिका चरित्रोंका विस्तार भी-मूल सूत्रोंमें, कभी न मिल सकेगा ।। सो क्या गपौडे कहती है ? तो पिछे तेरेही ढूंढके जैन रामायण, दाल सागर, आदि वांचके किसवास्ते अपनी पेट भराई करते है ? । अ For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) लोंका और लवजी ढूंढक गर बांचते है तो सर्वज्ञके अनुयायियांका वचनको, पूराणके - गपौडे की साथ कैसे जोडदेते हो ? तुम ढूंढकोको हम कहां तक शिक्षा देंगे ? और जिस ग्रंथोंके बिना, तुमेरी भी पेट भराई होती नही है, तैसें अलोकिक तत्वरूप ग्रंथोंको गपडे कैसे कह देती है । हम तो यह समजते है कि- तेरी छ स्त्री जातिको, कोई दो अक्षरटू- टांकर ने मात्र आने से, उनका गर्व तेरे हृदयमे, नही समाता हुवा - महा पुरुषोंकोभी, यद्वा तद्वा करनेको, बहार निकल पडा होगा, नही तो इतना - असमंजस, क्यों बकती ? । अबीभी अपना आत्माका निस्तारका मार्गकी, ढूंढकर कि जिससे तेरेकुं, और तेरे आश्रितोंको, वीतराग देवका मार्गकी, अवज्ञा करने रूप, महा मायश्चितसे, अनंत संसारका भ्रमण करना-न पडें । हम तो तुमेरा हितकेही वास्ते कहते है, आगे जैसी तुमेरी इच्छा || इत्यलं ढूंढनी -- पृष्ट. १५७ से - साढे चारसो, और अढाईसो वर्ष, १ लोका, २ लवजीको, होनेका प्रश्न उठाके । पृष्ट. १५८ में, लिखती है कि - १ लॉकेने तो, पुराने शास्त्रोंका उद्धार किया है, तो नयामत निकाला है, न कोई नया कल्पित ग्रंथ-बनाया है. और २ लवजीने भी-स्थिलाचारी यतिगुरुको छोडके, शास्त्रोक्त क्रिया करनी - अंगीकार किई है । न कोई नया मत निकाला है, न कोई पीतांवरियां की तरह, अपने पाललकोनेको, चालचलन के अ नुकुल, नये ग्रंथ - बनायें हैं । हां यह संवेग पीतांबर, ( लाच्छापंथ ) अढाईसो वर्षसे निकला है ।। वैशा लिखके चतुर्थ स्तुति निर्णय भाग २ के अंतिमकी, पृष्ट १५४ में - श्रीयशोविजयजी, और सत्य विजयजी ने किसीकारण के वास्ते रंगे है. बैशा प्रमाण देती है । फिर. पृष्ठ. १६० ओ. २- सो कारण कोई वैसाही पुरुष दूर करेगा, एक , For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ air, लवजी ढूंढकका, विचार. (983) मैथुन वर्ज, कारणे करनेका निषेध नही है । उसमें तर्क करती है, कि, जूठ बोलना, चौरी करना, कच्चापानी पीना भी सिद्ध हो गया, धन्य निशीथभाष्य, धन्य आप || फिर. पृष्ट. १६१ से - पीतांवरियोंका - कल्पित नया मत निकला है, जिसको २५० वर्षका अनुमान हुवा है, कई पीढियें एलियारंग वस्त्र धारी रहे है, कई कत्थेरंग वस्त्र धारी रहे है, मन माना जो पंथ हुवा || फिर. पृष्ट. १६२ से- आत्मारामजी, पहिले सनातन ढूंढक मतका, श्वेतांवरी साबुथा, जब सूत्रोंक्त क्रिया ना सधाई, और रेल में चढनेको, दुशाले, घुस्से, ओढनेको, मोलदार औषधिायें की डन्त्रिif मंगाकर खालेनेको, माल असबाब रेलोमें मंगालेनेको, ढूंढकमत छोडके, गुजरात में जाके, रंगे वस्त्र धारे. फिर. पृष्ट. १६३ तक - यही बातमें गप्पदीपिकासमीरका प्रमा ण दिया है. फिर धनविजयकी पोथीका प्रमाणसे । और बूटे रायजीका प्रमाण देके, सर्व गुरुओंको असंयमी ठहराये है. समीक्षा - हे ढूंढनीजी लोकेने, पुराना शास्त्रोंका उद्धार किया है, ऐसा तूं कहती है, तो हमपुछते है कि- पुराना शास्त्रोंका उद्धार किसरीति से कियाथा ! क्या मच्छावतार धारणकर कुनजीने जैसें, समुद्रमेंसे वेदों को ढूंढलाके, उद्धार कियाथा वेशें लोंके - - शास्त्रोंका उद्धार कियाथा ? १ ॥ अथवा तेरीही ज्ञानदीपिका के लेख प्रमाण जैसे कि-ढूंढत २ ढूंढ लिया, सब वेद पुराण कुरानमें जोई । ज्यं दही मासे मखन ढूंढत, त्यूँ हम ढूंढियों का मत होई १ ॥ तैसें वेद, पुराण, कुरान, आदि बातोंका संग्रहकरके शास्त्रोंका उद्धार कियाथा ? २ || For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२) लोंका, लवजी ढूंढकका विचार. ___अथवा देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण महाराजने, जैसे सर्व मुनियों का मुखाग्रपाठका संग्रहकरके, शास्त्रोंका उद्धार कियाथा, तैसें यहलोकेने शास्त्रोंका उद्धार कियाथा ? ३ ॥ किसविधिसे शास्त्रोका उद्धार किया दिखाती है ? || न तो प्रथम प्रकार बनसकता है क्योंकि, जैन सिद्धांतको, कोई समुद्र में लेके नही गयाथा, जो प्रथम प्रकार बनसके ? और न तो तिसरा प्रकारभी बनसकता है, क्योंकि-लोका तो केवल गृहस्थही था, तो पिछे साधुके मुखाग्रका पाठका-संग्रहही कि सतरां करनेवालाहो सकता है ? . हां दूसरा जो, वेद, पुराण, कुरान, आदि बातोंका, संग्रह करके शास्त्रोंका उद्धार किया होगा तो, ते बात तो तूंही जानती होगी! हमको तो मालूमही नहीं है ।। ॥फिर लिखती है कि-न तो नया मत निकाला है, न कोई नया कल्पित ग्रंथ बनाया है । जब लोंकेने, नयामत नहीं निका. ला है तो, किस गुरुका पाउको पकड कर चलाथा ? सो तो दिखानाथा ? । इस वातमेभी तूं क्या दिखा सकेगी ? सो तो (लों. का) कोरा गृहस्थही था, और कोरा गृहस्थ होनेसे-उतना ज्ञान ही कहांथा, जो ग्रंथ बनासकें ! इस वास्ते यह तेरा लेख ही विचारशून्यपणेका है ॥ और जो आत्मारामजी महाराजने-जिन प्र. तिमाजीको उत्थापकका बीजरूप, लोंकेको हुये, साढाचारसो व. र्षका अंदाज लिखा है, सो सत्यही लिखा हुवा है । देख काठियावाड तरफसे, प्रसिद्ध हुयेला तेरा ढूंढक मत वृक्षमें । और देख जैनहितेछुपत्र वाला तेरा वाडीलाल ढूंढकनेभी सो पत्रिकाओ, गाम गाम भेजके, ढूंढक मतकी हकीकत मंगवाके, चोकसपणे " स्थानकवासी डिरेकटरी" बहार पाडी है उसमें, और तेरें ढूंढकोकी For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोका, लवजी ढूंढकका विचार. ( १८३ ) पटावली भी यही लिखा है । और पीछेसे लोंकेकीही परंपरामेंयह लवज भी अंदाज अढाईसोही वर्ष पहिले हुवा है, और यह मुखपर मुहपत्ति चढाना सरु किया है, सो तो तूंभी अपनी ज्ञानदीपिकामे कबुल ही कर चुकी है, किस वास्ते अब अपनी पोलको लुकाती फिरती है ? और जो लबजीने, नयामत नहीं निकाला क. हती है सो ठीक है, क्योंकि लोंकेकीही परंपरामेथा, और क्रोधी होनेसे, गुरुके साथ लडपडा, और अलग होके,मुखपर मुहपत्ति चढाने मात्रकाही अधिकपणा किया है. ॥ और जो तुं कहती है कि-न कोइ पीतांवरियोंकी तरह, अपने पोल लकोनेके वास्ते, अपने चाल चलनके अनुकूल, नये ग्रंथ बनाये है। सो भी तेरा कहना ठीकही होगा,क्योंकि क्रोधीला स्वभाववाले लवजीको, प्रथमसे ही अयोग्य समजके उनको, उनके गुरुजीने पढाया ही नहीं होगा, तो पिछे नया ग्रंथ ही क्या बना सकनेवाला था? यह तो तुमेरी परंपरा ही-वैशी चली आती है । आज वर्तमानकालमें भी देखलें तेरे ढूंढकोंमे, तूं ही थोथा पाथाको प्रगट करवायके, पंडितानी पणाको दिखारही है ? और अपनी अनेक प्रकारकी पोलको भी, लुकानेका प्रयत्न कर रही है ? ॥ परंतु-अढारे वल्याउंटना अंग वांका, कहो ढांकीये तो रहे केम ढांक्यां । तैसें' तुम दूंढकोंके भी, सर्व प्रकारके अंगोअंग बांके होनेसें, तूं एक स्त्री जाति मात्र होके, किस तशंसे ढक सकेगी ? सोतो उघड पडे विना कबी भी नहीं रहनेवालें होंगे ? ॥ और लिखती है कि यह संवेग, पीतांबर, ( लहा पंथ ) अढाईसो वर्षसे-निकला है ।। अब इसमें ढूंढनीको, न तो पंथकी, और नतो मतकी खबर है कि, पथ किसको कहते है, और मत भी किसको कहते है । क्यों कि, यह संवेगीयोंने तो, जो जो पूर्वमें म For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४) लोंका, लवजी ढूंढकका विचार, हान् महान् आचार्यों हुयें है, उन सभी आचार्गीका-वचनको, शिरसा वंद्य मानके, उनके ही अनुयायी हुये है, इस वास्ते मतवादी, या पंथी, कभी नहीं बन सकते है, और तुम ढूंढक है सो तो, म. नमें आये सोई, एक वखत तो मानलेना, और वही बात दूसरी बखत नही मानना, वैशे ढोंगी होनेसे, मताग्रही, हठीले, कुमार्गी आपां पंथी, सभी प्रकारके रूपको धारण करनेवाले बने हुये है ? परंतु संवेगी तैसे नहीं है । इस वास्ते लाहा पंथ विगरे कहकर जो उपहास्यपणा करती है, सोतो अपना कलंक दूसरेको चढानेका ही प्रयत्न कररही है ? परंतु यह जूठा कलंक कभी न चढ सकेगा अगर जो तूं, एक पीतवस्त्र मात्रका कलंक देके-कलंकित करनेको चाहती होगी तो, उसको तो हम कह चुके है कि, कारण वास्ते किया हुवा है, जो कारणके लिये किया है सो दूर होजावे तो, अबीभी छोड देनको तैयार है । इस वास्ते नतो मत गिना जावेगा नतो हठ भी कहा जावेगा ॥ अंगर जो हठ या मत, कहती होंगी तो, तेरे ढूंढकमें तो, सैंकडो ही मतकी, गिनती करनी पडेंगी, क्यों कि-तेरे ढूंढक तो, केवल हठ पूर्वक ही, कोई तो नील वस्त्रधारी बना है, कोई तो अघोर पंथी बना है, और कोई तो महा अघोर पंथकारूप धारण करके फिरता है, । और प्रतिक्रमण क्रिया विगरेमे अनेक प्रकारका हठ ही पकडकर अपने आप मोक्षकी मूत्तियां बन बैठे है, तैसें संवेगी कुछ हठकरके-पीतवस्त्रको, नहीधार ण करते है, जो तेरे ढूंढकोंके, सैंकडों मतकी साथ, संवेगीको भी, कलंकित कर सकेगी? | क्यों कि-यह पीतवस्त्र किया है सो, आ. चार्योंकी सम्पतीसे ही किया गया है, और आचार्योंकी सम्मतीसे-दूरकरनेको भी, तैयार ही बैठे है । इस वास्ते तेरी खीचही कुछ इसमें-नही पकनेवाली होगी। और पीतवस्त्र वास्ते जो तूंने For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोका, लवजी ढूंढकका, विचार. ( १८५ ) प्रमाण दिये है, सोतो हमारा गुरु वर्यका लिखाहुवा हमको मंतव्य है, इसमें तेरी सिद्धि क्या होगी ? ॥ 1 और जो मैथुन वर्जके, कारणसर वस्त्रादि, रंगनेकी - आशा दिखाई है, सो भी योग्य ही है, क्यों कि, जिसको - ब्रह्मव्रत, पक्षा होगा, उनको दूसरा कोई भी अनुचित कार्य करणेकी - जरुरही नही रहती है, इसी वास्ते शास्त्रकारने भी, उसबातकी ही सकताई दिखाई है, तुम ढूंढों तत्त्वतो समजते है नही, और जूठा बकवाद ही कर उठते हो ? || अब इस बात में, ज्यादा तपास करना होवें तो, तूं ही तेरा जन्मके आचरणको देखके, अनुभव करले, हमारे मुखसे किस वास्ते कहती है ? और अधिक तपास करनेकी मरजी होंवे तो, मारवाड, मालवा, काठियावाड, दक्षिण, आदिमें फिरके देखले कि, मुखसे दया, दया, पुकारनेवाले, इस चौथे व्रतमें, कितने पक्के है ।। इसवास्ते जो जूठी कुतर्कों करनी है, सोई - कुपत्तीरन्नपणेका, स्वभाव ही प्रगट करना है, ॥ ॥ और जो एलिया रंग दिखाती है, सो तो तेरे ही ढूंढक मतमें हुये है, देखनेकी इछा होवें तो, देखलें मालवा, मारवाड देशमें ॥ और आत्माराजी महाराज - प्रथम ढूंढियेहीये, सोतो तेरा कहना- ठीकही है, परंतु ढूंढियोंको - सनातनपणे, नही समजा, केवल मृढ पणे का-मत, समजके, छोडदिया--किन तो जिसका सपडामूल, और नतो सपडीडाल, विनामाबापके लडके की तरह, यह ढूंढक तभी विना गुरुका समजके ही छोडा है ?|| अगर तुमभीविचारपर आजावोगे तो, तुम कोभी श्रृंग, और पुंछ, विनाकाही ढूंढकमत - मालूम हो जायगा || For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) लोंका, लवजी ढुंढकका विचार. और जो तूने, लिखा है कि-सूत्रोक्त क्रियाना सधाई, और रेलमें-चढनेको, दुशाले, धुस्से-ओहनेको, मौलदार औषधियों-खानेको, ढूंढकमन छोडके रंगवस्त्र धारे ॥ __ अबइसलेखमें, तूंने केवल कुपत्तीपणे काही स्वभाव प्रगट किया है, प्रथम तुमेरे ढूंढकोंमें-सूत्रोक्त क्रियातो एकभीनही है, जितना तुमेरा चालचलन है, सो केवल-मनकल्पितही है, देखना हो तो देखलो सम्यकशल्योद्धार पृष्ट. १८ सेलेके २८ पृष्ट तक, यहजूठी चातुरी तुमेरी कहांतक चलेगी?॥ और रेलपर चढनेका जो कलंकदिया है सोभी तूंने, कुपत्ती रन्नपणे काही आचरण किया है, क्योंकि इस महात्माने नतो कभी रेलपर चढनेकी इच्छा किई है, और नतो इच्छा पूर्वक कभी रेलपर चढनेकोभी गये है, तो पिछे तेरा जूठा कलंक चडानेसे-कुछ कलंकित नहोसकेंगे. और तूंने जो एकाद असंयमी कीटीका करके, सबको असंयमी ठहरानेका प्रयत्न किया है, सो भी मूढपणाही किया है, क्योंकि तेरे ढूंढकोंमेभी असंयमी, तेरेको जितना चाहीताहोगा, उतनाही हनिकाल देते है, प्रथम तो तेरीही चर्या तूं अपने आप निहाल कर देखलें, पीछे दूसरोंकों दूषितकरनेका प्रयत्नकर ? धन्य तो उनको है कि-अपने गुणमें मग्नहोके, दूसरोंकोभी गुण में वासितकरनेका प्रयत्न करें ? बाकी कुपत्ती रन्नपणाकरने वाले तो, बहुतही दूनीयामें पडे हुये है. इत्पलं प्रपंचेन. ढूंढनी-पृष्ट. १६४ से लेके, पृष्ट. १६६ तक, वस्त्रकाही विचारमें, चातुरी दिखाई है कि--आचारांग सूत्र अध्ययन सातमे वस्त्रका रंगना, साफ मना है। समीक्षा-आचारंगकी जो साक्षी दीई है, उसमें तो न For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढोका पराजय. (१८७ ) धोयेज्जा, न रंगेजा, " दोनोकीही मनाई है, तो तुं धोयेला वस्त्र पहेनके क्युं फिरती है ? केवल अपना छिद्र ढकना, और दूसरमें नही होवे उसमें छिद्र देखनेका प्रयत्न करना ? और पाठका अर्थ, और उनका तात्पर्य समजे बिना केवल जिनको तिनको, दूषित ही करना और अपना चलनको छुपाना, इसमें तुमेरी क्या सिद्धि, होनेवाली है ? | इस विषयका विवेचन करके ही आये है, इसवास्ते पिष्टपेषण नही करते है. ढूंढनी - पृष्ट. १६६ ओ ७ से सम्यक्क शल्पौद्वारादि बनाने वाले, मिथ्यावादी है, क्योंकि उसमें लिखा है कि-ढूंढिया मत, अढाईसो वर्षसे निकला है, और चर्चा में सदा पराजय होते है. परंतु हमने तो पंजाब हाते में, एक नाभामें, संवत् १९६१ में चर्चा, देखी, उसमें तो पूजेरोंकीही - पराजय हुई | फिर. पृष्ट. १६९ से - लिखा है कि, शिवपुराण बनानेवाले, वेद व्यासको हुयें ५ हजार वर्ष कहते हैं, जब भी जैनी - ढूंढिये हीथे, क्योंकि, शिव पुराण- ज्ञान संहिता, अध्याय २१ के श्लोक २-३ में लिखा है मुण्ड मलिन वस्त्रच, कुंडिपात्र समन्वितं । दधानं पुञ्जिकहाले, चालयंते पदेपदे । २ । अर्थ - सिर मंडित, मैले (रज लगे हुये ) वस्त्र, काठके पात्र, हाथमें - ओघा, पग २ देखके चलें, अर्थात् - ओघेसे कीडी आदि जंतुओं को हटाकर पग रखें || २ || वस्त्र युक्तं तथा हस्तं क्षिप्यमाणं सुखे सदा । धर्मेति व्याहतं तं नमस्कृत्य स्थितं हरे | ३ | अर्थ - मुख बखका (मुखपत्ती ) करके ढकते हुए - सदा मुखको, तथा किसीकारण मुख पत्तीको अलग करें तो, हाथ मुंहके अगा For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८) वेदव्यास के वखतमें-ढूंढिये भी थे. - डी देलें, परंतु उघाडे मुख न रहें ( न बोले ) इत्यादि || लिखके - फिर. पृष्ट. १७१ ओ. १२ से अब देखो जैन साधुका, वेद व्या सके समय भी - यही भेष था । तो सिद्ध हुवा कि ढूंढक मत, मा चीन है, २५० वर्ष से निकला, मिथ्यावादी - द्वेषसे, कहते है | समीक्षा - अरे हठीली, अभीतक अपना जूठा हठको भीछोडती नही है ! तूंही तो तेरी, ज्ञान दीपिकायें - लिखती है कि, प्रथम मुखपरं मुहपत्तीको चढानेवाला, ' लवजी ' को हुये अढाईसो - वर्ष हुये है, और पंजाबी ढूंढियें श्रावक व्याख्यान उठनेके अंतमें, भजनमें भी कहते थे कि - प्रथम साध लवजी भया, द्वितीय सोमगुरु भाय ॥ ऐसें कहनेका परिपाटहीथा, अब इहांपर, अपना पोल लकोनेके वास्ते, सत्य शिरोमणि पणा - प्रकट करती ? | और सम्यक शल्योद्धारवाले महात्माको, मिथ्यावादी कहती है ? । वाहरे तेरी चातुरी ? जगेंगें पर स्त्रीजातिका, जूठा स्वभाबको ही दिखाती है ? और ढूंढिये, चर्चा में सदा पराजय होते है, वैशा जो- सम्यक्क शल्योद्वारमें लिखा है, उसमे भी क्या जूठ लिखा है। जो तूं महात्माको जूठपका - कलंक देती है ? क्योंकि पांच सात जगे तो मेरी ही समक्ष, ढूंढिये साधु, चर्चा के समयमें, भगजानेका बनाव बन चूका है, तो न जाने उस महात्मा के बखतमें, क्या क्या बनाव हुवा होगा || देख प्रथम, टांडा अहियापुरमें, तेराही - सोहनलाल कि जो आजकाल पूज्य पदवी लेके फिरता है, सो हमारे पूज्य-कमल विजयजीके इस्तिहार निकालनेपर अपने इस्तिहार से सभामेंआनेका कबुल हो, और अमृतसर से - पंडित को भी बुलवाके, सभाके समय - अनेक तेडे करने परभी, हाजर न हुवा, और खिड़ · For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढियोंके - पराजयका, विचार. (१८९) कीमेंसे - सभाकी कारवाई भी देखता रहा । जबमें भी उहां हा जरहीथा, और एक हाजर कविने, गजलमें कविता भी, सभाके अंत में गान करके सुनाईथी सो नीचे लिख दिखाता हूं. गजल. । २ । । ४ । अरे ढूंढीयो तुम, गजब क्या किया; जो शास्त्र भूलाकर बता क्या दिया । १ । तुमे अकलके ढोर, नहि जानते: जो शास्त्र उलट, अर्थ पेछानते मुनि कमलविजकी, सभाथी सोहनलालसें; एतकरार पायाथा, टांडेमें इस्तिहारसे । ३ । संवत् १९४७ फाग, चउदशके दिन; सभा बीच बेठेथे, पंडित महासन मुनिजीने नोट बेठ सभामें दिया; सोहनलालने आने से इनकार बिलकुल किया |५| सभाका बियान, मुजसें होता नही; बडीबात है, मुख कहता नही मुनिने जो शास्त्र, अर्थथा किया; . उसी वख्त परवान, सभाने किया सभा में न आये तो, समजा गया; सबो पोल तुमरा, जहार हो गया अपना अगर, कुशल चाते हो तूंम; श्री जिन प्रतिमाकी, लेलो शरण किसीके बकाने से, तूंम ना बको; पत्ती खोलकर, हाथमें तूंप रखो For Personal & Private Use Only । ६ । ।७। । ८ । । ९ । । १० । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०) दूढियोंके-पराजयका, विचार. यथा योग शास्त्र, जब आचार हो तब उपदेश करनेको, अधिकार हो ।११ । भूले हो आप, भूलाते हो लोक; भगवानको छोड, चाह ते हो मोख ।१२ । महबत ल्यों, शरण भगवानकी; . तो सोबत करो, साधु विद्वानकी ।१३। और सभाके हूयें वाद, दूसरे दिन-किसी पुरुषने, बजारमें एक इस्तिहार लगायाथा, उसकी नकल नीचे. मुजब-- अरे दूंढियों, क्यूं तडफ तेहो तूंम, तुमारा गुरु, सोन्हलाल हेजी कम, मुनिकमल विजयजीने, चर्चा करी, ईश्वरकी परकससें, महिमापरी १॥ "अलराकम हूसियार मरद." यहनीचे संकेतमे लिखके, अपना नामभी दिखायाथा ॥ इति प्रथम बनाव. अब दूसराभी बनाव सूनलों कि--सेहर हुस्यार पुरके पास जेजो गाममें-यही ढूंढक साधु सोहनलालने, एक आत्मारामजी पहाराजजी काविश्वासी-ब्राह्मणकी साथ, आत्मारामजी महाराजजीका लेख-जूठा ठहरानेको, प्रतिज्ञापत्र लिखाकि-मैं जूठा पडजाउं तों, साधु पणा-छोडदउं, नही तो मैं तेरेको-शिष्य बना लउं, अब ते जेजो गामसें उस ब्राह्मणकी पत्रिका, हुस्यारपुरमें हमारे गुरुजीकी पास आनेसे, गुरुजीकी आज्ञालेके, उद्योत. विजयजी, कांतिबिजयजी-आदि हम ५ साधु ते जेजो में गये, कई दिन तकरार चलते २ छेवट, सभाकरनेका-मुकरर, हुवा, सभा के वख्त अनेक सभ्यके बुलानेपरभी-तेरा पूज्य न आया, तब हमारे बडे साधु सभा बुला. For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंडियौs - पराजयका, विचार. ( १९१ ) नेविगेरेका मतलब सुनाके - स्थानपर आ गये जब भी मैं हाजर हीथा. इति दूसरा बनाव. || अब तिसरा बंगीयां सहरकाभी सुनलो कि - जिहां एक मास तक, यही पांच साधुओंकी - तेरा सोहनलाल पूज्यके साथ, तकरार चलीथी, उसमें फोजदार, कलेक्टर साहेबभी, देखनेको आयें, और हृस्यार पुरका संघभी आया, और मुदतपर हाजर नहीं होनेवाले के दो, दो हजार रूपैयेकी जामीनगिरी के साथ, सरकारी' स्टांपपर' लेख लिखनेकाभी सरु करायके, यही तेरा-सोहनलालने, और उदयचंदने, रद करवाया, जबभी मैं हाजर हीथा ॥ ॥ इति तिसरा बनाव || ॥ अव सुनलो चोथा बनाव- - अमृतसर सहरका - संवत्. १९४८ काकि, जहां सोहनलालका, और हंसविजय आदि हम चार साधुओंका, चौमासा था, उहां तेराही पूज्यने, एक दिन अपना व्याख्यानमें, आत्मारामजी महाराजजीको बकरा होम कराने का लेखका, जूठा कलंक देनेपर, सातसो सातसो इस्तिहार दिया गयाथा, और *ा हिंसा परमो धर्मः इस मथालेका लेखसे, उतर देने पर, सर्व सहरके पंडितोंसे, फिट् फिट के फटकारेसें छेवट तीन कोशका, आंटा लेके, और मुख छुपा करके भागनाही पडाथा, जभी मैं हाजर हीथा ॥ ॥ इति चतुर्थ बनाव ॥ अत्र सुनलो, दक्षिण देश, अहंमद नगर में - चंपालाल ढूंढक * अहिंसा के स्थानमें, आहिंसा, अर्थात् हिंसा मेंहिधर्म एसा-मथालाका लेख, जाहिर करवाया था. For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२ ) ढूंडियोंके - पराजयका, विचार. साधुके साथका पंचम, बनाव- कि, हम संवेगी साधुको नवीन देखके, यद्वा तद्वा कहना सरु किया, छेवट निर्नामसे - संवेगीकी निंदा रूप गुप्त पत्रिकाओ - छपवाई, उनके उत्तर में वारंवार, सभा करनेका आव्हान करनेपरभी, एकभी उत्तर न छपवाया, केवल मुख से - बकवाद, भेजता रहा कि, हम सभा में आवेंगे, छेवट हमने उनके कहने परही, दो चार पंडित बुलवा के - दोचार दफे, सभा ओभी भरवाई, परंतु अपनी कोटडीसे बहार ही नही निकला, यह बनाव मेंराही अग्रेसर पणमे हुवा || ॥ इति पंचम बनाव || और प्रथम अमदावाद सहरमें - सरकारी बंधोवस्तके साथ, जेउमल ढूंढिया आदि। और वीरविजयजी संवेगी आदिके मुख्यपणे । चर्चा हुईथी, जबभी ढूंढिये भगही गयेथे | और अमृतसर सहरमें, पट्टीवाला पंडित, अमीचंद घसिटामल्लकी साथभी चर्चा हुई सुनते है, जबभी तेरे ढूंढिये, भगही गयेथे, फिर खानदेश के 'धूलिये' सहर भी, यही अमीचंद पंडितकी साथ चर्चा हुईथी, जब भी तेरे दूंढिये, भगही गयेथे ॥ तो पिछे सम्यक्क शल्योद्धारवाले महात्माके लेखको, जूठा ठहरानेवाली, तूंही जूठका पुतलारूप बनी हुई, कि सवास्ते महात्माको जूठा कलंक देती है ? और जो तूं लिखती है कि हमने तो नाभेमे ही एक चर्चा देखी है, तो हम पुछते है कि, जब पंजाबम ही, तेरे पूज्य सोहनलालकी, पांच सातबारी खराबी हुईथी, तब तूं कौनसे पहाडकी गुफा में, बैठीथी ? जो तूंने कुछ मालूम ही न रहा क्या यूंही महात्माओंको, जूठा कलंक देने से, तुमेरा पाप छुपेगा ? कभी न छुपेगा । और जो तूं लिखती है कि, नाभामे तो, पूजेरांकी ही पराजय हुई, सो भी कैसे समजेंगे, मुनिश्री वल्लभविजयजीने यथायोग्य लिखके दिखाभी दि For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदव्यासके-ढूंढियोंका, विचार. ( १९३ ) या है, तोभी हम यह कहते है कि जूठा पंथका जयतो, तीनकाल मेंभी नही हो सकने वाला है ? अगर फिरभी जो निश्चय करनेकी इच्छा होतो, एक जगो मध्यकी नीयतकरके, चार मध्यस्थ पंडितोको बुलवाके, निर्णय करलो कि, तुमेरे ढूंढक पंथमे, सत्यपणा कितना है, सो मालूम हो जायगा. हमने तो यह भी - लोको के मुखसे, सुनाथा कि-सोहनलालको जब साधु, श्रावकोंने मिलकर पूज्य पदवी दिई, तब लेख करा लियाथा कि, पूजेरोंकी साथ चर्चा करनेको जावोंगे, तब तुमेरी पूज्य पदवी हम न रहनेदेंगे, सो तेरे लेख से भी यही मालूम होता है कि, यह भी बात सत्यही होगी ? क्योंकि नाभाकी चर्चा के समयमें सोहनलाल पूज्य आप नही जाता हुवा. पोते चेलेको भेजा अथवा, तुमेरी बात - तुमही जानो, हम निश्चयसें नही कह सकते है, || और विहारीलाल आदि ढूंढियें साधुओं को, में, में, करनेवालें लिखके, बकरें बनाये है, सोभी तेरी अत्यंत उन्मत्तता ही तूने दिखाई है, इसमें केवल अनुचितपणा देखकेही लिखना पडा है, नही तो हमारा कोई भी संबंध नही है, परंतु तेरी स्त्री जातिमें तुछता कितनी आगई है ? ॥ फिर, लिखती है कि, वेदव्यास हुयें जब भी - जैनी ढूंढिये ही थे, हम पुछते है कि - तुमेरा गाममें तो घर न था, और सीममें खेत न था, तो पीछे क्या तुम ढूंढियोंने- पातालके, विलमें-वास कियाथा ? जो वेदव्यासके समय में भी तुमही थे ? लेखतो साध्वीपणेका और चलन तो चोर चंचलोंका, जूठ बोलना तो बुरा, और जूठका तो पारावार ही नही, तुमेरी गति क्या होगी ॥ ॥ फिर, शिवपुराणका - श्लोक, लिखा है-सोभी जुठा, और For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) वेदव्यासके-ढूंढियोंका, विचार. अर्थ किया है, सो भी-जूठा, जहां देखो उहां जूठ ही जूठ ॥ देखिये शिवपुराणके श्लोकोंकी हालत, और अर्थ करनेकी भी चातुरी मुंडं मलिनवस्त्रंच, कुंडिपात्रसमन्वित । दधानं पुंजिकं हस्त चालयं ते पदे पदे ॥ २ ॥ ॥ वस्त्रयुक्तं तथा हस्तं, क्षिप्पमाणं मुखे सदा । धर्मेति व्याहरंतं तं, नमस्कृत्य स्थितं हरेः ॥ ३ ॥ अब देखिये ढूंढनीजीके श्लोककि-मुंडं, चाहिये उहां तो किया है-मुंड । पुंजिक हस्ते, चाहिये उहां तो किया है-पुंजिका हाले. ॥२॥। मुखके, स्थान-सुख ॥ ३ ॥ ॥अब देखिये अर्थका हाल--पगपग देखके चलें, अर्थात् ओघेसे-कीडी आदि जंतुओंको,हटाकर-पग रख्खे । पाठक वर्ग! ऐसा कौन जैनका साधु देखाकि, जाहेर रस्ता पर, ओघेसें-पुंज पुंजके, पांउको-धरता है ? और कब एसी भगवंतने भी-आज्ञा दिई है ? कि जाहेर रस्तेपर-पुंज पुंजके, पग धरो ? क्यों कि-शास्त्रकी तो, यह आज्ञा है कि-युग प्रमाण जमीनको देखके-चलना, ( अर्थात् चार हाथ जमीन तक-निगा करके चलना ) तो पीछे यह ढूंढनी, कहांसें ढूंढके लाई कि, जाहिर रस्तेपर भी, ओघेसें-कीडी आदि जंतुओंको हटाकर, पग रख्खे ? यह क्या दया हुईके, दया मूढता? सो पाठकवर्ग ही विचार करें । ____ अब तिसरा श्लोकके, अर्थमें-देखो-मुखवत्रिका करके-ढकते हुए सदा मुखको, यहतो ठिक है, परंतु तथा शब्दसे-किसीकारण मुखपत्तीको, अलग करें तो, यह तथा शब्दका अर्थ-कैसेंहोगा? और र इहां जाहिर बातका-प्रतिपादनमें, किसीकारणका-प्रयोजनही, For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जूठ आदिकसे-मनका मलीनताका, विचारः (१९५ ) क्याहै, ? और आधाही श्लोकका अर्थ करके-धर्मेति व्याहरंतं इसपदका अर्थतो-कियाही नहीं, क्योंकि-ढूंढक मतमें, धर्मलाभ, ही देनेके वास्ते नहीं है तो,फिर अर्थही करेंगे क्या ? तो भी ढूंढनी, अपना ढूंढक मतको-बेदव्यासतक, पुहचानेका प्रयत्न करती है ? हे ढूंढनी ऐसे अघटित प्रमाण देती वखते तूं कुच्छभी विचार कर. ती नही है ? तुमजो बने हुये है सो वनेही है, किस वास्तें ऐसे जूठे प्रमाण दके, आपना उपहास्य करातेहो ? जो सत्य है सोई सत्य रहेगा, कुच्छ पीतलका सोना नही होजाता है. ३ ॥ ढूंढनी--पृष्ठ. १७२ ओ. ५ से-निंदा, जूठ,दुवर्चन, आदि सहित, पुस्तक छपनेमें, पाप लगता होगा ? वैशाप्रश्न उठायके, उत्तरमें लिखती है कि अवश्य लगता है, क्योंकि लिखने वालेका, और वांचने वालेका, अंतःकरण मलीन होनेसें ॥ ॥फिर. पृष्ठ. १७३ ओ. ६ से-अपने साधु स्वभावसे, विचारें कि-निरर्थक, निंदारूप, आत्माको--मलीन करने वाली, पुस्तक बनानेमें, व्यय करेंगे, उतना समय, तत्व के विचार, व, समाधिमें, लगायेंगे । जिससे पवित्रात्मा हो । मानही श्रेष्टहै ।। . दोहामूर्खका मुख बंबहै, बोले वचन भुजंग । .. ताकी दारू मौनहै, विष न व्यापे अंग । १ । यह समन कर-न लिखे, परंतु वांचतेही-क्रोध आनसेभी तो, कर्मबंधे ॥ फिर. पृष्ठ, १७४ ओ. २ से-परंतु मेरी तो सब भाइयोंसे, प्रार्थना है कि-न तो ऐसें पुस्तकें छापो, न छपाओ, क्योंकि-जैनकी निंदा करनेको तो-अन्यमतावलंबी ही, बहुत हैं, तुम जैनी ही-परस्पर निंदा, क्यों करते कराते हो ।। For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६) जूठ आदिकसें-मनका मलीनताका, विचार, . ॥फिर. ओ. १३ से-विधिपूर्वक, धर्म प्रीतिसे, परस्पर मिल. के, शास्त्रार्थ किया करें । मनुष्य जन्मका यहही फल हैकि-सत्या सत्यका,निर्णय करे,इत्यादि । यदि इस पुस्तक के बनानेमें-जानते, अजानते, सूत्र कर्ताओ के-अभिप्रायसे, विपरीत लिखा गया हो तो-(मिच्छामि दुकडं) समीक्षा—पाठकवर्ग ! निंदा, जूठ और दुर्वचन, सहित पुस्तक लिखने वालेको, और वांचने वोलको-अंतःकरण मलीन होनेसें, पाप लगता है, यह बात तो सत्यही है, परंतु हमको तो इस लेखकी लिखने वाली ही, प्रथमयही कार्य करने वाली दि. खती है, क्यों कि-जिस जिनेश्वर देवकी-प्रतिमा को, जिनेश्वर सरखी मानके, लाखोभक्त, अपना आत्माका मलीनपणा दूर करने को भक्तिभावसे पूजन कर रहै है, उन सर्व पुरुषों का-अंतःकरण मलीन करनेके वास्ते, इस ढूंढनीने जान बजके, कई वर्षोंतक, प्रथम अपना ही अंत:करण महा मलीनरूप बनाके, यह महा पापका थोथा पोथा रूपकी-रचना किई,तो पिछे इनके जैसी ते दूसरी मलीन अंतःकरणवाली कौन ? ___अगर जो यह दूंढनी-महा मलीन अंतःकरण करके जूठा थोथा पोथाकी रचना, करनेकी प्रवृत्ति न करती, तो हमकोभी-हमारा तत्त्वका विचार, और ध्यान समाधिको-छोडकर, इनका पाप, दूर करनेकी-कोईभी आवश्यकता नहीं रहती, परंतु यह ढूंढनीही पापको ढूंढती है और लोकोंको-उपदेश देके, अपना साध्वीपणा दिखा रही है ॥ अब इनका साध्वीपणा देखोंकि-प्रथम जिनप्रतिमाकोतो-जड, पाषाण, पहाड,-आदि दुर्बचनसे तो, उच्चार करती है । और जिनशासनके आधारभूत महान महान् आचार्यों कोतो, हिंसाधर्मी For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनकी - मलीनताका, विचार, ( १९७१ | कभी तो मिथ्यावादी | कभीतो कहती है कि--अनघटित गपौडे, मा. रनेवाले | और कभीतो - सावद्याचार्य । और कभीतो-स्थिलाचाI री । और कभीतो - लाठापंथी | जो मनमें आवे सोही बकवाद क रनको अपना मुखको तो, बंबाही - वनारखा है, और 'दूसरोंको मूर्ख बनानेका, प्रयत्न करती है । क्या पर्वत तनयाका स्वरूपको धारणकरके, सब दुनीयाका - उद्धार करनेको, जन्मी पडी है ? जो सर्व आचार्योंकोभी, कुछ नही समजके- जो मनमें आवे सोही बक रही है ! अरे ढूंढनी विचार करके, जैनशासन के आधारभूत, महान् २ आचार्य ते कौन ? और तूं एक तुच्छ स्त्रीकीजाति मात्र ते कौन ? क्यों अत्यंत बहकी हुई अपना तुछपणाको प्रगटकर रही है ? तेरी स्त्रीजातिकी बुद्धि ते कितनी ? क्या उन महान आचार्योंकी - बरोबरी करनेको जाती है? बसकर तेरी चातुरी । --- फिर, लिखती है कि - जैनकी निंदा करने वालेतो, अन्यमतावलंबी ही बहुत है, तुम जैनीही परस्पर- निंदा क्यों करते, करातेहो || अगर जो तुम ढूंढकों - अपने आप जैनरूप समजते होतें तो, प्रथम तो यह पापका पोथा कोही प्रकट करवाते नही, अगर करवा या तोभी - जैन के महा शत्रुभूत बनके, जिस आर्यसमाजियोंनेजैन समीक्षा की पोथी प्रकटकरके, तीर्थकरोंकी, गणधरोंकी, और महान् आचार्योंकी, निंदा किईथी सो आर्य समाजियों, सरकार मारफते, दंडकापात्र भी बनचूके थें, और उनका पुस्तक भी रद करवाया गयाथा, सो तो जग जाहिरपणे ही जैनके वैरी हो चुके थैं उनकी पाससे जूठी प्रशंसापत्रिकाओं लिखवाकर —कबीभी अपनी थोथी पोथीमें, प्रकट करवाते नहीं ? परंतु विना गुरुके तुम For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) मनकी-मलीनताका, विचार. ढूंढकोंको, कोई भी बातकी लज्जाही नहीं है तो, हम तुमको कहेंगे ही क्या ? ॥ फिर लिखती है कि-विधिपूर्वक परस्पर मिलके, सत्याऽसत्यका निर्णय करें, यह तेरा कहना तो ठीक ही है परंतु जो मनमे आवे सोही, आधार विना, बकवाद करनेको तो, तुमेरा मुख-बंबा रूप बना हुवा है, तो पिछे निर्णय, किस विधसे करसकेंगे ! अगर जो विधाताने-तुमको, सत्यासत्यका विचार करनेको, मति दिई होवें तो, यह हमारी किई हुई, समीक्षासें भी, करसकोंगे ! और यह भी मालूम हो जायगा कि-तुमको सूत्र सिद्धांतका भी कितना ज्ञान है ? परंतु तुमको तो केवल हठ ही प्यारा मालूम होता है ? नही तो गणधरोका वचनसे-विपरीतही, क्यों लिखते ? ॥ ॥ फिर लिखती है कि इस पुस्तकमें,जानते अजानते,सूत्र कर्ताओंके अभिप्रायसे-विपरीत लिखा गया हो तो, मिछामि दुकडं ॥ वाहरे तुमेरा मिछामि दुकड वाह ! क्या जानके, जो तूने-१ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, और ४ भाव, यह चार निक्षेप मात्र है-उनका सूत्रके अभिप्राय विना आठ रूपसे लिखा है उनका ? अथवा चैत्य शब्दसे-जिनमंदिर. और जिनप्रतिमाका, साक्षात् पाठ है उनको टीका, टब्बाकारों से भी विपरीत लिखा उनका ? अथवाद्रौपदी परम श्राविकाको जिन प्रतिमाके स्थानमें--कामदेवकी प्रतिमा पूजनका कलंक दिया उनका ? अथवा महावीर स्वामीके परम श्रावकोका-कयबाल कम्माके पाठसें, जिन मूर्तिकी भक्तिको छुडवायके दररोज पितर-दादेयां-भूतादिक मिथ्यात्वी देवोंकी पूजाका कलंक चढाया उनका ? अथवा-अंबड श्रावकका जिन मूर्तिके वंदनादिकमें गपड सपड अर्थ करके दिखाया उनका ? अथवा For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनकी-मलीनताका, विचार. (१९९) जंघाचारण मुनियोंकी पाससे शाश्वती जिन पतिमाकी स्तुतिके स्थानमें नंदीश्वर द्वीपादिकमभी ज्ञानना ढेरकी स्तुति करवाई उनका ? अबमिछामि दुक्कडं देती है तो क्या यह जानके किया हुवा सूत्रोंका उत्थापनारूप अघोर पापसे, एक मिछामि दुक्कड मात्रसे छुटसकेगी ! जो लिखती है कि, जानते किया हुवाकाभी मिछामि दुक्कडं ॥ __हांजो कोई अजानपणे, दृष्टि दोष हुवा होतो, पश्चात्ताप करने सेभीछुटसके, परंतु तूंतो टीका, टब्बाकार, विगरे सर्वमहापुरुषोंसे, विपरीतपणे तो लेखलिखनेको तत्पर हुई है, तो पीछे एक मिछामिदुक्कडदेने मात्रप्से कैसे छुटसकेगी ?।। और यह तेरा उत्सूत्र प्ररूपणरूप लेखको, अनुमोदन देनेवालेभी तेरेहीसाथी क्यों न होंगे? क्यौंकि सूत्रका एकभी अक्षरका लोपकरने वालोको, अनंत संसारी कहा हुवा है, ऐमा मुखमैं तो तुमभी कहतेहो और तुमतो सैकडे शास्त्रोका, और सैंकडों पृष्टोपर-मूल सूत्रोंका लेखकोभी, और हजरो महान् जैनाचार्योंकाभी-अनादर करके, अपना मूढ पंथकी सिद्धि करनेके वास्ते-तत्पर हुयेहो, तो पीछे कल्याणका मार्ग ते कहांसें हाथ लगेगा ? हमने जो यह कहा है सोकुछ-द्वेषभावसे नहीं कहाहै, जो शास्त्रकारोंका अभिप्रायसे मालूम हुवा सोही कहा है ॥ इत्यलमाधिकेन । ॥ अब ग्रंथकी पूर्णा इति॥ ॥ किं विश्वोपकृतिक्षमोद्यमयी किं पुण्यपेटीमयी, किं वात्सल्यमयी किमुत्सवमयी पावित्र्यपिंडीमयी । किं कल्पद्रुमयी म. रुन्मणिमयी किं काम दोग्धीमयी, मूर्तिस्ते मम नाथ कां हदि गता धत्ते न रूपश्रियं ।। १ ॥ For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) ग्रंथकी पूर्णाहूति. अर्थ - - हे नाथ यह तुमेरी अलोकिक भव्यस्वरूपकी - शांत मूर्त्ति हैसो, क्या विश्व जे जगत है उनका उपकार करनेका सामवाली है ? अथवा क्या जगतका पुण्यकी रक्षा करनेके वास्ते एक पेटी के स्वरूपकी है ? अथवा क्या जगतकी सर्व प्रकार सें वत्सल्यता करणेका स्वरूपकी है ? अथवा क्या जगतको पवित्रता करनेका एक पिंड स्वरूपकी है ? अथवा क्या जगतका दालिद्र दूर करनेके वास्ते कल्प वृक्षके स्वरूपकी है ? अथवा क्या जगत्‌का चिंतित अर्थकी संपत्तिको देनेके वास्ते चिंतामणि रत्नके स्वरूपकी है ? अथवा क्या जगत्को इछित वस्तुकी प्राप्ति करने के वास्ते कामधेनुके स्वरूपकी है ? हे भगवन् मेरा हृदय में प्रकाशमान हुई किस किस रूपकी लक्ष्मीको धारण नही करती है ? अर्थात् जगतमें लोकोंकी कामनाको पूर्ण करनेवाली जो जो सिद्ध वस्तुओं हैं काही स्वरूप प्रगटपणे भासमान हो रही है ॥ १ ॥ ॥ इति श्री विजयानंद सूरीश्वर लघुशिष्येन अमरविजयेन सत्यार्थ चंद्रोदयजैनात्तररूप, ढूंढक हृदयनेत्रांजनं संयोजितं तस्य प्रथम विभाग स्वरूपं समाप्तं ॥ ॥ इति ढूंढक हृदयनेत्रांजनस्य प्रथमो विभागः समाप्तः || For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. || अथ ग्रंथका तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी ।। लिख्यो लखण निखेपको, फिर लिख्यो है पाठ । ढूंढने उस पाठ, किइ हैं नाठा नाठ ॥ १ ॥ ( २०१ ) 1 1 तात्पर्य- हमने जो यह - नेत्रांजन ग्रंथ, बनाया है, उसमें प्रथम मंगलाचरण लिखा है । और ग्रंथ करनेका प्रयोजन लिखके पिछे पृष्ट. २ से १४ तक चार निक्षेपका लक्षणके - चार श्लोक, लिखे है । पिछे पृष्ट. १७ से २६ तक — श्री अनुयोगद्वार सूत्रका पाठ, लिखा है | पिछे पृष्ट २६ से ३० तक ढूंढनीजीके तरफका-लक्षण, और त्रुटक सूत्रका पाठ, लिखा है ॥ १ ॥ अरस परस के मेलसें, किई समीक्षासार । जूठ कदाग्रह छोडके, चतुर करोनि विचार ॥ २ ॥ तात्पर्य – ढूंढनीजीका लेख, और सिद्धांतकारोंका लेख, इन दोनोंका अरस परस के मेल से - प्र. ३१ से ४१ तक -चार नि क्षेपके विषय में, विचार करके दिखलाया है । उसका विचार - हे चतुर पुरुषो, तुम अपने आप करके देखो, तुमको भी यथा योग्य मालूम हो जायगा ॥ २ ॥ चार निखेप हि सूत्र में, कहें ढूंढनी आठ । केवल किई कुतर्क हैं, नहीं सूत्रमें पाठ ॥ ३ ॥ तात्पर्य - एकैक वस्तु में, चार चार निक्षेप, सामान्यपणे सें क रनेका, सिद्धांत कारोंने कहा है, परंतु उसका बिना, ढूंढनीजीने स्व कल्पनायें, दो दो विभाग परमार्थको - समजे करके - आठ वि For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. कल्प, खडे किये है । सो केवल कुतर्क ही किई है। परंतु जैन सिद्धांतोमें कोई ऐसा पाठ नहीं है । देखो इसका विचार दृष्ट. ४१ से ४७ तक ॥ ३ ॥ तीर्थंकर भगवानमें, कल्पित किया निखेप । उलट तत्त्व कथने करी, किया कर्मका लेप ॥ ४ ॥ तात्पर्य-ढूंढनीजीने ऋषभदेव भगवानमें भी-चार निक्षेप, कल्पित दिखाके, प्रथमके त्रण निक्षेप-निरर्थक, और उपयोग बिना के ही ठहराये है। परंतु चार निक्षेपमें सें--एक भी निक्षेप निरर्थक नहीं है । यह तो विपरीत लेखको लिखके ढूंढ नीजीने-अपना आस्माको, कर्मसें लेपित किया है । देखो इसका विचार. नेत्रां. दृष्ट. ४७ से ५२ तक ॥ ४॥ मूरतिमेंहि भगवानको, करावें चार निखेप । वस्तु भिन्न जाने बिना, भया हि चित्त विखेप ॥ ५॥ तात्पर्य-ढूंढनी नी भगवानकी, आकृति मात्रमें ही, भगवानके–चारों निक्षेप, हमारी पाससे करानेको चाहती है, परंतु इतना विचार नहीं कर सकी है कि-मूर्तिमें, पाषाण रूपकी वस्तु ही-भिन्न प्रकारसें, दिख रही है ॥ तैसें ही इंद्रसें-गूजरका पुत्र रूप वस्तु भी, अलग स्वरूपकी ही है ।। और खानेकी मिशरीसेंकन्यारूप वस्तु भी, अलग है । इस बास्ते इन सब वस्तुओंकाचार चार निक्षेप भी, अलग २ स्वरूपसे ही, किये जाते है । देखो इस बातका विचार, नेत्रां. टट. १३ से ७१ तक ॥ ५ ॥ मूर्ति स्त्रीकी देखके, जगें कामिको काम | जिन मूर्ति स्युं क्यों नहीं, भक्तको भक्ति ठाम ॥६॥ For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. ( २०३ ) - तात्पर्य - जब स्त्रीकी मूर्ति, कामी पुरुषोंको काम जागता है, तो पिछे - तीर्थकर देवके भक्तोंको, तीर्थकरों की मूर्तियांको देखके, भक्तिभाव, क्यौं न होगा ? अपितु अवश्य मेव होनाही चाहिये | देखो इस बातका विचार नेत्रां पृष्ठ ७१ सें ७२ तक ||६|| मूर्त्ति स्युं ज्यादा समज, नामसें नहि तादृश । तो तीर्थंकर मूर्त्तिस, ढूंढकको क्यौं रीस ॥ ७ ॥ तात्पर्य — ढूंढनीजी ने लिखा है कि- नाम सुननेकी अपेक्षा, आ. कार देखने से ज्यादा, और जल्दी समज आती है। तो पिछे तीकरोका - नाम मात्रको श्रवण करनेसें, आनंदित होनेवाले तीर्थंकके भक्तोंको, तीर्थकरों की ही भव्य मूर्तियांको देखनेसें, क्यौं रीस आती है ? | क्यौं कि - पशु, पंखी भी - आकार देखनेसें, विशेषपणे ही - समजुति, करलेते है । तो पिछे जो मनुष्यरूप होके, समजे नहीं, उनको क्या कहना ? | देखो इसका विचार. नेत्रां पृष्ट. ७२ से ७४ तक ॥ ७ ॥ अपनी स्त्री की मूर्ति, लाग्यो मलदिन तेह | - जिन मूर्त्तिसें हि ढूंढको, न धरें किंचित नेह ॥ ८ ॥ तात्पर्य - ढूंढनीजीने - लिखा है कि, मल्लदिन कुमारने, चित्रशाली में मल्लिकुमारीकी मूर्तिको देखके लज्जा पाई, और अदब उठाया । तो पिछे वीतराग देवके भक्त होके, जो वीतरागी मूतिसें - प्रेम, नहीं करते है, और अदबभी नहीं उठाते है, उनको तीर्थकरों के भक्त, किस प्रकारसें कहेंगे ? | देखो इसका विचार. नेत्रां पृ. ७४ सें ७६ तक ॥। ८ ॥ मुद्रिका में जिन मूर्त्तिकु, राखी दरसन काज । करणी वज्रकरणतणी, ते तो कहैं काज ॥ ९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. तात्पर्य - सम्यक धर्मका पालन करनेके वास्ते - वज्र करण राजा, अपनी अंगूठी में - बारमा वासु पूज्य स्वामी तीर्थंकरकी, मूर्त्तिको रख के - हमेशां दर्शन करता रहा, उस वातमें ढूंढनीजी कहती हैं कि - करने के योग्य नहीं। तो क्या ढूंढनीजीने - पितर, दा देयां, भूत, यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंकी क्रूर मूर्तियांकी पूजा कराके, तीर्थंकर देवोंकी - निंद्या करनी, योग्य समजी ? । फिरभी एक कुतर्क की हैं कि - मूर्त्तिके आगे, मुकद्दमें नहीं हो सकते है । तो पिछ ढूंढनीजी भगवानका - नाम मात्रके आगे, मुकद्दमें कैसे चलाती है ? | क्या तीर्थकरों का नामको जपनेका निरर्थक मानती है ? || देखो. नेत्रां. ७६ से ७७ तक ॥ ९ ॥ मूर्ति मित्र की देखकर, ढूंढक जनको प्रेम । देखी प्रभुकी मूर्त्तिको, क्यौं बंदन में वेम ॥ १० ॥ • तात्पर्य — ढूंढनीजी ने लिखा है कि- मित्रको मूर्तिको देखकेप्रेम, जागता है | परंतु भगवानकी मूर्तिको देखके तो कोइ खुश हो जाय तो हो जाय । परंतु भगवान्की पूजा कभी नहीं करनीदेखो. नेत्रां ए ७८ से ८१ तक || परंतु सत्यार्थ. ट १२४ से १२६ तक कयब लिकम्मा, के पाठमें, वीर भगवान के परम श्रावकों की पाससें - कोइभी प्रकारका लाभ के कारण बिना, तीर्थकर भगवान के बदले में - पितर, भूतादिकों की क्रूर मूर्तियां पूजानेको तत्पर हुई || और सत्यार्थ. ए. ७३ में धन पुत्रादिककी लालच देके, यक्षादिकों की - भयंकर मूर्त्तियांको, पूजानेको तत्पर हुई || कैसी कैसी अपूर्व चातुरी प्रगट करके दिखलाती है ? ॥ १० ॥ गौ गौ केहि पुकारसें, मिलावें दुध मलाइ । गौकी मूर्त्ति स्युं नहीं, ढूंढनीने छुपाई ॥ ११ ॥ - For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२०५) तात्पर्य–दुधकी इछा वालेको जैसे पथ्थरकी गौसें, दुध न मिलेगा । तैसें ही-गौ गौ के पुकार करने मात्रसें भी, दुध न मिलेगा। तो पिछे ढूंढनीजी भगवान् २ ऐसें, नाम मात्रका पुकार करनेसें भी-अपना कल्याण, किस प्रकारसें, कर सकेगी ? ॥ तर्कअजी नामके अक्षरोंमें, हमारा-भाव, मिला लेते है। हम पुछते है कि-नामसें भी विशेषपणे, तीर्थंकरोंके स्वरूपका बोधको करानेवाली, बीतरागी मूर्तिमें से-तुमेरा भाव, कहां भग जाता है ? क्या-पितर, दादेयां, भूत, यक्षादिकोंकी-भयंकर स्वरूपकी मूर्तिमें, फस जाता है ? । देखो. नेत्रां. पृ. ८१ से ८४ तक ॥ ११ ॥ मानो किस विध भलसें, अखरसे हुये ज्ञान । ढूंढनी हमको कहत है, द्वेषसु बनी बेभान ॥ १२ ॥ __ तात्पर्य-ढूंढनीजीका मानना यह है कि-साक्षात् स्वरूपका बोधको करानेवाली, तीर्थंकरोंकी तो-मूर्तिसें । और ऋषभ देवा. दिक-नामके अक्षरों सेंभी, तीर्थकरोंका-बोध, होता नहीं है । तो क्या हमारे ढूंढक भाइयांको-तीर्थकर भगवान, साक्षात् आके मिलनाते है ? । अथवा एक अपेक्षासे ढूंढनीजीका कथन कुछ सत्यभी मालूम होता है, क्योंकि-गुरुज्ञान विनाके, हमारे ढूंढक भाइयां कोअपने आप जैन सूत्रोंको वाचनेसें, विपरीत ही विपरीत-ज्ञान होता है । देखो. नेत्रां० पृ. ८४ से ८८ तक ।। १२ ॥ पंडितोंसें सुन लीई, देखि सूतर माही। तोभी ढूंढनी कहत है, मूर्ति पूजा कछु नाहि ॥१३॥ तात्पर्य-ढूंढनीजीने ही-जिन मूर्तिका पूजन, पंडितोंसें सुना । और जैन सिद्धांतोमें-लिखा हुवा भी, देखा । तोभी ढूंढ नीजी For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बाधनी. कहती है कि-मूर्ति पूजाका, सूत्रों में जिकर ही नहीं । क्या ज्ञानकी खूबी है ? देखो नेत्रां पृ. ८८ से ८९ तक ।। १३ ॥ दो अक्षरके नाममें, दिखें प्रत्यक्ष देव । नहीं तिनकी मूर्तिमें, कैसी पडी कुटेव ॥ १४ ॥ तात्पर्य-सत्यार्थ. पृ. ५० में-भगवानके दो अक्षरका-नाम मात्रको, गुणा कर्ष कह करके, उसमें ढूंढनीजी-भावको मिलानेको कहती है । तो पिछे तीर्थकरों के स्वरूपका-ताश बोधको कराने वाली, तीर्थंकरोंकी भव्य स्वरूपकी मूर्तियां, लाखोकी गिनतीसें, विद्यमान होतेहुयें भी उनको छोडकरके, ढूंढनीजीका-भाव, मिथ्या त्वी यक्षादिकोंकी-क्रूर स्वभावकी मूर्तियां क्यों फसजाता है ? । क्या तीर्थकरोके साथ, हमारे ढूंढक भाइयां को-कोइ पूर्वभवका वैर जाग्या है ? ॥ १४॥ श्रुति मात्र हि जिन मूर्तिमें, ढूंढनी करें निषेध । यक्षादिकमें आदरे, यही बडा हम खेद ॥ १५॥ तात्पर्य-सत्यार्थ. पृ. ६७ में-दूंढनीनी, मूर्तिमें-श्रुति मात्रभी लगानेका, निषेध करती है । और ष्ष्ट. ७३ में—पूर्ण भद्र यक्षादि. कोंकी, मूर्ति भोंका । और पृष्ट. १२६ में-पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी-मूर्तिओं का, फल फूलादिक-महा आरंभसें, पूजा को कराती हुई, सब कुछ करानेको तत्पर हुई है । ढूंढ नीजीका इस लेखमें, हमको यह विचार आता है कि-आजतक हमारे ढूंढकभा. इओ, जो जैनधर्मसें, आधेभ्रष्ट हो गये है, उनको सर्वथा प्रकारसेंभ्रष्ट करनेके वास्ते, ढूंढनीजीने-इस लेखको, लिखा है ! क्योंकि जो पुरुष, जिस देवताकी मूर्तिका पूजन करेगा, सो पुरुष उस दे. वताका-१नामभी जपेगा, और उस २मूर्तिमें-अपनी ३श्रुतिभी, For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. - ( २०७ ) लगावेगा, और साथमें - अपना ४भावभी, मिलावेगा । तबही अपना इछित फलको - मिलावेगा, यह बाततो अनुभवसें सिद्ध रूपही है | हमारे दंढकभाइओ, जैनधर्मका सनातनपणेका तो दावा करनेको जाते है | और तीर्थकरों की भक्तिको - सर्वथा प्रकारसे छुडवायके, केवल यक्षादिको ही सर्वप्रकार से भक्ति करानेको, तत्पर होते है ? अहो चिंतामणि रत्न तुल्य, जो वीतराग देवकी भक्ति है, उनको छुडवायके - काच तुल्य जो यक्षादिक देवताओ है, उनकी तुछरूप भक्तिमें, फसा कर के, भोले श्रावकोंको — जैन धर्मसें भ्रष्ट करते है ? यही हमको बडाखेद होता है ॥ १५ ॥ धन पुत्रादिक कारणे, दिखे मूर्त्तिमें देव ॥ दिसें नहीं जिन मूर्त्तिमें. निंदे जिनवर सेव ॥ १६ ॥ तात्पर्य - केवल संसारकी ही, वृद्धिका कारण रूप- जो धन पु· त्रादिक है उसको लेने के वास्ते तो हमारे ढूंढक माइयां को— मिथ्यावी यक्षादिक देवोंकी, भयंकर स्वरूपकी - पूत्तियांमें, साक्षात्पणे देव दिखपडता है । इस वास्ते तो, उनोंकी पथ्थर की मूर्तियांकोभी - पूजानेको, तत्पर होजाते हैं ? और वीर भगवान के परम श्रावकों पास सें- पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी, मूर्तियांकी - प्रयोजनविनाभी पूजा करानेको, तत्पर होजाते है ? मात्र वीतरागी ही - मूर्त्तिको देखके, तन मन में जलते हुये - निंदाही करनेको, तत्पर होजाते है | न जाने किस प्रकारका, अघोर पापका उदय, हुवा होगा ? ॥ १६ ॥ भक्त बनें अरिहंतके, उसी मूर्त्तिसें द्वेष । यक्षादिककी पूजना, करत विचार न लेश ॥ १७ ॥ तात्पर्य - हमारे ढूंढकभाइभ, तीर्थकरों के तो परम भक्त बन For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८, तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. नेको जाते है । और तीर्थकरोंकीही-मूर्तिसें, द्वेषभाव करते है। और जो मिथ्यात्वी देवताओंकी क्रूर मूर्तियां है, उनकी पूजा-महा आरंभ के साथ, करते हुये, और करावते हुयेको, एक लेश मात्रभी-विचार नहीं आता है । तो अब उनोंको ( अर्थात् हमारे ढूंढकभाइयांको ) किस प्रकारका-विपरीत बोध हुवा, समजना ? सो कुछ समज्या नहीं जाता है ॥ नाम सु मूरतिमें कहैं, ढूंढनी बोध विशेष । भाव मिलावे नाममें, करत मूर्तिसे द्वेष ॥ १८ ॥ तात्पर्य-सत्यार्थ. पृष्ट. ३६ में, ढूंढनीनी लिखती है कि-नाम सुननेकी अपेक्षा, आकार ( मूर्ति ) देखनेसें-ज्यादा, और जल्दी, समज आती है । ऐसा प्रगटपणे लिखके, तीर्थकरोंका केवल नाम मात्रमें ही भाव मिलाके-नामको, जपाती है । और यक्षादिक मिथ्यात्वी क्रूर देवताओंका, नामको भी-भाव मिलाके जपाती है ? । और उनोंकी-मूर्तियां भी, भावके साथ, पूजाती है ! । और उनोंकी-कर मूर्तियां में, श्रृति लगानेका भी—सिद्ध करके दिखलाती है ? । केवल तीर्थकरोंकी ही-भव्य मूत्तियांको, देखके, द्वेषसें-प्रज्वलित हो जाती है । हमारे ढूंढक भाइयांको, हमने किसके-भक्त, समजने ? ॥ १८॥ मूर्ति आगे न मुकदमें, कहत ढूंढनी एह । नाम मात्रसें मुकदमें, कैसें चलावे तेह ॥ १९ ॥ तात्पर्य–सत्यार्थ. पृ. ४२ में, ढूंढनीजीने, लिखा है कि-मूर्तिके आगे, मुकद्दमें नहीं हो सकते है ।अर्थात् भगवानकी-मूतिके आगे, अपना पापादिककी-आ लोचना, नहीं हो सकती है। For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२०९) तो पिछे हमारे ढूंढकभाइओ, तीर्थकरोंका नामके-अक्षरोंका, उचारण मात्रसें-अपने मुकद्दमें, कैसे चलाते है ? । अर्थात् अपना पापकी आलोचना कैसे करते है ? । जैसे-मूर्ति में, साक्षात् तीर्थकरो-नहीं है, तैसें ही-नामके दो अक्षर मात्रमें भी, साक्षात्पणेतीर्थंकरो, नहीं है ?। . __ जब नाम मात्रसें-मुकद्दमा चलानेका, सिद्ध होगा । तब तो उनकी-मूत्तिके आगे, विशेषपणे ही मुकदमा चलानेका, सिद्ध होगा । जैसें ढूंढनीजीने, यक्षादिकोंका नामकी-उपेक्षा करके, उनोंकी मूर्तियांकी आगे-प्रार्थना कराके, धन पुत्रादिक दिवायाथा । तैसें जिनमूत्तिके आगे, विशेषपणे-मुकद्दमा चलानेका, सिद्ध क्यों न होगा ?।। इसमें तो हमारे ढूंढकमाइयांकी-मूढताके शिवाय, दूसरा कुछ भी विशेष नहीं है ।। १९ ॥ यक्षादिकने पूजतां, ढूंढक स्वारथ सिद्ध । तीर्थ करकी पजना, करतां धर्म विरुद्ध ॥ २० ॥ तात्पर्य-सत्यार्थ. पृ. ७३ में, ढूंढनाजीने लिखा है कि-य. क्षादिकोंकी, जडरूप पथ्थरकी मूर्ति पूजासें-स्वार्थकी सिद्धि होती है । तो पिछे जिस तीर्थंकरोंके-एक नाम मात्रका, अक्षरोंको उच्चारण करनेसें, हम हमारा-आत्माका, स्वार्थकी सिद्धि, मानते है । उनोंकी मूर्ति पूजासे, हमारा आत्माका–स्वार्थकी सिद्धि, क्यों न होगी ? तर्क–साधु पूना क्यों नहीं करते है ? । उत्तरसाधु भी तो सदा भाव पूजा, करते ही है । मात्र-द्रव्यका अ. भाव होनेसें ही, द्रव्य पूजा करनेकी, मना किई गई है ।। २० ॥ For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१०) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. मूर्तिको मूर्ति हम कहैं, नहि करें नमस्कार । तीर्थकर तामें नहीं, ढूंढनी कहत विचार ॥ २१ ॥ नामके अक्षर मात्रसु, करत हो नमस्कार । तीर्थकर तामें दिसें, किस विध तुमको यार ? ॥२२॥ तात्पर्य—सत्यार्थ. पृ. ५७ में, ढूंढनीजी लिखती है कि-मूत्तिमें, भगवान नहीं है, यह तो अज्ञानीयोंने भगवान् कल्प रखा है, हम तो भगवानका-आकार, कहदेवे, परंतु-नमस्कार तो, नहीं करें, और लडडु पेडे, नहीं धरें ॥ २१ ॥ . .. ___ इसमें हमारा प्रश्न हे ढूंढकभाइओ ! ऋषभादिक नाम मात्रका, उच्चारण करके--तुम भी दररोज ही, नमस्कार करते हो। उस अक्षर मात्रमें -- तीर्थंकर भगवान, तुमको-किस प्रकारसें, दिख पडा। ___ जब तुमको नाम मात्रमें ही, देव दिख पडते है, तो पिछे ढूंढनीजीने यक्षादिक देवोंका, नाम मात्रको पढायके, हमारे ढं. ढकमाइयांको-धन पुत्रादिक, क्यों न दिवाये ? किस वास्ते यक्षादिकोंकी पथ्थरकी मूर्तियांके आगे, उनोंका मथ्था-वारंवार, घिसाती हुई, और महारंभको करवाती हुई, धन पुत्रादिक लेनेका सिखाती है ? ॥ २२ ॥ नमस्कार करें नामसु, तासु मिलावे भाव । विशेष बोधकी मूर्तिसु क्यौं ? भगजावे भाव ॥ २३॥ तात्पर्य-सत्यार्थ. ए. ५० । ५१ में, ढूंढनीजी-तीर्थंकरोंका, नाम मात्रमें ही-अपना भाव मिलानेका, कहकर-तीर्थकरोंको, For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२११ ) नमस्कार कराती है। और सत्यार्थ. ए. ३६ में, लिखती है कि हां हां नाम सुननेकी, अपेक्षा-आकार देखनेसें, ज्यादा-और जल्दी, समज आती है। ऐसा लिखके परमपूज्य तीर्थंकरोंकी भव्य मूर्तिके साथ-देष भाव करके, उनोंका केवल नाम मात्रमें ही, भाव मिलानेकोतत्पर हुई । और यक्षादिक महा मिथ्यात्वी देवोंकी, भयंकर मूर्ति है उसमें ही-हमारे ढूंढकमाइयांको भाव मिलानेका दिखाके, पूजा. नेको-तत्पर हुई ? । हे ढूंढकभाहओ ? अपना परमपूज्य तीर्थकर भगवानकी, भव्य मूर्ति सें-तुमेरा भाव, क्यौं भग जाता है ? उस बातका थोडासा तो-ख्याल करके, देखो ? ॥ २३ ॥ अनेक वस्तुका होत है, नाम तो एक प्रकार । स्थिर कहां मन होत है, ताको करो विचार ॥ २४ ॥ तात्पर्य-हे ढूंढक भाइओ, थोडासा एक क्षणभर विचार करो कि-ऋषभ देवादिक-नाम तो, एकही है, और-सत्यार्थ. पृ. १५ में, ढूंढनीजीने-पुरुष, पशु, पंखी, स्थंभ, आदि-अनेक वस्तुओंमे, रखनेका लिखा है । तो अब ऋषभ देवादिक-नाम मात्रका, उच्चारण करनेसें-तुमेरा मन, क्या पुरुषमें जाके, स्थिर होगा ?। अथवा पशुमें, वा, पंखीमें, कहां जाके स्थिर होगा ? उस बातका ख्याल करो ॥ २४ ॥ .. समव सरणमें होत है, भाव तुम्हारा स्थिर । सोही आकृति मूर्तिमें, करो विचार तुम धीर ? ॥ २५ ॥ तात्पर्य-हें धीर पुरुषो! विचार करो कि, ऋषभ देवादिकनामका, उच्चारण करनेसें, न तो-तुमेरा मन, पुरुषमें जाके-मिलेगा, For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) तात्पर्य प्रकाशक दुहा वावनी. और न तो-पशुमें, न तो-पंखीमें, और न तो- थंभादिकमें, जाके. मिलेगा । सो तुमेरा मन है सो तीर्थकर भगवानकी इछाको करता हुवा तीर्थकरोंके समवसरणमें ही, जाके मिलेगा । उहांपर तो-जो यह विशेष बोधको करानेवाली, तीर्थंकरोंकी-भव्य मूर्तियां है, सो ही तुमको-दिखनेवाली है। परंतु तीर्थकर भगवान के-नामका जाप करनेसें, तुमको तीर्थंकरोंकी-आकृति के शिवाय, दूसरा कुछ भी तुमेरे दिखनेमें आनेवाला नहीं है । किस वास्ते तीर्थंकरों कीभव्य मूर्तिकी भक्तिको छोड के, और-मिथ्यात्वी क्रूर देवताओंकी, भक्ति के वश हो के-अपना आत्माको, अघोर संसारका दुःख में डालते हो ? अबी भी क्षणभर सोचो ? ॥२५॥ तीर्थंकर के भक्तको, तीर्थकरका ज्ञान । नामको सनते होत है, नहीं म्लेछको भान ॥ २६ ॥ तात्पर्य-देखो कि-ऋषभादिक नामका, श्रवण करनेसे, अथवा उच्चारण करनेसें, जो तीर्थकरों के भक्त होंगे सोही, समवसरणमें रही हुई आकृतिका, (अर्थात् मूर्तिका) ज्ञान करेगा । परंतु म्लेछ होगा सो तो, समवसरणमें रही हुई-तीर्थकरों की आकृतिका, विचार कबी भी न करेगा । सो तो ढंढनीजीने दिखाया हुवा -पुरुष, पशु, पंखी, स्थंभादिक-वस्तुओंमेंसें, जिसको जानता होगा, उसीकी ही-आकृतिमें, अपना भाव मिलावेगा ? । किस वास्ते तीर्थकर भगवानकी-भव्य मूर्ति के विषयमें, जूठी कुतों करकेअपना नाश, कर लेते हो ? ॥ २६ ॥ नाम गोत्रका श्रवणसे, बडाहि लाभकी आश । भक्त करे भक्तिवसे, तो क्यों मूर्तिसे त्रास ॥ २७ ॥ -- तात्पर्य देखो कि, सत्यार्थ. पृ. १५२-१५३ में, ढूंढनीजी For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२१३.) ने-भगवती आदि अनेक-सूत्रोंकी, साक्षी दे के लिखा है किमहावीर स्वामिजीका, नाम गौत्र-सुननेसें ही, महा फल है । तो प्रत्यक्ष सेवा भक्ति करनेका जो फल है सो, क्या वर्णन करु. ॥ हे ढूंढकमाइयो, इहांपर थोडासा ख्याल करोकि-तीर्थकरोंका-जो नाम, और गोत्र हैसो, आजतक लाखो बलकन करोडो. ही क्षत्रियों के कुलमें दाखल होताही आया है । तोभी तीर्थंकरोंके भक्त है सोतो उनोंका-नाम, और गोत्र, श्रवण मात्रसें ही, तीथंकरोंकी-आकृतिमें, भक्तिके वससे लीन होके, आनंदित हुवामहाफलको ही प्राप्त कर लेता है । तो पिछे साक्षात्पणे-तीर्थकरोंकी आकृतिका बोधकों कराने वाली, तीर्थकरोंकीही-भव्य मूर्तिसे, हे ढूंढकभाइओ-तुमको किस कारणसें त्रास होता है ?। तुम कहोंगेकि-फलफूलादिककी पूजा देखके, त्रास होता है। सोभी तुमेरा कथन योग्य नहीं है। क्योंकि-तुमरी स्वामिनीजी तो-वीर भगवानके परम श्रावकोंकी पाससेंभी, फलफूलादिककी विधिसे-पितर, दादेयां, भूत, यक्षादिक जो मिथ्यात्वी देवो है, उनोंकी-पथ्थरसे बनी हुई मूर्तिका, पूजन-दररोज, कर.नेको त. स्पर हुई है । देखो. सत्यार्थ. पृष्ट. १२६ में ।। और-तुमको धन पुत्रादिककी लालचदेके, मोगरपाणी आदि यक्षोंकी-क्रूर मूर्तियांकी, फलफूलादिकसें-पूजा करानको तो, अलगपणेही-उद्यत हुई है। देखो. सत्यार्थ. पृ. ७३ में ॥ ते दोनों प्रकारकी-भयंकर मूर्तियांका, पूजन करानेसें, न तो तुमेरी स्वामिनीजीको त्रास हुवा । और न तो तुमको-पूजनेसेंभी त्रास हुवा । तो पिछे-वीतराग देवकी भव्य मूर्तिका, पूजनसें तुमको-क्यौं त्रास होता है ? । क्या कोइ संसारकी अधिकता रही हुई है ? | थोडासा तो सोच करो ? क्या केवल मूढ बनजाते हो ? ॥ २७ ॥ For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. नामादिकसे वस्तुका, वस्तुहि तत्त्व विचार । नहीं नामादिक तत्वहै, ते तो भिन्न प्रकार ॥ २८ ॥ तात्पर्य - अब हम एक दुहा में, किंचित् तात्पर्य कहते है कि-न तो ऋषभादिक नामोंके, अक्षरोंमें साक्षात्पणे तीर्थकर भगवान् बैठे है, तो भी इहां परतो ढूंढनाजी - अपना भाव मिलानेका, कहती है। और तीर्थंकरोंका - गुणादिकको याद कराती हुई, नमस्कारादिकभी कराती है । और जो तीर्थंकरोंका - विशेषपणे बोधको कराने वाली, तीकरोंकी - भव्य मूर्तियां है उहांसें, वीरभगवान के परमश्रावको हैंउनोंकाभी भावको हटाती हुई, यह विचार शून्या ढूंढनीजी — जो पितर, दादेयां, भूत, यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंकी, भयंकर - मूर्तियां है, उसमें भाव मिलानेका, सिद्ध करके दिखलाती है । और ते क्रूर देवताओंको - पूजानेकोभी, तत्पर हुई है ? | और तीर्थकरोंकीभव्य मूर्तियां में, हमारे ढूंढकभाइयां को श्रुति मात्र भी लगानेका, निषेध करती है ।। w सारी आलम दूनीया तो- जिस देवताका नाममें, अपना--भाव मिलाकरके, जिसका नामको, स्मरण करते होंगे, उनोंकीही- मूर्तिमें, अपना — भाव मिला करके, पूजन करेंगे । परंतु हमारे ढूंढकभाइओ - नाम तो जपाते है तीर्थकरोंका, और पूजन कराते है --मिथ्यावी देवताओं की क्रूर मूर्तियांका, कैसा अपूर्व धर्मका मार्गको ढूंढ ढूंढ करके निकाला है ? ॥ - इहां पर थोडासा ख्याल करो कि तीर्थकररूप वस्तु-जैसें मूर्त्तिमें नहीं है, तैसेही— उनोंके नाम मात्रमंत्री, नहीं है। तोभी दानोंभी प्रकार में - तीर्थकर रूप वस्तुकाही विचारसें, नमस्कारादिक कर For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२१५ ) णा-योग्यपणे सेंही सिद्ध होता है । किस वास्ते तीर्थंकरोंकी-अवज्ञाकरके, अपना संसारकी वृद्धि करले ते हो ? ॥ २८ ॥ हित सुख मोक्ष के कारणे, पूजे शाश्वत बिंब । व्यवहारिक कर्त्तव्य कही, रोपें कडवा नींब ॥ २९ ॥ तात्पर्य देवलोकमें, शाश्वती जिन प्रतिमाओंका पूजन, देवताओ अपना-हित, मुख, और परंपरासें मोक्षका कारण समज के, सदा करते है । ते देवताओंका-जिन पूजनको, ढूंढनीजी केवल-लाभ बिनाका, व्यवहारिक कर्म कह करके-कडवा नींवका रोपा लगाती है। परंतु इतना मात्र भी विचार नहीं करती है कि-सम्यस्क दृष्टि जीवोंकी करनीका लोप, मैं कैसे करती हुँ ? देखो. नेत्रां० पृ. ९३ सें ९४ तक ॥ २९ ॥ नमोथ्थुणं के पाठसें, करें वंदना देव । तामें कुतर्क करी कहैं, परंपराकी सेव ॥ ३०॥ .. तात्पर्य देवलोको, इंद्रादिक देवताओने-जे शाश्वती जिन प्रतिमाओंका पूजन, अरिहंतों की भक्ति के वास्ते, और अपना भवोभवका-हित, सुख, और मोक्षका-लाभ की आशा करके, किया ते । और अरिहंतोंकी-स्तुतिरूप, नमोथ्थुणं, का पाठको पन्या ते । ढूंढनीजीने-लाभ बिनाका, परंपराकी सेवारूप, सिद्ध करकेदिखलाया । और ते देवताओंकी तरां, अपना भवोभवका कल्याण कर लेने की इच्छावाली हुई-द्रौपदीजी परम श्राविकाने, अशाश्वती जिन प्रतिमाओंका-पूजन किया । और वही तीर्थंकरोंकी स्तुतिरूप-नमोथ्थुणंका, पाठ तीर्थंकरोकी मूर्तियांके आगे पढ़ा ! उस पवित्र पाठमें-जूठी कुतकों करके,जिन प्रतिमाको For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. तो-काम देवकी मूर्ति ठहराइ, और तीर्थकरोंकी स्तुतिरूप-नमोथ्थुणं, का पाठ, तदन अयोग्यपणे-मिथ्यात्वी काम देवकी, मूर्तिके आगे-पढानेको तत्पर हुई, ऐसी जगें जगें पर-जूठी कुतकों करके, आप नष्ट होते हुये-हमारे ढूंढकभाइओ, दूसरे भन्यजनोंके धर्मका भी नाश करनेको-उद्यत होते है ? कैसें २ निकृष्ट बुद्धिवालेदूनीयामें, जन्म पडते है ? देवताओंकी समीक्षा. देखो. नेत्रां. प्र. ९५ से ९९ तक ॥ द्रौपदीजीको-नेत्रां. ए.११० से १४ तक||३०|| सैंकड पृष्टोंपर कहैं, सूत्र में पाठ अधिक। गुरु विना समजे कहां, परमारथको ठिक ॥ ३१ ॥ . - तात्पर्य-ढूंढनीजीने, सत्यार्थ. ए. ७५ में लिखा है कि हम देखते है कि, सूत्रोंमें ठाम २ जिन पदार्थांसें, हमारा विशेष करके -आत्मीय स्वार्थ भी, सिद्ध नहीं होता है-उनका विस्तार, सैंकडे प्रष्टोंपर [ सुधर्म स्वामीजीने ] लिख धरा है। ऐसा लिखके ज्ञाता सूत्रका, जीवाभिगम सूत्रका, और राय प्रश्नी सूत्रका-सैंकडों एष्टों तकका, मूल पाठोंको-निरर्थक ठहराया है । परंतु जिस सूत्रमें-एक चकार, अथवा-वकार, मात्र भी, गणधर महापुरुषोंने-रखा हुवा होता है, सो भी सैंकडो अर्थोके-सू. चक, होता है । ऐसें महा गंभीरार्थ-सूत्रोंका, मूल पाठोंको भीसैंकडो पृष्टों तकका, निरर्थकपणा-उहराती है ? । परंतु इतना मात्र भी विचार नहीं करती है कि, जिस सूत्रका-एक अक्षर मात्र भी, कोइ पुरुष-आगा पाछा करें तो, उनको-अनंत संसार भ्रमण तकका, प्रायश्चित्त होता है, तो पिछे ऐसें महा गंभीर सूत्रके मूल पाठोंको सैंकडो पृष्टों पर-निरर्थक, कैसे कहे जावेंगे ? । परंतु-गुरु ज्ञान बिनाके हमारे ढंढकभाइओ, गणधर महापुरुषोंका विचारकोठीक २ कहांसें ममजेंगे ?॥ ३१ ॥ .. For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२१७ ) चैत्यसै जिनप्रतिमा कहैं, जगें२ ग्रंथकार । ढूंढनी मन गमतो करें, अर्थ अनेक प्रकार ॥ ३२ ॥ तात्पर्य-चैत्य, पदका अर्थ-जिन प्रतिमा,जैन सिद्धांतकारोंने, जगें जगें पर-वर्णन किया हुवा है। परंतु ढूंढनी पार्वतीजीने, ते चैत्य पदका अर्थ, जैसें मनमें आया तैसें ही-भिन्न २ प्रकारसें, गणधरादिक सर्व सिद्धांतकारोंको-अवज्ञाके साथ,करके दिखलाया है । सो ही हम क्रमवार सूचना मात्रसें, पाठक वर्गको याद कराते है, सो ख्याल पूर्वक विचार करतें चले जाना ॥ ३२ ॥ अंबडजीके पाठमें, कियो व्रतादिक अर्थ । लोपें अर्थ जिन मूर्तिका, कितना करें अनर्थ ॥ ३३ ॥ तात्पर्य-- अबंड श्रावकजीके अधिकारमें-अरिहंत चेइय, पाठका अर्थ-अरिहंत भगवानकी मूर्तिका, सर्व जैन सिद्धांतकारोंने जगें जगें पर किया हुवा है । और ते अर्थ योग्यपणे ही होता है क्योंकि-अरिहंत, कहनेसें तीर्थंकर भगवान, और-चैत्य, कहनेसें-प्रतिमा, अर्थात् अरिहंतकी प्रतिमा । इसका अर्थ ढूंढनीजीने सत्यार्थ. ए. ७८ से ८६ तक, लंब लंबाय मान-सम्यक् ज्ञान, सम्यक व्रत, वा अनुव्रतादिक, बे संबंधका करके दिखाया। देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. पृ. १०४ सें, पृ. १०८ तक ।। ३३ ।। रुचक नंदीश्वर द्वीपमें, मार्त वादे सु पेर। जंघा चारण मुनिवरा, दिखावें ज्ञानकोढेर ॥३४॥ ___ तात्पर्य-जंघा चारण विद्याचरणकी-लब्धि, जिस मुनियांको हो जाती है, ते मुनिओ-रुच द्वीपमें, नंदीश्वर द्वीपमें जाके.-चेइ For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. याइं, वंदइ, अर्थात् उहां पर रही हुई - शाश्वती जिन प्रतिमाओंको, वंदना करते है । पिछे इस भरत क्षेत्रमें आके - बडे बडे तीर्थों में रही हुई, अशाश्वती जिन प्रतिमाओं को - वांदते है । इस विषय में ढूंढनीजी - सत्यार्थ. ए. १०१ से १०६ तकमें, अनेक प्रकारकी जूठी कुतर्कों करके, और पृ. १०२ में - रुचकादिक द्वीपमें रही हुई, शाश्वती जिन प्रतिमा को - मान्य करके भी, छेवटमें उहांपर- ज्ञानका ढेरकी स्तुति करनेका, बतलाती है । ढूंढनीजीको - वीतरागीमूर्त्तिसें, कितना द्वेषभाव हो गया है । देखो. नेत्रां. ए ११७ से २१ तक ॥ ३५ ॥ चमरेंद्र के पाठ में लिखा अरिहंत चैत । > पद विशेष जोडी कहै, चैत्यपद यह विपरीत ॥ ३५॥ तात्पर्य - चमरेंद्र उर्द्ध लोकमें गया, तब शक्रेंद्रने विचार किया कि- १ अरिहंतकी, २ अरिहंतकी प्रतिमाका, अथवा ३ कोई महात्माका | इस तीन शरणमें सें - एकाद शरण लेके, देवता उर्द्धलोकमें आसकता है, ऐसा सकेंद्रने विचार किया है, इसमें दूसरा शरण- अरिहंत चेइयाणि, अरिहंत सो तो तीर्थकर भगवान, और चैत्य कहनेसेंप्रतिमा, अर्थात् अरिहंतकी प्रतिमाका, शरण लेनेका विचारा है। और अंबड श्रावकका पाठकीतरां, सर्व जैनाचयाँने - एकही अर्थ करके दिखलाया है । तोभी ढूंढनीजी सत्यार्थ पृ. १०९ से १३ तकमें, अनेक जूठी कुतर्कों करके, और पद शब्दको, विशेषपणे जोडके - अरिहंत पद का अर्थ करके दिखलाती है। अब ख्याल करोकि-इस अरिहंत चेइयाइं, का अर्थ, अंबडजीके अधिकारमें For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. ( २१९ ) - सम्यक् ज्ञानादिकका करके दिखलाया । और इस चमरेंद्र के वि षयमें यम - चैत्य पद, करके दिखलाया । ढूंढनीजी वीतराग देवकी बैरिणी होके, जो मनमें आता है सो ही लिख मारती है या नहीं ? देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां पृ. १२९ से १२५ तक ।। ३५ ।। I बहवे अरिहंत चैतमें, पाठांतरसु विशेष । सिद्धि जिन प्रतिमा तरणी, नहीं मीनने मेष ॥ ३६ ॥ तात्पर्य - सत्यार्थ पृ. ७७ में, ढूंढनीजीने, लिखा है कि-उवाईजी सूत्रके आदहीमें, चंपापुरीके वर्णनमें ( बडवे अरिहंत चेहय ) ऐसा पाठ है, अर्थात् चंपापुरी में बहुत जिनमंदिर है । इसके उतरमें लिखती है कि यदि किसी २ प्रतिमें, यह पूर्वोक्त पाठ है भी, तो वहां ऐसा लिखा है कि- ' पाठांतरे || ऐसा लिखके ते पाठको लोप करनेका प्रयत्न किया है। परंतु वहां आयारवंत चेइय, का दूसरा पाठमें भी चैत्य शब्दसे, दूपटपणे - जिनमंदिरोंकी सिद्धि होती है ! तोभी ढूंढनीजीने-अंडजीके विषयमें, इसी चैत्य शब्दका अर्थ- सम्यक ज्ञानादिक करके दिखलाया । और चमरेंद्रके विषय में - चैत्य पद, अर्थ करके दिखलाया । और इहांपर सder प्रकार - लोप करनेको, तत्पर होती है ? | 1 परंतु चैत्यशब्द से - जिनप्रतिमाकी सिद्धिमें, मीन राशिकी - मेष राशि होने वाली नहीं हैं । किस वास्ते वीतराग देवकी - आशातना १ पाठांतरका अर्थ यह है कि, उसी अर्थका प्रकाशक, दूसरा पाठसें, स्पष्ट करना । जैसें सत्यार्थ पृ. १ ले में, निक्षेपने (करने ) । पृ. ७० में. श्मश्रु ( दाडी मुछ) इत्यादिक देखो, विशेष प्रकाशक है कि- लोपक है ? | For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. करके, अघोर कर्मका बंधन करते हो ? देखो. नेत्रा. ए. १०३ से ४ तक ॥ २६ ॥ आनंदके अधिकारमें, पाठ छिपावें अबुज्ज । गुरुविना समजे नहीं, जिनमारगका गुज्ज ॥ ३७॥ __ तात्पर्य-आनंद श्रावकजीके अधिकारमें, ढूंढनीजीने-सं. १९८६ के शालकी जूनीपरतमें, ऐसा देखाकि-(अण्ण उथ्थिय परिग्गहियाइ चेइया ) परंतु ( अरिहंत चेइयाइं ) ऐसा नहीं देखा, ऐसा सत्यार्थ. पृ. ८९ में, लिखा ॥ और ट. ८८ में, इसी पाठको-प्रक्षेपरूप, ठहराया । परंतु जो हमारे ढूंढकभाइओं किंचित् विचार करेंगेतो, इस आनंद श्रावकजीके-सर्व प्रकारके पाठोंमें, सर्व जगेंपर-चेइय शब्द आनेसें, उनका अर्थ-जिनप्रतिमाकाही होगा?! तोभी ढूंढनीजीने, अनेक प्रकारकी जूठी कुतकों करके, ते पाठका सवंथा प्रकारसें-लोपकरने काही, विचार किया। जब ढूंढनीजी, इतना सामान्य मात्रका विषयकोही-नहीं समजी सकती है, तोपि छे जैन मार्गका-विशेष गुज्जको, क्या समजने वाली है ? ॥ देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. ए. १०८ सें ९ तक ॥३७ ॥ जिनपडिमाकी पूजना, द्रौपदीकेरी खास । नमोथ्थुणं के पाठसे, करी कुतर्क करें नाश ॥ ३८॥ तात्पर्य-द्रौपदीजी परम श्राविकाने, खास जिनपडिमाको पूजी। और भक्तिके वस होके-धूपदीपादिकभी किया । और छेवटमें तीथंकरोंकी स्तुतिरूप-नमोथ्थुणं, का पाठभी पढया । और विधि सहित सत्तर प्रकारका भेदसे-शाश्वती जिनप्रतिमाओंका पूजन करने वाला, जो समकित दृष्टि-सूरयाभ देवता है, उनकी उपमाभी दीई For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२२१) है । तोभी ढूंढनीजीने, सत्यार्थ. ए. ९० सें ९९ तक-अनेक प्रकारकी जूठी कुतर्को करके, रूपका निधान, सोल सतीयांमें प्रधान, ऐसी राजवर कन्या द्रौपदीजी परम श्राविकाको, वर नहीं मिलताथा ? सो प्राप्त करा देनेके वास्ते, ढूंढनीजी, मिथ्यात्वी-काम देवकी पथ्यरकी मूर्ति पूजा करायके, प्राप्त करादेनेको तत्पर हुई है ?। और वीतराग देवकी स्तुतिरूप-नमोथ्थुणं, का पाठभी-काम देवकी मू. त्तिके आगे, पढानेको तत्पर होती है ? । परंतु ढूंढनीजी, इतनामात्र भी विचार नहीं करसकती है कि-कहां तो, वीतराग देव, और कहां तो-मिथ्यात्वी कामदेव, उनके आगे तदन अयोग्य पणे-नमोथ्थुणं,का पाठ, मैं कैसे पढाती हुँ ? परंतु शुद्र बुद्धिवालोंको, योग्या योग्य का-विचारभी, कहांसें आवेगा ? ॥ देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. ट. ११० से ११४ तक ॥ ३८ ॥ तीन निक्षेप नहि कामके, ढूंढनी कहैं प्रत्यक्ष । मूर्ति छुडावें जिनतणी, मूढ पूजावें यक्ष ॥ ३९ ॥ - तात्पर्य-वीतराग देवकी वैरिणी ढूंढनीजी, तीर्थकर देवकेप्रमथके तीन निक्षेप, निरर्थक, और उपयोग बिनाके-ठहरानेके लिये, सत्यार्थ. पृ. ८ सें-प्रथम इंद्रका, स्थापना निक्षेप रूप-मूत्तिको, सर्वथा प्रकारसें-निरर्थक, ठहराई । और उनकी पूना करके-धन पुत्रादिक मागनेवालोंको, और उनका मेला, महोत्सव, करनेवालोंको, अज्ञानी ठहरायके, पृ. १७ तकमें-जूठे जूठ लिखके, प्रथमके-तीन निक्षेप, निरर्थक, और उपयोग बिनाके लिखके, सिद्ध करके दिखलाया॥ ___हम पुछते है कि-जब प्रथमके तीन निक्षेप, सर्वथा प्रकारसेंनिरर्थक दिखलाती है, तो पिछे सत्यार्थ. ए. ७३ में यक्षादिकोंका, For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. मूर्तिकी स्थापना निक्षेपरूप, जड स्वरूपकी पूजा कराती हुई। और पूजा करनेवालोंको-धन पुत्रादिक, दिवावती हुई । ते निरर्थकरूप दूसरा निक्षेपसें-स्वार्थकी सिद्धि करानेको, क्यौं तत्पर हुई ?। . जब स्वार्थकी सिद्धि कराती है तो पिछे-स्थापना निक्षेपरूप मूर्ति, निरर्थ क्यूं ? । इहांपर-यक्षादिकोंकी मूर्ति पूजासें, धनपुत्रादिक-दिवाती हुई । और अपना भवोभवका कल्याणके वास्तेपूजा करनेवाली, परमश्राविका द्रौपदीजीके-जिन प्रतिमाका पूजनको छुडवायके, काम देवकी मूर्ति पूजाको कराती हुई । स्वार्थकी सिद्धि करानेको तत्पर होती है ?। ____ और जिस तीर्थकरोंके नामसे पेट भराई करती है, उनोंकी भव्य मूर्तियांको-पथ्यर, पहाड करके, निंदती है ? । ऐसें निकृष्ट बुद्धिवाले ते दूसरे कौन होंगे ? । और हम भी कहांतक शिक्षा देवेगे ? ॥ ३९ ॥ कयबलिकम्मा पाठमें, पितर दादेयां भूत । तीर्थकरके भक्तको, नितपूजा कपुत ॥ ४० ॥ तात्पर्य-सत्यार्थ. १२४ में, कयबलिकम्मा, का पाठ-ढूंढ. नीजीने लिखा है, और इस पाठके संकेत सें, वीर भगवानके परम श्रावकोंकी-जिन मूर्तिपूजा, दररोज करनेका-मतलब, सर्व जैना. चार्योने दिखाया हुवा है । उस विषयमें ढूंढनीजी, अनेक प्रकारकी जूठी कुतकों करती हुई । और तीर्थंकरोंकी-भव्य मूर्तिका, सर्वथा प्रकारसें-लोप करती हुई । ते परम श्रावकोंकी पाससें, सत्यार्थ. पृ. १२६ में-पितर, दादेयां, भूत, यक्षादिक-मिथ्यात्वी देवताओंकी, भयंकर मूर्तियांको दररोज पूजानेको, तत्पर हुई है ? कैसें २ जैन For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२२३) शासनमें-कपुत्त, पेदा हुये है ? । कदाच ते कपुत्तो-तीर्थंकरोंका उपकार, दूसरा प्रकारका न मानते, परंतु उनके नामसें रोटी खाते है, इतना मात्र तो उपकार मानते ?। और तीर्थंकरोंकी शांत मूर्तिकी पूजासे हटाके, यक्ष भूतादिकोंकी क्रूर मूर्तियांको तो न पूजाते ?। तो भी कुछ योग्यपणा रहता, परंतु तदन कपुत्तोंको हम कहांतक शिक्षा देते रहेंगे ? ॥ देखो इनकी समीक्षा, नेत्रां पृ. १३३ से १३७ तक ॥ ४० ॥ भेजी अभय कुमारने, मूर्ति श्रीजिनराज । देखी आद्रकुमारने, पायो आतम राज ॥ ४१ ॥ तात्पर्य-सूयगडांग सूत्रकी टीकामें लिखा है कि-अनार्य देशवासी आद्र कुमारथा, उसने अभय कुमारकी साथ-मैत्रीभाव करनेकी इछासें, कुछ भेट भेजाई, ते भेट लिये बाद अभयकुमारने, बु. द्धिबलसे विचार करके, उनको बोध करानेके वास्ते, भेटनेमें तीर्थकर देवकी मूर्ति भेजाई, और एकांत स्थलमें खोलनेकी सूचना किई, ते देखके उहापोहकरनेसें जाति समरण ज्ञान प्राप्त हुवा, छेवटमें दीक्षा ले के अपना आत्माका राज्यभी प्राप्त करलिया ॥ ऐसें अनेक भव्य प्राणियोंने, तीर्थकरोंकी मूर्तियांके दर्शनसे अपना कल्याण किया हुवा है । इस वास्ते तीर्थंकरोंकी भव्य मूर्तियां-निंदनिक, नहीं है । यह प्रसंगिक बात लिखके दिखाई है ।। ४१ ।। शासन नायक मुनिवरा, ज्ञान तणा भंडार। निदी ढूंढनी कहत है, ते सावद्याचार ॥ ४२ ॥ नियुक्ति ढूंढनी बनी, बनी आपहि भाष्य। टीकाभी ढूंढनी बनी, करें सब ग्रंथका नाश ॥ ४३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (228) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बाबनी. 1 तात्पर्य - सत्यार्थ. पृ. १२९ से १४० तक में, ढूंढनीजीनेपूर्व के महान् २ सर्व जैनाचार्योंकी, और उनके बनाये हुये सब ग्रंथोंकी, पेट भरकेही निंदा किई हुई है ! कभी तो लिखती है किसावद्या चार्य । कभी तो लिखती है कि-भोले लोकोंको बहका कर, माल खानेको मन मानें गपौडे लिखके धरने वाले । कभी तो लिखती है कि - उत्तम दया, क्षमा रूप, धर्मको हानि पहुंचाने वाले । कमी तो लिखती है कि- अन घटित कहानियेसें- पोथेको भरनेवाले । कभी तो लिखती है कि- जड पदार्थमें, परमेश्वरकी - बुद्धिको क रानेवाले | इत्यादिक जैसा मनमें आया, तैसें ही निंदा करती हुई चली गई है || ४२ ॥ और -निर्युक्तिभी, ढूंढनी अपने आप बन बैठी । और भाष्य है सोभी ढूंढनींही अपने आप बन बैठी । और टीका सोभी, ढूंढनीजी कहती है कि- मैं हूं, ऐसा लिखके अपना गर्वको हृदयमें नहीं धारण कर सकती हुई, सत्यार्थकी जाहीरातमें प्रगटपणे लिखके दिखाती हैं कि - पीतांबर धारियों के, नवीन मार्गका मूल सूत्रों, माननीय जैन ऋषियोंके मंतव्यो, तथा प्रबल युक्तियोंसें - खंडन किया है । और युक्तियें भी ऐसी प्रबल दीहैं कि - जिनको जैन धर्मरूद, नवीन मतावलंबियों के सिवाय, अन्य सांप्रदायिकभी - खंडन नहीं कर सकते । वरंच बडे २ बिद्वानोंनेभी, श्लाघा ( प्रसंसा ) की है । इस पुस्तक विशेष करके, श्री आत्माराम आनंद विजय संवेगी कृत - जैन मार्ग प्रदर्शक, नवीन कपोल कल्पित ग्रंथोकी - आंदोलना की है । 1 इसका विशेष विचार प्रस्तावना मेंसें देख लेना । इहांपर हम विशेष कुछ नहीं लिखते है | परंतु जैन तत्वरूप अगाध समुद्रका मार्गकी दिशा मात्र काभी श्रवण किये बिना, इस ढूंढनी जीने, एक गंदी खालकी भेडी (देडकी) For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२२५) की तरां, गर्व कितना किया है, यही हमको आश्चर्य होता है । हे ढूंढनीजी! जैनतत्वके विषयमें आगे बहुत ही कुछ देखनेका रहा हुवा है, परंतु बुद्धिकी प्रबलता होते हुये भी, परंपराका योग्य गुरुकी सेवामें तत्पर हुये बिना, एक दिशा मात्रका भी भान होना बडाही दुर्घट है, किस वास्ते इतना जूठा गर्वको करती है ? ॥ देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. ट. १३८ से १४७ तक ।। ४२ । ४३ ॥ निषेध दिखावू पाठसें, मूर्ति पजाके खास । कहैं ढूंढनी सिद्धिमें, फुकट करो क्यों आश ॥ ४४ ॥ तात्पर्य इहां तक ढूंढनीजी, यक्ष, भूतादिक-मिथ्यात्वी देव. ताभोंकी, भक्तानी होके, उनोंकी मूर्तियांका-पूजन,ढूंढक श्रावकोंको सिद्धि करके दिखलाती हुई। और तीर्थकर देवकी वैरिणी होके, तीर्थंकरोंकी-परम पवित्र, मूर्तिपूजाके-पागेका, अर्थको-जूठे जूठ लिखती हुई । और जैन धर्मके धुरंधर-सर्व महान् २ आचार्योंकी, निंद्याको करती हुई । और जैन धर्मके मंडनरूप, तत्वके ग्रंथोंका लोपको, करती हुई । सत्यार्थ पृ. १४२ मे, लिखती है कि-जिन मूर्ति पूजाका पाठ, कोइ भी जैन सूत्रमें नहीं है । परंतु तुमेरे ही ग्रंथोंके पाठसें, जिनमूर्तिकी पूजाका-निषेधरूप पाठको, दिखलाती हुँ । ऐसा उन्मत्तपणा करके, और महापुरुषोंके लेखका आशयको समजे बिना, और अपनी जूठी पंडिताइके छाकमें आई हुई, जैन सिद्धांतोंसें-सर्वथा प्रकारसें, जिन मूर्ति पू. जाको निषेध करने रूप, पाठ दिखानेको तत्पर होती है ? । ऐसें निकृष्ट बुद्धिवालोंको, हम कहांतक समजावेंगे ? । देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. ए. १४८ से १५१ तक || ४४ ।। For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२६ ) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. यूं कही पंचम स्वप्नका, करें अर्थ, विपरीत । लोभसें करनेकीमना, न समजे अवनीत ॥ ४५ ॥ - तात्पर्य-प्रथम ढूंढनीजीने यूं कहाथाकि, जिनमूर्ति पूजाका निषेध, पाठसे दिखावंगी । अब ते विषयमें प्रथम--पंचम स्वमंका पाठ लिखके, अपनी अज्ञानता प्रगट की है । क्योंकि ते पंचम स्वामके पाठमें, ऐसा लिखा है कि-दव्वा हारिणा मुनी भविस्सइ, लोभेन माला रोहण देवल उवहाणादि, कको, प्र. काश करेंगे । और ऐसे बहुतेक साधु पतित होके, अविधि पंथमें पड़ जावेंगे । इस लेखमें साधु मात्रको-लोभके वश होके, करनेका निषेध किया गया है । परंतु सर्वथा प्रकारसे करनेका अभाव नहीं दिखाया है । तो भी गुरुज्ञान बिनाकी ढूंढनीजी, सर्वथा प्रकारसें-प्रदिर मूर्तिका, निषेध करके दखलाती है ? परंतु एक बच्चे जितना भी विचार नहीं करती है कि-जगजाहिर, जिन मंदिर मूर्तिका-पूजन, सर्वथा प्रकारसें निषेध मैं कैसे करती हुँ ? और ऐसी मेरी मूढता कैसी चलेगी? परंतु तुछ हृदयवालोंको विचार रहता नहीं है । देखो सत्यार्थ. ट. १४२ से १४४ तक ॥ देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. ए. १५१ से १५५ तक ॥ ४५ ॥ . महानिशीथमें साधुको, द्रव्य पूजा नहि शुध। . सर्व निरवध मार्गका, लोप करें नहि बुध ॥ ४६ ॥ अरिहंत भगवंत पाठसु, किया मूर्तिका बोध । इसी सूत्रके पाठमें, तेरा लिखा तूं सोध ॥ ४७ ॥ . तात्पर्य-पंच महाव्रतको अंगीकार करनेवाले, द्रव्य रहित साधुको-द्रव्य पूजा करनी सो शुद्ध नहीं है । क्योंकि-साधु हुये For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२२७ ). बाद, श्रावक धर्मकी करनीरूप-द्रव्य पूजा करें. तो, सर्वथा प्रकारसे जो निर्वद्यका मार्ग है, उसका लोप करनेसें, महा प्रायश्चितका पात्र होता है । इस वास्ते बुद्धिमान पुरुषो, ते सर्व सावधके त्याग रूप-मार्गका लोप, कभी न करें इस । वास्ते साधु पुरुषोंको हीद्रव्य पूजा करनेका, निषेध किया है। परंतु श्रावकोंको तोकयबलिकम्मादिक, पाठोंसें, अनेक जगेंपर-जिन मूर्तिकी पूजा करनेकी, हमेसां आज्ञाही दिखाई हुई है। किस वास्ते तीर्थंकरोंकी अवज्ञा करके, अनंत संसार भ्रमणका बोजाको उठाते हो ? ॥४६॥ अब इसीही सूत्रके पाठमें, थोडासा ख्याल करके देखोकिअरिहंताणं भगवंताणं, कह करके ही, तीर्थंकरोंकी-अलोकिक परमशांत मूर्तिका बोत्र, गणधर महा पुरुषोंने कराया है । परंतु इस पाठमें-प्रतिमाका बोधको कराने वाला, नतो कोई-चैत्य, शब्द रखा हुवा है । और नतो कोई-प्रतिमा, शब्द भी लिखा हुवा है। केवल-अरिहंत भगवंत के ही पाटसें, तीर्थंकरोंकी-मूर्तिका बोध, कराया हुवा है । और ढूंढनीजीने भी प्रतिमाका ही अर्थ, किया हुवा है । तो इहांपर थोडासा विचार करो कि-जिन प्रतिमा, जिन सारखी होती है या नहीं ? । और जिन प्रतिमाकी-अवज्ञा करने वाले, तीर्थकरोंके वैरी है या नहीं ? । और जिन मूर्तिको-पथ्थर, . पहाड, कहने वालोंका चित्त, पथ्थर पहाडरूप है या नहीं ? और तीर्थंकरोंकी-अवझा करके, अनंत संसाररूप, महा समुद्रमेंजंपापात, करते है या नहीं ? । और अपनी कीइ हुई-सर्व कष्ट क्रियाको, निष्फलरूप ठहराते है या नहीं ? । और पंडित नाम धरायके-अपनी चतुराइमें, धूड गेरते है या नहीं ?। इस वास्ते . थोडासा ख्याल करके, पिछे योग्य मारगका विचार करो। पापात, करते होते है या नहीं । इस वास्ते For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. देखो. सत्यार्थ. पृ. १४४ सें १४६ तक-ढूंढनीजीका लेख ।। पिछे इनकी समीक्षा देखो. नेत्रां. पृ. १५५ से १६२ तक ।। ४७ ॥ इहांतक ढूंढनीजीने दूसरा पाठसे जो जिन मूर्तिका-निषेध दिखाया था ? उनका विचार किया गया । ॥ अब ढूंढनीजीके तिसरा पाठका विचार करते है ।। तीनों चोवीसी तणी, कही प्रतिमा बहुतेर । वंदन पूजन भी कहा, तोभी करें अंधेर ॥ ४८॥ तात्पर्य-नंदी सूत्रमें, मूल सूत्रोंकी नोंध दिखाइ है, उस नोंधकी गिनतीमें आया हुवा, यह विवाह चूलियाका पाठ-सत्यार्थ. ए.१४७ सें, ढुंढनीजीने लिखा है। उसमें ऋषभ आदि ( ७२) तीर्थंकरोंकी पतिमा आदि होनेका गौतम स्वामीनीने प्रश्न किया है, उसका उत्तरमें, वीर भगवंतने कहा है कि- सर्व देवताओंकी प्रतिमा होती है । फिर गौतम स्वामीजीने, केवल तीर्थंकरोंकी ही-प्रतिमाओंका, वंदन, पूजन, करनेके विषयमें, प्रश्न किया है । इस दूसरा प्रश्नके उत्तरमें भी, वीर भगवानने यही कहा कि-हा गौतम, तीर्थंकरोंकी प्रतिमाओंको, वांदे भी, और पूजे भी। _ और दूंढनीजीने भी, सत्यार्थ. ए. १४८ में-यही अर्थ लिखा हुवा है । परंतु आगे तिसरा प्रश्नोत्तरमें, महा नीशीथका पाठकी तरां, साधु पुरुषोंको ही-द्रव्य पूजन करनेके निषेधका, परमार्थको नहीं समजती हुई, और दूसरा प्रश्नोत्तरमें दिखाया हुवा, जिन मूर्तियांका-वंदन, पूजनरूप, वीर भगवानके उपदेशका भी-लोपको करती हुई, और तीर्थंकरोंकी भक्तिसें जिन मूर्तिकी पूजा करने वाले, भव्य प्राणियोंको-मिथ्यात्वी, अनंत संसारी, जूठे जूठ लिख मारती है ? । और वीर भगवानको भी साथमें कलंकित करती For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२२९) है। और इस विवाह चूलिया सूत्रका पाठमें दिखाई हुई, यक्ष, भूतादिकोंकी-प्रतिमाओंको, वंदन करनेका, और पूजन करनेकाआदेश, वीर भगवानने नहीं दिखाया है । तोभी ढूंढनीजी अपने ग्रंथमें जगें जगेपर उनोंकी प्रतिमाओंका, वंदन, और पूजन भी, करनेकी सिद्धि करके दिखलाती है । इतना ही मात्र नहीं, परंतु जैनके-सर्व आचार्यको, और जैनके-सर्व ग्रंथोंकों भी, मथ्था खुल्ला करके निंदती है ? । और ढूंढनीजी अपने आप जैन धर्मसें भ्रष्ट होती हुई, दूसरे भव्य प्राणियांको भी, जैन धर्मसें भ्रष्ट करनेकाउद्यम कर रही है । और अपना साधीपणा भी दिखाती है ? । एसें मूढोंको, हम कहांतक शिक्षा देते रहेंगे ? । देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. १६२ से १६७ तक ॥ ४८ ॥ पडिसोयगामी साधु है, द्रव्य रहित विशुद्ध । फलफूलादिक द्रव्यसें, पूजा सूत्र विरुध ॥ ४९॥ ___ तात्पर्य-संसारिक सुखोसे विमुख, सो पडिसोय गामी, साधु पुरुषो कहें जाते है। सो सर्व प्रकारका द्रव्य से रहित होनसें, उनों. की-फलफूलादिक व्यास, द्रव्य पूजा करनी सो सूत्र में विरुद्ध है। क्योंकि-द्रव्य रहित पुरुषोंकों, द्रव्य पूजा करनीसो, कबीभी उचित न गीनीजायगी । इसवास्ते-साधु पुरुषोंको, तीर्थंकरोंकी जो दूसरी-भाव पूजा है, सोही करनी उचित है। इसवातका परमार्थको समजे विना, गुरु बिनाकी ढूंढनीजी, सर्वथा प्रकारसें-जिनप्रतिमाका पूजनको निषेधकरके, वीरभगवानके-परम श्रावकोंकोंभी, पितर, दादेयां, भूत, यक्षादिक-मिथ्यात्वी देवताओंकी, क्रूर मूर्तियां-पू. जानेको, तत्पर होती है ? । ओर द्रौपदी श्राविका की पास, कामदेवकी-जड मूर्ति, पूजानेको. तत्पर होती है ? । परंतु इतनाभी वि. For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) तात्पर्य प्रकाशक दुही बावनी. चार, नहीं करती है कि जिस जिनदत्त सूरिजी महाराजाने, अनेक जिनमंदिरों की प्रतिष्टाओ - अपने हाथसें, कराई हुई है। और ते मंदिरों, अब भी विद्यमान है । उनकी झूठी साक्षी मैं देती हुं सो कैसें चलेगी ? । परंतु तदन क्षुद्र बुद्धिवालों को इतनाभी विचार कहां ? | देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. पृ. १६७ से १७१ तक ॥ ४९ ॥ i तप जप संयम मुनिक्रिया, भाव पूजा लहिसार । नहीं तीनको द्रव्य है, गृहीकों दोनों प्रकार ॥ ५० ॥ तात्पर्य - जिस महापुरुषने, धन पुत्रादिक सर्व संगका त्याग करके, तप जप संयमादिक, मुनिक्रियारूप भावपूजा करनेका-भंगीकार कर लिया है । उनके पास नतो द्रव्य हैं, और न द्रव्य पूजा करनेकी - आज्ञा हैं | अगर साधुपणालेके द्रव्यपूजा करें तो, द्रश्य संग्रहादिकसे, विपरीत मार्गको चलाने वाला, सिद्ध होता है । इस वास्ते साधु पुरुषोंको, द्रव्य पूजा करने का निषेध, किया है । परंतु गृहस्थ पुरुषोंने, धनादिकका त्याग नहीं किया है, और सर्वप्रकारका - आरंभकाभी, त्याग नहीं किया है। इसी वास्ते द्रव्यधर्म के साथही, भावधर्मका अधिकारी, श्रावकोंको दिखलाया है । और साधु है सोतो- केवल भावधर्मकाही अधिकारी है । देखोकि—– श्रावको है सो, अपना भाव धर्मकी प्राप्ति करलेने के वास्ते १ ढूंढक साधु ओंको रहने के वास्ते स्थानक बंधवाते है ? । २ दीक्षा महोत्सव करते है ? | और ३ साधुओंकारमरण महोत्सव भी, श्रावको ही करते है ? | और संधारी साधुको - वंदना करनेको, गाडी घोडे ; १ दीक्षा महोत्सव | २ मरण महोत्सव | यह दोनो प्रकारकी जो श्रावक भक्ति करते है सो - साबुका द्रव्य निक्षेपकी ही भक्ति है !! 1 For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. ( २.३१ ) दोडावते हुये, श्रावको दूर दूरतक जाते है ? और संघ निकाल करके, ढूंढक साधुओंकी एक नवीन प्रकारसें, यात्रा करनेकोनिकलते है ? इत्यादिक अनेक प्रकारके-धर्मके कार्यमें, जिमना, जिमावना, आदि-महा आरंभका कार्य, तुमेरे ढूंढक श्रावको, किस हेतुके वास्ते करते है ? तुम छेवटमें-कहोंगे कि, . संसार खाता । हम पुछते है कि, इसमें तुमेरा मन कल्पित, संसार खाताका-क्या संबंध है ? । क्या लड़के ल. लडकीका-विवाह करनेको प्रवृत्त मान होते हो ? । जो संसार खाता कह देते हो ? । अथवा मिथ्यात्वी यक्षादिक देवोंकी, पथ्थरकी मूर्तिकी पास जैसें धन पुत्रादिक लेनेके वास्ते, ढूंढनीजीने भे. जेथे, तैसें क्या धनपुत्रादिक लेने के वास्ते पूर्वमें दिखाये हुये सर्व कार्य कराते हो ?। ____ और वीरभगवानके-परमश्रावकोंके, दररोजका जिनमूर्तिका पूजनको छुडवायके, कयबलि कम्मा, के पाठसे-पितर, दादेयां, भूतादिक-मिथ्यात्वी देवताओंकी मूर्तियां दररोज, विना कारणपूजानेको तत्पर होते हो ? । तुमेरा यह संसार खाता है सो क्या चिज है ? ! तुमेरा संसार खाताका-स्वरूप, द्वितीय भागमें, मालूम हो जायगा । किस वास्ते जैन कुलमें-अंगारारूप बनके, तीर्थंकरोंकी भी आशातना करते हो ? हमने तो तुमेरा हितके. वास्ते लिखा है, आगे जैसी तुमेरी भवितव्यता । अगर तुमेरे कर्मके योगसें, दूसरा विशेष धर्मकार्य न बन सके, तोभी-तीर्थकर, गणधरोंकी, निंदा मात्रसें तो बचो ? । हम भी कहांतक तुमको समजावेगे ? | और जे जे ढूंढनीनीने, मूर्तिपूजा निषेधके पाठो-दिखाये है, सोसो सर्व साधु पुरुषोंके-द्रव्य पूजनका, निषेधके-वास्तेही लिखे गये है। परंतु गृहस्थोका तो-दररोज पद् कर्मरूप, द्रव्य धर्मसें-भाव धर्म For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३२) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. का, परम आलंबन स्वरूप काहा है। इसी वास्तेही-कयबलि कम्मा, का पाठके संकेतसें, श्रावकोंके वर्णनमें-जिन मूर्तिपूनारूप द्रव्य धर्म दिखाया गया है। नहीं के मिथ्यात्वी-भूत, यक्षादिक, देवताओंकी-भक्तिकरानेके वास्ते, लिखके दिखाये है। किस वास्तेदया दयाका, जूठा पोकार करके, जैन धर्मसें-सर्वथा प्रकारसें, भ्रष्ट होते हो ? ॥ ५० ॥ द्रव्य रहित श्रावक नहीं, ताते द्रव्यने भाव । पूजा करणि गृहस्थको, भर दरियों नाव ॥ ५१ ॥ - तात्पर्य-श्रावक है सो, साधुकी तरां-द्रव्यविनाका नहीं है । और सर्व सावधका-त्यागीभी, नहीं है । सोतो सदाही महा आरंभमें फसा हुवा है । और साधुकी-वीस विश्वा दयाकी अपेक्षासे, मात्र-सवा विश्वा दया काही, पात्र है !इस वास्ते द्रव्य पूजाकी साथ ही, भाव पूजाका अधिकारी दिखाया गया है। इसी वास्तेही वीरभगवानके श्रावकों, प्रथम तीर्थंकरोंकी मूर्ति पूजाको करके, पीछेसें भगवानकोभी-वंदना करनेको, गये है। और उस पूजाका वर्णन-कयबलि कम्मा, का पाठके संकेतसे, जगें जगें पर-जैन सिद्धांतकारोंने, लिखा हुवा है। नहींके सत्यार्थ. ट- १२६ में, ढूंढनीजीने दिखाये हुये, मिथ्यात्वी-पितर, दादयां, भूत, यक्षादिकोंकी भयंकर मूर्तियांको दररोज पूजानेके, वास्ते पाठको दिखाया है। यह वीतराग देवकी भक्तिकी करणि है सो तो, सदा आरंभमें बैठे हुये, संसारी प्राणियोंको, भर दरियमें-महान् जाजरूप है, नहींके संसारमें डुबाने वाली है । यह तो सदगुरुका पंजाविनाके, हमारे ढूंढक भा. इयांकी-मतिकाही, विपर्यासपणा हुवा है ॥ ५१ ॥.. .. For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२३३) जूठ बोलना पाप है, नहीं जूठका अंत । निंद्या करें सब संतकी, आपही आप महंत ॥ ५२ ॥ .. तात्पर्य-सत्यार्थ. ए. १७२ में, जूठ बोलना पाप है, ऐसा लिखके-ट. १७५ तक, सम्यक्त्व शल्योद्धारादिक ग्रंथ कर्ताओंकी निद्या करके, अपना बड़ा ही साध्वीपणा दिखाया है। परंतु ढूंढनीजीने, अपना ग्रंथका नाम-सत्यार्थ चंद्रोदय, रखके भी, मायें एक बात भी सत्य नहीं लिखी है। क्योंकि ग्रंथका सब पाया ही उंधा रचा है, तो पिछे ढूंढनीका लेखमें सत्यपणा ते कहाँस-आने वाला है ? इस बातको पाठक वर्ग तो, हमारा पूर्वका लेखसें, अछीतरांसें समज भी लेवेगें,तो भी उनोंकों-विचार करनेका, बोजा कमी होजाने के वास्ते, थोडिसी सूचनाओं करके-फिर भी याद दिलाता हुं, सो. प्रथम ढूंढनीजीका सत्यार्थसे ही-विचार करलेना। पिछे मरजी होवे तो, फिरसें हमारा नेत्रांजनमें भी, आप लोकोंने निघाको फिराना। (१) देखो सत्यार्थ. ट. ६ में-पिछली तीन नयोंको, सत्यरूप ठहरायके, प्रथमकी-चार नयोंको, असत्यरूप, ठहरानेका प्रयत्न किया । क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥ १॥ .... (२) ए, ९ मे-नाम, स्थापना, यह दोनों निक्षेप, अवस्तु ठहराया । और ए. ७३ में-पूर्ण भद्रादिक यक्षोंकी, स्थापनारूपमूर्तियांसें, धन पुत्रादिककी प्राप्ति होनेका दिखाया । क्या ढंढनी. जीका यह जूठ नहीं है ? ॥ २ ॥ (४) और पृ. ९० सें, द्रौपदी के विषयमें-अनेक प्रकारकी १ जो प्रथमकी चार नयोंको-असत्य ठहरावेतो, साधु श्रावककी जितनी उत्तम करनी है, उनको सबको-असत्य ठहरानेका, महा प्रायश्चित होता है । देखो. नेत्री. पृ. २३ । २४ में ॥ ... For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. जूठी कुतों करके, पृ. ९८ में-जिन प्रतिमाके बदलेमें, कामदेवकी स्थापनारूप मूर्तिसें, वरकी प्राप्ति करानेको तत्पर हुई ?। क्या ढूंढनीनीका यह जूठ नहीं है ? ॥ ३ ॥ - (४) और. पृ. १२४ में-कयबलिकम्मा, के पाठमें अनेक प्रकारकी जूठी कुतो करके, वीर भगवानके भक्त श्रावकोंका, जिन पूजनको छुडवायके, .. १२६ में-मिथ्यात्वी, पितर, भूतादिकोंका-स्थापना निक्षेपरूप, मूर्तियांको, दररोज पूजानेको तत्पर हुई? क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है । जब मूर्तियां, कुछ वस्तु रूपकी ही नहीं है, तो पिछे ढूंढनीजी इनोंकी सबकी मूर्तियांको पूजानेको क्यों तत्पर हुई ? ॥ ४ ॥ (५) निक्षेप चार ( ४ ) जैनसिद्धांतोमें-वर्णन किये है, तो भी ट. ११ में-आठ करके बतलाया ? । क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥ ५ ॥ (६) भगवानकी मूर्तिमें-एक स्थापना निक्षेप, प्रसिद्धरूप है । तो भी ट. २८ में-एक मूर्तिमें ही चारों निक्षेप हमारी पास मनानेको तत्पर हुई ? | क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥६॥ . (७) जब ट. २८ सें-भगवानकी मूर्तिमें ही, भगवानके चारों निक्षेप, हमारी पास-कबूल करानेको तत्पर हुई है, तब तो ढूंढनीजीने भूत, यक्ष, काम देवादिकोंकी-मूर्तियांमें भी, भूतादिकोका चारों निक्षेप, अवश्य ही माने होंगे? जब तो हृदयसे भूतादिकोंकी भक्ता. नी बनके, उनोंकी मूर्तियांको, पूजानेको तत्पर होती है, और उपरसें तीर्थकरोंका-भक्तानी पणा दिखाती है । क्या ढूंढनीजीका यह जूठ प्रपंच नहीं है ? (८) ए. ४० में-वज्र करण राजाने,अंगूठीमें-जिन मृत्तिको For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२३५ ) दर्शन करनेके वास्ते रखी, उसका-गपड सपड, अर्थ लिखके दि. खाया ? । क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ।। ८ ॥ (९) ए. ४५ में, शासु वहुका दृष्टांतसें-मूर्ति मात्रको, पा. षण ही ठहराया । तो भी ए. ७३ में-पूर्ण भद्र यक्षादिकोंकी, पा. पाणकी मूर्ति -धन पुत्रादिक, दिवानेको तत्पर हुई ? क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥९॥ (१०) और द्रौपदीजीके विषयमें, प्रगट रूप जिनमूर्तिका अर्थको छोड करके, पृ. ९८ में, कामदेवकी-पाषाणकी मूर्तिसें, द्रौ. पजीको-वरकी प्राप्ति करानेको, तत्पर हुई ?। क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥ १० ॥ जब मूर्ति मात्रको, जड पाषाणरूप समजते हो, तो पिछे-तुम बडे ज्ञानी होके, धन पुत्रादिक लेनेको क्यौं दोडते हो ? क्या वीतरागी परमशांत मूर्ति ही, तुमेरे नेत्रोंमें खुप रही है ? तब तो यह हमारा अंजन, बरोबर-करते रहोंगे तो, तुमेरे नेत्रोंमें-आगेको मैल न रहेगा। (११) पृ ५१ मे-ढूंढनीजीने लिखाकि, अक्षरोंको देखके ज्ञान होता नहीं । तोभी तुम लोक जूडे जूठ अक्षरोंको लिखके, लोकोको-ज्ञान प्राप्त करानेके वास्ते, पोथीयां छपवाते हों ?। क्या यह तुमेरे ढूंढकोंका जूठ नहीं है ? ॥ ११ ।। (१२) पृ. ३४ में ढूंढनीजीने स्त्रीकी मूर्तिसें, काम जगाया । पृ. ४२ में, मित्रकी मूर्तिसें-प्रेम जगाया। और पृ. ३६ में. आकार देखनेसें-ज्यादा, और जल्दी, समज होनेका दिखाया। और पृ. ६७ मे, भगवानकी मूर्तिमें, श्रुतिमात्रभी-लगानेका, निषेध करके दिखाया? । क्या यह तुमेरे ढूंढकोंका, जूठ नहीं है ? ॥ १२ ॥ For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (१३) पृ. ५७ में-आकार, वा नाम, धरके, उसको-वंदने, पूजनेसें-लाभ नहीं होवे । एसा लिखके, ए. ७३ में, पूर्णभद्रादिकोंका-आकार, और नामसे-धन पुत्रादिकका लाभ होनेका, दिखाया ? । और ट. ९८ में, काम देवका--आकार, और नामसे द्रौपदीजीको, वरका लाभ दिवानेको तत्पर हुई ? । क्या यह तुमेरे ढूंढकोंका जूठ नहीं है ? ॥१३॥ (१४) पृ. ६९ में-सम्यक् दृष्टि, मिथ्या दृष्टि, यह दोनों प्र. कारका देवताओंकी पास, शाश्वतीजिन प्रतिमाओंको, व्यवहारिक कर्तब्यसें पूजाई । और पृ. ७० में, उबाई सूत्रसें-महावीर स्वामीजीके, चुंचुवेका वर्णन विना, शिखासें नखतकका वर्णन कबूल किया । और राय प्रश्नोजीसें, जिन पडिमाका-दाढी मुछ के बिना, नखसे शिखा तकका, वर्णन तूने दिखा, तोभी पृ. ६७ में, ढूंढनीजी लिखती है कि-सूत्रोंमें तो-मूर्तिपूजा, कहीं नहीं लिखी है। यदि लिखी है तो हमें भी दिखाओ? क्या ढूंढनीजीका यह लिखना जूठ नहीं है ? ॥ १४ ॥ (१५) पृ. ६१ में-मूर्तिपूजा, पंडीतासें तो ढूंढनीजीने ही सुनी, और शास्त्रोमें भी लिखी हुई देखी, तोभी पृ. १४२ में, लिखती है कि-सूत्रोंमें, मूर्तिपूजाका-जिकरही नहीं । परंतु इतना मात्रसें भी, संतोषको नहीं होती हुई, उलटपणे ते मूर्ति पू. जाके पाठीका अर्थ, जूठे जूठ लिखके-निषेध करनेको, तत्पर - १ देखो, सत्यार्थ. पृ. १९ में, ढूंढनीजी,मूर्तिमें-नाम निक्षेप मान्य करकें, पिछेसें हमारी पासभी-मान्य करानेको तत्पर हुई है ? मूर्ति भी चारों निक्षेपकी मान्यताके अभिप्रायसेंही, ढूंढनीजीने यह लेख लिखा है ॥ For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. ( २३७ ) होती है ? । क्या यह जूठे जूठ, ढूंढनीजीके बेढंगापणाका, धांधल नहीं है ? ॥। ११ ॥ (१६) पृ. ७५ में, ढूंढनीजीने लिखा, सुधर्मा स्वामीजी का लेख सैंकडो पृष्टों तकका ऐसा है कि, जिससे हमारा आत्माका स्वार्थ सिद्धि नहीं होती है, तो क्या हमारे ढूंढक भाइयो, अपना जूठे जूठ- गंदा लेखोसें, अपना आत्माका स्वार्थकी सिद्ध, मानने को तत्पर हुये है ? | क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ।। १६ ।। ( १७ ) पृ. ७७ में — ढूंढनीजीने, बहवे अरिहंत चेइय, के पाठसे, जिन मंदिरोंका अर्थको मान्य करकें, दूसरा ( आयारवंत चेय ) का, पाठांतरका पाठको प्रक्षेपरूप, ठहरानेका — प्रयत्न किया ? | क्या ढूंढनीजीका यह जूट नहीं है ? ॥ १७ ॥ ( १८ ) पृ. ७८ में ढूंढनीजीने अंबडजीका, पाठ लिखा है । और पृ. ७९ मे, अरिहंत चेइय, पाठका अर्थसम्यक ज्ञान, महाव्रत, अनुव्रतादिकरूप, करके दिखलाया है ? ॥ १८ ॥ -- ( १९ ) और पृ. ८७ में, आनंद श्रावकका अधिकारमें, इसी ही - अरिहंत चेइय, का पाठ, प्रगटपणे लिखके भी - सर्वथा प्रकार लोप करनेका, प्रयत्न किया है ॥ १९ ॥ ( २० ) और. ट. १०९ में, चमरेंद्र के पाठार्थमें, इसी हीअरिहंत चेइय के पाठ पद शब्दको अपना घरमेंसें - जोड करके, केवली छद्मस्थका अर्थ करके दिखलाया है ? ॥ २० ॥ इस प्रकार - तीनों स्थानमें, अरिहंत चेइय, का एक ही पाठसें, जिन मूर्त्तिका प्रसिद्ध अर्थको छोड करके, मनः कल्पनासें भिन्न भिन्न प्रकारसें, अर्थ करके दिखलाया है । क्या यह ढूंढनीजीका जूठे जूठ नहीं है ? || For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. .. (२१) और चैत्य शब्दका अर्थ, दोचार प्रकारका ही-को. शोंमें प्रसिद्ध है । तो भी ढूंढन जीने, ए. १०६ सें-११२ अर्थ, जठे जूठ लिखके दिखाया,। क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥२१॥ (२२) . १२१ में, महा निशीथकी गाथाके-जिन मंदिरोंका अर्थको, उपमावाची करके दिखाया है। क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥ २२ ॥ जो कवी जिनेश्वर देवके, मंदिरों ही दूनीयामें विद्यामान न होते तो, ढूंढ नीजी-उपमा ही, किसकी करके दिखलाती ? ॥ (२३) प. १२९ से १४० तक, सब आचार्योंकी निंदा, और सब जैन ग्रंथोंको भी निंदा, करके-टीका, चूर्णि, भाष्य, दं ढनीजी अपने आप बन बैठी ? सो क्या दूंट नीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥ २३ ॥ ___(२४) पृ. १४२ में, साधु पुरुषोंके-अयोग्य वर्तनका निषेघरूप, पंचम स्वामके पाठसे, सर्वथा प्रकारसें-जिनमंदिरादिकोंका निषेध करके, ढूंढनीजीने दिखलाया ? । सो क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥ २४ ॥ (२५) पृ. १४४ में, महा निशीथके पाठमें भी, साधु पुरुषोंकी-पूजाका हि, निषेध किया गया है । तो भी ढूंढनीजी, सबथा प्रकारसें, जिनमूर्ति पूजाका-निषेध करके, दिखलाती है । और दूसरी जगेपर, मिथ्यात्वी मूर्तियांका, पूजनकी-सिद्धि करके, दिखलाती है ? । सो क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥२६॥ (२६ ) पृ. १४७ सें, विवाह चूलियाका पाठमें, ७२ तीर्थकरोकी प्रतिमाका-वंदन भी, और पूजन भी, करनेका-वीर भगवानने ही दिखलाया है, और पिछेसें तीसरा प्रश्नमें साधुकी पूजाका, For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. ( २३९ ) निषेध किया है। उसका सर्वथा प्रकार से निषेध करके, और दूसरा प्रश्नमें मूर्त्ति पूजाकी आज्ञाको देनेवाले वीरभगवानकों भी, कलंकित करके दिखाया। क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ||२६|| (२७) जिनदत्त सूरिजी महाराजने, अपने हाथसे, अनेक मंदिरोंकी - प्रतिष्टाओ, कराई है । परतु अपना लेखमें साधुकी पूजाका निषेध करके दिखलाया, उस साधुको पूजाका निषेध के बदल में-८. १५० से, ढूंढनीजीने, सर्वथा प्रकार सें - निषेध करके दिखलाया। क्या यह ढूंढनीका जूठ नहीं है ? ॥ २७ ॥ पाठक वर्ग ! यह सतावीस कलपके नमुने सें, ढूंढनीजीका कि-तना सत्यपणा है सो, इसरा मात्र में दिखाया है ? । इनकी दिशा के अनुसार सें, आपलोकोने - विचार करलेना, क्योंकि सर्वथा प्रकारके जूठा लेखकों-किस किस प्रकारसें, हम लिखक दिखावेंगे ? | ढूंढनीजीने हद उपरांतका जूठ लिख के, जो अपना - साध्वीजीपणा दिखाया है सोतो, गोले जीवोंको भ्रमानेके वास्तेही लिखा है, बाकी तो सब ग्रंथ, जुड़े जूठ लिखके, जैन धर्मके तत्वों—भ्रष्ट होती हुई ढूंढनीजी, दूसरे भव्य प्राणियां कोभी, जैनधर्मके तत्रोलें भ्रष्ट करने काही - उयमकर रही है । तें सिवाय नतो ढूंढनीजी के लेखमें कोई तत्र है, और न तो कोई सार भी है || तोभी ढूंढनीजीके पक्षकार, विचार चतुर, जैन समाचारके अधिपति वाडीलाल शाह, ढूंढनीजीका लेखकी बडी प्रसंसा करके, सत्यतामें अपनी सहानु भूर्ति देते रहे ? न जाने ऐसें प्रसिद्ध पत्रकार होके, ढूंढनीजीके लेखका विचार किस प्रकार से किया होगा? । सो कुछ हम समज--सकते नहीं है || और जैन समाचार के अधिपतिनेभी- सम्यक्क, अथवा धर्मनो दरवाजो, इस नामसें गूजराती भाषा में एक ग्रंथ , For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. , प्रसिद्ध कियाथा। उसग्रंथ बनानेमें दो तीन ढूंढक पंडितो सहाय भूतभी हुयेथे, तोभी सब जूठही जूठ लिख माराथा । उसकाभी उत्तर हमारे तरफसें दिया गया है, सो पाठक वर्ग मंगवायके देख लेवे । हमारे ढूंढकभाइओ, किसकिस प्रकारकी जूठी पंडिताई करके दिखाते है सो मालूम हो जायगा. ॥ इत्यलं विस्तरेण ॥ ॥ इति श्री विजयानंद सूरीश्वर, लधुशिष्येन अमर विनयेन, ढूंढक हृदय नेत्रांजन प्रथम भाग, तात्पर्य प्रकाशक दुहाबावनी संयोजिता, सा समाप्ता॥ - For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूढताका स्यागोसो कल्याणका पात्र. ( २४१ ) ॥ मूढ पुरुषों में सिद्धांत के वचनोंकी निष्फलता ॥ ॥ विचार सारा अपि शास्त्रवाचो, मूढे गृहिता विफलीभवति । मितंपचग्राम्यदरिद्रदाराः कुर्वन्त्युदारा अपि किं सुजात्यः ॥ १ ॥ 1 अर्थ - शास्त्र के वचनो होते है सो तो, विचार करनेको, सदा साररूप ही होते है | परंतु मूढ पुरुषो - ते वचनोंको ग्रहण करते हुये, निष्फलरूप ही कर देते है । जैसे कि सृजातिकी स्त्रियो, बडी उदार भी होवे, परंतु गामडाओका - दलिद्र और कृपण पुरुपोंके घर में गई हुई, ते उत्तम उदार स्त्रियां, उहांपर विशेष क्या कर सकतीयां है ? अपितु विशेष कुछभी नहीं कर सकतीयां है ॥ तैसेही - शास्त्र के वचन, बडे गंभीर, और बडे उदार, और अर्थसें भरे भी होते है । तभी ते मूढ- पुरुषों के हाथमे गये हुये, कभी स फलताको प्राप्त नहीं होते है। किंतु ते मूढ पुरुषो - शास्त्र के गंभीर वचनोंका, अर्थको नाश करते हुये, अपनाभी साथमें नाश हीकर लेते हैं. || इति काव्यार्थ ॥ १ ॥ अब इसकाव्यका, कुछ थोडासा तात्पर्य लिखते है, सो तात्पर्य ॥ १ जैसेकि - श्री अनुयोग द्वार सूत्रके वचनोंका नाश, सत्यार्थ चंद्रोदयमें ढूंढनी पार्वतीजीने किया- देखो इनका विचार - नेत्रांज - नमें | और धर्मना दरवाजा, नामका ग्रंथ में - शाह वाडीलालने किया | देखो इनका विचार-धर्मना दरवाजाने जोवानी दिशा, नामका ग्रंथ में ! इन दोनोने कितनी मूढताकीई है सो मालूम होजायगा || For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२) मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्रः . यह है कि- जैन सिद्धांतोंके बचन सहस्त्र धारा रूप, अथवा लक्ष धारा रूप, महा गंभीर स्वरूपसें-गणधर महा पुरुषोंने, गूंथन किये हुये है । और-उस महा गंभीर वचनोंमें, रह्या हुवा अति सूक्ष्म विचार, कोइ २ महा पुरुष, सद्गुरुकी कृपाका पात्र, और विचार चतु मुख, होते है सोही-अपनी अपनी योग्यता मुजब, बारिक दृष्टि से देख लेते हुये । ते महा पुरुषो उस सिद्धांतोंका वचनके अनुसारसे, भव्य प्राणियों के हितके लिये-योग्य अर्थ, नियुक्तियांमें, और भाष्योंमें, और आगे उनकी टीकाओ आदि प्रकरण ग्रंथोंमें, लिखके दिखला गये है । और छेवटमें-ते महा पुरुषोभी कह ते गये है कि, एकैक सूत्रमें-अनंत अनंत अर्थ, रह्या हुवा है । हम कहांतक लिख लिखके दिखावेंगे ? ॥ , इस वास्ते-नतो निर्यक्तियां, निरर्थक है। और नतो-भाष्यों, निरर्थक स्वरूपकी है । और नतो सिद्धांतोंकी-टीकाओ, निरर्थक है । और नतो जैन के प्रकरण ग्रंथो, निरर्थक रूपके है । महा पुरुषोंके किये हुये-ग्रंथोंमेंसें, एक भी ग्रंथ निरर्थक - नहीं है ॥ ___और जो दूसरे साधारण मत वाले है उसमें भी यह बात, प्रसिद्ध है कि- टीका गुरूणा गुरुः । अर्थात् टीका है सोगुरुका भी गुरु है । उस टीका के बिना, आज कलके-साधारण बोध वालेसे, कबी भी योग्य अर्थ नहीं हो सकता है । प्रथम देखो आज तक तुमेरे ढूंढकों के ग्रंथोमें, कितनी सत्यता आइ है ? तो पिछे उनके उपदेशमें सत्यता कहांसें आने वाली है ? सो प्रथमसे विचार करते चले आवो, पिछे महा पुरुषोंको दूषित करो ? । नाहक आप भवचक्रमें डुबते हुये, दूसरे भव्य प्राणियांको-किस वास्ते डोवते For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्र. ( २४३ ) हो ? | प्रथम देखो - समक्त्व शल्लयोद्धार, ढूंढक जेठमलजी के समकित सारका लेखमें, कितनी सत्यता आई है ? ॥ फिर देखो - गप्पदीपिका समीर | ढूंढनी पार्वतीजी की ज्ञान दीपिका में, कितनी सत्यता आई हुई है ? || फिर देखो - धर्मना दरवाजाने जोवानी दिशा, तुमेरे दोतीन-बडे बडे पंडितोने मिलकर बनाया हुवा-धर्मना दरवाजा, नामक ग्रंथ में, कितनी सत्यता आई हुई है ? || फिर देखो, यह ढूंढक हृदय नेत्रांजन, ढूंढनी पार्वतीजी - का - सत्यार्थ चंद्रोदयमें कितनी सत्यता आई हुई है ? ।। और श्री अनुयोग द्वार सूत्र के मूल पाठका अर्थको, किस प्रकारसें विपरीतपणे समज्या है ? । और ढूंढनीजी के जूठा गर्वकी सीमा, कहांतक पुची है, सो अछीतरांसें रूपाल करो ? | केवलतीर्थंकरों को निंद्या, गणधर महा पुरुषोंकी भी निंद्या, और जैन ध की रक्षा करने वाले - सर्व जैनाचायोंकी भी निंद्या, के सिवाय तुमेरे ढूंढकों के हाथमें, कौनसा विशेष धर्म आया है ? || और जो दया दयाका जूठा पुकार करके, तीर्थकरों के सदृश तीर्थकरों की भव्य मूर्तियांकी, अवज्ञा करनेको तत्पर हो जाते हो सोतो, तुमेरी एक जातकी, मूढता हैं । परंतु वास्तविक प्रकारकी - दया नहीं है ? | क्योंकि जब तक - सम्यक् ज्ञान पूर्वक, दया धर्म में प्रकृति - कीई जावे, तब तक दया धर्म, वास्तविक नहीं कहा जावेगा । किंतु-दया मूढता ही, कही जावेगी | क्योंकि - दीक्षा महोत्सव, मरण महोत्सव, साधुकी संघ यात्रादि, साधुके निमित्ते - आरंभवाले For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्र. काय में, तुमको तुमेरी दया माताका ध्यान भी नहीं आता है । मात्र तीर्थंकर देवकी भक्तिके वखतमें ही, तुमेरी जूठी कल्पी हुई - दया माता- तुमको आके सताती है, और वीतराग देवकी भक्ति से ig करती है । और तीर्थकरों की भक्तिके सिवाय दूसरी जगेंपर, 1 ते जूठी कल्ली हुई तुमेरी दया माता- तुमको कुछ भी आके कहती ही नहीं है. ॥ तो इहां पर थोडासा विचार करोकि, यह दया मूढता कही जावेगी कि, वास्तविक प्रकारकी दया कही जावेगी ? | हमने जो शास्त्रों में अनेक प्रकारका, मृढताके भेद देखे है, उसमेंका यह भी एक भेद ही मालूम होता है । नहीं तो इतना विपरीतपणा - जग जगपर, हमारे ढूंढकभाइयांका क्यों आता ? । अर्थात् कबी भी नहीं आता । यह तो कोइ - एक प्रकारका, अघोर कर्मकी ही विचित्रता, मालूम होती है । अगर जो ऐसा न होता तो तीर्थंकरों की परम शांत मूर्त्तियांकी पूजाके स्थानमें, परम श्रावकों की पास - पि तर, दादेयां, भूत, यक्षादिकोंकी - भयंकर मूर्त्तियां, दररोज पूजानेको- क्यों तत्पर होते ? ॥ और यह मूढता, कोई ऐसी महा पापिनी है कि, जिसने पूर्व कालमें भी अनेक प्रकारसें, अनेक प्राणिओंको, फसाये हैं । और इस लोक परलोकका स्वार्थसें भी, भ्रष्ट ही किये हैं । परंतु सारा सारका - विचार करने को, अवकाश नहीं दिया है. 11 जैसेकि - दुहा. सारासार विचार विन, भोग इंद्रि में लुद्ध । कागदकी हथनी विषें, फर्से हाथी हुय बुद्ध ॥ १ ॥ सारासार विचार विन, रसन विषयमें मूढ । For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूढताका त्यागी सो कल्याणकापात्र. ( २५५ ) धीवर केरी जालमें, फसें मछ जइ गूढ ॥ २ ॥ सारासार विचार विन, घ्राण विषय में मस्त | फसें भमर ही कमलमें, सूर्य होय जब अस्त ॥ ३ ॥ सारासार विचार विन, चक्षु विषयमें अंध । पडें पतंग जइ दीपमें, सबल करमका बंध ॥ ४ ॥ सारासार विचार विन, श्रोत्र विषयमें लीन । पापी जनके हाथसुं, मोत बिन मरें हरिण ॥ ५ ॥ मानवरों रावण थयो, कर्यो न सार विचार | अंते मरी नरके गयो, लोके को गमार ॥ ६ ॥ मूढ बनी दुर्योधने, पांडवपर कियो क्रोध । सर्वनाश अपनो कियो, लियो न कृष्णसुबोध ॥ ७ ॥ लुंटे धन और धरमको, मनके महा मलीन । लिखें बकें जूनुं सदा, जाणो चतुर परवीण ॥ ८ ॥ सहज वस्तुको निंदतां, बंधे पातक घोर । जिन मूरतिकी निंदना, सो संसार अघोर ॥ दया मूढ के योगसें, मत निंदो जिन राज । मूरति भव समुद्रसें, पार उतारण जाज ॥ १० ॥ मित्र मूढ योगी हुवो, न कियो सार विचार | कंकण पीतलका लिया, किई ठगाई सुनार ॥ ११ ॥ ९ ॥ तैसेही - वीतरागी मूर्त्तिकी भक्तिसें भडकने वाले, हमारे ढूंढक भाइओके पंथ, प्रामाणिक दया माताका राज्य तो नहीं है, किंतु For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४६ ) मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्र. दया मूढताका हो राज्यकी प्रबलता मालूम होती है ? । नहितर हमारा परमोपकारी तीर्थकरोंकी, परमशांत मूर्त्तिकी पूजाको छुडवायके, मिथ्यात्वी जो पितरादिक है, उनकी क्रूर मूर्तियांकी, दररोज पूजा करानेको क्यौं तत्पर होते ? । इस वास्ते मालूम होता है कि, हमारे ढूंढक भाइयोंके अंतःक रणमें, कोई एक प्रकारकी मूढताका राज्यकी ही — प्रबलता हुई होगी ? | इसी कारण से ही, हमारे ढूंढक भाइयां के हृदय में - सारा सारका विचार नहीं आता होगा ? | और इसी ही कारण से, गणधरादिक सर्व जैन सिद्धांत कारोंका लेखसें भी, विपरीतपणे लेख लिखते है । हे ढूंढक भाइओ ! तुम दया दयाका जूठा पोकार करके, और वीतराग देवकी भव्य मूर्तियां की पूजाको छुडवायके, मिध्यात्वी देवोकी - भयंकर मूर्तियां, पूजानेको तत्पर होते हो - परंतु थोडासा मध्यस्थ भावसें ख्याल करोंकि, जैन तत्रके विषयमें, आजतक दोनों तरफका लेख, जितना बहार आया है, उसमें एक लेखभी, तुमेरे तरफका सत्य स्वरूपसें प्रगट हुवा है ? | तुम अपने आप जैन सिद्धांतोसें मिलाके देखो, मालूम हो जायगा । किस वास्ते - जैन धर्म के निर्मल तत्वोंका, विगाडा करके, अपने आप जैन धर्मसें भ्रष्ट होते हो ? | हमने यह लेख तुमेरा हितके वास्ते लिखा है । तुमने कोरा कष्ट बहुत भी किया, तोभी जैन तत्त्वका विमुखपणासें, और तीर्थकरों की भव्य मूर्तिकी निंदारों, और जैन धर्मके सर्व सद्गुरुओकी निंदारों, और जैन धर्मके सर्व तत्र ग्रंथों की निंदारों, तुमेरा For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्र. (२४७) कष्टसें क्या सिद्धि होने वाली है ? उस बातका अछीतरांसें विचार करो। इसी वास्ते हम कहते है कि,यह तुमेरी दयामाता, विचारवाली नहीं है, किंतु दया मूढता ही है । इस प्रकारकी-दया मूढतासें, न तो तुम अपना कल्याण करसकोंगे, और न तो दूसरेका भी कल्याण कर सकोगे, इसमें एक साधारण-उदाहरण, देके मैं मेरा लेखकी भी समाप्ति करता हुँ । जैसे कि-कोइ एक पुरुषथा, सो धर्म करनेकी तीव्र इछावाला होके, तापस व्रतको अंगीकार किया । उसने किसीसे श्रवण करके धर्मके स्वरूपका निश्चय किया कि-दया मूलो हि धर्मः । परंतु-ते नवीन तापस, सारा सारका विचार नहीं कर सकताथा । एकदिन भिक्षादिक कार्यके वास्ते, दूसरे तापस वस्तिमें जाते हुये, शीतज्वरसें पीडित एक तापसकी रक्षा करनेके वे स्ते इस नवीन तापसको छोड गये । और कहते भी गये कि, इसको आहार, पानी, आदि कुछ देना नहीं । हम अभी आते है। ____ अब ते शीत ज्वरीने, दीनपणा धारण करके, शीतल जल मंग्या, उस नवीन तापसने-विचार कियाकि, अरेरे-दया मूलोहि धर्मः, एसा विचार करके, ते शीत ज्वरीको शीतल जल दीया । अब ते ज्वरी, जल पीनेकी साथ-त्रिदोषमें आके, तरफडाट करनेको लगा। इतनेमें दूसरे तापसों भी आ गये । माहित होके पश्चात्ताप करते हुये, कहने लगेकि-अरे अज्ञानिनः किं न कुर्वति । अर्थात् अज्ञानी पुरुषों क्या क्या अनर्थ नहीं करते है । अब इस वचनको भी, ते नवीन तापसने धारण करके, वि. For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्र, चार किया कि - हुं अज्ञानी होगा ? वास्ते कुछ ज्ञान प्राप्त करना । फिर किसीसें सुना कि - तपसा ज्ञाना वाप्तिः । अब इस बचनको भी धारण करके, चले तपसा करके ज्ञानकी प्राप्ति करनेको पहाड़ उपर । अब दूसरे तापसो थे सो, ढूंढते ढूंढते दिन पंदरा वीसमें, पुहचे पहाड उपर देखा भूष तृषासें पीडित, परण तुल्य दिशामें । ज्ञातो क्या प्राप्त होनेवाला था ? लेकिन ते तापसो, मरण दशाकी प्राप्तिसें छुडायके अपना मउमें लेकर आगये । I फिर किसीसे सुनाकि-समाधि मूलोहि धर्मः । अर्थात् सबकी समाधि करना सोही धर्म है । अव ते नवीन तापस, चला समाधि करनेको, चलते २ एक भाविक गाम में, बैठे समाधि लगायके । और धर्मका स्वरूप पुछनेवाले लोकों को भी कहता रहा कि - समाधिमूलोहि धर्मः । लोक पूजासें कुछ धनकी भी प्राप्ति हुई । परंतु थुत्तों को, धनप्राप्तिको खबर पडने सें, भक्तिपूर्वक ते धूर्त्त लोको भी धर्मका स्वरूप, पुछनेको लगे । अब सारा सारका विचार शून्य, ते नवीन तापसने दिखाया समाधि मूलक धर्म । धन लेनेका प्रपंच के वास्ते, ते धुत्ताने भेजी वेश्याको, जाके कहनेलगी, स्वामीनाथ मेरा कामज्वरकी समाधि करो ? | 1 इधर स्वामीजी गये समाधि करनेको, उधरसें धूतेथे सो धनको ले गये, गामवाले लोंकों को मालूम होनेसें, स्वामीजीको - गामसें निकाल दिये । इस वास्ते - सारा सारका विचार बिना के स्वामीजीको, नतो—दया मुलक धर्मसें, कुछ कार्य सिद्ध हुवा | और स्वामीजीको, न तो तपसानें भी कुछ ज्ञानकी प्राप्ति हुई । और समाधि मूलक धर्म तो स्वामीजीका, दोनों भत्रका समाधानही हो गया || For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूढताका त्यागीसा कल्याणकापात्र. ( २४९ ) इस उदाहरणसें विचार करोकि, जो पुरुष, साधारण माका वचनमें भी, पारा सारका विचार नहीं करता है सो, नतो इस लोकका - कार्यकी सिद्धि, कर सकता है, और नतो परलोकका भी कार्य की सिद्धि, कर सकता है । तो पिछे जो जैन तत्वका ORG मूल सिद्धांत ? सात नयोसें गर्भित । २ चार निक्षेपादिकसें गभिंत । ३ प्रत्यक्ष परोक्ष वे मूलके प्रमाणसे गर्भित । ४ उत्सर्ग अ पत्रादादिक षट् भंग भी गर्भित है । उसका तत्त्व गुरु के बिना मूल मात्रसें कैसें समजा जावेगा ? कभी भी न समजा जावेगा। इसी का रण इसमें सें एकैक विषय के साथ, नव वादिक स्वरूप हजारो श्लोकोंमें लिखके, महापुरुषो दिखा गये है । और ते ग्रंथो विद्यमान पणे भी है । अगर कोई महापुरुष फिरसें भी लाखो श्लोकों में, लिखके दिखलावे, तो भी आगे काल विशेषसें, और पुरुष विशे षके योगसें, समजनेकी, और समजावनेकी - अपेक्षा ही बनी रहती है ! इस वास्ते कारण पायके - पहापुरुषोंको, ग्रंथों बनानेकी आवश्यकता पड़ जाती है । -- परंतु निर्युजिकार, भाष्यकार, और टीकाकार महापुरुषोंकाआश्रयको अंगीकार किये बिना, और परंपराका सद्गुरुके पास पढे बिना, हमारे जैसे आजकालके जन्मे हुये अल्प बुद्धिवालोंको, जैन धर्म के तत्रके विषय में एक दिशा मात्रका भी भान होना बडा दुर्ग है । तो पिछे उस महापुरुषों की अवज्ञा करके, और गुरु द्राहीपणाका महा मायश्चित्तका बोजा, शिरपर उठायके, और मूल सूत्र मात्रका ---जूठा हठ पकडके, जो कुछ जैन तत्त्वके विषय में लिखेंगे, और दूसरोंको उपदेश देखेंगे, सो सभी जूउही जूठके शि वाय, नतो सत्य स्वरूपका लेखको लिख सकेंगे, और नतो दूसरोंको सत्य स्वरूप सें समजा सकेंगे | ... For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५०) मुढताका त्यागीसो कल्याणकापात्र. - इस बातको-अनुभवतें सिद्धपणे, देखलो दोनों तरफका लेखको मिलायके, यथा योग्य मालूम हो जायगा। हाथमें कंगण, तो पिछे- आरसाका, क्या काम है ? ॥ प्रथम देखो-सूत्रोंकी पारगामिनी, पंडिता ढूंढनी पार्वतीजीको एक दया मूढताके योगसें, सारा सारका-विचार, कितना कर सकी है ?। तुमको-बिचार करनेका, बोजा कभी हो जानेके वास्ते-इसारा मात्रसें, मैं भी दिखाता हुं । सो उनके अनुसारसे विचार करते चलेजाना, यथा योग्य मालूम हो जायगा ॥ देखोकि-ढूंढनी पार्वतीजीने, सत्यार्थ. ए. १७२ में, लिखाथाकि-जूठ बोलना पाप है, इसलेखके विषयमें, हमने हमारा तरफका बावनमा [५२] दुहामें, सूचना किईथीके-नहीं जूठका अंत, ऐसा लिखके, जो सतावीश कलमसे, ढूंढनीजीके जूठ पणेका, इसा. रा करके-दिखायाथा, वह सभीही कलमके साथ, यथा योग्य पणे दयामूढताको जोडकरके, विचार करना । ढूंढनीजीका लेख, दया वाला है कि-दया मूढताका है ? यथा योग्य मालूम हो जायगा ।। जैसेकि [१] ढूंढनीजीने-पिछली तीन नयोंको, सत्यरूप ठहरायके, प्रथमकी चार नयोंको, असत्यरूप ठहरानेका-प्रयत्न किया । सो ढूंढनाजीन-भव्य जीवोंके उपर दयाकीई है कि,दया मूढता ? ॥१॥ [२ १ नाम, २ स्थापना, यह दोनों निक्षेप-अवस्तु ठहराया। और-पूर्णभद्र यक्षादिकोंकी, स्थापना रूप-मूर्तिकी पूजासे, धन पुत्रादिककी प्राप्ति हानेका दिखाया । यह ढूंढनीजीन-भव्य जीवोंके उपर, दया कीई है कि-दया मूढता ? ॥२॥ .. [३] द्रौपदीजीके विषयमें, अनेक प्रकारकी जूठी कुतकों For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूढताका त्यागीसों कल्याणकापात्र. ( २५१ ) करके, जिनमतिमा के बदले में - अवस्तुरूप काम देवकी, स्थापना रूप- मूर्ति, वरकी प्राप्ति करानेको - तत्पर हुई ? सो ढूंढनीजीने, भव्य जीवोंके उपर दया कीई है कि दया मूढता ? || ३ || हमारा इस लेख के अनुसार सें, सतावीसें कलमकी साथ, ढूंढनीजीकी - दया, और दया मूढताका विचार, करते चले जाना ॥ मैं अवज्यादा कुछ नहीं लिखता हुं, मात्र इतनाही कहता हुं कि-महा पुरुषों की अवज्ञा करनेसें, न तो इसलोक में कल्याणके पात्र बनोगे, और न तो परलोक में भी कल्याणके पात्र बनोंगे, यह बात तो निसंशय पणे सेंही सिद्ध है ।। इत्यलं अतिविस्तरेण. ॥ इति काव्यका तात्पर्यार्थ | For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५२) मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्र. ॥ मूढ पुरुषो तत्त्व देखनेका उत्साह मात्र भी नहीं धरते है ॥ ॥ केचिन्मूलानुकलाः कतिचिदपिपुनः स्कंधसंबंधभाजः छाया मायांति केचित् प्रतिपद मपरे पल्लवानुल्लवंति । पाणौ पुष्पाणि केचिद्दधति तदऽपरे गंधमात्रस्य पात्रं, वाग्वल्लेः किंतुमूढाः फल महह नहि द्रष्टु मप्युत्सहते॥१॥ ____ अर्थ-कितनेक मूढ पुरुषो हैसो, वाणीरूपी वेलडीका परमार्थको समजे बिना, मूल मात्रकोही-अनुकूल होके, अपनी पंडिताईको प्रगट करते है। कितनेक पुरुषो हैसो, ते वेलडीका, एकाद स्कंधरूप, ( अर्थात् एकाद विभागरूप ) पढ करके, उनका परमार्थको समजे बिनाही-अपनी पंडिताईको दूनीयामें प्रगट करते है । और कितनेक पुरुषो हैसो, ते वेलडीकी छाया मात्रका आश्रयको अंगीकार करते हुये, अपनी पंडिताईको प्रगट करते है। और कितनेक पुरुष हैसो, ते वेलडीका पल्लवोंकों-उच्चारण करते हुये, ( अर्थात् किसी जगेंका श्लोक तो, कीसी जगेंकी गाथा, छंद, दुहादिकका उच्चारण करते हुये ) अपनी पंडिताईको दूनीयामें प्रगट करते है । और कितनेक पुरुष हैसो, ते वेलडीके-पुष्पोंको, अपने हाथमें धारण करते हुये, ( अर्थात् बडे २ पोथे अपने हाथ मलेके बैठते हुये ) अपनी पंडिताईको दूनीयामें प्रगट करते है । और कितनेक पुरुष हैसो, ते वेलडीका गंध मात्रकाही पात्र बनते For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूढताका त्यागीसो कल्याणकापात्र. (२५३ ) है, ( अर्थात् ग्रंथको उपर उपरसें ही देख लेते है ) और अपनी पंडिताईको प्रगट करते है । परंतु ते वाणीरूपी वेलडीका तात्पर्यरूप फल क्या है, उसकी तरफ देखनेका भी उत्साह, ते मूढ पुरुषो नहीं धारण करते है ॥ १ ॥ इति कान्यार्थः संपूर्णः ॥ __इस काव्यमें तात्पर्य यह कहा गया हैकि-जो जो तत्के मूल सिद्धांतो है, उनकी व्याख्यारूप नियुक्तियां, भाष्यों, टीकाओ, प्रकरण आदि ग्रंथो है, सोभी गुरु मुखमें पढ करके, उनका अर्थ मिलाया हुवा है, तोभी जब तक विशेष विचारमें नहीं उतरता है, तब तक ते ग्रंथों के-तत्त्वका रहस्य, कवी भी नहीं मिला सकता है । तो पिछे टीका कारादिक सर्व महा पुरुषोंकी अवज्ञा करने वाले, ते मूढ पुरुषो, गुरुजान बिनाके, मूल मात्रका सिद्धांतोंसेंतस्वका रहस्य, कहांसें मिला सकने वाले है ? । अपितु तीन कालमें भी न मिला सकेंगे। ॥ इत्यलं विस्तरेण ॥ ॥ इति श्रीमद्विजानंद सूरीश्वर शिष्येन मुनिनाऽमर विनयेन. ढूंढक हृदय नेत्रांजन प्रथम विभागे, विचार सार विवेको दर्शितः स समाप्तः ॥ For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ढूंढक हृदय नेत्रांजनस्य शद्धि पत्रमिदम्. पृष्ट. पंक्ति. अशुद्ध. शुद्ध पृष्ट. पंक्ति. मिशरपिणेका मिशरी अशुद्ध. शुद्ध. निपद्विचार - निषद्विचार १ २ युक्तो - युक्तोहित्रै ६२३ विशेष विशेष १२ २४ १४ १ १५ ३ १५ ६ १६ ३ १६ ७ १६ १५ २५ ११ भुत- भूत लोकत्तरिक, लोकोत्तरिक२६ ६ पलवितेन - पल्लवितेन २६ १७ पड पठ शुन्य शून्य भूमि भूमि सौ ढूंढनी बिंव निक्षेप भावस्तु - भाववस्तु अस्था- अवस्था संर्व- सर्व कितु- किन्तु निक्षेपर्से - निक्षेपसें शास्त्र ५० १ शिघ्र- शीघ्र शंका ५७ १९ क्षासात्पणे - साक्षात्पणे २०११ योगिक यौगिक । ५८ ११ शैौगिक} बैठा नही बैठा नहीं २०११ १५ तात्पर्यार्थ - तात्पर्यार्थ २०१६ १६ कुभ शास्त्रा संका बोधकी निक्षेष अस्था २९ ९ भाब ३२ ५ जौ ३२ २२ ४०१८ संबंध ४० १८ संबंध बुद्धि कैसे - बुद्धिकैसी ४१ १२ भावकी - मूर्ति हेमका सो ४६ ८ ढूंढनीजीको ४७ २२ ४८ १२ ४९ २० ४९ २१ पणेका ४५ १५ For Personal & Private Use Only बिंब निक्षेप कुंभ जो बोधकी १९ १ निक्षेप ५९२१ अवस्था ५९२३ भाव भावकी मूर्ति हमको ६० २२ ६१ १० ६११५ ६२ १६ ६२२५ ६३ १९ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध. शुद्ध. पृष्ट. पंक्ति. अशुद्ध. शुद्ध. एट. पंक्ति. धका- धका ६४ १० बैठना- बैठना , १० वस्तके- वस्तुके ६४ १३ / ढंढनी- ढूँढनी ८९२ वेशा- वैसा ६४ १४ तरे- तेरे , १४ वत- बत ६४ १९ मर्तिपर- मूर्तिपर ,, १४ वने- बने ६७ १ अरिहंत- अरिहंते ९० १७ दूसरेका- दूसरेका ६८ १५ देवलाक- देवलोक ९३ ११ सहि- सहित ६९ ११ त्तिये हैं- मूर्तिये है ९५ १८ मिठीका- मिहिका ६९१५ त्तिका- मूर्तिका , २१ सपदायके- संप्रदायके ९७ १२ सुत्रमें पंडिमाणं- पडिमाणं ९८ ४ सूत्रमें, ७५ पुजा- पूजा। , ७ पूर्णमद्र- पूर्णभद्र ९९ १५ मुर्ति- मूत्ति , ८ | इसं- इस १०० १ इस्लादि- इत्यादि, १५ आदिकी- आदिकी , ५ सास्त्रोमें- शास्त्रोमें ७६ ८ वीतरग- वीतराग १०४ १० हढनो- हठतो ७६ १९ ૧૦૨ ૨૧ पुजन- पूजन , २० परिव्रजाक, परित्राजक१०६ १० करनके- करनेके ,, २१ अम्य- अन्य १०९ ३ कुतर्कका कुतर्कका , १० तुह्यारे- तुमारे ११० १४ मुकद्दमें मुकदमें ७७ १४ शून्य- शून्य ११३ १२ बहुत , ७८ १० थोयी- थोथी , १३ होगा- होगी ७९ ५ ढूढनी- ढूंढनी ११४ १ वंदनाय- वंदनीय , १० प्रतिमा- प्रतिमा ११५ ४ श्रृंगारादि- शृंगारादि ८० ८ मूर्तिका- मूर्तिका ११६ ४ मूर्तिका- मूर्तिका ८१ १ मूर्तियां- मूर्तियां ११९ २५ FEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध. शुद्ध. पृष्ट. पंक्ति. अशुद्ध. शुद्ध. पृष्टः पंक्ति. स्वनामोचार, स्वना- सूत्रोंमें, सूत्रोंमें ] १६४ ३ में १६५९ - मोच्चार १२०१०. भ- ययाच-यथाच । १७ सल्योद्धार, शल्योद्धार १२५ ३ सम्यक दर्शन,सम्य मूर्ति- मूर्ति १३१ २६ कदर्शन . १८ जीवपणको,जीवपणेको १३१२३ हसेभी- इसमेंभी- १६६ ५ हाम- हम १३२ १८ पलवितेन-पक्लवितेन १३३ १८ ढूढनी- ढूंढनी. १६९-२२ करयलि- कयबलि ॥ २० सद्धो-सुद्धो १६८ १७ तुमरे- तुमेरे १३५ २१ भवित व्यत भवित । भुत- भूत १३५ ३ , व्यता १७१ २१ है सुमतिनी-हे सुमातिनि , ८ ह सुमातान” ८ इत्पलं- इत्यलं १७२ २ राराओ- राजाओ १३६ १६ जैन धर्मसे, जैन धर्मसें १७७ १० श्रूना शून्य १४२ २३ क्था- क्या १७९ १९ प्रमाणिक, प्रामाणिक १४४ १६ कृश्ननीने, कृष्णजीने १८१ १९ दोखये- देखिये १४५ ३ श्रृंग- शृंग १८५ २४ लिखत हुिई-लिखती वस्त्र- वस्त्रं ૧૮૭ ૧૨ हुई १४२ २ समन्धित, सम.) भद्र भाडु- भद्रबाहु १५१ ७ वित १९४४ ढंढकोमें- ढूंढकोमें १५३ ३ हस्त.. हस्ते ) १९४ ५ तुम्हार- तुम्हारे १५५ १ इत्थलम- इत्यलम् , ४ दके- देके १९५ ७ उलंघन-उलंघन १५९ १६।१७ | मयीं- मयी १९९२१ अयोग- अयोग्य १६ १९ । स्ववरूपकी, स्वरूपकी २०० ४ For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ढूंढक हृदय नेत्रांजन भाग द्वितीय प्रारंभ ॥ ॥ अथ १ हेय, २ ज्ञेय, और ३ उपादेयके, स्वरूपसे-चार निक्षेपोंका विचार लिख दिखावते है । ॥ अव भव्य पुरुषोंके हितके लिये-चार निक्षेपके विषयमें, किंचित् दूसरा प्रकारसें. समजूति करके दिखावते है । ॥ इस दूनीयामें-वस्तु, अर्थात् पदार्थ, सामान्यपणे, तीन प्रकारके कहे जाते है । कितनेक पदार्थ-हेय रूप होते है, अर्थात् त्याग करनेके योग्य होते है १ ॥ और कितनेक पदार्थ ज्ञेय रूप होते है, अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के योग्य होते है २॥ और कितनेक पदार्थ-उपादेय रूप होते है, अर्थात् अंगीकार करनेके योग्य होते है ३ ॥ ॥जो पदार्थ-हेय तरीके होते है, उनके चारों निक्षेप भी, हेय रूप ही होते है १ । और जो पदार्थ-ज्ञेय तरीके होते है, उनके चारों निक्षेप भी, ज्ञेय रूप ही होते है २ । और जो पदार्थ-उपादेय तरीके होते है, उनके-चारों निक्षेपभी-उपादेय रुप ही होते है ३ ॥ · · ॥ यह तीनों प्रकारके पदार्थमें, मत मतांतरकी विचित्रतासे, अथवा जीवोंके कर्मकी विचित्रतासे, अथवा समाजकी प्रवृत्तिकी विचित्रतासे, हेय, ज्ञेय, और उपादेय, यह तीनों पदार्थमें, सा For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) उपादेयादिक-वस्तुके चार चार-निक्षेप. मान्य विशेषपणा भी देखनेमें आता है । भौर-हेय, ज्ञेयादिकमें, उलट पलट भी देखने में आता है। जैसेंके, किसीको सामान्यपणे हेय, ज्ञेय, और उपादेय रूप है, तो किसीको विशेष रूपसे भी हेय, ज्ञेयादि रूप है, । और किसीको एक पदार्थ-हेय रूप है, तो दूसरेको-ज्ञेय रूप भी, होजाता है।अथवा उपादेय रूप भी, हो जाता है । सौ मतांतरादिककी विचित्रतासे, एक ही पदार्थमें, उलट पलटपणे, अनेक प्रकारकी भावनाओ दिखने में आती है ॥ ॥ परंतु जिसने जो पदार्थको हेय तरीके मान्या है, सोतो उस पदार्थका-चारों निक्षेपको, हेय तरीके ही, अंगीकार करता है। और-ज्ञेय पदार्थका चारों निक्षेपको, ज्ञेय रूप ही, अंगीकार करता है २ । और-उपादेय पदार्थका-- चारों निक्षेपको, उपादेय तरीके ही, अंगीकार करता है ३ । जैसेंके, शिवोपाशक है सो, शिवका ही-नाम, स्मरण करते है यह तो-नाम निक्षेप १ । पूजन भी शिवकी-मूर्तिका ही, करते है यह-स्थापना निक्षेप २ । और शिवकी ही पूर्वाऽपर अवस्थाको बडी प्रियपणे, मान्य रखते है यह-द्रव्य निक्षेप ३। इस वास्ते परमोपादेय शिवजीको समजके, उनके चारों निक्षेपको भी, उपादेयपणे, मान्य ही करले ते है ४॥ इसी प्रकारसे अब विष्णु भक्त है सो, विष्णुका ही-नाम, स्मरण करते है सो-नाम निक्षेप १ । पूजन भी, विष्णुकी मूर्तिका ही करते है सो--स्थापना निक्षेप २ । और विष्णुकी ही, पूर्वाऽपर अवस्थाको बडी प्रियतापणे, मान्य रखते ही है सो--द्रव्य निक्षेप ३। इस वास्ते परमोपादेय-विष्णुको ही समजके, उनके-चारों निक्षेपको भी उपादेयपणे, मान्य ही कर लेते है, ४ ॥ For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेय-वस्तुके, चार निक्षेपमें-दृष्टांत. (३) __ अब मुसलमान है सो, अल्लाकाही-नाम, स्मरण करते है यह तो-नाम निक्षेप १। और महज्जिदोमें गोखका आकाररूपे, असद्भावसे स्थापनाको स्थापित करके, विनयादिकभी करतेही है यह-स्थापना निक्षेप २ । और, अल्लाकी, पूर्वाऽपर अवस्थाको, याद करके, अनेक प्रकारका पश्चात्तापभी करतही है,यह-द्रव्य निक्षेपका विषय है ३ । इस वास्ते परमोपादेय अल्लाको समजके उनके चारों निक्षेपकोभी-उपादेयपणे, मान्यही कर लेते है ४॥ ॥ अब क्रिश्चन है सो, इमुकाही-नाम, स्मरण करते है, यह भी-नाम निक्षेपही है १ । गिरजागर बनाके, असद् भावसे स्थापनाकोभी स्थापित करके, उहांपर अनेक प्रकारका विनयके साथ, भजन बंदगीभी करते है, अथवा कितनेक गिरजा घरमें, साक्षात्पणे इसुकी, शांत मूर्तिको स्थापित करके भी, अदबके साथ भजन वंदगी भी करते है यह स्थापना निक्षेपका ही विषय है २ ॥ और इसकी पूर्वाऽपर अवस्थाको स्मरण करके, बडा विलापभी करते है यह उनका--द्रव्य निक्षेपका, विषय है ३॥ इस वास्ते इसुको-परमो. पादेय समजके उनके, चारों निक्षेपकोभी, उपादेयपणे मान्यही रखते है ४ ॥ ____ इसमें विशेष यह है के, मतांतरके कारणसें, और भावनाका फरक होनेसें, जो कोइ एकाद वस्तु एक पुरुषको-उपादेय है, तो दूसरेको-हेयरूप, अथवा ज्ञेयरूप, भी होजाता है । इसवास्ते चार निक्षेपोंमेंभी, हेय, ज्ञेय और उपादेयपणा, उलट पलटपणे होजाता है ॥ इति उपादेयादिक-वस्तुके, चार चार-निक्षेप ॥ ॥ अब साधारणपणे-हेय रूप वस्तुको, दृष्टांतसे समर्थन करते है. जैसेंके, स्त्री, अथवा पुरुषका, शरीररूप-एक वस्तु है, अर्थात् For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) हेय-वस्तुके, चार निक्षेपमें दृष्टांत. 5 पदार्थ है । अब स्त्री-माता, भगिनी, बेटी, वधू, आदिकी भावना, समाजकी प्रवृत्तिकी विचित्रतासें होती है। एक कल्पनायें-- भक्ति रागकी भावना, तो दूसरी कल्पनायें - प्रीति रागकी भावना, रहती है | परंतु समाजकी प्रवृत्तिको छोडके जो साधु पदको अंगीकार करता है, सो तो - स्त्रीरूप वस्तु मात्रका, त्याग ही करके, व्रतको अंगीकार करता है, इस वास्ते स्त्रीरूप वस्तुका - चारों निक्षेपको भी त्याग ही करता है || अब देखोकि स्त्रीरूप - वस्तुका भावनिक्षेप योवनत्व, अंबस्थामें कियाजाता है । क्योंकि, कामी पुरुषको शीघ्रपणे कामविकारकी माप्तिकरानेवाली अवस्था वही है, । सो स्त्री, साधु-पुरुषोंको, सर्वथा प्रकार से त्यागने के ही योग्य है । और उत्तम संन्यासी साधु, सामी1 नारायण के साधु, जैन साधु, विगेरे सर्वे साधुओं प्रत्यक्षपणे त्यागभी कर रहे है, ओर इस स्त्रीका -- योवनत्वरूप, भावनिक्षेपका त्याग होनेसें उनका १ नाम निक्षेप । २ स्थापना निक्षेप | और ३. द्रव्यनिक्षेप काभी त्याग करनेका, शास्त्रों में प्रसिद्धही है । जैसेंकि - साधु पुरुषोंने, स्त्रीकी श्रंगार कथादिक करके, स्त्रीका वारंवार स्मरण, नहीं करना, यह निषेधकरने से - नाम निक्षेपका स्मरण, करना निषेध किया गया है ? | और स्त्री आदिकी चित्रशाला में साधु पुरुषों को रहनेका निषेध होनेसें, स्त्रीके - स्थापना निक्षेप काभी, त्याग करनाही दिखाया है, और इस स्थापना निक्षेपका त्याग करानेके वास्ते, सिद्धांमेंभी प्रगटपणे पाठभी कहा है, देखो दश बैकालिकका अष्ठमाध्ययनकी ५५ मी गाथा, यथा. ॥ चित्तभित्तिं न निजाए, नारिं वा सुचलंकि भख्खरं पित्र दहू, दिठिं पडि समाहरे ५५ ।। · For Personal & Private Use Only - Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञेय-वस्तुके, चार निक्षेपमें- दृष्टांत. (५) अर्थ - इससे प्रथमकी गाथामें एसा कहाथाकि, साधुओं को मृतक स्त्रीका, कलेवरसेभी भय हैं, इस वास्ते चित्रमें चित्रीहुई स्त्रीको, वा, अलंकारवाली स्त्रीको, अथवा अलंकारविनाकी स्त्रीकोभी, ध्यानपूर्वक देखें नही, अगर, स्वभावसे दृष्टि पडजावे तो, सूर्यकी प्रति पडी हुई दृष्टिकीतरां संहारण करले ५५, इसगाथा में, चित्रकी स्त्रीकोभी, देखनेका, निषेध करनेसें, स्त्रीका स्थापना निक्षेपकाभी, त्याग करणा ही दिखाया है २ । अब साधु पुरुषोंको स्त्रीका द्रव्य निक्षेपभी, त्याग करने रूपही सिद्ध होता है, जैसेंकि, स्त्रीत्वभावकी पूर्व अवस्था, बालिकारूपका, संघन करना, निषेध किया है, तैसें स्त्रीकी अपर अवस्थारूप, मृतक देहभी, साधु पुरुषोंको, भयही दिखाया है, इसवास्ते स्त्रीका. द्र -- व्यनिक्षेपभी, त्याग करनाही योग्य हुवा 3 || इस लेखसें यही सिद्ध हुवाके, साधु पुरुषोंको - स्त्रीरूप हेय वस्तुका, चारोंनिक्षेपभी हेयरूपही है । तैसें साध्वी को, पुरुषरूप वस्तुकाभी, चारोंनिक्षेप त्यागही करना सिद्ध है. इसवास्ते हेयरूप वस्तुका, चारोनिक्षेपभी, त्याग करने केही योग्य है इति रूप वस्तुका चारोंनिक्षेप, त्याग करणेरूप प्रथमो धिक्कार ॥ .. अब शेयरूप वस्तुका, चारनिक्षेपसें, ज्ञानप्राप्ति करनेरूप, द्वितीय अधिकार लिख दिखावते है - जैसे कि - मेरुपर्वत, जंबूद्वीप, नदी द्रह, कुंड, भरतादिक्षेत्र, सिंह, हंस, भारंडपंखी, हाथी, घोडा, हिंदूस्थान, जड़ी, बुटी, विगेरे नाना प्रकारकी ज्ञेय वस्तुका, नामदेके, For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) परमोपादेय-वस्तुके, चार निक्षेपमें-दृष्टांत. बच्चाको (बालकोंको) समजाना, सो ज्ञेयरूप बस्तुका, नामनिक्षेपसें, ज्ञानको प्राप्ति, समजनी. _____ और उन पदार्थोकी, आकृति खेंचके, उनके स्वरुपका-ज्ञानकी प्राप्ति करानी, अथवा जिस जिस दिशामें पदार्थ रहे हुवे है उसउस दिशाका-ज्ञानकी प्राप्ति करावनी, सो ज्ञेयरूप.पदार्थकास्थापना निक्षेपसें, ज्ञानकी प्राप्ति, हुई समजनी ॥२॥ ___ और उस ज्ञेयपदार्थोकी, पूर्वरूप अवस्था,अथवा अपरकालकी अवस्थाका, भिन्न भिन्नपणे समजूति करके दिखावना, सो ज्ञेयरूप वस्तुका-द्रव्य निक्षेपसे, ज्ञानकी प्राप्ति, हुई समजनी ॥ ३॥ ॥ अब, जे जे ज्ञेय पदार्थका-१ नाम निक्षेपसें, २ स्थापना निक्षेपसें, और 3 द्रव्य निक्षेपसें, बालकोंको ज्ञानकी प्राप्ति कराईथी, सो सो पदार्थ, प्रत्यक्षपणे हाजर होनेपर, इसारा करके दिखाना के, यह वस्तु क्या है, इतना कहने मात्रसे, ते चतुर बालक, कहदेवे. गा कि, यह सिंहादिकका स्वरूप है। क्योंकि जिसको प्रथमके तीन निक्षेपोंका, यथावत् ज्ञानहोजायगा, उनको चोथा-भाव निक्षेपका, ज्ञानकी प्राप्ति होनेमें, किंचित् मात्रभी देर न लगेगी । इस बास्त वस्तुके चारों निक्षेपभी, सार्थक रूपही है, परंतु निरर्थकरूप कभी न होंगे । हां विशेषमें इतना है के, १ हेय वस्तुके चारों निक्षेप हेय, और २ ज्ञेय वस्तुके चारों निक्षेप ज्ञेय, और ३ उपादेय वस्तुके चारों निक्षेप उपादेय, रूपे अंगीकार करने योग्य होते है। इसबास्ते वस्तुके-चारों निक्षेप ही, सार्थक रूप है, परंतु निरर्थक रूप तीन कालमें भी न होवेगे ॥ इति ज्ञेयरूप वस्तुका, चारों निक्षेपसें-ज्ञान प्राप्ति करणेरूप, द्वितीयोअधिकारः अब जैनोंको, परमोपादेय जो तीर्थंकरों है, उनके चारों For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमोपादेय-वस्तुके चार निक्षेपमें-दृष्टांत. (७) निक्षेप भी, परमोपादेयस्वरूपके ही है । उनका विचार करके दिखावते है । जैसे कि--वर्तमानकालके तीर्थंकरोंका, जन्म हुये बाद,उनके माता पितादिकने, अनादि सिद्ध शब्दोंमेंसे, अनेक गुणोंको जनानेवाले ऋषभ आदि शब्दोंको लेके महावीर पर्यंत, जो नामका निक्षेप किया है, सो जैनी नामधारी मात्र भी, उनका-स्मरण, भजन, सदा सर्वकालमें करते हा है,इस वास्ते यह तीर्थकरोंका, नाम निक्षेप भी, परमोपादेय रूप ही है. १ ॥ ॥ और अपना परम पवित्र रूप शरीरमें निरपेक्ष होके, नासिकाका अग्रभागमें दृष्टिका आरोप करके, परम वैराग्य मुद्रायुक्त, प. रमध्याना रूढमें रहैं हुयें, तीर्थंकरोंकी, आकृतिका उतारा रुप, जिन मूर्ति है सोभी, स्थापना निक्षेपका विषय स्वरुपकी, भक्तजनोंको परम उपादेय रुप ही होगी। और जिस जिनेश्वर देवकी-बालकपणेके स्वरुपकी-पूर्व अ. वस्थाको,और मृतकशरीररूप-अपर अवस्थाको,इंद्रादिकोनेभी,परमसत्कारादिक किया है सो-द्रव्य निक्षेपका विषयभी, हमारेजैसे अ. ल्पपुण्यात्माको तो, अवश्यमेव परम उपादेयरूप हीहै ॥३ ___ और साक्षात् जो तीर्थकरहै सो, भावनिक्षेपका स्वरूप है, सोभावनिक्षेप पूज्यरूप होनसें, उनके-जानोनिक्षेपभी,अवश्यमेव पूज्यबु द्धिको उत्पन्न करानेवालेहीहै ।। ४ ॥ इति परमोपादेय, तीर्थंकरोंका, चार निक्षेपकर स्वरूप.॥ ॥ अथ ढूंढनी पार्वतीजीका लेख ॥ श्री अनुयोगद्वार सूत्रमें आदिहीमें-वस्तुके, स्वरुपके समजनेके लिए-वस्तुके सामान्य प्रकारसें-चार निक्षेपे, निक्षेपने, (करने) For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) चार निक्षेपका, ढूँढनीजीको-विपरीतज्ञान. कहे है ॥ यथा-नाम निक्षेप १ । स्थापना निक्षेप २ । द्रव्य निक्षेप ३। भाव निक्षेप ४ ॥ अस्यार्थः-नाम निक्षेप-सो, वस्तुका-आकार और गुण रहित-नाम सो-नामनिक्षेप १ ॥ स्थापना निभेप-सोवस्तुका-आकार, और नाम सहित, गुण रहित सो-स्थापना निक्षेप २॥ व्यनिक्षेप-सो-वस्तुका वर्तमान गुण रहित, अतीत अथवा अनागत गुण सहित, और आकार नामभी सहित, सो-द्रव्य निक्षेप ३ ॥ भाव निक्षेप-सो-वस्तु का नाम, आकार, और वर्तमान गुण सहित, सो-भावनिक्षेप ४॥ ॥ यह चार निक्षेपका लक्षण-ढुंढनी पार्वतीजीने-सिद्धांतसे निरपेक्ष होके, सत्यार्थ चंद्रोदय पृष्ट पहिलेमेंहि, लिख दिखाया है, सो इहांपर फिरभी-पाठकगणको विचार करनेको, लिख दिखाया है। . . ॥इति ढूंढनीजीका लेख ॥ पाठकगण ? हम ढूंढनीजीके-निक्षेपके विषयमें, बहुत कुछ कह करके भी आये है, तो भी इहांपर किंचित् सूचना करके दिखावते है ॥ यह ढूंढनीजी-सिद्धांतसें-वस्तुका-१ नाम निक्षेप । २ स्थापना निक्षेप । ३ द्रव्य निक्षेप । और ४ भाव निक्षेप । अलग अ. लग लिखती है । और अपना किया हुवा-नाम निक्षेपके अर्थमें-वस्सुको-आकार, और गुण रहितपणा, दिखलाती है, परंतु आकार, और गुण विनाकी, वस्तुही कैसे होगी ? १ ॥ और वस्तुका--स्थापना निक्षेपके अर्थमें--वस्तुको--गुण रहितपणा कहकर, नाम निक्षेपको भी--गूसडती है, सो यह कैसे बनेगा ? २ ॥ For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धांतका स्वरुप. ( ९ ) और वस्तुका - द्रव्य निक्षेपके अर्थ में - वस्तुको वर्त्तमानमें गुण रहितपणा दिखाके, फिर नाम निक्षेपको, और स्थापना निक्षेपको भी, मिलाती है ॥ ३ और वस्तुका भाव निक्षेपके अर्थमे वर्त्तमानमें गुण सहित - पणा दिखाके, फिर वही - नाम निक्षेप, और स्थापना निक्षेपको भी साथमें ही - वर्णन करके दिखलाती है । सो क्या जरुरथी ? सो तो अलगपणे ही कहे गये हुये है । जब वस्तुका - द्रव्य निक्षेपके विषयमें - वर्त्तमानमें गुण ही नहींथा, तो पिछे अतीत अनागतमें भी, कहांसे प्राप्त होगा ? ४ ॥ را यह ढूंढनीजीका लिखना ही अगडं बगडं रूप है, क्योंकि वस्तु तो गुणविनाकी तीनोंकालमें - कभी रहती ही नहीं है || ॥ इति - चार निक्षेप विषये, ढूंढनीजीका विपरीत ज्ञानका, विचार ॥ - || अब हम जैन सिद्धांतका किंचित् स्वरुप, कहते है || किया है जिनेश्वर देवके-तन्त्रका, अंत, जिसमें सो- जैन सिद्धात || अब सूत्र - अल्प अक्षरोंसेंभी किया है बहुत अर्थोंका वेष्टन जिसमें सो- सूत्र, कहते हैं ।। तिस ही सूत्रों में एक अनुयोग द्वार नामका भी सूत्र है, उसका अर्थ यह है कि - अनु जे किंचित् मात्र सूत्र, उनकी साथ-महान् अर्थका योग, सो अनुयोग । जिस अनुयोगद्वार सूत्रमें - सर्व सिद्धांत की कुंचिकारूप, चार अनुयोगकी, व्यारूपा किई गई है। इसी कारणसें महा गंभीरार्थ रूपमें होगया है, सो सद्गुरुके पास पढ़ें बिना, कोईभी वाचालता करेगा, सो, हास्य पदका पात्र बनेगा । हम अनुमान करते है कि इस ढूंढनी पार्वती For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) लक्षण कारके मतसें-चार निक्षेपका स्वरुप. जीने, इस अनुयोगद्वार सूत्रके पिछे, बहुत कालतक ही परिश्रम उठाया होगा, परंतु सद्गुरुके वचनरूप-तात्पर्य रसायन मिलाये विना, वृथा ही क्लेश उठाया है । परंतु हमारे ढूंढक भाइयोंकी अनुकंपाके लिये, जो हमने परम सद्गुरु श्री मदानंद विजय सूरीश्वरजी महाराजके-वचनरूप रसायन कुंपिकासें, प्राप्त किया है रसायनका बुंद, सो उनोंके मनरूप लोह रसको, सुवर्णरूप बना देनेकी इछासें, जो-चार महा अनुयोग है, उसमेंसें केवल एक निक्षेप नामका ही अनुयोगकी, सामान्य मात्रसें व्याख्या भी-महापुरुषोंको आश्रित होके ही, में फिर भी करनेकी प्रवृत्ति करता हु, सो सज्जन पुरुषों-अवश्य ही योग्यऽयोग्यका विचार करेंगे। ॥ इति जैन सिद्धांत स्वरूपका विचार ।। - ॥ सूत्र, और लक्षण कारके मतसें-चार निक्षेपका लक्षण । जो क्रिया गुण वाचक-वर्ण, समुदाय है, उस वर्ण समुदाय मात्रका, अथवा अपनी इछा पूर्वक वर्ण समुदायका, जीव, अ. जीव, आदि वस्तुमें-आरोप करना, अर्थात्-संज्ञा करलेनी, उसका नाम-नाम निक्षेप है ?। और उसीही-नामका निक्षेपबाली, जीवादिक वस्तुकी,सूत्रका रने दिखाई हुई दश प्रकारकी वस्तुमेंसे, किसीभी प्रकारको वस्तुसे आकृति, अनाकृतिके स्वरूपसें, स्थापित करना, उसका नाम-स्था पना निक्षेप है २ ॥ और उसीही-नामका निक्षेपवाली वस्तुका, पूकालमें, अथवा अपरकालमें, जो कारणरूप द्रव्यहै, उसमेंही (अ. र्थात् कारण रूप द्रव्यमें ही) उसका आरोप करना, उसका नाम: द्रव्य निक्षेप है ३ ॥ उसीही नामका निक्षेप वाली जीवादिक वस्तु For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार निक्षपाकी समजूती. (११) की-क्रियाका और उनके गुणोंका, जब अपना स्वरूपमें वर्तन होता होवें, अथवा वस्तु है सो-अपना स्वभावमें-स्थित होवें, तब उस वस्तुका नाम-भाव निक्षेप, कहते है ४ ॥ ॥ इति चार निक्षेपका-लक्षण स्वरूप ।। । अब चार निक्षेपके बिषयमें-किंचित् समजूति, लिखते है ।। दूनीयामें अछी या बुरी जे जे वस्तु ( अर्थात् पदार्थ ) है, उसका कुछने कुछ-नाम, रखा हुवा होता है । सो-वस्तु, अपना अपना प्रसिद्ध-नामसे ही, अपना अपना-स्वरूपका पिछान, संकेतके जानने वाले पुरुषोंको, करादेते है, सोही नाम-नाम निक्षेपका विषय है ॥ १॥ फिर वही नामका पदार्थकी-( अर्थात् वस्तुकी ) आकृति [ अथात् मूर्ति ] है सोभी, उसी वस्तुका बोधको करानेमें, विशेषपणे, कारणरूपे हो जाती है, सोही स्थापना-स्थापना निक्षेपका विषय है २ ॥ और वही नाम, और आकृति के, स्वरूपका वस्तुकीपूर्वकालकी अवस्था, अथवा अपरकालकी अवस्था है सोभी, उसी वस्तुका ही बोधको करानेमें कारणरुपे होजाती है, सोही द्रव्य-द्रव्य निक्षेपका, विषय है ३ ॥ जब वही नामकी, और आकृतिकी, और पूर्व अपर अवस्थाका स्वरूपकी 'वस्तु' [अर्थात् पदार्थ] साक्षात्पणे लोको देख लेते है, अथवा ज्ञान करलेते है तब उस, वस्तुका-यथावत् पिछान करलेते है कि-जिस वस्तुका-नाम, सुनाथा, पिछे उनकी-आकृति भी देखीथी, और पूर्व अपर अवस्थाका गुण या दोष सुनाथा, सोही वस्तु यह है ४ ॥ इस विषयका विचारको For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) निक्षेपमें दूसरा प्रकारसें-समजुती. जैन शास्त्रकारोने-चार निक्षेपके स्वरूपसे-वर्णन किये है । इनका विशेष विचार गुरु गमतासें-समजनेकी जरुर है ॥ ॥ इति चार निक्षेपकी समजूति ॥ चार निक्षेपके विषय में दूसरा प्रकारकी-समजति लक्षण द्वारा करा देते है. . जिस वस्तुका-बोध, जिस १वचनसें,२आकृतिसें,३ गुणादिकके स्वरूपसे, श्रवण, नयन, मनः द्वारा, आत्माको होजावे, सो नामादिक-चारों निक्षेप, उसी वस्तुकाही है, वैसा समजना. उदाहरण-जैसेकि वर्ण समुदायरूप-नाम मात्रका, उच्चारण के शब्दो, श्रवण द्वारा हृदयमें प्रवेश होके, और पिछे मनकी तरंगांको उत्पन्न करके, जो-नाम, जिस वस्तुका बोध,आत्माको करादेवे,सो नाम उस वस्तुका-नाम निक्षेप, समजना १॥ ___ अब जो आकृति अनाकृतिके स्वरूपसे (अर्थात् मूत्ति अमूर्ति के स्वरूपसे) नेत्रद्वारा होके, और पिछे अनेक प्रकारकी मनकी तरंगांको उत्पन्न करके, जिसवस्तुका बोध, आत्माको होजावे सो आकृति । अनाकृति रूप, वस्तुकी स्थापना-स्थापना निक्षेप, स. मजना ॥२ ___ अब जो वस्तु-पूर्वकालमें, अथवा अपर कालमें, कारण स्वरूपमें रही हुईहै, उनका गुण दोषादिक श्रवणसे, अथवा तिनके १ ज्ञान, दर्शन, चारित्रात्मक 'वस्तु' (अर्थात् पदार्थ) अमूर्त स्वरूपकेभी है तोभी संकेतीत अक्षरोसें-नेत्रद्वाराहि, बोधके देनेवा. ले होते है ! सोभी 'स्थापना निक्षेप के स्वरूपकही है. ॥ For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपमें दूसरा प्रकार से समजूति. (१३) संबंधी वस्तुका दर्शनसें, पिछे अनेक प्रकारकी मनमें तरांगां उत्पन्न होके, जब वही कार्य स्वरूप, भाव वस्तुका बोध, आत्माको करादेवें तब सो कारणरूप द्रव्य वस्तु-द्रव्य निक्षेप, समजना ।। ३ ___अब वहीतोहै-१नाम, और वहीतोहै-२आकृति, (मूर्ति)। और पूर्वकालमें-श्रावण कियेहुये गुण दोषादिक स्वरूपकी ३ 'वस्तु' (अर्थात् दृश्य पदार्थ) श्रवणद्वारा, अथवा नयनद्वारा, मनका विचित्र परिणामको प्राप्त करके-साक्षात्पणे आत्माको-बोध, करादेवे, तब ते साक्षात् स्वरूप भावकी वस्तुको-भाव निक्षेप, समजना. ४॥ इति दूसरा प्रकारसें-लक्षणद्वारा-चार निक्षेपका स्वरूपकीसमजूति ॥ सूचना-इसमें सूचना यह है कि-यह चार निक्षेपके विषयमें-जे जे हमने विशेष प्रकारसे, समजूति करके दिखाई है, उसमें किसीभी स्थानमें, किसीभी प्रकारका, याकचित् फरक मालूम होजावें, तब हमारा विचारको त्याग करके, लक्षणकारके लक्षणसें ही-उसवस्तुका-चार निक्षेप, करनेका निर्वाह करलेना, परंतु हमारा दर्शाया हुवा विचारपर, आग्रह नही करना । महापुरुषोंकी गंभीरताको, हम नहीं पुहच सकतेहै ॥ इति । अव चार निक्षेपके विषयम-सार्थकता निरर्थकताका, विचार, लिखते है ॥ पाठकगण ? दूनीयामें जितनी-वस्तु, भिन्न भिन्न है [ अर्थात् भिन्न भिन्न पदार्थ है ] सो-अपना नाम १ । अपनी आकृति २। For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) चार निक्षेप - सार्थकता निरर्थकताका- विचार. अपना संपूर्ण गुण दोष प्राप्तिकी - पूर्व अपर अवस्थाका स्वरूप, अर्थात् कारणरूप द्रव्य ३ | और ते पदार्थका साक्षात्कार स्वरूप भाव ४ | [ अर्थात् साक्षात् स्वरूप पदार्थ ] है सो, अपना अपना स्वरूपका - पिछान कराणेमें, अर्थात् ते चार प्रकार, निज निज स्वरूपका पिछान कराणेमें ] परम उपयोगी स्वरूपके ही है। इसी कारणसें जैन सिद्धांतकारोने - ते चारो प्रकारको चार निक्षेपकी, संज्ञा - वर्णन करके, दिखलाये है। उनका विचार - श्री अनुयोगद्वार सूत्र में, महागंभीर आशयवाले गणधर महाराजाओने - सूचना तरीके दिखलाया हुवा है । परंतु गुरुज्ञान विनाकी ढूंढनी पार्वतीजीने- गणधर महाराजाओंका आशयको, समजे विना, प्रथमके-त्रण निक्षेप, निरर्थक, और उपयोग विनाके, क्यों कि कार्य साधक नहीं ऐसा जूठा हेतु के साथ - विपरीतपणे, लिख दिखाया है । और यह ढूंढनी जग जगें विपरीतपणा करके - जैन धर्मके मूल बोका, नाश करणेको, प्रवृत हुई है । जबसे हमारे ढुंढकोने - यह पंथ पकड़ा है, तबसें जो कुछ जैन तत्वके विषयमें उनको दि खा है सो विभंग ज्ञानियोंकी तरह — विपरीत ही विपरीत, दिखता है | परंतु हम भार देके कहेते है कि जो वस्तुका [ अर्थात् पदार्थका ] चार निक्षेप है, उसमेंसे - एकभी निक्षेप, निरर्थक, अथवा उपयोग विनाका, नहीं है। किंतु कार्य साधकमें - परम उपयोगी स्वरूपके ही है ॥ क्यों कि जिस पदार्थका [ अर्थात् वस्तुका ] अपनेको पिछान करनेकी इछा होगी, उस वस्तुका प्रथम नामसें ही पिछान करने की जरुर पडेगी, इसी - नामको, शास्त्रकारोंने-नाम निक्षेपके स्वरूप माना है १ ॥ और उस पदार्थका विशेष ज्ञानकी प्राप्तिकी इछा - उनकी For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपमें सार्थकता निरर्थकताका, विचार. (१५) आकृति [ मूर्ति ] भी, देखनेकी-खास जरुर ही पड़ती है । यह उस पदार्थका दूसरा-स्थापना निक्षेपका विषय है २॥ फिरभी उस पदार्थका विशेष ज्ञानकी प्राप्ति केलिये-गुण दोष रूप प्राप्तिके स्वरूपकी-पूर्व अवस्था, या अपर अवस्था है, उनसेंभी उस वस्तुका-बोध-प्राप्त करनेकी आवश्यकता ही है, और उसी पूर्व अपर अवस्थाका स्वरूपको, शास्त्रकारोंने-द्रव्य निक्षेपके स्वरूपसे, माना है ३ ॥ ___अब देखो कि-वर्णन किये हुये जो-त्रण निक्षेप है, उस त्रण निक्षेपके स्वरूपका भी बोध, अपनेमें करानेवाला जो साक्षात् स्वरूप पदार्थ ( अर्थात् वस्तु ) है, उस पदार्थको शास्त्रकारोंने-भाव निक्षेपका विषय भूत माना है. ४ ॥ ___ अब इस-चार निक्षेपके विषयमें, विचार यह है कि-जब कोईभी पुरुष-वह भाव निक्षेपका विषय भूत साक्षात् पदार्थको-देखेंगे अथवा उसने देखा हुवा होगा, तबभी पूर्वोक्त-त्रण निक्षेपका, ज्ञान पूर्वकही, उस भावनिक्षेपका विषयभूत साक्षात् पदार्थकाभी-ज्ञान होगा, परंतु प्रथम के-त्रण निक्षेपके स्वरूपको जाने विना, केवल उस भाव वस्तुको देखने मात्रसें, कभीभी उनका यथावत् ज्ञान न होगा, और उनका आदर भी न कर सकेगा ।। क्योंकि हम कोगलमें फि. रते है, और उहाँपर रही हुई अमूल्य अमूल्य वनस्पढिरखा कि मोभाव निक्षेपका विषय भूत है, उनको साक्षात्पणे देखतेग्नानुगे, प. रंतु उस-पदार्थोंका, प्रथमके-त्रण निक्षेप विषयका, यथावत् ज्ञान, मिलाये विना, उनोंका कुछभी गौरव नहीं कर सकते है । कारण उनोंका प्रथमके-त्रण निक्षेप विषयका, हमको ज्ञान ही नहीं है, तो पिछे वह-भाव निक्षेपका विषयभूत साक्षात् पदार्थोंका, आदर कैसे For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) करेंगे ? अर्थात् कभीभी आदर न कर सकेंगे ॥ इस वास्ते पदार्थोंका जो प्रथमके-त्रण निक्षेप है, सोही कार्यकी सिद्धि कराने में - सार्थक, और परम उपयोग स्वरूपकेही है । परंतु ढूंढकोंने दिखाये हुये निरर्थक स्वरूपके नही है । इस विषय में ढूंढनी पार्वतीजीकी, और ढूंढक बाडीलाल शाहकी मतिही विपरीत पणे हो गई है | फिरभी देखोकि - जिसको पदार्थों का प्रथमके-त्रण निक्षेपके विषयका, यथार्थ ज्ञान नहीं होता है उसका भाव निक्षेपका विषय को भी विपरीतपणेही ग्रहण करनेको लग जाता है। जैसेकि - भाव निक्षेपका विषयभूत, साक्षात् जेरी, वस्तु है, परंतु उनका प्र थमके-त्रण निक्षेपका, विषयको - नहीं जाननेवाला बालक है सो, उसी वखत उस- जेरी वस्तुको मुखमें डालनेको जाता है । और I भावनिक्षेपका विषयभूत साक्षात् जेरी सर्प, बस्तु है, उनको-पकsaster जाता है | इसवास्ते दूनीयामें जो जो पदार्थों है उनका प्रथमके-त्रण निक्षेप विषयका ही बोध लेनेकी जरुरी है । और वह त्रण निक्षेप ही, कार्यके साधक बाधकमें, परमोपयोगी स्वरूपके है । तो भी ढूंढक, और ढूंढनीजीने-त्रण निक्षेपको - निरर्थक, और उपयोग विनाके, लिख मारे हैं । इतनी मूढता करके भी-संतोषको जहीं प्राप्त हुयें है, किंतु सर्व गणधर महाराजाओंको, और सर्व महाराजाओं को भी निंदित कर दिये है । ऐसें सर्वथा पत्र उपपरीत विचारवालोंको हम कहां तक शिक्षा देवेंगे || कि. 1 निक्षेपमें सार्थकता निरर्थकताका, विचार. - इत्यलं विस्तरेण. ॥ इति । चार निक्षेपकी - सार्थकता, निरर्थकताका, विचार ॥ For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक पुस्तकोंके-निक्षेपोंका, विचार. (१७ ) ॥ अब ढूंढकोके पुस्तकोंसें-चार निक्षेपका, विचार ॥ ___ समकित-सार, यह दो पदसें मिश्रित-नाम है। और समाकित गुण, चेतनका है, उनका सार भी उहांपर ही-मिलना, चाहिये ? परंतु जेठमलजी ढूंढकने-जूठका पुंज, लिखके, उस पुस्तकका यह-समकित सार-नाम, रखा है । सो ढूंढक, और ढूंढनीजीके-मतसे भी, नाम निक्षेप, ही होगा ! और उनोंने-नाम निक्षेप है सो, कार्यकी सिद्धिमें-निरर्थक, और-उपयोग विनाका ही, माना है । हमतो उस जूठको पुंजका-नाम समकित सार, निरर्थक ही, मानते है। परंतु ढूंढकोकी मान्यता मुजब-ढूंढकोको भी, उस पुस्तकका नाम--समकितसार, निरर्थक, और--समकितका कार्यकी, सिद्धिमें-उपयोग विनाका ही, हुवा है । इस वास्ते जेठमलजीके पुस्तकमेंसे-समकितकासार,तीनकालमें भी, किसीको-नही मिलनेवाला है । ॥ इति जेठमलजीके पुस्तकका, निरर्थक रूप-नाम निक्षेपके, स्वरूपका विचार ॥ ॥ अब जेठमलजीके पुस्तकका-स्थापना निक्षेपका, स्वरूपको विचारते है ॥ . अवदेखिये-समाकत सार-वस्तुका,स्थापना निक्षेपका स्वरूपज्ञान वस्तुका स्थापना निक्षेप-काष्ट पै लिखा, पोथी पै लिखा, आदि दश प्रकारसे करनेका सिद्धांत कहा है।सो तीर्थकरोंके वचनानुसारसत्य लेख रूप होवे, तब ही आदर करने के योग्य होवे । परंतु ढूंढक जेठमलजीने-अक्षरोंकी जुडाई, जूठे-जूठ करके, समकितसे भ्रष्ट करनका-लेखको, लिखा है । और ढूंढक, ढूंढनीजीने-यह अ. क्षरकी जुडाई रूप-स्थापना निक्षेपको, समकितका कार्यकी सि For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) ढूंढक पुस्तकोंके निक्षेपोंका विचार. द्धिमें-निरर्थक, और उपयोग विनाका, मान्या है । और. सम्यक ज्ञानयिोंको तो जेठमलजीके पुस्तकके, अक्षरोंकी संकलना-विपरीत ही दिखाई देती है, उनके वास्ते तो निरर्थक है, उसमें तो कोई आश्चर्यकी बात ही नहीं है, परंतु ढूंढकोंके मंतव्य मुजब-ढूंढकोंको भी-समकितसार वस्तुका-कार्यकी सिद्धि, तीनकालमें भी होने वाली नहीं है । क्योंकि यह अक्षरोंकी जुडाइ रूप-स्थापना निक्षे. पको, कार्यकी सिद्धिमें-निरर्थक, और उपयोग विनाका, मान्या है । तो पिछे कागद उपर लिखा हुबा, जेठमल ढूंढकनीका, जूठा लेख-समकितका सार, कहांसें मिलानेवाले है ?॥ ॥ इति ढूंढक जेठमलजीके-पुस्तकका, निरर्थकरूप. दूसरास्थापना निक्षेपका, स्वरूप ॥ अब जेठमलनीके-पुस्तकका, तिसरा-द्रव्य निक्षेपके, स्वरूपका विचार, करके दिखावत हे ॥ अब देखिये-समकितसार, वस्तुका, तिसरा-द्रव्यनिक्षेपाप्रथम ढूंढनीजीने-सत्यार्थ पृष्ट. ५ में-द्रव्य आवश्यकके २ भेद, यथा-पष्ट अध्ययन आवश्यक सूत्र १ । आवश्यकके पढनेवाला २ आदि । लिखके तीर्थकर-भाषित,सिद्धांतकाभी-तिसरा द्रव्यनिक्षेप, कार्यकी सिद्धिमें-निरर्थक,और उपयोग विनाके, ठहरायके, पिछे तीर्थंकरोंका प्रथमके त्रण निक्षेपभी, कार्यकी सिद्धिमें-निरर्थक, और उपयोग विनाके, लिख दिखायेथे । और शाह वाडीलालने गणधर भाषितसूत्रके-चार निक्षेप, करती रखते--त्रण निक्षेप, निरर्थक-ठहरानके लिये-" धर्मना दरवाजाना पृष्ठ. ६४ मे-श्री अनुयोगद्वार सूत्र कीसाक्षी देके, लिखा है, कि-हला त्रण निक्षेप-अवथ्यु, एटले उ For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक पुस्तकोंके निक्षेपोंका विचार. (१९) पयोग विनाना, छेल्लो चोथोज आ लोकमां उपयोगी " ऐसा लि. खके ज्ञान वस्तुका-त्रण निक्षेप, कार्यकी सिद्धिमें-निरर्थक, और उपयोग विना के, ठहरायके, तीर्थकरके-त्रण निक्षेपभी, निरर्थक, और उपयोग विनाके ही-लिख मारे है ॥ अब इसमें विचार करनेका यह है कि-जव तीर्थंकरोंका-ज्ञान वस्तु स्वरूप पुस्तक पांनांका । और साक्षात् स्वरूप तीर्थंकर भगवानका-त्रण निक्षेप, कार्यकी सिद्धिमें-निरर्थक, और उपयोग विनाके-होजायगे, तब जेठमल ढूंढकजीने-लिखा हुवा, जूठका पुंजरूप-समकितसार नामज्ञान वस्तुका, संपूर्ण पुस्तककि जो-द्रव्य निक्षेपके विषय स्वरूपका है सो, सम्यक ज्ञानीयोंके लिये-निरर्थक, और उपयोग विनाका, होजावे उसमें तो-कोइ आश्चर्यको बात ही नहीं है, परंतु ढूंढक, ढूंढनीजीके, मंतव्य मुजब तो ढूंढकोंकोभी-समकित सार वस्तुकी, कार्यकी सिद्धिमें-निरर्थक, और उपयोग विनाकाही, हुवा है । हस वास्ते जेठमलका रचित-समकितसार नामका, संपूर्ण पुस्तककि-जो द्रव्य निक्षपके स्वरूपका है, उसमें सें-हमारे ढूंढकोंकोभी-समकितसारकी वस्तु, तीन कालमेंभी न मिल सकेगी। ॥ इति ढूंढक जेठमलजीके-पुस्तकका-निरर्थक रूप, तिसरा द्रव्य निक्षेपका, स्वरूप ॥ ॥ अब जेठमलजी के पुस्तकका, चतुर्थ भावनिक्षेपका' स्त्ररूप-दिखावते है । - अब देखिये-समकितसार वस्तुका, चतुर्थ-भाव निक्षेप, ढूंढक जेठमलजीने-जो समकितगुण चेऊनकाथा,उस-नामका निक्षेप,अपना लिखा हुवा जड स्वरूप पुस्तकमें, किया है, सोतो ढूंढक, हूं. ढनीजीक-मंतव्य मुजब-निरर्थक है ।।१।। For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) ढूंढक पुस्तकों के निक्षेपका विचार, अब समकितसार वस्तुको -जनानेके लिये, जो उस पुस्तकं में स्थापना निक्षेपका विषय स्वरूपकी- अक्षरोंकी जुडाई है, सोभी, जेठमलजी के पुस्तककी - निरर्थक, रूपही है । क्योंकि-ढूंढक, ढूंढनीजीने - दूसरा स्थापना निक्षेपभी, निरर्थक, और कार्यकी सिद्धिमें - उपयोग विनाका मान्या हुवा है || २ || अब देखो - समतिसार - वस्तुका, तिसरा द्रव्य निक्षेप - पुस्तक पान के स्वरूपसे है, सोभी ढूंढक, ढूंढनीजीने-निरर्थक, और काथकी सिद्धिमें उपयोग विनाके, मानेहुये है । तो अब, हे भव्य पु· रुषो - विचार करोकि, समकित सार वस्तुका, प्रथमके-त्रण निक्षेप निरर्थक, और समकितसार वस्तुका कार्य की सिद्धिमें - उपयोगविना के हुये, तो पिछे जेठमलका दिखाया हुवा द्रव्य निक्षेपका विषयरूप पुस्तक, भावनिक्षेपका विषयभूत-समकितसार वस्तुको कहांसें मिलावोंगे ? | हमतो यही कहते है कि - भावनिक्षेपका विषय भूत जो वस्तु है, उनकी - सिद्धिकराने में, प्रथमके-त्रण निक्षेपही, परमोपयोगी है ॥ यहबात - ढूंढक, ढूंढनीजीके - लेखसेंही, हम सिद्ध करके दिखलाते है || देखो कि -- सत्यार्थ पृष्ट. १७ में - तीर्थकरका - भावनिक्षेपके, विषयमें दंढनीजी लिखती है कि शरीर स्थित, पूर्वोक्त चतुष्टय गुण सहित, आत्मा, सो- भावनिक्षेप है, यहभी कार्यसाधक है || अब देखो -- धर्मना दरवाजा - पृष्ट. ६२ - ६३ में - वाडीलालका लेख- केवलज्ञानादि सहि तव छे ते--भाव अरिहंत, खरखरा- अरिहं सतो तेज, अने- नंदनिक पण तेज, वाकीतो अरिहंत नामनो-माणसके, पथ्थर, कोईं - कल्याण, करी सके नही | अब पृष्ट ६३ में, सूत्रका भावनिक्षेप में सूत्रमांनां तत्वो (बां For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक पुस्तको के निक्षेपोंका विचार. ( २१ ) चनार ग्रहण करे छे ते ) ॥ अब हम प्रथम ढूंढनीजीको पुछते है कि अरूपी गुणवाला, तीर्थंकरका अरूपी आत्मा, तूंने किस विधिसें देख लिया ? क्यों कि अरूपी आत्माको तो केवल ज्ञानी विना, दूसरा पुरुष देख सकता ही नही है ? हे ढूंढनी तूं इतना मात्र ही कह सकेगी कि जैन के सिद्धांत से हम जान सकते है, तबतो जो तूने सर्व पदार्थ के प्रथमके-त्रण निक्षेप, निरर्थक, और कार्यकी सिद्धिमें उपयोग विनाके, मानेथे, उसमेंसें जैन सिद्धांत का जो प्रथमके-त्रण निक्षेप है, सो ही तीयेंकरका-अरूपी आत्माका, और सर्व पदार्थ मात्रका, ज्ञान प्राप्त करानेमें-- परमोपयोगी स्वरूपके ही हुये है । तो पिछे तूने, और तेरा ढूंढने -- जैन तत्वों को, और लोकोको, भ्रष्ट करनेके वास्ते यह क्या पथ्थर फेक मारा ? कि वस्तुके प्रथमका-त्रण निक्षेप, निर• र्थक, और कार्य की सिद्धिमें उपयोग विनाके ? तुमको इतनी अज्ञता कहाँसें माप्त हो गइ कि- जैनमार्गका सर्व तत्रोंको, विपरीत ही विपरतिपणे देखते हो ! ॥ हम भार देके कहते है कि - जब यह अनुयोगका विषय, तु. मेरे ढूंढकों को— दिशावलोकनका स्वरूप मात्रसें भी. - यथा योग्य दिखनेको लगेगा, तब तुमको तीर्थंकरकी ' मूर्त्तिका' और सर्व 'आचायोंकी 'निंदा ' करनेका प्रसंग ही, काहेको रहेगा ? परंतु गुरु द्रोही पणासें- जबरजस्त अज्ञानने, तुमको घेर लिये है । सो इ. समें किसीका उपाय नहीं है ।। इत्यलं विस्तरेण ॥ ॥ इति ढूंढक जेठमलजीके पुस्तकका - निरर्थक रूप चतुर्थ.. भाव निक्षेपका, स्वरूप ॥ For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) ढूंढक पुस्तकाको निक्षेपीका विचार. . अब हम ढूंढनी पार्वतीजीकी ' ज्ञान दीपिकाके, चार नि. क्षेप' सामान्य मात्रका स्वरूपसें दिखलावते है ॥ - ज्ञान-दीपिका-यह दो शब्दोका, मिश्रण करके, अपना पु. स्तकमें, ढूंढनीजीने-नामका निक्षेप, किया है । ज्ञान है सो तो चे. तन गुण है, और-दीपिका है सो, जड चेतन स्वरूपकी है ॥ ... यह दूसरी वस्तुओंका-नाम है सो, ढूंढनीजीने-अपनी रची हुइ पुस्तकमें, निरर्थक, और ज्ञानकी दीपिकारूप-कार्यकी सिद्धिमें, उपयोग विनाका, यह-नामनिक्षेप, माना है। तो अब विचार करो कि-यह ढूंढनीजीका पुस्तकको वांचने वाले है उनोंको-ज्ञान दीपक, कैसें जगेगा ? आपितु तीन कालमेंभी ज्ञानदीपक, जगनेवाला नहीं है । यह तो ढूंढनीजीका-नाम निक्षेपका विषय ॥ १॥ अब देखोकि, ढूंढनीजीने-अपनी थोथी पोथीमें, जो जूठे जूठ अक्षरोकी जुडाई किई है, सो स्थापना निक्षेपका, विषय है, सो स्थापना निक्षेप-निरर्थक, और कार्यकी सिद्धिमें-उपयोग विनाका, माना है, वास्ते ऐसी जूठी अक्षरोंकी जुडाईसें-वांचने वालेको, तीन कालमेंभी-ज्ञान दीपक, न जगेगा । यह तो ढूंढनीजीका दूसरा स्थापना निक्षेपका, विषय २॥ ___ अब देखोकि-ज्ञान दीपिका, ऐसा-नाम निक्षेप १ । अक्षरों की जुडाईरूप, दूसरा स्थापना निक्षेप २। यह दोनो निक्षेपनिरथक, और उपयोग विनाके, मानके-दव्य निक्षेपका, विषय रू -संपूर्ण पुस्तक भी, गप्प दीपिका समीर ने तो-निरर्थक, और उपयोग बिनाका, करके ही दिखायाथा, परंतु ढूंढनीजीने अपने आप-निरर्थक, और उपयोग विनाकाही, मान लिया है । यहतो ढूंढनीजीका, तिसरा-द्रव्य निक्षेप ३ । अब देखोकि-दूंढनीजीने जो For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपके विषयमें-त्रण पार्वतीजीका विचार. (२३) ज्ञान दीपिका जगानेका-भाव, मनमें धारण कियाथा, सो-भावः निक्षेपका विषय भूत-ज्ञानदीपिका, तीन कालमेभी-किसीके हृदयमें, न जगेगी ४॥ ॥ इति ढूंढनीजीकी-ज्ञानदीपिकाके-चार निक्षेपका, स्वरूप. ॥ अवहम-ज्यादा उदाहरण देनेकाबंध करके, यह कहते है कि जो जैन सिद्धांतकारोंने-वस्तुके चार निक्षेप, मानहै सोतो-स. त्य स्वरूपसेंही माने है, परंतु-निरर्थक, अथवा कार्यसिद्धिमें उपयोग विनाके, नहीं माने है । देखो इस बातमें-उाणांग सूत्रका, चोथा ठाणा, छापेकी पोर्थीके पष्ट. २६८ में-तथाच. १नामसच्चे । २ठवणसच्चे । ३दव्वसच्चे । ४ भावसाच्चे। अर्थ-पदार्थोंका-१नाम है । सो,सत्य है २स्थापना है सोभी, सत्य है । ३द्रव्य है सोभी, सत्यही है । ४और भाव है सोभी, स. त्यही है । यह सत्यरूप चार निक्षेपका, विषयको नहीं समजते हुये, हमारे ढूंढकमाईओं, जो मनमें आता है सोही-बकवादकर उठते है ? परंतु उनोंकी दयाकी खातर-दूसरी प्रकारके उदाहरणों सेभी, हम-हमारे ढूंढकभाई ओंको-समजूति करके दिखावते है । सो हमारे दियेहुये दृष्टांतमेसें-न्यायपूर्वक बोध, ग्रहण करना, परंतु-विपरीत विचारमें, नहीं उतरणा ॥ - ॥त्रण पार्वतीके-चारचार निक्षेप ।। अब देखियेकि-शिवस्त्री । श्वेश्या। और ३ ढूंढनीजी । यह तीन-पार्वती और तीनोंके-तीन भक्तके, उदाहरणसें-चार For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) शिव भक्ताश्रित -त्रण पार्वतीका नाम निक्षेप. -100 चार निक्षेपका स्वरूप, दिखावत है । जैसे कि - महादेवजीकी स्त्रीका I नाम है - पार्वती, सो ढूंढन जीके मंतव्य मुजब नाम, होगा । और जैन सिद्धांतानु सारसे तो नाम निक्षेपही होगा । परंतु दूसरीखी में दिया । हुवा यह पार्वतीजी का नामतो, ढूंढनीजी के मंतव्य मुजब भी नाम निक्षेप ही, होगा । और यह पार्वतीजी का नाम, हजारो स्त्रीयोंका देखने: में भी आता है, तो भी एक-दो- स्त्रीयोंका, मुख्यत्वपणा कर के, समजाते है। जैसे कि कोई खुब सुरतकी वेश्या है, उसमें नामका निक्षेप, किया है - पार्वती । और एक ढूंढनी साध्वीजीमें भी वही नामका निक्षेप, किया गया है - पार्वती । अब एक पुरुष है, महादेवजीका भक्त १ । और दूसरा - एक पुरुष है, सो - केवल कामका विकारी २ । और तिसरा - एक पुरुष है, सो ढूंढक धर्मकी ही प्रीतिवाला. ३ । ॥ शिवभक्त आश्रित -त्रणें पार्वतीजीका, स्वरूपः ॥ इस विषय में प्रथम - शिवका भक्त, आश्रित-त्रणें पार्वतीजीका, चार चार निक्षेप १ हेय, २ ज्ञेय, और ३ उपादेयके, स्वरूप -- विचार करके, दिखलावते है । BE अब जो महादेवजीका - भक्त, है सोतो- वेश्या पार्वतीका नाम निक्षेपको, केवल १ हेय, रूपही जानता है । और वेश्या पार्वती, एसा - नाम, सुनके, कवी भी उसकी तरफ ध्यान नही देता है || और दूसरा ढूंढनी पार्वतीजीका नाम निक्षेपको, सुनके, उनको-- २ ज्ञेय, रूपसें, समजता है । और साध्वी पार्वतीजी ऐसा नाम सुनके - तो प्रीति धारण करता है, और न तो अप्रीति करता है । मात्र इतना ही विचार करता है कि यह पार्वतीजी भी कोई एक वस्तु रूपसें होंगी ? ॥ ד For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवभक्ताश्रित-त्रण पार्वतीका २ स्थापना निक्षेप. ( २५ ) और शिवजीकी - पार्वतीजीका नाम निक्षेपको, ३ उपादेयके स्वरूपसें— मानता है । और अपना सुख दुःखादिकके प्रसं गमें- उसी ही पार्वतीजीका - नामको, स्मरण करता है । और मुखसें उच्चारण भी करता है कि - हे पार्वतीजी, हे पार्वतीजी, इत्यादि और कुछ भी अपनी - शांति, मानता है । जैसे कि - कोइ पुरुष अपनी - जनेताका प्रेमी, माताकी-घेर हाजारीमें, अथवा सर्वथा प्रकार के अभाव में, सुख दुःखादिककें प्रसंग में- हे अम्मा २ ऐसा तो पंजाबी । हे मा २ ऐसा गुजराती, अथवा मारवाडी । और हे आई २ ऐसा तो दक्षिणी, उच्चारण करके, अपना दुःखादिकके प्रसंग - विश्रांति, मानता है। तैसें ही सो शिवजीकाभक्त, ईश्वर पार्वतीजीका नाम निक्षेपको, उच्चारण करके, अपना दुःखादिककी कुछभी - विश्रांति, मान रहा है । सो केवल नाम निक्षेपका, विषय ही, मान रहा है । इति शिव भक्त, आश्रित पार्वतीका प्रथम - नाम निक्षिपका, स्वरूप || 1 Rings अब इस ही शिवभक्त, आश्रित व पार्वतीजीका, दूसरा स्थापना निक्षेपका, स्वरूप दिखाते है सोही शिवजीका भक्तने-शोलें श्रृंगारसें सज्ज किई हुई, और अखीयांके चालाका दवाब है जिसमें, ऐसी – बेश्या - पार्वतीकी, आकृति ( अर्थात् मूर्त्ति ) को देखके, अपनी मुख नाशिका का - विभत्सपणा करके, कहता है कि ऐसी पापिणीयां, जगत में क्यौं जन्म लेतीयां होगी ? ऐसा कहकर, उस मूर्त्तिकी, अपभ्राजना ही करता है। और फिर उनकी तरफ - दृष्टिभी नही देता है, क्योंकि उनको कामके तरफ - बिलकुल, लक्षही नहीं है । केवल शिवपार्वतीजी, भजनमें ही मीति लग रही है । इस वास्ते WADE For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) शिवभक्ताश्रित-त्रण पार्वतीका द्रव्य निक्षेप. उस वेश्या पार्वतीकी— मूर्त्तिको, केवल हेय रूप समजके, निंद निक ही मानता है | और मुख उपर- मुहपत्तिका, चिन्ह चढाया हुवा है जिसने, ऐसी ढूंढनी पार्वतीजीकी, दूसरी मूर्त्तिको, देखके, सो शिव भक्त - नतो हर्षित हो, प्रीतिको, हिखावता है, और नतो मुख नाशिक को चढायके—अपभ्रानना, करता है । मात्र इतना ही मनमें ख्याल कर रहा है कि ऐसा भी एक नवीन प्रकारका रूप, दुनीयांमें होता है । केवल २ ज्ञेय रूपसे - समजता है | 1 और शिव पार्वतीजीकी - मूर्त्तिको, देखके - बडा हर्षित होके, अ. पनी रोम राजी तो करलेता है विकस्वर, और अपनी मुख नाशिकाका दर्शा तो कर लिया है - भव्य स्वरूप, और अपने नेत्रों से अमृत भावको वर्षावता हुवा, वारंवार तृप्त निघासें देखके, और अपनी परम ३ उपादेय वस्तुकी - मूर्त्ति (आकृति) समजकर, अ. पना मस्तकको – जुका, रहा है । और दूसरे पुरुषोंको बोध करा नके लिये, मुखसे उच्चारण करके भी कहता है कि देखो प्यारे यह जगेश्वरीकी - मूर्त्तिका, क्या अलोकिक स्वरूप है, इत्यादि । पार्वतीका स्थापना निक्षे ।। इति शिवभक्त, आश्रित -त्र पका, स्वरूप ॥ || अब इस ही शिवभक्त आश्रित : पार्वतीका तीसरा द्रव्य निक्षेपका स्वरूप- प्रदर्शित करते है || --- . " अब सो शिवभक्त उसी - वेश्या पार्वतीकी काम विकारका स्वअवस्थाको, अथवा अपर अव रूपको ही प्रकट करनेवाली - पूर्व स्थाको, (अर्थात् योवनत्वकी - -पूर्व अपर अवस्थाको ) निघा क For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शिवभक्ताश्रित-त्रण पार्वतीका ४ भाव निक्षेप. (२७) रके भी देखता नहीं है, अथवा किसीको वर्णन करते हुयेसे--श्र. वण करके, ते भक्तने कहा कि--अरे महा भाग-ऐसी महा पापिणीयांका- चरित्र, हमको मत सुनावना । ऐसा कह करके वेश्या पा. र्वतीका- द्रव्य निक्षपके विषयको भी हेय पणा, मानता हुवा--अभाव ही, प्रदर्शित करता है । - और ढूंढनी साध्वी पार्वतीजीकी-पूर्व अवस्था यह है कि-दीक्षा लेनेकी इछा करके, किसी साधीके पास आई हुई, और अ. पनी गुरुनीनीकी पास-कई दिनतक रहकर, पठन पाठन करतीथी ते । अपर अवस्था यह है कि, जो ढूंढनी पार्वतीजी-उपदेशादिक करतीथी, और ग्रंथादिककी रचनाभी करतीथी ते, उनकी समाप्ति हुई सुनते है, इत्यादिक-द्रव्य निक्षेपका-विषयकी वार्ता-सो शिव भक्त, किसीसें श्रवण करके नतो हर्षित होता है, और नतो दिल. गीरीकोभी प्रदर्शित करता है, केवल ज्ञेय स्वरूपका पदार्थको समज करके-मध्यस्थ भावको. अंगीकार कर रहा है ।। ॥ और सो शिवभक्त-शिव पार्वतीजीकी-अनेक प्रकारको लीलावाली-पूर्व अवस्थाको, अथवा अपर अवस्थाको-श्रवण करनेके लिये, पंडित पुरुषको संतुष्ट द्रव्यको,-अर्पण करके भी-द्रव्य निक्षेपका विपयरूप, अपना उपादेयकी--ते वार्ताओंको, वारंवार श्रवण करनेकी इछा करता है ॥ ॥ इति शिव भक्त आश्रित-त्रणें पार्वतीका-तिसरा द्रव्यनि क्षेपके विषयका स्वरूप ॥ ॥ अब उसही शिव भक्त आश्रित-त्रणें पार्वतीका. चतुर्थ-भाव निक्षेपका, स्वरूप-प्रदर्शित करते है । For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) शिव भक्ताश्रित-त्रण पार्वतीका ४ भावनिक्षेप.. प्रथम जो वेश्या पार्वती है सो-शोलें शृंगार सज्जकरके, अपने नेत्रोंका कटाक्ष-लोकों के उपर, डाल रही है, और परपुरुषोंकी राह देखनेको- बेठी हुई है, सोही - भात्र निक्षेपका विषय स्वरूपकी है | परंतु सो शिवभक्ततो - हेय रूप गंदापात्र जाणके, उनकी तरफ - थोडीसी निघा मात्र करके भी, देखता नहीं है || और मुख उपर - पड्डी, चढायके साक्षात्पणे बेठी हुई, जो हूंनी पार्वतीजी है सो अपनी आवश्यकादिक-नित्य क्रियामें, तत्पर, विहारादिक में उद्यत, उपदेश दानादिकमें- प्रवीण है, सोही भाव निक्षेपका विषय है । परंतु सो शिव भक्त - साक्षात्पणे देखकेभीविचार करता है कि ऐसीभी नवीन प्रकारकी - क्रिया करनेवाले लोक, दूनीयामें फिरते है । ऐसा शोच करता हुवा - नतो हर्ष धारण करता है, और नतो कुछ -- दिलगीरीपणाभी प्रगट करता है । मात्र एक नवीन प्रकारका - तेय पदार्थका स्वरूपको जाणकरके और विस्मित हुन दगदगपणे देखकरके पिछे अपना रस्ता पकड लिया है । अब सोशिव भक्त - एकांत स्थलमें, अपनी उपादेयरूप शिवपार्वती जी की मूर्त्तिके, सामने बैठकरके, उसीही पार्वतीजीके नामकी अर्थात् - नाम निक्षेपका, विषयभूतकी मालाभी- हमेशां फिराता रहा, और उसीही पार्वतीजीकी - पूर्व अपर अवस्थाका अनेक गु गर्भित - भजनों को पढ़के, उसमें लयलीन भी होता रहा । तब ते भक्तकी ऐसी अलोकिक भक्तिको देखके, ते मूर्त्तिका अधिष्टित एक देवताने, उस भक्तको, साक्षात्पणे पार्वतीजीका - भावनिक्षेपके, स्वरूपसे - दर्शन कराया है । उससाक्षात् - पार्वतीजीका, स्वरूपको -देखके, सो शिवभक्त - विकश्वर रोमराजी पूर्वक, अत्यंत आल्हादित हुवा, उस साक्षातूरूप - पार्वतीजीके, चरणों में पडके, अपना निस्ता For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामी पुरुषाश्रित-त्रणें पार्वतीका चारनिक्षेप ( २९ ) 100 र पणाकी - आजीजी करता है, और सर्वप्रकार सें निर्द्वधहोके, उस पार्वतीजी का - दर्शन, भजन, आदिमेंही - मसगुलपणे रहता है || 1 और दूनीयादारीका विशेष - प्रयोजनही, नहीं रखता है, जैसें कि- काठियावाड में- नरसिंह मेहताभक्तको, ऐसा बनाव, बन्या हुवा सुनते है | और दक्षिण में - तुकाराम आदि भक्तांकोभी- ऐसा बनाव, बन्या हुवा सुनते है || और जैनों कातो- सेंकडो पुरुषोंको जिन प्रतिमाका अधिष्ठायक देवताओंने हाजरपणे दर्शनदेके, संकटका निवारण किया हुवा है जैसे कि - श्रीपालराजाको, और सुबुद्धिमंत्री आदिको । और परोक्षपणे तो- जिनप्रतिमाका अधिष्ठायकों ने लाखो पुरुषोंको सहायताकीई हुई है, और अब भी केसरीयातीर्थ बाबाका, और भोगणी तीर्थ बाबाका अधिष्ठायक देवताओ ते भक्तजनोंको, सहायता करतेही है । सो जिन प्रतिमा (मूर्ति) की भक्तिकाही फल हे ।। इतनी बात प्रसंगसे- हमने लिखदिखाई है || - ।। इति शिवभक्त आश्रित -त्रण पार्वतीका चार चार निक्षेपोंका, स्वरूप ॥ अब कामी पुरुष आश्रित -त्रणें पार्वतीका चार चार --निक्षेपका स्वरूप, प्रदर्शित करते है ॥ - अब जो वेश्याका प्रेमी - कामी पुरुष है सोतो, न शिवपार्वतीजीको - नामसें, जानता है । और न तो ढूंढनी पार्वतीजीको नामसें, जानता है। केवल वैश्या पार्वतीका नामनिक्षेपकोही - आपना उपादेय स्वरूपसें, जानता है। जब पार्वती - ऐसों नाम, सुनता है For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) कामी पुरुषाश्रित-त्रणें पार्वतीका चारनिक्षेप. अथवा याद आता है, तब-वेश्या पार्वतीकी तरफही, उनका-ध्यान, लगजाता है। इति कामीपुरुषको त्रणें पार्वतीका नामनिक्षेपकी, प्रीतिका स्वरूप ॥ अब उस कामी पुरुषको-किसीने-शिवपार्वतीजीकी-मूर्ति, और हनी पार्वतीजीकी-मूर्ति, दिखाई है। परंतु सोकामी पुरुषने सामान्यपणे देखके-नतो हर्षभाव दिखाया है, और नतो कुछ-थ. पभ्राजनाभी किई है, परंतु विशेषमें इतना विचार करनेको तो लग गयाकि, जैसी खुब सुरत वेश्या पार्वतीकी-मूर्ति को, देखके, मनका प्रफूलितपणासें, और रोमराजिका विकश्वरपणासे-आत्माको आनंद होता है, तैसें आनंदको-प्राप्त करानेमें, यह दोनो मूर्तियामेंसे-एकभी नहीं है । वैशा विचार करके, उस कामी पुरुषने-दिखानेवाला पुरुषको, पिछे सुपरतही करदीई है, परंतु ते मूर्तियांवालाका आग्रह सें-कामी पुरुष, खडाही रहा है । ॥ इति कामी पुरुषको-त्रणें पार्वतीका-स्थापना निक्षेपकी प्रीतिका स्वरूप ॥ ॥ अब-वही दोंनो मूर्तियांवाला पुरुष-उसकामी पुरु. .षको-शिवपार्वतीजीकी, और ढूंढनी पार्वतीजीकी-क्रमसें--पूर्व अव स्था, और अपर अबस्थाकि-जो पूर्वमें-वर्णन किईथी, सोही अ. वस्थाका-रस पूर्वक वर्णन करके सुनावता है, तो भी ध्यानपूर्वक नही सुनता है, और मुख से कहता है कि-सकर भाई वसकर, क्या ऐसी निकामी वाताहमको सुनाता है । एमा कहकर, शि For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक भक्ताश्रितत्र पार्वतीका १ नाम निक्षेप ( ३१ ) पार्वतीजी के वर्णनमें कुछ कथन कर सक्या नहीं । परंतु ढूंढनीजीके वर्णनमें कहता है कि अरेरे फूकटका इतना कष्टको उठा करके, ढूंढनी पार्वतीजीने तो था ही, जन्म गमाया है, ऐसा कहकर वेश्या पार्वतीकी दी मोहोत्पादकी पूर्वापर अवस्थाका ब र्णन करके, अपना आनंद, और दीलगीरी पणाभी, प्रदर्शित करता है. - ----- ॥ इति कामी पुरुषको -त्र पार्वतीका - द्रव्य निक्षेपप्रीति : अप्रीतिका स्वरूप || | अब उस कामी पुरुषको भाव निक्षेपका विषय भूत, साक्षात् शिव पार्वतीजीका दर्शन होना तो कठिन ही है। परंतु किसीने-ढूंढनी पार्वतीजी कि जो साक्षात् पणे भाव निक्षेपका विषयभूत है, उनका दर्शन करा दिया है | परंतु उसकामी पुरुषने, मलीन वेशादिक देखतेकी साथ ही मुखपें मरोडा देके चलधरा है । , ॥ अव मात्र निक्षेपका विषय रूप, साक्षात् वेश्या पार्वती को, देखतेकी साथ, उसकामी पुरुषने - रोम राजितो कर लिई है खड़ी, और नेत्र से वर्षाता रहा है अमृतभाव, और अत्यंत - आल्हादित पणे, मिलता हुवा - अपना जन्म, जीवतव्यका, साफल्यपणा ही मान रहा है || इतिभाव निक्षेप || ॥ इति कामी पुरुष आश्रित-त्रणें पार्वतीजीका चार चार निक्षेत्रका स्वरूप ॥ " || अब ढूंढक भक्त श्रावक आश्रित-त्रणें पार्वतीजीका चार चार निक्षेपका, स्वरूप - मूर्तिपूजक, और ढूंढक श्रावकका - संवाद पूर्वक, दिखाते है ॥ For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) ढूंढक भक्ताश्रित-त्रण पार्वतीका १ नाम निक्षेप. 1 मूर्तिपूजक हे भाई ढूंढक ! अपनी ढूंढनी पार्वतीजीके-मंतव्य मुजब - शिवजी की स्त्रीमें- पार्वतीजी, नाम है, सो कभी - नामनिक्षेप न होगा। क्योंकि सोतो असलरूप - नाम है, तोभी अपनेको तो ज्ञेय स्वरूपही मानना ठीक होगा | और ते अशलरूप-शिव पार्वतीजी का नाम, हिशाबसें बेश्यामें पार्वती नाम है सो नाम निक्षेप, होगा । परंतु वह कुछभी कार्य साधक, नहीं होनेसें हेय रूप जानके, अपनेको -- त्याग करना ही, अछा है । चाहे किसी पुरुष ने वेश्या पार्वती के नाम से, अप भ्राजनाभी किई, तोभी अपनेकोप्रीति या अप्रीति होनेका कुछभी कारण नहीं है । क्योंकि नेपा - पार्वती तो अपनेको निरर्थक रूपही है । अब अपनी साध्वी ढूंढनी में - पार्वतीजी नाम है, सोभी- शिव पार्वतीजीके हिशाबसें, नाम मात्रतो न कहा जावेगा -- किंतु नाम निक्षेपही, मानना उचित होगा । उहां क्या विचार करेगें ? क्योंकि अपनी ढूंढनी पार्वतीजीने १ नामनिक्षेप । २ स्थापना निक्षेप । २ द्रव्यनिक्षेप | यह तीनों निक्षेप, कार्य साधक नहीं - ऐसा लिखके - निरर्थक रूप ही, ठहराये है । जो अपने ढूंढनी पार्वतीजीका - नामको, ज्ञेवरूप, मानीयेतो - शिवपार्वतीजी के मान्यता तुल्य हो जायगी । अगर जो- हेय रूप मानीयेतो- वेश्या पर्वत तुल्य - निरर्थकरूप होजायगी, तब तो दंडनी पार्वतीजीके - नामको साथ, हमारा कुछ भी संबंध न रहेगा । ू और इसी नाम से, गालियां देनेवाला - हमको कुछ भी, बोलनेको न देवेगा कि हम तो मात्र नामको, उच्चारण करके गालीयां देते है इसमें तुमेरा हम क्या लेते है ? ऐसा कहेगा। इस वास्ते ढूंढनीजीकेनाम निक्षेपका, विचार ही करना पडेगा || For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक भक्ताश्रितत्र पार्वतीका १ नाम निक्षेप ( ३३ ) ढूंढक – हे भाई मूर्त्तिपूजक — ढूंढनीजी में पार्वती - नाम है सोनामनिक्षेप, न मानेंगे - पात्र नामही, मान लेवेंगे तो पिछे वेश्या पाEdit तुल्यता, न रहेगी || मूर्तिपूजक - - हे भाई ढूंढक शिवजीकी स्त्रीमे- पार्वतीजी नाम है, सोभी - जैन सिद्धांतकारोंने-नाम निक्षेप ही, माना है । अगर जो ढूंढनीजीकी जूठी कल्पना, मुजब नाम ही, ठहरायलेवें तो भी ढूंढनीजीमें तो पार्वती ऐसा नाम है सो भी नाम निक्षेप ही, ठहरेगा ॥ ढूंढक - - हे भाई मूर्तिपूजक - हमारी ढूंढनीजी में पार्वतीका - नाम निक्षेप, तूं क्या बेश्या पार्वतीका - नाम - निक्षेपकी, तुल्य समजता है ? || मूर्तिपूजक – हे भाई ढूंढक- हमतो जैन सिद्धांतानुसारसेंय वस्तुमें हेय रूप | और ज्ञेय वस्तुमें ज्ञेय रूप | और उपादेय वस्तु में - उपादेय रूप, यथा योग्य नामका निक्षेप, मानते है । पतु-त्रण निक्षेप - निरर्थक रूपे नहीं मानते है । यह तो तुमेरी हूंढनी पार्वतीजीने-सिद्धांतसें निरपेक्ष होके १ नाम भिन्न, । २ नाम निक्षेप भिन्न । ऐसें स्थापना | द्रव्य । और भाव । इन चारों निक्षेपोंको-भिन्न भिन्नपणे लिखके, और जूठा आठ विकल्प करके, मधमके-त्रण निक्षेप, निरर्थक, और उपयोग विनाके - ठहराये है । ऐसी अपनी अपूर्व चातुरी प्रगट करके, वेश्या पार्वतीका नाम निक्षेपकी-तुल्यता, अपने में ठहराय लिई है ? || -- ढूंढक - हे भाई मूर्तिपूजक-वेश्श पार्वतीका नाम निक्षेप तुल्य-निरर्थक, स्वामिनोजीका नाम निक्षेप हो जावें, सो तो बात अछी नहीं । इस वास्ते में तेरेको ही पुछताहुं कि इस विषमें असल बात क्या है ? ॥ - For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-१ नाम निक्षेप. और यह दूषण कैसें न रहें, ऐसा रस्ता-सिद्धांतानुं सार, हमको भी-दिखलाना चाहिये ॥ .. मूर्तिपूजक हे भाई ढूंढक-इस ग्रंथकारने-ढूंढनीजीकी सर्व कुयुक्तियांको-सिद्धांतके अनुसारसे सर्वथापणे विपरीत रूप दिखाके-चार निक्षेपका विषयको, अनेक प्रकारकी युक्तियांसें-समनाया है, तो भी क्या तेरी समज-हुई नहीं है, खेर, देख टुकमें इहांपर भी-समजा देते है। ___ यद्यपि-नाम-एक होके, अनेक वस्तुमें भी-नाप निक्षेप रूप, किया जाता है, परंतु इष्ट वस्तुमें किया हुवा ते-नामका निक्षेप, इष्ट रूप ही-मानना, उचित होता है । इसी बातकी सिद्धि-देखो सत्यार्थ पृष्ट. ५० में ढूंढनी भी करके ही दिखाती है कि कोईपार्थ, नामसे-गाली दे तो, हमे कुछ नहीं, कई-पार्श्व नामवाले, फिरते है। तुम्हारा-पार्थ, अवतार, ऐसे कहके-गालो दे तो-द्वेष आवे, इत्यादि । फिर भी देखो कि-जमल, इस-नामका निक्षेप, आजतक लाखो पुरुषों में होता आया है, तो भी-गतरूप हुवा, ढूंढक साधुमें-जेठमल, यह नामका निक्षेप है सो तो, तुमने भी-उपादेय रूप ही, माना है ।। - ढुंढक-हे भाई मूर्तिपूजा-जेटमल, इस नामका निक्षेपको, ह. मने कुछ-उपादेय रूपसें, नहीं माना है ॥ ___ मूर्तिपूजक-हे भाई भोला ढूंढक-ढूंढक साधुमें रखा हुवा-जेठ. मल, नामका निक्षेपको तो, तुमने-उपादेय रूप ही, माना है । क्यों कि हमारा गुरु वर्य-श्री आत्मा रामजी महाराजाने, जेठमलने बनाया हुवा-समकित सार-ग्रंथका, खंडन रूप-सम्यक शल्यों For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-१ नाम निक्षेप. (३५) द्वारमें, जेठमलजीकी—अज्ञानता, और मूढता, देखके मात्र इतना ही लिखाथा कि-जेठा मूढमातिने, जेठा अल्प मतिने,जेठा अज्ञानीने, जेठा निन्हवने, समजे विना-कुछ का कुछ, लिख मारा है । इतना लेख परतो अनेक हठीले ढूंढकोंने अनेक प्रकारका उत्पात करनेका विचार कियाथा, और आत्मारामजी महाराजाको-परकारमें भी चढा देनेके विचार पर आ गयेथे । तो अब विचार करो कि-अ. दृश्य रूप ढूंढक जेठमलजीका-नाम निक्षेप, तुमको उपादेय रूप, न होता तो इतना धांधल ही किस वास्ते मचा देते । सिद्ध हुवा है कि-ढूंढकमें-जेठमल नामका निक्षेप, तुमने भी-उपादेय रूप ही, माना है । तैसें ही ढूंढनीजीमें-पार्वती, यह-नामका निक्षेप, उपादेय स्वरूपसे-मानोंगे, तब ही वेश्या पार्वतीकी तुल्यता न होगी। नही . तो तुमको उत्तर देनेकी भी जगा न रहेगी ।। ___ और जो-नाम है, सो. ही-नाम निक्षेपका, विषय, है । दूसरी जो जो कल्पनाओ ढूंढनीने किई है सो तो-जैन सिद्धांत-निरपेक्ष होके ही, किई है ॥ __. ढूंढक-हे भाई मूर्तिपूजक-इस मुजब तो-उपोदय वस्तुमेंजो नामका निक्षेप है, सो भी उपादेय रूप ही-पानना, उचित मालूम होता है । क्यों कि ऋषभादिक, महावीर, पर्यंत-नाम है सो भी, बैल आदिपशुओंमें, और अनेक पुरुषादिकोंमें भी, रखा ही जाता है, परंतु तीर्थंकर जीवाधिष्टित-शररोिंमें, रखा हुवा-ऋषभादिक महावीर पर्यंत-नाम है सो, तीर्थकरोंके अभिप्रायसें-परम उ. पादेय रूप, हम भी मानलेवेंगे । परंतु तुमलोक पथ्थरकी-मूर्ति में, तीर्थंकरोंका-स्थापना निक्षेप, करके भगवान् ठहराय लेते हो, सो तो हम भगवान् रूपसें, कभी न मानेंगे । For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. ॥ इति ढूंढक भक्त आश्रित संवाद पूर्वक-त्रणें पार्वतीका-नाम निक्षेपका, स्वरूप ॥ ॥ अब ढूंढक भक्त आश्रित-त्रणें पार्वतीका-स्थापना निक्षेपका, स्वरूप-संवाद पूर्वक ही, दिखावते है ॥ मूर्तिपूजक-हे भाई ढूंढक-देखकि, उपादेय वस्तुका-पुतला ( अर्थात् आकृति ) अथवा काली स्याहीका-फोटो [ मूर्ति ] है सोभी, उपादेय रूपसे ही-माननी, उचित होगी, परंतु ना मुकर जानेमें-तुमकोभी, बहुत प्रकारका-शोचही, करना पडेगा, ढूंढक-मूर्तिकोतो हम-मूर्ति, मानते ही है, ना कौन पाडता है ? ॥ मूर्तिपूजक-हे भाई ढूंढक-में-तेरेको-पुछता हुं क्या, और तूं-उत्तर देता है क्या, में तेरेको यह पुछता हूं कि-जो अपना परम उपादेयरूप-तीर्थकरादिक संबंधीकी-मूर्ति है, सो तूं-परम उपादेयके स्वरूपसे, मानता है कि नहीं, इतने मात्रका-उत्तर, हमको दिखादे ॥ ढूंढक-वाहरे मूर्तिपूजक भाई वाह, क्या-उपादेय वस्तुकी पथ्थर आदिकी आकृति [मूर्ति भी,उपादेय रूपही, मानलेनी ॥ ___मूर्तिपूजक-हा भाई ढूंढक हा, हमतो-तीर्थकरादिक परम उपादेय वस्तुकी, मूर्तिकोभी-परम उपादेय रूपही, मानते है । जो तुमभी-उपादेय वस्तुकी, आकृतिको-उपादेय रूपसें, न मानोंगे तो-किसीके आगे, बात करने जोगेभी न रहोंगे। देखो प्रथम सामान्य मात्रसें, हमने-दिखाया हुवा, त्रणे पार्वतीकी-मूर्तिका For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. ( ३७ ) विचारसें, उपादेयकी-मूर्ति हैसो, उपादेयपणे-सिद्ध होती है या नहीं ? पिछे-परमोपदेय तीर्थकरोंकी मूर्ति है सो, परमोपादेय रूप, अपने आप-सिद्ध, हो जायगी ।। देखोकि-शिवका भक्त थासो तो, अपना-उपादेय संबंधिनी, शिव पार्वतीजीकी-मूर्तिको, देखतेकी साथ, परम प्रीति को धारण करता हुवा-बड़ा हर्षित हुवा था ॥ __ और काम विकारसे भरी हुई-हेय वस्तु संबंधिनी, वेश्या पार्वतीकी-मूर्तिको, देखके-बडा दिलगिर हुवा था ॥ और मुख उपर पड्डीवाली, ढूंढनी पार्वतीजीकी-ज्ञेय वस्तु संबंधिनी-मूर्तिको, देखके, नतो-हर्षित हुवा था, और नतो-दिलगिरभी हुवा था, मात्र नवीन प्रकारका स्वरूपकी-आकृति, समजता हुवा, टगटगपणे देखता ही रहाथा ॥ ॥ अब दूसरा-कामी पुरुषथा सो, शिवपार्वतीजीकी-मूर्तिको, देखके, और ढूंढनी पार्वतीजीकी-मूर्तिको, देखके, मात्र ज्ञेय वस्तु रूपका-स्वरूपको जानके, नतो-हर्षित हुवाथा, और नतो कुछ दिलगीरभी हुवाथा, परंतु काम विकारकी-पेटीरूप, वेश्या पार्वती की-मूर्तिको, देखके, और अपना-उपादेय वस्तु संबंधिनी, जानके, परम प्रीतिकी साथ, अंग प्रत्यंगको वारंवार देखता हुवा, और अपना शरीरकी रोम. राजिको-विकश्वर, करता हुवा, कितनीक देरतक, देखनेमें मसगूलही बन रहाथा, क्योंकि उस कामी पुरुषको, जो कुछ-उपादेय वस्तुथी सोतो, एक वेश्या पार्वतीहीथी। इस वास्ते उनकी-मूर्तिको, देखके भी, उसमें ही उनको मनरूप होना युक्ति युक्त ही था । परंतु हे ढूंढक भाई ! अब तेरेको ही हम पुछते है कि, एकतो है-शिव पार्वतिजीकी For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) ढक भक्ताश्रित -त्रणें पार्वतीका २ स्थापना निक्षेप: I मूर्त्ति । और दूसरी है वेश्या पार्वती की मूर्ति । और तीसरी है ढूंढनी पार्वतीजी की - मूर्त्ति | यह तीन स्वरूपकी, तीन मूर्ति में सें, तेरा हृदय में - १. हेय । २ ज्ञेय । और ३ उपादेयका विषयरूपसें, विशेषपणे-बोधका कारणरूपे, कोई भी मूर्ति, है या नहीं ? प्रथम ही इसमें विचार कर कि वेश्या पार्वती की मूर्ति तुल्य, ढूंढनी पार्वतीजी की मूर्तिको मानना, यहतो कभी भी उचित न--गीना जायगा । जो कभी विशेषपणे सें राहत, केवल ज्ञेय स्वरूपसें, ढूंढनी पार्वतीजीकी-मूर्त्तिको, कहोंगे, तब तो जैसें ढूंढनी पार्वतीजीकी मूर्तिको खिचवा के घर में रखते हो, तैसें ही शिव पार्वती - जीकी मूर्तिभी खिचवा के तुमेरे ढूंढकों को घर में रखनी ही चाहिये, सो शिव पार्वतीजीकी-पूर्तिको, खिचवाके घर में, क्यों नहीं रखते हो ? ढूंढक - हे भाई मूर्तिपूजक तूं वडा भोला है, हमने ढूंढनी पार्वतीजीकी-पूर्तियां, खिचना के घर में रखियां हैं, सो तेरी बात सत्य है, परंतु उस मूर्तियां से, कोइ कार्यकी सिद्धि होती है, ऐसा नहीं मानते है । मूर्तिपूजक हे भाई ढूंढ-ढूंढनी पार्वतीजी की मूर्तियां, तूं कि कार्य सिद्धि करना चाहता है ? इस बात में तूं विशेषपणे, इतना मात्रही कहसकेगा कि - उपदेशकी प्राप्तिरूप - कार्यकी सिद्धि, हमारी नहीं होती है । इनके शिवाय दूसरा विशेषमें कुछभी न कह सकेगा, परंतु दूर देश में रहे हुये ढूंढकों को, इस मूर्तियांका दर्शन से, ढूंढनी पार्वतीजी का स्वरूपकी स्मृति होती है या नहीं ? और उनकेबाद, जो ढूंढनीजी के भक्त बने हुये है, उनोंको कुछ-प्रीति, अमीति, कराने में वह मूर्तियां, निमित्तभूत है या नहीं? इसमें जो तेरा विचार हो सो, हमको बतलादे || st For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. (३९) ढूंढक-हे भाई मूर्तिपूजक-वारंवार ऐसा क्या पुछता है, देख-मूर्तियां, नतो कोई-नीति रही है, और नतो कोई-अमीति. भी रही है, सोतो अपना आत्मामेंही रही हुई है, किसवास्ते ऐसी भ्रमितपणेकी बातां हमको मुनावता है ? ॥ . ___मूर्तिपूजक-हे भाई ढूंढक-तेरा कहना यह सत्य है, परंतु उस-प्रीति अनीति होने में तुमको, ढूंढनीजीकी-मूर्ति, कुछ कारण रूप, होती है या नहीं ? इतना मात्रही में तेरेको पुछता हुं । जो तूं कहेगाकि-हमको प्रीति अप्रीति उत्पन्न होनेमें-मूर्ति, कारणरूपे कुछभी नहीं है,तो पिछे हम-पुछते है कि-काठीयावाड देशका-लिमडी सेहरमें, संवत् १९४७ का-वैशाख मासमें, पूज्यश्री-गोपाल ऋषनी, अचानकपणे देहांत हुयेवाद, हाजारभक्त सेवकोने, मृतक शरीरको पट्टे उपर बिठाके, और नीचे के भागमें-त्रण जीवते साधुको बिठायके, उनका फोटो ग्राफ, किसवास्ते खिचवाया ? । और पंजावी ढूंढक श्रावकोने-जीवते हुये दंडक-सोहनलाल आदि सा. धुओंका । और ढूंढनी पार्वतीजी आदि साध्वीयांका । और दक्षिण अहमदनगरमें-चंपालाल आदि, दंडक साधुओंका । और आगरा सेहरमें पचीस त्रीसेक श्रावकोंकी साथमें बैठे हुये-पांच सात साधु ओंका । इत्यादिक अनेक स्थलोम-ढूंढक श्रावकोंने, अपना अपना मान्याहुवा-गुरुरूप ढूंढक साधुओंका, और ढूंढनी साध्वीयांका, फोटोग्राफ, किसत्रास्ते खिचत्राया ? और हमने यहभी सुना हैकि कोइ कोइ अधिक भक्तोंने तो, अपने तालेजिमेंभी कबज करके रखे है, सो किसवास्ते करते है ? उनका कारण तूं ही दिखलाव ? हमनेतो इस लेखसें, सिद्ध करके ही दिखलाया है कि-जो उपादेय बस्तुकी-मूर्तिहै, सो मूर्ति, तुमकोभी-प्रीति विशेषका, कारण हीहै। इसीवास्ते तुमलोको-ढूंढक साधु, साध्वीयांका- फोटोग्राफ, खिच For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४० ) ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. वायके, अपने ताले जिंदमें कबजकरके रखतेहो, और इस लेखसेंयहभी सिद्ध हुवाकि, ढूंढक ढूंढ नीजीने-स्थापना निक्षेपको, जो निरर्थकरूप-उहराया है सोभी जूठे जूठ ही लिखमारा है। अगर जो तुम ढूंढको उपादेय रूप, वस्तुकी-मूर्तिको, उपादेय के स्वरूपसें, न मानोंगे तो जैन धर्मका द्वेषीमें सें-कोइक बदमास, ढूंढनी साध्वी जीकी-मूर्ति के, साथ कुचेष्टा करता हुवा पुरुषकी मूर्तिको । और ढूंढक साधुकी मूत्तिके साथ-किसी रंडीकी मूर्तिको । बे अदबसें खिचवायके, अनेक प्रकारकी अपभ्राजना करता हुवा भी, तुमको कुछ भी बोलनेको न देवगा, परंतु मूर्तिको भी-उपादेयपणे, मानने वाले हम-उस बदमासको, हठासकेंगें, और ऐसे अत्याचार करने वालेको, हठानेकी, हमको भी जरुर ही है, नही तो तमासा देखनेवाले लोको भी बेठे हुये ही है । तो अब विचार करोंकि-तीर्थकरोंकी अपेक्षासे, आज कालके-नुछ पात्ररूप, साधुओंकी-मूत्तियां भी, उपादेयपणे तपर करके ही, बदमास लोकोंको--हम हटासकेंगे, तो पिछे हमारा--परमाप्रिय, परमपूज्य, परमोपदेश दाता, शासनके नायकरूप, तीर्थकरोंकी-मूत्तियांको, निरर्थकरूप मानके, हम ही जैन कुलमें-अंगारापरू, बने हुये, अवज्ञा करनेवाले, तीर्थंकरों के भक्त, कैसे बनेंगे ? इस बातका रिचार, तीर्थकरोंके-भकोंको तो, अवश्य करनेके, योग्य ही है, बाकी रहे जो-महा मिथ्या दृष्टि, और दुर्भवी, अथवा अभवी, उनोंकी पाससे हम कुछ भी विचार नहीं करा सकते है ।। और देखोकि-सिद्धांत कारोंने तो, सर्व वस्तुका-स्थापना निक्षेपको, अपना अपना स्वरूपका-पिछान करानेमें, कारणरूप, मानके-सार्थक, और कार्यकी सिद्धि में, उपयोगवाला हीमाना है, तो पिछे तीर्यकरोंका-स्थापना निक्षेप, निरर्थक हीहै, ऐसा ढूंदनी-कैसे For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक भक्ताश्रित-त्र पार्वतीका - २स्थापना निक्षेप ( ४१ ) लिखती है ? और यही ढूंढनी पार्वती, दूसरी साधारण वस्तुका - स्थापना निक्षेपको, सार्थक, और कार्यकी सिद्धिमें उपयोगवालाभी, जैन सूत्रोंका - मूल पाठसें ही, लिखके दिखाती है, परंतु विषरीतमति हो जानेसें कुछ विचारही, नहीं कर सकी है ॥ देखो - सत्यार्थ पृष्ट ७३ । ७४ में - यथा--सूत्र उबाईजीमें- पूर्णभद्र यक्ष, यक्षायतन, अर्थात् - मंदिर, मूर्त्तिका, और उसकी -पूजाका, पूजाके फलका - धन संपदादिकी, प्राप्ति होना, इत्यादि भलीभांत सविस्तार - वर्णन - चला है ।। और अंतगढ सूत्र में - मोगर पाणी, यक्षके-मंदिर, मूर्तिका । हरण गमेषी देवकी - मूर्तिपूजाकां । और विपाक सूत्रमें - उंबर यक्षकी- मूर्ति, मंदिरका, और उसकी पूजाका फल - पुत्रादिका होना, सविस्तार पूर्वोक्त वर्णन चला है ।। पृष्ट. ७४ओ ७से - हे भव्य इस पूर्वोक्त कथनका - तात्पर्य यह है कि, वह जो सूत्रोंमें नगरियां केवर्णन के आदमें, पूर्णभद्रादि यक्षों के मंदिर चले हैं सो, वह यक्षादि सरागी देव होते हैं, और बाले बाकुल आदिककी इछा भी रखते है, और राग द्वेषके प्रयोगसें अपनी - मूर्त्तिकी पूजाsपूजा देखकेवर, शराप भी देते है ताते हरएक नगरकी - रक्षारूप, नगरके बाहर इनके मंदिर हमेशांसे चले आते है, संसारिक स्वार्थ होनेसें ॥ A पाठकवर्ग ! अब इसमें विचार किजीये कि प्रथम यही ढूंढनीजी अपनी थोथीपोथीमें - नामनिक्षेप, स्थापना निक्षेप, और द्रव्य निक्षेप, । यह तीनों निक्षेपोंको - निरर्थक, और कार्य साधक नहीं, वैशा वारंवारं लिखके - पत्रके पत्रे, भरती चली आई | और यह पूर्वोक्त सूत्रपाठका विचारसें - स्थापना निक्षेपका विषयरूप, यक्षादिकोंके - पथ्थरकी आकृतिरूपसें, अर्थात् मूर्त्तिके स्वरूपसें, उनके For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) ढूंढक भक्ताश्रित-त्रण पार्वतीका २स्थापना निक्षेप. - धनपुत्रादिक कार्यकी सिद्धिभी दिखला देती है । तो अब विचार करो कि - यक्षादिक व्यंतरोंका स्थापना निक्षेपसें बनी हुई पथ्थर की मूर्ति, सार्थकरूप हुई कि, निरर्थकरूप ? ढूंढनाजी तो केवल वीतरागी मूर्त्तिसें द्वेष धारण करके, अपने लेखकाभी पूर्वाऽ परके विचार किये बिना, जो मनमें आया सोही अगईं बगडं लिखके, अपना और भद्रक श्रावकों के, धर्मका नाश करनेकोही, उद्यत हुई है । ते सिवाय दूसरा प्रकारकी सिद्धितो-ढूंढनीजीके लेखमें, कुछभी दिखनेमें नहीं आती है । - ढूंढक - हे भाई मूर्तिपूजक, हमारी ढूंढनीजीने स्थापना निक्षेप, कार्य साधक नहीं, ऐसा लिखके जो निरर्थक ठहराया है सो, तीर्थकरों का - जडरूप पथ्थर की मूर्ति पूजासें- मुक्तिका कार्यकी सिद्धि नहीं, इस अभिप्राय मात्रसें - स्थापनानिक्षेप, निरर्थकरूप लिखा है | मूर्तिपूजक हे भाई ढूंढ ढूंढनीजीने केवल ऐसा नहीं लिखा है, उसने तो बतिरागी मूर्त्तिसें द्वेष धारण करके, और अपना लेखमें पूर्ण भद्रादिक यक्षोंके संबंधी - जडरूप पथ्थर की मूर्ति, धन पुत्रादिक कार्यकी सिद्धिरूप, सिद्धांतके पाठका विचार किये विना - सर्व वस्तुका स्थापनानिक्षेत्र [ मूर्त्ति ] को, निरर्थक ठहरायके, तीर्थकरों का - स्थापना निक्षेप ( मूर्त्ति ) भी, सर्वथा प्रकार सें १ जैसे - तीर्थकरोका - नाम, स्मरण मात्रसें ढूंढनीजी मोक्षको पहुचानेको चाहती है तैसेही यक्षोका - नाम, स्मरण मात्र सें-- धन, पुत्रादिक क्यों नहीं दिया देती है ? काहेको फल फूलादिकसें जड पथ्थर की मूर्ति पूजा कराती हुई ढूंढक भाइयांको अनंत संसार में गेरती है ? ॥ - For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. (४३) निरर्थक ठहरानेका, प्रयत्न किया है ।। देखो सत्यार्थ पृष्ट ८ में यथा-काष्ट, पीतल, पाषाणादिकी-मूर्ति, बनाके स्थापना करलीकि यह मेरा-इंद्र है, फिर उसको वंदे, पूजे, उससे, धन, पुत्र, आदिक मांगे, मेला, महोत्सव करें । परंतु वह जड-कुछ जाने नहीं, ताते शून्य है । अज्ञानताके कारण उसे-इंद्र, मानलेते है। परंतु वह-इंद्र नहीं, अर्थात्-कार्यसाधक नहीं । इस प्रकारसे ढूंढनीजी-पथम इंद्रकी मूर्तिको, निरर्थक-उ. रायके, पिछे-पृष्ट १५-१६ में ऋषभ देवजीकी-मूर्तिको, जडपणा दिखलायके निरर्थकपणा, दिखलाया है। और-७३।७४ में-पूर्ण भद्रादिक यक्षोंके पथ्थरकी मूर्तिसें, ढूंढक श्रावकोको-धन, पुत्रादिककी, प्राप्ति कराती हुई-स्थापना निक्षेपको, सार्थकरूप करके, दिखलाती है । तो अब ढूंढनीनीको तीर्थंकरोंकी भक्तानी समजनी, कि, यक्षोंकी ? उनका विचार वाचक वर्ग ही करें ? ॥ .. ढूंढक हे भाई मूर्तिपूजक-जब पूर्ण भद्रादिक यक्षोंकी-प. थ्थरसें बनी हुई, जडरूप मूर्तिकी पूजासे-धन, पुत्रादिककी, प्राप्ति होनेसें-सार्थकपणा है, तब तो-इंद्रादिकोंकी पाषाणादिकसें बनी हुई, जहरूप-मूर्तिकी पूजासें भी, अवश्य ही कार्य सिद्ध होनाचाहिये, क्योंकि-सरागीपणा जैसा पूर्ण भद्रादिक यक्षोंमें है, तैसा ही सरागीपणा-इंद्रमें भी है, तो पिछे हमारी ढूंढनीजीने-इंद्रकी मूर्तिकोजडरूप, कहकर, और निरर्थकपणा ठहराय करके, सर्व वस्तुकास्थापना निक्षेप, निरर्थकरूपसें, क्यों ठहराया होगा ? सो कुछ मेरी समजमें-आया नहीं है ॥ . मूर्तिपूजक-हे भाई ढूंढक-ढूंढन जीने तो वीतरागी मूर्ति सें For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) दूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. द्वेषभाव करके, अपना लेखका भी पूर्वाऽपरके विचार किये बिना, जो मनमें आया सो ही-लिख मारा है । परंतु हेय १ । ज्ञेय २ । और उपादेय ३ । के स्वरूपसें, पूर्व में दिखाई हुई हमारी युक्तिके प्रमाणसे-जैन सिद्धांतकारोंके मंतव्य मुजब, स्थापनानिक्षेप-निरर्थक रूपका नहीं है, सो तो अपनी अपनी वस्तु स्वभावका-ता. दृश बोधको कराता हुवा, आत्माको ते ते वस्तुओंका गुणोंकी त. रफ, विशेषपणे ही लक्ष कराता है . इस विषयमें-प्रमाण देखो-सत्यार्थ पृष्ट. ३५. में-ढूंढनी ही लिखती है कि-हां हां सुननेकी अपेक्षा (निसवत ) आकार (न. कसा ) देखनेसें-ज्यादा, और जल्दी, समन-आती है, यह तोहम भी मानते है। अब ढूंढनीजीका-इस लेखसे, विचार करनेका यह है कि-जब मूर्तिपूजनमें, कुछ विशेष ही नहीं था, तब तो पूर्ण भद्रादिक यक्षोंका-नाम स्मरण मात्रसें ही, ढूंढकोंको-धन, पुत्रादिककी प्राप्ति, ढूंढनीजी-करा देती, किस वासे यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंकी मूर्तिका पूजनमें-आरंभ, कराती हुई-धन, पुत्रादिक, प्राप्ति होने का-लिखके, दिखाती है ? ___और यह भी विचार करो कि ढूंढनीजीका ही लेखसें, मूतिको-वंदना, नमस्कारादि-करनेका, सिद्ध होता है कि नहीं ? - अगर जो यक्षादिकोंकी जड स्वरूप मूर्तिको-वंदना, नमस्कारादिक, न करावेगी-तो पिछे, ढूंढकोंको-धन, पुत्रादिककी-प्राप्ति भी किस प्रकारसे करादेवेगी ? जब ढूंढनीजी-यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंकी-मूर्त्तिका, आरंभवाला पूजन, और वंदना, नमस्कारादिक-करानेको उद्यत हुई है। For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणे पार्वतीका-२स्थायनी निक्षेप. (४५) तो पिछे, जिनेश्वर देवकी मूर्तिके-भक्तोंको, सत्यार्थ पृष्ट. १७ मेंजड पूजक, पणेका, जूठा विशेषण-क्यौं देती है ? क्यौं कि, ढूंढनी ही-यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंकी, पाषाणादिकसें बनी हुई-जडरूप मूर्तिका पूजन, कराती हुई, बेसक जड पूजक पणेका-विशेषणके लायक, हो सकती है । परंतु हम जिन मूर्तिके भक्त-इस विशेषणके योग्य, कैसे हो सकते है ? ॥ . और सत्यार्थ पृष्ट ६७ में-ढूंढनीजीने लिखा है कि पथ्थरकी मूर्तिको धरके, श्रुति लगानी नहीं चाहिये । इस लेखसे विचार यह आता है कि वह यक्षादिक देवोंकी मूर्ति भी पथ्थरसें ही बनी हुई होती है, और उस मूर्तियांकी पूजासे, ढूंढनीजीने--धन पुत्रादिक प्राप्ति होनेका भी दिखाया है, जबतक ढूंढनीजी भोंदू ढूंढकोंकी पाससे उस मूर्तियां में-श्रुति मात्र भी लगानेको न देवेगी, तबतक-धन, पुत्रादिक, वस्तुकी प्राप्ति भी किस प्रकारसे करा सकेगी ?॥ - फिर पृष्ट ५७ में लिखता है कि उसको [ अर्थात् मूर्तिको ] हम भी भगवान्का आकार कहदें, परंतु-चंदना, नमस्कार तो नहीं करें । और लडडु पेंडे तो अगाडी नहीं धरें। - इस लेखसे भी विचार करनेका यह है कि-अदृश्य स्वरूपके जो यक्षादिक देवताओ है, उनोंकी कल्पित पथ्थरकी मूर्तियांको वंदना, नमस्कार, करना और लडडु पेडे भी चढानेका हमारे ढूंढक भाईयांको सिद्ध करके दिखलाती है, और परम ध्यानमें लीनरूप तीर्थंकरोंका साक्षात् स्वरूपका आकारको-वंदनादिक करनेका भी, ना पाडती हैं तो क्या तीर्थकों के धर्मका सनातपणा इसी प्रकारसें चला आता है ? ॥ For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीकी-२ स्थापना निक्षेप.. ___ और सत्यार्थ पृष्ट ३६ में-ढूंढनीजी लिखती है कि उस आकार [ नकसे ] को-वंदना, नमस्कार, करना यह मतवाल तुम्हें किसने पीलादी ॥ - यह जो लिखा है सो भी यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंका भयंकर आकार को-वंदना, नमस्कार, और आरंभवाला पूजनसें-धन, पुत्रादिककी, प्राप्ति करानेको उद्यत हुई, यह ढूंढनी ही-मतवाल पीलाने वाली सिद्ध होगी के-मिनेश्वर देवका आकारकी भक्तिको दिखाने वाले, सिद्ध होंगे? . ___ उसका विचार तो-जैन धर्मका अभिलाषियांको ही करनेका है ? अब इस दिग् मात्रका लेखसे ख्याल करनेका यह है कि मूर्ति मात्रको निरर्थक ठहराने के लिये दूंढनीजीने जो जो कुतकों किई है सो सो-हेय १, ज्ञेय २, और उपादेय ३ । वस्तुओंकी मूर्तियांको विशेषपणेका विभागको. समजे विना, अगडं बगडं लिखके, भोले जीवोंको वीतरागी मूर्तिकी भक्तिसे-भ्रष्ट करनेको, जूठका पुंज भेगा किया है परंतु जैन सिद्धांतकारोंकी शैलीका अनुकरण किंचित् मात्र भी किया हुवा नहीं है। ____ और हम वीतराग देवकानिर्मल सिद्धांतोके लेखस, विचार करके देखते है तबतोयही मालूम होता हैकि-अपना अपना उपादेय वस्तुका, जो-नाम निक्षेप है, उसेंभी उसका स्थापना निक्षेप (मूर्ति ) है सो, सारी आलम दूनीयांका विशेषपणे ही-ध्यान खेच रही है, और उस प्रमाणे दूनीयाको वर्तन करती हुईभी प्रगटपणे देखते है । मात्र मूढताको धारण करके-कोई कोई समाज, मुखसेही ना मुकर जाता है । परंतु विचारशील समाज है सो तो-हेय १। ज्ञेय २। और उपादेय ३की । वस्तुके स्वरूपसे-नामनिक्षेपको, For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२ स्थापना निक्षेप. (४७) और स्थापना निक्षेपकोभी, योग्यता मुजब--आदर, और सत्कार ही कर रहा है । परंतु मूढताको प्रगट नहीं करता है । यही विशेष पणा दिख रहा है। ॥ फिर भी देखो-सत्यार्थ-पृष्ट. १२२ ओ. १२ से-ढूंढनीजी लिखती है कि भगवती शतक १२ मा, उद्देशा २ में-जयंती समणो पासका, अपनी भौजाई मृगावतीसें कहती भई कि-महावीर स्वामीजीका-नाम, गोत्र, सुणनेसे ही-महाफल है । तो प्रत्यक्ष सेवा भक्ति करनेका जो फल है सो-क्या वर्णन करूं । और भी पाठ ऐसे बहुत जगह आता है ॥ ढूंढनीजीका इस लेखसें, ख्याल करनेका यह है कि-नाम-और गोत्र, एक प्रकारका होके भी-अनेक पुरुषोंमें, दाखल हुयेला देखनेमें आता है, तो भी भगवानके साथ संबंधवाला-नाम, और गोत्र, जडरूप अक्षरोंके आकारका, दूसरेके मुखसें प्रकाशमान हु. येला, श्रवणद्वारा-सुनने मात्रसें, भक्त जनोंकों-महाफलको प्राप्त करता है । ऐसा जैन सिद्धांतोसे सिद्ध है । तो पीछे वीतराग देवके ही सदृश्य, और अन्य वस्तुओंसें अमिलित, ऐसी अलोकिकवीतरागी मूर्तिको, नेत्रोंसे साक्षातपणे देखते हुये, हमारे ढूंढकभाईयांको-आल्हादितपणा क्यों नहीं होता है ? क्या तीर्थंकरोंकी भक्तिभावका बीज, उनोंके हृदयसें-नष्ट हो गया है ?। क्योंकि जो तीर्थंकरोंके-भक्त होंगे, सोही तीर्थकरोके साथ संबंध वाला-नाम, और गोत्र रूप अक्षरोंको, कर्णद्वारा श्रवण करनेसेंअल्हादित हो केही, महा फलको प्राप्त करलेवेगा । तो पीछे नेत्र द्वारा-तादृश भगवान्की भव्य मूर्तिका, दर्शनको करता हुवा, सोभ व्यात्माभक्त-आल्हादित होके, महाफलकी प्राप्ति क्यों न कर ले For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका -२ स्थापना निक्षेप. वेगा ? | क्यों कि - नामसें भी, मूर्ति है सो - विशेषपणे ही बोधको प्राप्त करानेवाली, सिद्ध हो चुकी है ।। देखो सत्यार्थ- पृष्ट ३५ में ढूंढनीजी भी लिखती ही है कि - हां हां सुननेकी अपेक्षा ( निसबत ) आकार [ नकसा ] देखनेसें- ज्यादा, और जल्दी समज आती है । यह तो हम भी मानते है | तो अब - नामसें भी विशेषपणे बोधको कराने वाली, वीतरागी मूर्ति को देखनेसें-- आल्हादित न होना, सो तो कर्मकी बहुलता के सिवाय, दूसरा विशेषपणा क्या समजना ? | इस वास्ते वीतराग देवके भक्तोंको विचार करनेकी भलामण विशेषपणे ही करता हुं ॥ फिर भी देखाोक - हमारे ढूंढक साधुओं, और साध्वीयां, मर्यादाको छोड करके अपनी मूर्तियां ( अर्थात् काली स्वाहीका फोटो ) खिचवाते है, और अपने २ भक्तों को दर्शन के लिये अर्पण भी करते है, तोपिछे जिस अरिहंतका नाम, रात और दिन, ले ले के-वंदना, नमस्कार करते है, उनकी परम पवित्र मूर्त्तिको - वंदना, नमस्कार, क्यों नही करना ? । अपितु अवश्यमेव करने के योग्य ही है | 1 - ढूंढक- - हे भाई मूर्त्तिपूजक देख सत्यार्थ पृ. ५० सें - ५१ तक — हमारी ढूंढनीजने लिखा है कि- पार्श्व नामसेंगाली देतो, हमे कुछ द्वेष नहीं, तुम्हारा पार्श्व अवतार ऐसें कहके गाली देतो, द्वेष आवे, ताते वह नामभी, भावमें ही है। उसमें दृष्टांत यह दिया कि - राजा के पुत्रका नाम, इंद्रजित् है, तैसेंही धोबीके पुत्रका नामभी, इंद्रजित है, सो धोबीका पुत्र मर गया, वह धोबी For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. (४९) हाय २ इंद्रजित, हाय इंद्रजित, कहके रोता है, परंतु राजाने-बुरा, नहीं माना । ताते-नामतो, गुणा कर्षणही होता है, सो-भाव निक्षेपमें ही है ॥ मूर्तिपूजक--हे भाई ढंढक,थोडासा ख्याल करके देखकि-जो -नाम,अनेक वस्तुओंके साथ संबंधवाला होजाता है,उस नामके-- दो चार अक्षर मात्रमें तो, ढूंढनोजीको साक्षात् पणे-तीर्थकर भगवान् ,दिख पडता है। और वह-दो चार अक्षरमात्रको,अपना मुखसें उच्चारण करने मात्रसें-वंदना, नमस्कारादिक भी, करना मानती है तो पिछे-नामसें भी, विशेष पणे बोधको करानेवाली-वीतरागी मूत्तिमें, तीर्थकर भगवान्, हमारे ढूंढक भाईयांको-किस कारणसें नहि दिखता है ? क्यों कि जो मिथ्यात्वी लोको है सो भी, तीर्थ करोंके-नामको सुननेसें, तीर्थंकरोंकी-मूर्तिको देखनेसें, विशेषपणे ही तीर्थंकरोंका-वोधको, प्राप्त होते है । तो पिछे हमारा ढूंढक भाईयांको, तीर्थकरोंकी-अलोकिक मूर्तिको देखनेसे भी, तीर्थकरोंका बोध नहीं होता है, इसमें क्या कारण समजना ? उसका विचार करनेका तो-वाचक वर्गको ही दे देता हुं ॥ ___ ढूंढक हे भाई मूर्तिपूजक, हमलोक-ढूंढक साधुओंकी, और साध्वायांकी-मूर्तियांको, खिचवायके घरमें रखते है, यह बात तेरी सत्य है, परंतु उस मूर्तियांको-वंदना, नस्कार तो-कभीभी नहीं करते है, तो पिछे-ऋषभादिक, तीर्थंकरोंकी-पूर्तियांको, वंदना, नमस्कार, किस प्रकारसे करें ? मूर्तिपूजक-हे भाई ढूंढक-जिस २ ढूंढक साधुको, जिस २ ढूंढक श्रावकोंने-अपना २ गुरुपणे मान लिया है, सो सो ढूंढक For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ढूंढक भक्ताचित - पार्वतीका स्थापना निक्षेप. श्रावक, दूर देशमें रह्या हुवा, अपना २ गुरुका - नामको, स्मरण करता हुवा, वंदना, नमस्कार, करेगा या नहि ? ढूंढक - - हे भाई मूर्तिपूजक - जिस ढूंढक साधुको, गुरु करके मान लिया, उनका नाम, स्मरण करके, वंदना, नमस्कार, नहीं. करें तो पिछे किसका नाम लेके-वंदना, नमस्कार, करना ? मूर्तिपूजक हे भाई ढूंढक, जिस गुरुको तूंने मान्य किया है, उस नामके - अनेक पुरुष होते है, और ते नामके अक्षरोंमे तो तेरा मान्य किया हुवा गुरुका, चिन्ह तो, कोई प्रकारका भी दिखता नही है, सो नामका उच्चारण मात्र करनेसें ही तूने वंदना नमः स्कार करनेका भी कबुल कर लिया, और उसी ही गुरुका स्वरू पको साक्षातपणे बोध करानेवाली - मूर्ति है, उसको वंदना नमस्कार करने का भी ना पाडता है, सो किस प्रकारका तेरा विवेक समजना! अथवा किस प्रकारकी धिठाइ समजनी ? ढूंढक -- हे भाई मूर्तिपूजक हमारे ढूंढक गुरुजीने ऐसा फरमाया है कि गुरुजीका नाम देके तो, वंदना, नमस्कार, करना । परंतु उनकी मूर्त्तिको वंदना नमस्कार नही करना । क्यौं कि नाम तो, गुणाकर्षण ही होता है, सो भाव निक्षेपमें ही है, ऐसा पृष्ट. ११ में हमारी ढूंढनी पार्वती साध्वीजीने लिखा है। इस वास्ते गुरुजीका नाम देके - वंदना, नमस्कार करते है, परंतु उनकी मूर्त्तिको देख के किस प्रकार से करें ? मूर्तिपूजक - हे भाई ढूंढक, इसमें थोडासा विचार करके, जो नाम, अनेक वस्तुओंके साथ संबंध वाला हो के पिछेसे ते - नाम, तेरा मान्य किया हुवा - गुरुके साथ, संबंध वाला हुवा है । जैसें कि- चंपालाल, सोहनलाल, आदि । अथवा-पार्वती, जीवी, आ For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टुंढकभक्तानिन-त्रणे पार्वतीका १ नाव निक्षेप. (५१) दि । उस नाम मात्र के दो चार अक्षर में तो, तेरा गुरुमीका साक्षात् स्वरूपवाला-भाव निक्षेप, गुसड गया, जिससें तूं-वंदुना, नमस्कार, करनेको लग गया। ___और जो तेरा गुरुजीका ही साक्षात् स्वरूपको-बोध कराने वाली, तेरा ही गुरुजीकी-मूर्ति है, उसमेंसें तेरा-भाव निशेष, कहां चला जाता है ? | जो तूं तेरा ही गुरुनाकी, साक्षात् स्वरूप की-मूर्तिको, वंदना, नमस्कार करनेकी भी-ना पाडता है ? ॥ ___क्योंकि-एक नामके तो, अनेक पुरुष, रहते है, उसमें तो गफलत, होनेका भी-संभव, रहता है। परंतु साक्षात् स्वरुपकी मूर्तिसें तो, इछित पदार्थका-बोधके शिवाय, दूसरी वस्तुकी भ्रांति होनेका भी संभव नहीं है । इस वास्ते विचार कर ? ॥ - ढूंढक-हे भाई मूर्तिपूजक, तेरा कहना सत्य हे कि-जिस वस्तुका-दो चार अक्षरके नाम मात्रको, उच्चारण करके-चंदना, नमस्कार, करते होवें, उनकी मूर्तिको, देखके-वंदना, नमस्कार, करना । सो भी-योग्य ही मालूम होता है । इसी वास्ते हमारे समुदायके लोक, ढूंढक गुरुओंकी-मूर्तियां, खिचवाते है। परंतु उस मूर्तियांपर-पाणी, गेरके, और-फल फूल चढायके, पापके बंधनमें पडना, उसका-विचार तो, तुम लोकोंको ही-करनेका है, हम तो ऐसी-बातको, नहीं चाहते है। मूर्तिपूजक-हे भाई ढूंढक, इहांपर थोडीसी निघा करके देख कि-हम-तीर्थकर, गणधरादि, महा पुरुषों के, भक्त है। और हमको-उनकेपर, परम विश्वास भी है। और जो कुछ उनोंने कहा है, सो हमारा-हित, और कल्याण के वास्ते ही-समनते है । और उनोंके-कहने मुजब ही, कार्य For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) ढूंढनीजीका - २स्थापना निक्षेप. करणेकी श्रद्धा, हमेसा रखते है । और उस कार्य में - विधि सहित प्रवृत्ति होनेसें, हमारा निस्तार होगा, यह भी निश्चय करके ही, मानते है । इसी वास्ते हम - मूर्त्तिद्वारा, तीर्थकरोंकी - भक्ति, करते " I - 1 सो- जिन मूर्तिका पूजन, जैन सिद्धांतों में जगे जर्गे पर, दिखाया हुवा है । अगर जो तूं तेरी स्वामिनी पार्वतीजीका लेख परसें भी विचार करेगा, तो भी तेरा हृदय नयनको वडा प्रकाश ही, दिख पडेगा । तेरी स्वामिनीजी को विपरीत विचारमें, कुछ समज नहीं पडी है | इसी वास्ते ही अगढं बगडं, लिखके दिखाया है । परंतु जो में- नेरेको फिर भी आगेको, सूचनाओ करके दि खाता हुँ, उस तरफ ख्याल पूर्वक विचार करेगा, तब तो वीतराग देवका - सत्यरूप मार्ग, अपने आप - तेरेको हाथ लग जायगा । अगर जो अज्ञताको, धारण करके, हठ पकडके - जायगा, तब तो साक्षात् - सर्व तीर्थकरो भी, तुमको न समजा सकेंगे । तो पिछे मेरे जैसेंकी - क्या ताकात है, जो समजा सकेंगे ? तो भी भव्य पु रूपों के हित के लिये, ते सूचनाओं लिखके दिखाता हुं, सो अ aruna - लाभदायक होंगी । वश्यमेव प्रथम देख - सत्यार्थ पृष्ट. ८ से - ढूंढनीजीने, लिखा है कि-काष्ट, पाषाणादिकी - इंद्रकी मूर्ति, बनाके बंदे, पूजे, धन, पुत्रादिक, मागे । वह - जड, कुछ जाने नहीं, ताते शून्यहै । अर्थात् कार्य साधक, नहीं । इत्यादि ॥ पुनः पृष्ठ. १५ सें - ऋषभदेव भगवानकी, मूर्त्तिकोभी जडपदार्थ कहकर के पृष्ट. १६ में निर्थक, ठहराई ॥ परंतु पृष्ट. ७३ में - पूर्ण भद्रादिक यक्षोंके, पथ्थरकी- मूर्तिपूजा से, हमारेभोले ढूंढकभाईओं को धन, पुत्रादिककी - पातिसें सार्थकी For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीका-२स्थापना निक्षेप. ( ५३ ) सिद्धिकरनेकी दिखाई । तो अब विचार करोकि-पथ्थरसे बनीहुई, जडस्वरूपकी मूर्ति-सार्थक हुईके, निरर्थक ?॥ . ___हमकोतो-जडस्वभावकी, मूर्तिही-बाधकपणे, और-साधकपणे भी, ढूंढनीजीका लेखसेंही, जगें जगें पर-दिख रहीहै । न जाने दूं• ढनीजीको, तीर्थकर भगवानकीही--परमशांत मूर्ति, आत्माकी शांतिका साधकपणे, क्यों नहीं दिखलाईदेती है ? जो जडपणा दिखलाके निरर्थक ठहराती है ? देखो प्रथम, मूर्तिसें-बाधकपणा, सत्यार्थ पृष्ट. ३४ में ढूंढनी. जीने, लिखाहै कि-सीकी मूर्तियां-देखके, सबीकामियोंका-काम, जागता होगा । बिचार करोकि-यह जडस्वरूपकी-मूर्तियां, कामी पुरुषोंका-मनको विकार उत्पन्नकरनेसें बाधकरूप, हुई या नहीं है। फिर पृष्ट. ५८ में देखो, ढूंढनीजीने लिखाहौक गौकी मूर्ति, तोडे तो-घातक दोष, लागे ॥ ___अब यहभी-जड स्वरूपकी, मूर्ति-तोडने वालेका आत्माको बाधकरूपकी, हुई या नहीं हुई ?।। ___तर्क-अजीइसीही पृष्ट में, हमारी स्वामिनीजीने, लिखा हैकिमूर्तिको, तोडने, फोडनेसें-दोषतो लग जाय । परंतु पूनने में-लाभ, न होय । जैसें मिटीकी गौको-पूजनेसें, दुध-न मिले ॥ इसीही वा-स्ते जडरूंप इंद्रकी मूर्तिपूजनसें-धन, पुत्रादिक, मंगने वालेको, नही मिलनेका-दिखलाकेही, आये है ।। उत्तर-है भाई ढूंढक-तूं, और तेरी स्वामिनीनीभी, सर्वजगेपर-एकही आँखसें, देखनेका-सिखे. हो । परंतु यह हमार।-अंजनकी, सहयतासें, दूसरी-आंखसेभी, थोडासा ख्याल करके-तुम लोक देखोगे, तोभी-ठीक ही ठीक, मा. लूग होजायगा। क्योंकि तेरी स्वामिनीजीने जड स्वरूपकी मर्तिसें, For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) ढूंढनीनीका-रस्थापना निशेष. केवल-दोषही, होनेका, मान्या है वैसा नहीं है । किंतु-लाभकी प्राप्तिमी, मानी हुई है । इस वास्ते ही हमतुमको दूसरी आंखसें, देखनेकी भलामण, करते है ॥ सो ख्याल पूर्वक, देखना ।। . प्रथम देखो, सत्यार्थ पृष्ट. ७३ में-पूर्ण भद्रादिक यक्षोंकी, जह स्वरूपकी-मूर्तियांसें, धन, पुत्रादिकका-लाभको, करवाती हुई हूं. . ढनीजी साधकपणाकी सिद्धि करके, दिखलाती है या नहीं ?॥ . ____ और सत्यार्थ पृष्ट. ९० सें-द्रौपदीजीकी, जिन प्रतिमाका-पू जनमें, अनेक प्रकारकी जूठी कुतर्कों करके, पृष्ट. ९८ में-स्त्रमति • कल्पनासें वरका लाभके वास्ते, कामदेवकी-मत्तिपूजाको, दिखः लाती हुई, यह ढूंढनीनी-जड स्वरूपकी, मूर्तिको, वर प्राप्तिका साधकरूप, ठहराती है या नहीं ? फिर देखो पृष्ट. ४० में-वन करण राजाने, अंगूठीमें-वामुपूज्य, तीर्थकरकी मूर्ति को, रखीथी । उस मूर्ति लाभ, यह साधकपणा, या हानि, यह बोधकपणा, दोनोंमेंसें-एक तो, ढूंढनी को भी-पान्य ही, करना पडेगा । जैनोंने तो-लाभ के वास्ते ही, मानी फिर देखो पृष्ट. ३९ में-मल्लदिन कुमारने, मल्लि-कुमारीकीमूर्तिको, देखके-लज्जा पाई, अदब उठाया, चित्रकारके परक्रोध, किया । इहां परभी-जड स्वरूपकी मूर्ति में, लाभ, और हानि, दोनों भी-ढूंडनीजीको भी, माननी ही पडेगी। फिर देखो पृष्ट. ४२ में-मित्रकी मूर्तिसें, प्रेम, जागता है । लडपडे तो, उसी ही मूर्तिसें-क्रोध, जागता है ।। __इहां परभी, जड स्वरूपकी मूर्ति--लाभ, या हानि, दूंढनीजीको भी-पाननी ही, पडेगी॥ For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीका-२स्थापना निक्षेप.. (५५) अब पृष्ट. १९४ सें-कयबलि कम्मा, के पाठसें, जिन प्रतियाका पूजन-दररोज, करनेका, वीर भगवानके परम श्रावकोंकाहित, और-कल्याण, होनेके वास्ते, जैन सिद्धांतकारोंने, जगें जगेंपर-लिखा है। उस विषयमें, पृष्ट. १२६ में-टीकाकार, टब्बाकार, सर्व जैनाचार्योंको-निंदती हुई, ढूंढनीजी-ते परम श्रावकोंकी-पाससे, मिथ्यात्वी-पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी-जड स्वरूपकी, मूर्तिका पूजन, दररोज, न जाने-किस लाभके वास्ते, कराती है इसबातका खुलासा ढूंढनीने लिखा हुवा नहीं है, सो ढूंढनीजीकोही, पुछ लेना॥ ऐसें जगें जगें पर लाभकी प्राप्तिसे-साधकपणा, और हा. निसें-बाधकपणा, गपड सपड लिखके, दिखाती है । तोभी सत्यार्थ पृष्ट. ९ में-दोनों निक्षेप, अवस्तु, कल्पना रूप-लिखती है। तो क्या यहसब, अपना हाथसे-लिखी हुई, अनेक प्रकारकी मूर्तियां, अनेक प्रकार का-कार्यमें, साधक बाधक स्वरूपकी ढूंढनीजीको दिखलाई दिई नहीं, जो कल्पना स्वरूपकी ही, ठहराती है ? फिर-सत्यार्थ पृष्ट. ६१ सें-देखो, ढूंढनीजीने यह लिखा है कि-हमने भी-बडे बडे पंडित, जो विशेषकर भक्ति अंगको, मुख्य रस्वते है, उन्हों से सुना है कि-यावत्काल-ज्ञान नहीं, तावत्काल मूर्ति पूजन है । और-कई जगह, लिखा भी देखनेमें, आया हैं। ____अब इस लेखमें भी-ख्याल करोकि, तीर्थंकरोंकी भक्ति करनेकी, इछ। वाले-श्रावकोंको, जिन मूतिकी-पूजा, जैन के सिद्धांतोसें सिद्धरूप, है, या नहीं ? । जब तीर्थंकरोंके मूर्तिकी पूजा, .. जैनके सिद्धांतोंसें, ढूंढनीजीके लेखसे ही-सिद्धरूप है, तो पिछे सत्यार्थ पृष्ट. १२४ से कयबलिकम्मा, के पाठमें-जिन मूर्तिका अर्थको-छोड करके, पृष्ट. १२६ में दोकाकार, और दब्बाकार सर्व For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) ढूंढनीजांका-२स्थापना निक्षेप. महा पुरुषोंको-निदती हुई, यह ढूंढनी, वीर भगवानके भक्त श्रा. वकोका, नित्य ( अर्थात् दर रोजके ) पूजनमें पितर, दादेयां भूतादिक की प्रतिमा, किस हेतु से पूजाती है ? | क्या वीरभगवान के ते परम श्रावको-मिथ्यात्वी पितर, दादेयां, के भक्तथे कि-तीर्थकर देवके भक्तथे ? उसका विचार करोंगे तब पानी गेरके, और-फल, फूल, चढायके, तीर्थकर देवकी-भक्ति करनेके वास्ते तीर्थकरोंकी मूर्तिपूजा करनेकी अपने आप सिद्ध हो जायगी । जूठी कुतर्को करनसे-क्या सिद्ध होने वाला है ? ॥ . फिर भी ख्याल करोकि-द्रौपदीजी, परम श्राविकाने-जिन प्रतिमाका पूजन, फल, फूल, धूप, दीप, आदि सर्व प्रकारसें-बडा "विस्तार वाला, किया है । इसी ही वास्तें-शाश्वती जिन प्रतिमा. ओंका, सतर भेदकी-पूजाका विस्तारसें, पूजन करनेवाला, जो समकिन दृष्टि-सूर्याभ देवता है, उनकी-उपमा देके, छेवटमें द्रौपदी के, पाठमें-नमुथ्थुणं, अरिहंताणं, भगवंताणं, आदि पाठको भी-पढनेका, दिखाया है । तो भी-विपरीतार्थको ढूंढने वाली, ढूंढजीने अनेक प्रकारकी जूठी कुतर्कों करके, छे वटमें-कामदेवकी, मूर्तिपूजाका संभव, दिखाया है ? ॥ . परंतु हे भाई ढूंढक, हम तेरेकोही-सलाह, पुछते है कि-वीर भगवानके, परम श्रावकोंका-नित्य कर्त्तव्यमें, (अर्थात् दररोज के कर्तव्यमें ) कयबलिकम्मा, के पाठार्थसें टीकाकार, और टब्बा. कार-सर्व महापुरुषोंने, जिनप्रतिमाका-पूजन, करनेका, दिखाया है। और ढूंढनजीने-इसीही कयबलिकम्मा, के पाठार्थसें पितर, दा. ___ १ ढूंढक जेठमलने समाकेतसारमें—पाणीकी कुर लियां, क. रनेका अर्थ किया है परस्परका ढंग तो देखो ॥ For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीका-२ स्थापना निक्षेप. (५७ ) दयां, भूतादिक की प्रतिमाका, पूजन-दररोजके लिये, ते परम श्रावकोंको करनेका-सिद्ध करके, दिखलाया है । इसलेख से-सिद्ध होता है कि, श्रावक नामधारी मात्रको भी-दररोजके लिये मूर्ति पूजा, जैन सिद्धांतोसें-सिद्ध रूप ही है । ढूंढनीजीके-कहने मुजब, चलेगा, तब तो-पितरादिक, मिथ्यात्वी देवोंकी-मूत्तिके पर, पाणी गेरके, और फल फूलादिक चढायके, दररोज-उनोंकी ही पूजा, तेरेको करनी पडेगी। __ अगर जो टीकाकारोंके-कहने मुजब, जिन मूर्तिकी-पूजा, करनेकी-मान लेवेगा, तब तीर्थकर भगवान्की-भक्तिका, लाभ-उ. ठावेगा । इस बातमें जो तेरा न्यायमें-आवें, सो ही बात ठीक है। हे ढूंढकभाई तूं इसमें, तर्क करेगा कि-धन, पुत्रादिककी-लालचके वास्ते, हम-संसार खातेमें, सब कुछ करते है, हमको क्या विचार करनेका है ? जब तो तेरी वडी ही-भूल, होती है । ___ क्यों कि वीरभगवान्के, परम श्रावकोंका-नित्य कर्त्तव्यके विषयमें ही, यह- कयबलि कम्मा, का पाठ, आता है । उसंका-अर्थ, ढूंढनीजीने-जिन मूर्तिके बदले में, मिथ्यात्वी देवजोपितरादिक है, उनकी मूर्तिपूजा, करनेकी-दिखलाई है। और-धन, पुत्रादिकके, वास्ते तो-पूर्णभद्र, मोगरपाणी, आदि यक्षोंकी-पथ्यरकी मूर्ति, तुमेरेको पूजनेके वास्ते-अलगरूपसें, दिखाई है । इस वास्ते इस बातका-जिकर, कयबलि कम्मा,के पाठमेंकभी भी, नहीं समजना । इस बातका ख्याल-हमारे लेखसें, और ढूंढनीजीके-लेखसें, अछी तरां में करलेना | हम वारंवार कहांतक लिखेंगे ?॥ For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) - ढूंढनीजीका-२स्थापना निक्षेप. . - ख्याल करनेका यह है कि जो तुम ढूंढको, सनातन मतका दावाकरनेकी-इछा, रखते हो, तब तो वीरभगवान्के ते उत्तम श्रावकोंकी, दररोजकी करनीके मुनव-मूर्तिपूजा, तुमेरे-गलेमें, अवश्य मेव पडेगी ?। ढूंढनीजीके-कहने मुजब श्रावक धर्ममें प्रवृत्ति करनेकी इच्छा रखोंगे तब तो, मिथ्यात्वी देव जो-पितरादिक है, उनकी-दररोज सेवा करनेमें, तत्पर होना पडेगा । अगर जो-टीका करोंके, कहने मुजब-अर्थ कबूल करके श्रावक धर्ममें प्रवृत्ति करोंगे, तब-तीर्थकर देवकी भक्तिका, लाभ दररोज मिलावोंगे । परंतु मूर्ति पूजाको अंगीकार किये बिना, तुम है सो, कोइ भी प्रकारके-ढंग, धडेमें, नगीने जावोंगे । यह बात तो-ढूंढनीजी के लेखसे भी, चोकसपणे से ही सिद्ध, हो चुकी है ।। ___और द्रौपदीजीकी-जिन प्रतिमाका पूजनमें, शास्वती-जिन प्रतिमाओंका विस्तारसें पूजन करने वाला, जो समकिती सूर्याभदेव है, उनकी-उपमा, दीई है । और द्रौपदीजीने मूर्तिके आगे नमुथ्थुणं, का पाठ भी-पहा हुवा है । ___और टीका कारोंने-जिनेश्वर देवकी, मूर्तिका ही-अर्थ, किया हुवा है । तो पिछे ढूंढनीजी-कामदेवकी, मूर्तिका-अर्थ, करके, उनके आगे-नमुथ्थुणं,का पाठ-किस प्रमाणसें, पढाती है ? । क्योंकि नमुथ्थुणं, के पाठमें तो, केवल वीतराग देवकी ही-स्तुति है, कुछ-कामदेवकी-स्तुति, नहीं है । जो ढूंढनीजीकी कुतर्क, मान्य हो जायगी ? । इस वास्ते-पाणी, गेरके, और-फल, फूल, चढायके भी, जो-श्रावक के विषयमें, मूर्तिपूजाका सिद्धातोंमे-पाठ, For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीका-२स्थापना निक्षेप. (५९) आता है सोतो श्रावकोंका-भवोभवमें, हित, और कल्याण के लिये जिनेश्वर देवकी-भक्ति, करनेके वास्ते ही-लिखा गया है । नहीं के मिथ्यात्वी देव जो-पितर, दादेयां, भूतादिक है, उनोंकी-निरंतर भक्तिके, वास्ते-आता है । किस वास्ते भव्य जीवोंको-जिन धर्मसें, भ्रष्ट, करते हो ? अपना जो-कल्याण, होने वाला है, सोतो-चीतराग देवकी-सेवा, भक्तिसे हो, होने वाला है ?। कुछ मिथ्यावी पितरादिककी-सेवा, भक्तिसें, नहीं होने वाला है ॥ फिरदेखो-सत्यार्थ पृष्ट. ७७ में-उवाई सूत्रका पाठ-बहवे अरिहंतचेइय, इसपाठका, अर्थ-बहुत जिनमंदिर, ऐसा ढूंढनीजीनेभी-मान्यही किया है, मात्र इसी-अर्थका, प्रकाशक-आयार वंतचेइय, के पाठसे-दूसरा पाठ आता है, उनको प्रक्षेपरूप ठहरायके, लोप करेनका प्रयल, कियाहै ! परंतु इहांपर दोनोंप्रकारका पाठमें-चेइय, शब्दसें-जिनमंदिरोंका, अर्थकीसिद्धि, दुपटपणेसें होरही हैं ! देखो इसका विचार-नेत्रांजनके प्रथम भागका पृष्ट १०३ में अब इसमें-फिरभी, ख्यालकरोंकि-इस उवाई सूत्रके-दोनों प्रकारके, पाठमें-चेइय, शब्दसें, जिनमंदिरोंकी-बहुलता, और श्रावकों कीभी-बहुलता, दिखाके ही, चंपानगरीकी-शोभामें, अधिकता दिखाई है । तोभी विपरीतार्थको ढूंढनेवाली-ढूंढनीजीने, सत्यार्थ पृष्ट, ७८-७९ में इसी सूत्रसें, दिखाया हुवा-अंबड परित्रानक, परम श्रावकका-"अरिहंत चेइय" के पाठमें, अरिहंतकी-पतिमाका, प्रगट अर्थको छोडकरके, उनका अर्थ-सम्यकत्रत, वाअनुव्रतादिक धर्मरूप, वे संबधका-करके, दिखाया है । इसमें विचार करने का यह है कि-ते चंपानगरीके जिनमंदिरों For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) ढूंढनीजीका - २स्थापना निक्षेप. कोतो, ते परम श्रावकोने ही बनाये होंगे । और उसमें — स्थापित कीई हुई, जिन मूर्त्तिकी पूजा - फल, फूलादिकसें, ते परम श्रावकोने ही — किई होंगी । तोपिछे ढूंढनीजीको वीतराग देवसे, क्योंवैरभाव, हो गया । जो जर्गे जगें विपरीत- अर्थ, करके आप वीतराग देवकी, भक्ति-भ्रष्ट होती हुई, थावकों को भी तीर्थक की भक्तिका लाभ -भ्रष्ट करनेका, उद्यम कर रही है ? मेरा इसलेखपर, भोले श्रावकोंको शंका उत्पन्न होगी कि - ढूंढatter लेखमें, एक दो जगें पर ही- फरक, मालूम होता है। तोपि - छे जगें जर्गे पर - पिवरीत है, ऐसा किस हेतुसे लिखदिखाया होगा । इसबात की शंका दूर होनेके लिये, कितनीक सूचनाओ, क रके दिखाता हूं, सो इस नेत्रांजनका, प्रथमके भागतें-विचार, करलेना ! हम विशेष विचार न लिखेंगे || - फिरभी देखो सत्यार्थ पृष्ठ. ८७ ८८ में आनंद श्रावक के अधिकारमें ही अरिहंत वेइय, के पाठसें जिनमूर्त्तिका अर्थको लोप करनेका प्रयत्न किया है। देखो इसकी समीक्षा- नेत्रांजनका, पृष्ट. १०८ । १०९ में ।। " पुनः देखो सत्यार्थ पृष्ट १०३।१०६ तक जंघाचाराणादि मुनिओ, नंदीश्वरादिक द्वीपोंमें, और इस भरत क्षेत्रमें भी शाश्वती, तथा अशास्वती, जिन प्रतिओंको - वंदना, नमस्कार, करनेको - फिरते है, उहां - चेइयाई वंदइ, नमस्सइ, के पाठसें, जिन मूर्त्तिको वंदना, नमस्कार करने का सिद्धरूप, अर्थको छोड करके उहां नंदीश्वर द्वीपादिक ज्ञानका ढेरकी, स्तुति, करनेका - अर्थ, करके दिखलाती है । देखो इनकी समीक्षा- नेत्रांजनके प्रथम भागका पृष्ट. ११७ सें १२१ तक, क्योंकि -मुनियोंको भी, जिन मूर्त्तिको - For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूँढनीजीका -२ स्थापनानिक्षेप. ( ११ ) वंदना, नमस्कार, करनेकी जरुर ही है, मात्र द्रव्य पूजा करणेकी, अज्ञा नहीं है ॥ - फिर भी देखो सत्यार्थ पृष्ट. १०९ से चमरेंद्र के पाठ - त्रण शरणमेंसें दूसरा - शरण अरिहंत चेइयाणि, के पाठसें- अरिहंतकी मूर्त्तिका, शरणा-लेनेका, दिखाया है। उसमें अरिहंतकी - मूर्तिका, अर्थको छोडने के लिये, अरिहंत पद, का नवीन प्रकारसें अर्थ करके दिखाती है । देखो इसकी समीक्षा- नेत्रांजनके प्रथम भागका - पृष्ट. १२१ से १२५ तक ।। , - अब इसमें विशेष — ख्याल करनेका, यह है कि अरिहंत चेइय, का पाठ - जिस जिस जगेपर सिद्धांतमें आया है, उस उस जगेपर आज तक के — टीकाकार, टब्बाकार, सर्व महा पुरुषोंने अरिहंतकी प्रतिमा (मूर्ति) का ही अर्थ, प्रगटपणे - लिखा हुवा है, तो भी ढूंढनीजाने अपनी ही पंडितानीपणा प्रगट करके उवाइ सूत्र के पाठ - बहवे अरिहंत चेइय, है उस पाठके विषय में, जिन मंदिरों का - अर्थ, करके भी, प्रक्षेपरूप, ठहरानेका जूठा, मयन किया || और -- अंबडजीके, अधिकारमें इसीही - अरिहंत चेइय का अर्थ, सम्यस्त्रत, वा, अनुव्रतादिक धर्म, का करके दिखाया ॥ और - आनंद श्रावकके, अधिकारमें इसीही - अरिहंत चेइय, के पाठको - लोप, करनेका - प्रयत्न किया || और जंघाचारण मुनियो के विषय में इसी ही चेइय, के पाठका - अर्थ में, ज्ञानका ढेरको, बतलाया ॥ For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) ढूंढनीजीका-२स्थापना निक्षेप. ___ और-चमरेंद्र के, विषयमें इसही-अरिहंत चेइय, का अर्थ- अरिहंत पद, करके दिखलाया है। हमको विचार यही आता है कि-वीतराग देवकी, मूर्तियांहजारो वर्षांसे, जग जाहिरपणे-दिख रहीयां है, और जैन सिद्धांतोंमें-जगे जगे पर, उनकी सिद्धिका, पाठ भी-लिखा गया है, तो भी-विशेष धर्मको, ढूंढनेवाले-हमारे ढूंढक भाईओ, अपना ही तरण तारण तीर्थंकरोंकी, मूर्तियां के वैरी, बनके, सनातन धर्मका-शिखर पर, वैठनेको जाते है। परंतु हम उनोंको-तीर्थकरोंके, भक्त मात्र ही-किस प्रकारसें, गिनेंगे ? ॥ ॥ तर्क अनी, सत्यार्थ पृष्ट. ११८ में हमारी ढूंढनीजीने, मूर्तिपूजनमें-षट् काया रंभका, दोष,दिखाके-पृष्ट. १२०में-लिखा है कि-दूसरा बडा दोष-मिथ्यात्वका, है, उसमें हेतु यह दिखाया है कि-जडको, चेतन मानके, मस्तक-जुकाना, मिथ्या है ॥ इस लेखसें हमारी ढूंढनीजीने, यह सिद्ध करके-दिखलाया है, कि-श्रावकों को कोई भी प्रकारकी मूर्तिपूजा करनी सो बडामिथ्यात्व है, और षट् कायारंभका-कारण, होनेसें, हम विशेष धर्मकी ढूंढ करनेवाले-ढूंढक धर्मी श्रावक है सो, कोई भी प्रकारकी मूर्तिकी पूजा करें तो-संसारमें, डुब जावें, क्यों कि-मिथ्यात्व है सो संसारमें डुबाता है इस वास्ते हम ढूंढको जिन मूर्तिकी-पूजा भी, नहीं करते है ।। __इसमें हमारा-विचार, यह है कि-चीतरागी मूर्तिकी-पूजा करनी, सोतो तीर्थकरोंकी-भक्तिके वास्ते है । और इस प्रकारसें-भक्ति करनेका, गणधरादिक महा पुरुषोंने-जगे जगेंपर लिखके भी दिखाया है। For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीका-२ स्थापना निक्षेप. (६१) परंतु-सत्यार्थ पृष्ट. ७३ में-खास मिथ्यात्वी देव कि,जोपूर्णभद्र यक्ष, मोगरपाणी यक्ष, ऊंबर यक्षादिकोंकी-पथ्थरसे बनी हुई, जडरूप-मूर्तियांके आगे, हमारे ढूंढक श्रावक भाईयांके पाससे मस्तकको, जुकावती हुई, और उस जडरूप मूर्तियांकी षट् का. याका आरंभसें-पूजाको भी, करावती हुई, और संसारकी वृद्धिका हेतु, जो-धन, पुत्रादिक है, उनको भी-दिवावती हुई, यह ढूंढनीजी हमारे भोले ढूंढक श्रावक भाईयांको, न जाने किस खडडेमें-गेरेगी ? हमको तो उस बातका ही-बडा विचार, हो रहा है ।। और सत्यार्थ पृष्ट. १२४ सें-कयबलिकम्माका पाठमें-अनेक प्रकारका, विपरीत विचारको-करती हुई, और पृष्ट. १२६ में टीकाकार,टब्बाकारोंने-किया हुवा, जिनप्रतिमा पूजनका-अर्थको, निंदती हुई, और ते वीरभगवान के परमश्रावकोका-नित्यकर्त्तव्यरूप जिनप्रतिमाका पूजनको-छुड्वाती हुई, छेवटये मिथ्यात्वी-पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी-जडरूप, पथ्थरकी-प्रतिमाका, दररोज पूजनको-करावती हुई, यह ढूंढनीजी, ते परमश्रावकोंको, नजाने किसगतिम-डालनेका, विचार-करेगी ? अथवा ढूंढनीही आप-किसगतिमें, जावेगी ? उसबातकाभी-हमको, बडा-विचारही, हो रहा है । .... क्योंकि जिनप्रतिमाका पूजनकरनेवाले-श्रावकोंको, ओर उ. पदेश करनेवाले.-गणधरादिक, सर्वमहापुरुषोंकोभी, ढूंढनीजीने-सत्यार्थ पृष्ट. १४७ में, और १४९ में-अनंत संसारीही लिखमारे है । देखो इसकी समीक्षा-नेत्रांजनके, प्रथमभागका--पृष्ट. १५७ से--१६७ तक ॥ परंतु जैनसिद्धांतोंमे तो भक्तिसेंजिन प्रतिमा, पू. जनका-फल, हित, सुख, और छेवटमें-मोक्षकी प्राप्ति होने तकका, श्रीरायपसेनी सूत्रमें, गणधर महाराजाओने-हियाए सुहाए नि For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) ढूंढनीजीका -२ स्थापना निक्षेप, स्सेसाए अनुगामित्ताए भविस्सइ । के पाठ से प्रगटपणे, दिखाया हुवा है || " और द्रौपदीजीने भी इसी ही, फलकी- पाप्ति के वास्ते- जिन प्रतिमाको पूजी है । इस लिये ही सूर्याभ देवकी, उनमा दीई है ॥ - " परंतु - वीर भगवानके, परम श्रावकोंको- दररोजकी सेवामें पितरादिकों की मूर्तिपूजा करनेका पाठ, किसी भी जैनाचार्यने-लिखके, दिखाया हुवा नहीं है । तैसेही श्वेतांबर, दिगंबर, संप्रदाय के लाखो श्रावको मेंसें, किसी भी श्रावककी— प्रवृत्ति होती हुई, देखने में नहीं आती है। तो पिछे यह ढूंढनीजी ते परम श्रावकों की पाससें – पितरादिक, मिथ्यात्वी देवोंकी - मूर्तियां, दररोज - किस हेतुसें, पूजाती है ? । क्योंकि जो परम श्रावको होते है सो, तो, जिनेश्वर देवकी - मूर्त्तिके बिना, किसीको - नमस्कार मात्र भी, करनेकी - इच्छा, नहीं रखते है । देखो सत्यार्थ पृष्ट. ४५ में - प्रमाण, ढूंढनीजीने ही लिखा है कि--वज्रकरणने, अंगूठीमें-मूर्ति, कराई ॥ 1 - - इस लेखसें – ख्याल करोंकि, परम सम्यक्क धर्मका - पालन, करता हुवा वज्रकरण राजा, अपना स्वामी राजाको भी नमस्कार करनेकी वखतें, अंगूठी में रखी हुई वारमा तीर्थंकर श्री वासुपूज्य स्वामीको मूर्त्तिका ही — दर्शन करता रहा । परंतु ते सिंहोदर नामका स्वामी राजाको भी, नमस्कार - नहीं किया । तो पिछे - वीर भगवान के ही ते परम श्रावको - पितरादिक, मिथ्यात्वी देवोंकी - मूर्तिपूजा, दररोज – कैसें करेंगे ! ॥ 1 " - बीतरागी मूर्ति के साथ ढूंढनीजीकी घिठाई तो देखा कि एक For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीका - २स्थापना निक्षेप. (६५) I जगेंपर तो — ते परम श्रावकोंको, मिथ्यात्वी पितरादिकों की-- मूर्त्तिको, दररोज, पूजाती है । और सत्यार्थ पुष्ट. ७३ में - धन, पुत्रादिककी लालच देके, स्वार्थकी सिद्धि होनेका दिखाती हुई, यक्षादिकों की भीमूर्तिको पूजाती है। और सत्यार्थ पृष्ठ. ६० में लिखती है कि-मूर्त्तिको घरके, उसमें श्रुति, लगानी नहीं चाहिये । कैसी २ अपूर्वचातुरी, करके, दिखलाती है। उसका विचार, पाठकवर्ग- आप ही, करलेवेंगे | हम वारंवार क्या लिखके दिखायेंगे ? .. फिर भी देखो — शत्यार्थ पृष्ठ. ३४ ओली ३ सें, ढूंढनीजीनेलिखा है कि- स्त्रीकी मूर्तियांको, देखके तो — सबी कामियांका, काम - जागता, होगा । - और पृष्ट. ४२ ओ. १० से. लिखा है कि- हां हां हम भी मानते है कि मित्रकी, मूर्तिको — देखके, प्रेम, जागता है । यदि उसी मित्रसे - लड पडे तो, उसी - मूर्त्तिको, देखके—क्रोध, जागता है । इस लेख से - हमको विचार, यह आता है कि - मित्रता रखें जब तक तो - मित्रकी, मूत्ति-प्रेम, और-लड पडे तो, उसी ही, मूर्त्तिसें द्वेष, तो क्या - हमारे ढूंढक भाइयो, महा मिथ्यात्वके साथ - गाढ मीति करके, ते परम श्रावकों के दररोजके कर्त्तव्यमें, मिध्यात्वी- पितर, दादेयां, भूतादिकका मूर्त्ति पूजन । और तैसें ही धन पुत्रादिककी लालच दिखाके भी, मिथ्यात्वी काम देवादिक, और पूर्णभद्र यक्षादिक-देवोंकी, मूर्त्तिका - पूजन करानेको उद्यत हुये होंगे ? 1 ऐसा अनुमान, हर किसीके - हृदयमें भी, आये बिना न रहेगा, क्यौं कि -समतिकी प्राप्तिका - हेतु भूत, तीर्थंकरोंकी - भक्ति सें, दूर होके, और - गुप्तपणे, तीर्थंकरों के साथ, हृदयमें द्वेषको, धारण For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) ढूंढनीजीका-२स्थापना निक्षेप. करके । और-सत्य स्वरूपवाले, तीर्थंकरोंकी, मूर्तिपूजाके-पाठोंका, तदन-विपरीतार्थ, करते हुये । ___और-तीर्थंकरोंके, भक्तोंको-पाषाणोपासक, पहाड पून कोका, विशेषण-देके, उपहास्यको करते हुये । और तीर्थंकरोंके, भक्तोंको ही-मिथ्यात्वी, अनंत-संसारी, ठहरानेका-प्रयत्न करते हुये । ____ और छेक्टमें उनके, उपदेशकोंको भी-अनंत संसारी ही, ठहरानेका-प्रयत्न, किया है। - तो अब ख्याल करोकि-पितरादिक, जो मिथ्यात्वी-देवताओ है, उनोंकी-पथ्थरसें, बनी हुई-मूर्तियां है, उनकी-दररोज, पूजा, करनेकी-सिद्धि, करते हुये-हमारे ढूंढकभाईयो, तीर्थंकर भगवानसें. गुप्तपणे, हृदयमें-द्वेषभावको, धारण करनेवाले--सिद्ध, होते है या नहीं ? इस विषयमें---योग्याऽयोग्यका, विचार--वाचकवर्ग ही, कर लेवेंगे। प्रथम हमको-जिस ढूंढकाईने, ऐसा-कहाथा, कि-मूर्तियां पर, पाणी-गेरके, और-फल, फूल, चढायके-पाप बंधनमें, पडनाऐसी बात, हम-नहीं, चाहते है। उनको हम-सूचना, करते है कि-हे ढूंढकभाई, जो तूं तेरी स्वामिनी-पार्वतीजीके, लेख सें-धर्म मार्गमें, प्रवृत्ति करनेकाविचार करेगा, तब तो-मिथ्यात्त्री जो-पितरादिक-देवो है, उ. नोंकी मूर्तिपूजा-दररोज, वीरभगवानके-श्रावकोंकी तरा, तेरेको भी करनी पड़ेगी। क्यों कि ढूंढनीजीने-कयबलि कम्मा, के पाठसे, ते प For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीका - २स्थापना निक्षेप. (६७) रमं श्रावकों के नित्य कर्त्तव्यमें तीर्थंकरोंकी - भक्ति करनेका, छुड वायके ते परम श्रावकों की पाससें भी, दररोज पितरादिकों की ही मूर्ति, पूजाई है । अगर जो तूं जैन सिद्धांतकारोंके, कहने मुजब -शुद्ध जैन ध र्मकी प्राप्तिकी इछासे, चलने का इरादा, करेगा, तबतो सिद्धांतका रोने-दिखाई हुई, तीर्थंकरोंकी - भक्तिपूर्वक मूर्तिपूजासँ, तूं तेरा भवोभवका - हितकी ही, प्राप्ति कर लेवेगा । क्यों कि जैन ग्रंथकारोंने तो ते परम श्रावकोंकी, दररोज की -- पूजायें, तीर्थकरों की ही पूर्तिपूजा, कही हुई है। चाहें तो तूं तेरी स्वामिनीजीका, सत्यार्थ पृष्ट. १२६ में से-अपने आप विचार करले, तेरेको यथा योग्य - मालूम हो जायगा ॥ फिर भी - सत्यार्थ पृष्ट ३४ का लेखसें, रूपाल करोकि, काम विकारी स्त्रीकी, मूर्तिको देखनेसें, कामी पुरुषोंको काम, जागे । एसा ढूंढनीजी ने लिखा ॥ तो अब जो - मिथ्यात्वी लोको होंगे, उन्होको ही मिध्यात्वी पितर, दादेयां, यक्षादिक - देवोंको, मूर्त्तियांको देखनेसे, प्रेम उत्पन्न होनेका । और उनकी मूर्तियांको-पूजन करनेकी - सिद्धि, करने - का - नियम, स्वभाविकपणे ही लागु, पडेगा || 9 और — जिस भव्यात्मको, महा मिथ्यात्वका-उपशम, हुवा होगा, और समकितकी प्राप्ति - कर लेनेकी, अभिरुची उत्पन्न हुई होगी, एसा निर्मल शांत चित्त वृत्ति वाला - भव्यात्माकोतो, जगतका उद्धार करने वाले - तीर्थकरोंकी, परम शांत मूर्त्तिको, देखतेकी साथ ही हृदय में से अमृतरसका जरणा झरेगा ? इसमें कोई भी प्रकार शंकाका स्थान नहीं है || अब आगे पाठक गणको, अधिक वाचनका कंटाळा, हठाता For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीका-३ द्रव्य मिक्षेप.. हुवा, मात्र-दो शब्दोंसे ही, उन्होका ध्यानको खेचताहुं कि-जिस महा पुरुषोंका, नाम मात्रका उच्चारण, करनेसे ही-वंदन, नमन, करके-हमारा पापका प्रलय, करनेको-चाहते होंगे, उनोंकी-विशेष बोधदायक अलौकिक, भव्य मूर्तियांका-दर्शन, नमन, पूजनसें भी, हमारा-कठोर हृदयको, दावत-किये बिना, .. ___ और आत्माको सभ्यत धर्ममें स्थापित किये बिना, हमलोक विशेष धर्मकी प्राप्ति, तीन कालमें भी-न मिला सकेंगे । यह हमारा कथन चारो तरफकी दृष्टिसें, हमारा सामान्य मात्रका भी लेखसें देखने वाले सज्जन पुरुषोंको, योग्य ही-मालूम हो जायगा । ___और ते सज्जन पुरुषो, हमारा-स्वछ हृदयका लेखको, सफल करते हुये, तीर्थंकरोंकी-भाक्तभावका, लाभको-अवश्यमेव, उठायेंगे ? । और हमारा अनुमोदनका, लाभकी आशाको, सफल करेंगे । इत्यलं विस्तरेण ॥ ॥ इति ढूंढक भक्त आश्रित संवाद पूर्वक त्रणे पार्वतीका दूसरा स्थापना निक्षेपका स्वरूप ॥ अब ढूंढक भक्त आश्रित-त्रणें पार्वतीजीका, तिसरा-द्रव्य निक्षेपका, स्वरूप लिखते है ।। मूर्तिपूजक-हे भाइ ढूंढक, देखकि, शिव पार्वतीजीका-द्रव्य निक्षेप, यहथा कि-भाव निक्षेपका विषयभूत योवनत्वकी, पूर्व अवस्थामें, अथवा-अपर अवस्थामें, उनके-गुणोंका वर्णन, पंडितोंको संतुष्ट द्रव्यका-अर्पण करके भी, सो शिवका भक्त-श्रवण करता हुवा, और अपना-उपादेय वस्तुके संबंधपणे, मानता हुवा, अपना लाभ, या-हानिको भी, मानता रहा था। For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूँढनीजीका - द्रव्य निक्षेप, ( ६९ ) और वेश्या पार्वतीका द्रव्य निक्षेप, यह था कि कामविकारको जगाने वाली, भाव निक्षेपका विषयभूत योवनत्वकी - पूर्व अबस्थारूप बालिकामें था । अथवा अपर अवस्था मृतक रूपकी अवस्थामेंथा । उनके गुणोंका, वर्णन - श्रवण करता हुवा, और अपना-उपा देय वस्तुके संबंधपणे, मानता हुवा, सो कामी पुरुष, अपना लाभ या - हानिको भी, मानता रहाथा। - और ढूंढनी पार्वतीजीका द्रव्य निक्षेप, यह था कि -दीक्षा लेनेका भाव करके आई हुई, अपनी गुरुनीजीके पास पठन पाठनको करतीथी ते पूर्वकी अवस्थामें । अथवा जो ढूंढनी पार्वतीजी उपदेशादिक करती थी, और ग्रंथादिकोंकी रचना भी करतीथी, उनकी समाप्ति हुई सुनते है, ऐसी अपर अवस्थामें - द्रव्य निक्षेप, किया गया था ॥ G परंतु ते शिवभक्तने, और ते कामी पुरुषने तो, ढूंढनी पार्वतीजीका - इस द्रव्य निक्षेपका विषयको ज्ञेय वस्तुके संबंधपणे मानके, तो अपना लाभ, और नतो अपनी- हानीको, कुछ मानाथा ।। परंतु हे भाई ढूंढक, में तेरेको, पूछता हूं कि - १ शिव पार्वतीजी । २ वेश्या पार्वती । और ३ ढूंढनी पार्वतीजी । यह तीनों पार्वतीका - द्रव्य निक्षेपकी, वार्त्ताको श्रवण करके, किस पार्वdiet द्रव्य निक्षेपका विषय से - तूं अपना लाभ, और अपनी हानिको, मानेगा ॥ क्योंकि वेश्यापार्वतीका द्रव्यनिक्षेपसें - लाभ, कामी पुरुषको ही होनेवालाथा | और हानिभी, उसी कोही हुई है । 1 और शिवपार्वतीजीका, द्रव्यनिक्षेपसें लाभ, शिवभक्तकोही प्राप्त होनेवालाथा | और हानिभी, उसीकोही हुई है | For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) ढूंढनीजीका - द्रव्य निक्षेप. परंतु हे भाई ढूंढक, ढूंढनी पावतीजीका, द्रव्यनिक्षेपसें- लाभ, या हानि, क्या तेरंको मान्य नहीं करना पडेगा ? | तो पिछे अपना उपादेय, वस्तु संबंधीका द्रव्यनिक्षेपभी निरर्थक पणे, कैसें मान्या जायगा ? जैसोंके भविष्य कालमे अमृत फ. लको देने वाला, कल्पवृक्षका - अंकुराको, पाणीसें सिचन करके उन की रक्षा कौन पुरुष, न करेगा ? | अथवा अमृतफलको देता हुवा, कल्पवृक्षका नारा होनेसें, किसका चित्तमें- दुःख, उत्पन्न न होगा ? | तेसही - तीर्थंकर भगवानकी, बालकरूप पूर्व अवस्थाकोभी, ह मारा कल्याणकी करनेवाली जानके, उनको भक्ति करने को हम क्यों न चाहेंगे ? | - और हमारा - सर्वस्वका नाश, मानते हुये, तीर्थकरों का मृतक शरीररूप अपर अवस्थाकीभी भक्ति करनेको, क्यों न चाहेंगे ? और उनके दुःखोसें दुःखित, सुखोंसें चित्तमें सुखीभी, क्यों न होगे ? | - - इस वास्ते तीर्थकरों का * द्रव्यनिक्षेपकोभी, सार्थकरूपही मा नते हैं । परंतु निरर्थक स्वरूपका, नहीं मानते है । यह निक्षेपके विषय में, ढूंढनीजी की -मतिकाही, विपर्यास हुवा इस वास्ते त्रण निक्षेपको, निरर्थक रूपसें, लिख दीखाती है ? | . *जब हमारे ढंढक भाईयो - द्रव्यनिक्षेप, निरर्थकड़ी कहते हैं, तो पिछे - दीक्षा लेने वालाका, और साधुके – मुडदाका, ठाठमाठसें-रघोडा, और दूशाला डालके, हजारो रूपैयाका - बिगाडा, किसवा करते हैं ? डाली वस्तुका - आदर, कौन करता है ? For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीका-३द्रव्य निक्षेप (७१) परंतु अपनी अपनी योग्यता मुजब, सर्व वस्तुका-चार चार निक्षेप, सार्थक रूप ही मानते है, उसमें भी-परमोपादेय, वस्तुके तो-चारो निक्षेपको, परमोपादेयसें ही मानते है । परंतु-चार निक्षेप,कोइ भी प्रकारस-निरर्थक स्वरूपका,नहीं है। इत्यलं विस्तरेण ॥ सा ॥ अब ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणे पार्वतीका-चतुर्थ-भाव निक्षेपका, स्वरूप लिखते है ॥ . देख भाई ढूंढक-साक्षात् स्वरूपसें, प्रगटपणे-१ शिव पार्वतीजी । २ वेश्या पार्वती । और ३ ढूंढनी पार्वतीजी । विद्यमान होवे तब ही ते-त्रणे वस्तुओ, अपना अपना स्वरूपसें भाव निक्षेपका, विषय स्वरूपकी, कही जाती है। परंतु १ शिवभक्त है सो तो, शिव पार्वतीजीको ही-देखता हुवा, भक्तिके वस होके-मोहित, हो जायगा १ । २ कामी पुरुष है सो तो, वेश्या पार्वतीको ही-देखता हुवा कामके वस होके-मो. हित, हो जायगा २ । तैसें ही ३ ढूंढक मतका भक्तको, ढूंढनी पार्वतीजीको ही-देखके, भक्तिके वस होके मोहित, होना ही चाहिये ? ३ ॥ क्योंकि-१ शिवभक्तथा सो-पार्वतीजी, ऐसा-नाम मात्रका, उच्चारण करता हुवा । अथवा किसीसें-श्रवण करता हुवाभी, अ. पनी श्रुति, शिवपावनीजीकी तरफही-लगाता हुवा, बंदना, नमस्कार करके अपना आत्मानंदमें, मनरूपही, होजाताथा १। और विशेष प्रकारसें-बोधको करानेवाली, शिवपार्वतीजीकी-मूर्तिको, देखके तो बडाही हर्षित होके, अपना-मस्तकको, झुकावा हुवा, और For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब देखो २ पार्वतीकी तरफ हसिको देखके, (७२) ढूंढनीजीकी-३द्रव्य निक्षेप. दूसरेकोभी तें-पूर्तिको, दिखाता हुवा, और उनोंकी पाससे मस्तक, झुकाने कीभी-इछा, करता रहाथा । और ते शिवभक्त, शिवपार्वतीजीकी-पूर्व अपर अवस्थाका, इतिहास, पंडितोको संतुष्ट द्रव्यको, अर्पण करकभी-श्रवण, करता रहाथा ३। तो अब साक्षात्पणे-शिबपार्वतीजीका, दर्शन करता हुवा-भक्तिके वस होके, मोहित होजावे, इसमें क्या आश्चर्य जैसा है ? अपितु कोई भी आश्चर्य जैसा नहीं है ४ ॥ अब देखो २ कामी पुरुष-पार्वती, ऐसा नाम मात्रका-श्रवण करता हुवा, वेश्या पार्वतीकी तरफ ही-अपना चित्तको, लगा देताथा १॥ और खास वेश्या पार्वतीकी, मूर्तिको-देखके, उसमें मोहित हो जावे, उसमें क्या आश्चर्यकी बात है ? २ । तैसेंहि वह कामीपुरुष, वेश्या पार्वतीकी-पूर्व अपर अवस्थाका, वर्णन-सुनके भी, मस्त ही हो जाताथा ३ । तो अब साक्षात् , वेश्या पार्वतीको-देखाता हुवा, कामके वस होके, उसमें-पोहित हो जावे, इसमें क्या आश्चर्यकी बात है ? ४॥ __ अब देख भाई ढूंढक, तूंभी, ढूंढनी साध्वी पार्वतीजीका-चारो निक्षेपको भी-उपादेयपणे ही, अंगीकार, कर रहा है । क्योंकि शिव पार्वतीजी के-हिसाबसें, ढूंढनीजीमें-पार्वती, नाम है सो, ढूंढनीजीके मानने मुगब भी-नाम निक्षेप ही, ठहर चुका है। और ढूंढनीनीने-निरर्थक भी, माना है । तो अब ढूंढनी पार्वतीजीके नाम मात्रसें, किसी पुरुषने यत् किंचित्पणे, अथवा अधिकपणे-अ. वज्ञा कीई, अथवा लिखी, तो, भक्तजनोंको-दुःख माननेकी, क्या आवश्यकता रहेगी ? .. .. परंतु हे ढूंढक भाईओ ! तुमतो दुःख मानतेही हो । जैसेंकिसम्यकशल्याद्धारमें, गतरूप जेठमल ढूंढकके-नामसे, किंचित् For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " हँढनीजीका-४ भीष निक्षेप. मात्रकी अवज्ञासें दुःखे मानाथा । तो अब-नामें निलेप, सार्थक हुवांकि-निस्र्थक ? सो इहाँपर थोडासा फॉम करके,देखो । यहती ढूंढनीनीका-नाम निक्षेप, हुषा ॥ १ ॥ __ अब दूसरा-स्थापना निक्षेपको, देखोकि-शिव और पार्वतीजीके जैसें, ढूंढनी पार्वतीजीकी साथ-बदामास पुरुषकी-मूर्तिको, दाखल कीई होवेतो, क्या भक्तजनोंकरे-दुःख, न होगा ? हमती इस बातमें, यह कहतेहैकि-जैन धर्मको, नाम मात्रसे धारण करने वाले, सर्व पुरुष मात्रकोही-दुःख, होजायगा, तोपिछे खास उनके भक्त जनोंको-दुःख, होजानेमें क्या आश्चर्य है ? तो अब विचार करो. कि-स्थापना निक्षेप, सार्थक हुवाकि निरर्थक ?।। __ अब इहाँपर यत्किंचित् सूचनाओ, यह हैकि-जनै धर्मका स. नातनपणेसें दावा करने वाले होके, १ टीकाकार, टब्बाकार बगैरेसर्व महान् महान् आचार्योका, अर्थकी निदाकरते है सो। और तीर्थकर भगवानकी परम पवित्र, शांत, और भव्य-मूर्तिको, पथ्यर, पहाड आदि-निंद्य वचनसे, लिखते है सो । और ३परम श्राविका-द्रौपदीजीका, जिनपूजनको-छुडवायके, काम देवकी मूतिपू. जाकी-सिद्धि करनेका, प्रयत्न करते है सो । और ४ जैघाचारणादि मुनियोंका, जिनमत्तिकें-वंदनमें, ज्ञानका ढेरको-बतलाते है । और५ चमरेद्रका पाठसे, जिनमूर्तिका शरणमें-अरिहतपदका,नवीन प्रकारसें-अर्थ करके, बतलाते हैं सो । और ६ वीर भगवानके-परमश्रावकोका, नित्य पूजनरूप-जिनप्रतिमाका, लोपकरके-पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी, मूर्तिपूजाकी-सिद्धि करके, दिखलाते है सो। और ध्यक्षादिक-देवोंकी, पथ्थरकी-मूर्तिपूजासे, स्वार्थकी सिद्धिमानने वाले है सो । सनातन जैनधर्मी, अथवा तीर्थकर देवके-भ ... - - For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) ढूंढनीजीका - ४भाव निक्षेप. क्त, कहे जायेंगेकि - सर्वथा प्रकार, विपरीत विचारवाले कहे जाबेंगे ? । सो हमारा, और ढूंढनी पार्वतीजीका-लेखको, मिलाकरके विचार, करलेना । यहतो ढूंढनीजीके- स्थापना निक्षेपका, बिचार हुवा ॥ २ ॥ • अब ढूंढनी पार्वतीजीका तिसरा द्रव्य निक्षेप, देखोकि-निदोषरूप, दीक्षा लेनेकी - पूर्व अवस्थाको, शीलभंगादिकका कोई पुरुष जूठा ही, कळंक - दे देवे । और निर्मल चारित्रका पालन किये बाद, गत प्राणका शरीरकी-मिट्टीका, खराबा करनेकी - प्रवृत्ति, कोई पुरुष करेगा तो, क्या उनके भक्त जनोंका - चित्तको, खेद, उत्पन्न-न होगा ? | अथवा ते पूर्व अवस्था से हर्ष, और अपर अवस्थासें-दिलगीरीपणा, उनके भक्त जनोंकों न होगा ? । जब ते - द्रव्य निक्षेपका विषयवाली, दोनो प्रकारकी - अवस्था, हर्ष, या दिलगीरी, . उत्पन्न होती है, तो पिछे - यह द्रव्य निक्षेप, उनके भक्त जनों को सार्थक हुवा कि निरर्थक ? । जब ढूंढनी पार्वतीजीका द्रव्य निक्षेप, सार्थक – मानके, सर्व प्रकारका दावा करनेको, तत्पर हो जाते हो, तो पिछे जिस तीर्थंकर भगवानका नाम मात्रसें भी अवज्ञाको, सहन नहीं करते हुयें हम, हमारा - कल्याण मानते है, उनकी पूर्व अपर अवस्थाको, उपयोग बिनाकी – कह करके, तुछ बस्तुकीतरां निरर्थक, ठहरानेवाले हम, तीर्थंकरोंके भक्त कहे जायेंगे कि, वैरी कहे जायेंगे ? उनका विचार, तीर्थंकराके भक्तोको ही करनेका है ।। अब हम फिर भी किंचित् - तात्पर्य कह करके, इस लेख की समाप्ति करते है । " तात्पर्य यह है कि – जिस जिस पुरुषोंने, जो जो वस्तु, For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढनीजीका-४ भाव निक्षेप. (७१) ( अर्थात्-पदार्थ, ) जिस जिस स्वरूपसें, मानी होगी, उस २ वस्तुके चारो निक्षेप भी, उसी ही भावकी, उत्पत्ति कराने वाले, होंगे। - जैसें कि-* शत्रु भावकी वस्तु, होंगी उनके चारो निक्षेप भी, शत्रु भावकी ही-उत्पत्ति, कराने वाले-होंगे। ___और-मित्र भावकी, बस्तु होंगी, उनके-चारो निक्षेप भी, मित्र भावकी ही-उत्पत्ति, कराने वाले होंगे। और जो कल्याण भावकी-वस्तु, होगी उनके चारो निक्षेप भी, कल्याण भावकी ही-उत्पत्ति, कराने वाले होंगे। . और परम कल्याण भावकी-वस्तु, होंगी, उनके-चारो नि. क्षेप भी, परम कल्याण-भावकी ही, उत्पत्ति-कराने वाले, होंगे। परंतु-उपयोग बिनाकी, निरर्थक स्वरूपकी-बस्तु न होंगी । इसी वास्ते सिद्धांतमें-१ नाम सच्चे । २ ठवण सच्चे । ३ दव सच्चे । ४ भाव सच्चे ॥ . कह कर-चार निक्षेपको, सत्य रूपसे ही, कहे हैं । इस . वास्ते ख्याल करनेका, यह है कि जो हम मिथ्यात्वी लोकोंकी तरी, तीर्थकरोंकी साथ-गुप्तपणे, हृदयमें-शत्रु भावको, धारण करते-होंगे, तब तो तीर्थकरोंका-त्रण निक्षेप, उपयोग बिनाके होके-हमारा कल्याकी प्राप्ति होन, बेसक निरर्थक रूपही-हो जायगे,और हमारा जन्म जीवतव्य भी-निरर्थक रूप ही हो जायगा। * देखो सत्यार्य पृष्ट १२ में-मित्रकी-मूर्तिको, देखके-प्रेम जागता है । लडपडे तो उसी ही-मूर्तिको, देखके-क्रोध, जागता है । विचार करोकि-हमारे ढूंढक भाईयो इस वखते तीर्थकर भगवानके-वैरी, बने हुये है या नहीं ? ॥ For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) ढूंढनीजीका-४ भाव निक्षेप. नहीं तो तीर्थकरोंका-१ नाम, और २ स्थापना, यहदोनों निक्षेप, विद्यमान हैं-उनकी योग्यता मुजब, उपासना करनेसें-इमारा, कल्याणकी ही प्राप्ति होगी। परंतु निरर्थक रूपकी तो कमी भी न होगी। ____ इति ढूंढक भक्त आश्रित-त्रणें पार्वतीका; चतुर्थ-भाव निक्षेपपका, स्वरूप ॥ ॥ इति पार्वती वस्तुका-चार २ निक्षेपका स्वरूप संपूर्ण।। For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपाळ ऋष. - For Personal & Private Use Only मोहन ऋष. मणिलाल ऋष. नमु ऋष. चि. शा. पुणे. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चि. शा. पुणे. . जिवौनामकी चेली.. ढूंढनी पार्वती. For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृतक देहकी मूर्तिका वर्णन. ( ৬७) ॥ दो प्रकारकी ढूंढक 'बीयांका ' स्पष्टीकरण | ॥ हे ढूंढक भाइयो ? यह दो प्रकारकी छबीयां, हमने दाखल करवाई है उसमेंसें प्रथम एक तो है काठियावाडका - लींमडी सेहर के नामसें प्रसिद्ध, लींमडी संघाडेके ढूंढक साधु समुदायका - पूज्य श्री 'गोपाल' स्वामीजीकी । जब यह ऋषिजी - संवत् १९४७ का वै. शाष मासमें - गत्यंतरको प्राप्त हुये, तब कितनेक हाजर भक्तों ने -पूयकी मृतक देहको - एक तखत ( अर्थात् पट्टे ) पर बिठाके, और नीचे भाग तीन (३) जीवते साधुको बिठाके दर्शनार्थे उनकी छबीको उत्तराई लीई है, और यह छवी है सो - गोपाल स्वामीका - स्थापपना निक्षेप' का विषय के, स्वरूपकी है तो अब विचार करो - कि- गोपाल स्वामीका दुर्गधरूप मृतक देहकी 'मूर्त्ति ' तुमको दर्शन करने के योग्य हो गई? और महा सुगंधमय, तीर्थकरों के देहकी, चंद्रोज्वल पाषाणमय, अलोकिक भव्य मूर्त्ति ' हमारे ढूंढक भाईयोंको दर्शन करनेके, योग्य नहीं ? तो क्या उनोंको तीर्थकर भगवानसें ही, कोई चैर भाव हो गया है ? जो उनोंकीही निंदा करनेको थोथा पोथा लिख मारते है ? हे ढूंढक भाईयो थोडासा क्षणभर विचार करो ? इसमें तीर्थकरों का बिमादा होता है कि तुम तुमेस आत्माका बिगाडा करलेते हो ? अब हम ढूंढनी पार्वतीजीकी-छबीका, कुछ विशेष विवेचन करके दिखलाते है, क्योंकि-धर्मका दरवाजायें-ढूंढक वाडीलालने, और इसी ढूंढनी पार्वतीजीने भी- १ नामनिक्षेप | २स्थापना निक्षेप । और १ द्रव्य निक्षेप | यह ऋण निक्षेपको - श्री अनुयोग द्वार सूत्रकी जुठी साक्षी देके For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) ढूंढनी पार्वतीजीकी - मूर्त्तिका वर्णन सर्व वस्तुओंका - निरर्थक, और उपयोग बिना के, ठहरायेंथे परंतु हम ने हमारा लेखमें- सिद्धांत का वचनके अनुसारसे - अनेक प्रकारकी युक्तिओंके साथ-चारो निक्षेपकी सार्थकता, और उपयोगीपणा क रके ही दिखलाइ दिया है, तोभी इहांपर किंचित् उपयोग करानेके वास्ते - सूचना मात्र, लिख दिखाता हुं- अब विचार कीजीयेकि-पहादेवजीकी पार्वतीकी अपेक्षासें - इसी ढूंढनी पार्वतीजी का नाम है सो, तुमेरा ही मंतव्य मुजब नाम निक्षेप ही, ठहर चूका है, और निरर्थकभी तुमने माना है, तब तो ढूंढनी पार्वतीजीके नामसें दूर देश में बैठकर किसीने - गालीयांभी दीइ तो तुमको उदासी भाव होनेका, और उनके तरफ द्वेषभाव करनेका, अथवा उनको निवारण करनेका, कुछभी प्रयोजन न रहेगा। क्योंकि - निरर्थरूप और उपयोग विनाकी वस्तुका चाहे कोई कुछभी करें तोभी, उनकाशोक, संताप, कोईभी करता नहीं है । यह तो ढूंढनीजीका १ नाम निक्षेप हुवा || अब ढूंढनीजीका ३ द्रव्य निक्षेप, और ४ भाव निक्षेपमें विशेष हम लिख चूके है मात्र इहांपर - २ स्थापना निक्षेपमें ही - सूचना रूपे लिखके दिखाबते है । कारण यह है कि - ढूंढनीजीने स्थापना निक्षेपको ही निरर्थ, और उपयोग विनाका, ठहरानेके वास्ते ही विशेष प्रयत्न किया है । और यह जो छबी है सो, ढूंढनीजीका स्थापना निक्षेपका, विषयके स्वरूपकी ही है। अब इइमें देखीये कि कोई बदमास पुरुष - काम चेष्टारूपका दिखाव करके, ओर ढूंढनीजीकी - छबी के साथमें, खडा होके, और दूसरी -छबीका (अर्थात् मूर्त्तिका) उतारा करवायके, जर्गे जगें पर वे अदबी करता फिरेगा, तब- हे ढूंढक भाईयों-तुमको, और हमको दलिगीरी, उत्पन्न होगी या नहीं ? कदाच तुम हठ पकड करके ऐसा कहभी देवोंगे कि इसमें दीलगीरी करनेका, क्या प्रयोजन है ? For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लूंदनी पार्वतीजीकी मूर्तिका वर्णन. (७९) परंतु हम इस बातको-मंजूर न करेंगे, कारण यह है कि-ऐसी अनुचित बातसे-जैन धर्मकीही-निंदा होती है ? यद्यपि वीतगग देवकी मूर्तिकी वेषिणी-ढूंढनीसे-हम विशेष संबंध नहीं रखते है, परंतु जैन धर्मकी प्रीति होनेसें यह अनुचितपणा सहन न करस. केंगे? यद्यपि जैनधर्मके तत्वोका-विपरीत बोधसें, ढूंढनी पार्वतीजीने-वस्तुका-चार चार निक्षेपमेंसें-त्रण त्रण निक्षेप-निरर्थक, और उपयोग विनाका, ठहरायके-अपनी मूर्तिरूप-स्थापनाकोभी-निरर्थक ठहराइ है, परंतु हमतो तीर्थंकरोंके वचनानुसार, हमारी उपादेय वस्तुकाचारोनिक्षेप, योग्यता प्रमाणे, उपादेयपणे ही मानते है । जो कदाच हमारा लेखसें-किंचित् मात्रभी-विचार करोंगे तो, तुम ढूंढकोनेभी-अपनी उपादेयरूप वस्तुका-चारो निक्षेप, योग्यता प्रमाणे-उपादेय रूपसे ही माने हुये है। ___परंतु कोई विशेष प्रकारका-मिथ्यात्वके उदयसें, अथवा कोइविपरीत बोधक-कारणसें, अथवा कोई संसार भ्रमणकी-बहुलतासे, तुमलोक तीर्थकरोका-भक्तपणाको, जाहीर करकेभी केवल वीतराग देवका-स्थापना निक्षेप रूप-भव्य मूर्ति कीही, अनेक प्रकारसे-अवज्ञा करनेको, तत्पर होके-अपना संसार भ्रमणमें ही अधिकपणा करलेतहो, और दूसरे भव्य पुरुषोंकोभी-विपरीत मार्गमें गेरनेका-विपरीत रस्ताको ढूंढतेहो. ____ और इसीकारणसें अपनेमें-ढूंढकपणाकी सिद्धिभी करके दि. खलातेहो । और गण धरादिक महापुरुषोंको, और महान् महान् सर्व आचार्योको, और जैनके सर्व सिद्धांतोको-निंदितकरके-अपने आप-तत्त्वज्ञानीपणाको, प्रगट करते हो ? For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (28) aan मूर्ति परिणाम होनेमें दृष्टांत. क्या तुमही ज्ञानी ही गयेहो ? कोई जैनाचार्यको जैन तत्का बोध, नहीथा ? जो जर्गे जगे गणेधरादि महान महान आचार्यको ही निंदते हो ? हमतो यही कहते है कि कोई जैन धर्मके तस्वीरों विमुख पुरषकी वाणीरूप पानीका पान करनसें, तुम दिवाने बने हुये ने गणधर । दिक महापुरुषों को भी दिवाने रूप, लेखतेहो ? परंतु जो यह किंचित् मात्र स्वछ वाणीरूप पानीका - पानकरके विचारमें उत्तररांगेतो, अपने आप मालूम होजायेगा कि जैन त वो विषयमें - हम कितनी पुहच धरावते है ? और जी विचार में न उतरोंगे तब तक तो तुम अपने आप तत्वज्ञानी बने हुये ही है। कारण कि दूनीयांका ही यह एक कुदरती नियम, दिखने में आता है कि जो पागल होता है सो भी सब दूनीयको - पागल रूप समज कर अपने आप वह पागल ही तत्त्व ज्ञानकी मूर्तिरूप, बन बैठता है । " और अपनी जूठी बात भी दूसरों को मनानेको- जबरजस्तिपणा भी करता है, और वह पागल उस जूठी बात को भी नही मानने वालोंकी - हेरानगति करनेको ही - तत्पर हो जाता है ।। अब इसमें एक सामान्य दृष्टांत देके-में-- मेरा लेखकी भी, समाप्ति ही करता हुं ॥ यह है कि किसी एक समये एक निमित्तियेने राजाको जाहिर किया कि - हे महाराज ! जो यह ग्रहों के योग में वर्षा होने वाली है, उसका पानी, जो कोइ पीई लेवेगा, सोही दिवाना बन जायगा तब जो जो उत्तम लोकथे उनोंने अपना अपना बंदोबस्त कर लिया, परंतु जिस लोको के पास कुछ साधन ही नहीं था, वह लोक - अपना कुछ भी बंदोबस्त कर सके नहीं, For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतरागी मूर्तिसे विपरिणाम होने दृष्टांत. (४१) . और वह वर्षाका पानीको-पीनेकेही साथ, दिवाने ही बनगये ऐसें कोइ सेंकडो ही-नंग धडंग होके, बे अदवीसेंही फिरने लगे, और छेवटमें ते दिवानोंने, राजाको भी-दिवाना समजकर, राज्यग. दीपरसें-उठा देनेकाही, विचार किया। परंतु ते विपरीत पानीकापानसे, पराधीन बने हुये दिवानोंने इतनाभी विचार नहीं किया कि हमारी सर्व प्रकारसे परवस्ति करके, अनेक प्रकारके संकटोसें रक्षण करनेवाला, हमारा परमोपकारी, राजाको, राज्य गद्दीपरसें उठादेके, हम हमारी ही गति क्या करलेंगे? . परंतु ते विचारे-सर्वथा प्रकारसे, पराधीन हो जानेसें, उनके कुछ भी बसमें ही न रहाथा ? जब पीछेसें सुवर्षा हुये बाद, ते दीवाने लोकोने, सुवर्षा के पानीको पिया-तब ते होंसमें आके-बडा पश्चात्ताप ही करने लगेंकि-अहो हमने वडा ही अनुचितपणा किया कि-जो हमारा सर्व प्रकारसें-रक्षण करने वाला, और हमारा परमोपकारी, हमारा शिरके-मुगट समान, हमारा मालिककाभी हम तिरस्कार करनेकी बुद्धिवाले हो गये ? धिक्कार पडो हमारा जन्म जीवतरमें, इत्यादिक अनेक प्रकारका-पश्चात्तापसें, और ते उपकारी राजाकी-क्षमा चाहीने, और अपना परमोपकारी राजाकी साथ भीतिको धारण करतेहुयें, स्वछ, और सरल-न्यायनीतिका मार्गको पकडकर, अपना श्रुद्धव्यवहार मार्ग करनेको,तत्परहो गये। हेभव्यपुरुषो? - यह दृष्टांत देनेका-यह तात्पर्य है कि, जिनेश्वर देवकेही सदृशयह जिनमूत्तिको, सिद्धांतकारोंने-जगें जगें पर वर्ण किई हुई है. और ते तीर्थंकरों है सो-हमारा परमोपकारी, राजाओंकेभी महाराजाओंके सदृश है। For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) वीतरागी मूर्ति विपरिणामें होनेमें दृष्टांत. - और हम अज्ञानांधोंको - सूर्यका प्रकाश सदृश मोक्षमार्गके-भपूर्व को दिखानेवाले होनेसें हमारा परमोपकारी हुये हैं । और हम अघोर संसारके महाभय में पडे हुयेंको, ते तीर्थंकरो सर्वकारका उपद्रव रक्षणकरने वालेही है । परंतु हमलोक अनंत संसार में परिभ्रमण करतेहुये आजतक विपरीत पुरुषोंकी वाणीरूप - पानीका, पान करनेसें - दिवाने बने हुये, तीर्थकर महाराजाओं की अवज्ञा करने में कुछभी विचार नहीं करते आये है । क्योंकि कोई तेसी विपरीत वाणीरूप- पानीका, पानकरनेसें, तीर्थंकरोंके वचनरूप अमृतंका पानको जेर तुलसमजतेथे ? जैसें शीतल पानीका स्पर्शको कोइपुरुष दाहतुल्य समजें, और सोनाको चिज - को पीतल जानके, अंगीकारको न करे ? तैसेंहीहम वीतराग देवकाभी तो १ नामले के भक्तिकरनेकी इछाकरतेथें, और नतो तेओंकी २ मूर्त्तिकभी भक्ति करने की इछा करतेथें, 1 और नतो ते तीर्थकरों की बालकरूप पूर्व अवस्थाकी, और मृतक देहरूप अपर अवस्था की भी - भक्तिकरनेको, देवताओंकीतसं शक्तिको घरावतेथे, तो पिछे साक्षात् रूप ४ तीर्थकरों की भक्ति करने को कहां से भाग्यशाली बनने वाले थें ? इसीवास्ते ही हम-चार गतिरूप संसार में - परिभ्रमण करते फिरतेथें । परंतु जो कदाच हम मनुष्यका भवकोपाके, और जैनधर्मका आश्रयको कभी ते तीर्थकरों की भक्ति चार निक्षेपों का विषय सें, योग्यता प्रमाणे, और हमारी शक्तिके प्रमाणसें । करनेको भाग्यशाली न बनेगें तो हम हमारा कल्याण अनंत संसारका परिभ्रमण करने से भीन कर सकेंगे । इस वास्ते भव्य पुरुषो । यह अमूल्यरूप मनुष्यका For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढकभाईयांका संसारखाता. (४३) जन्मको प्राप्त होके, गणधरादि पुरुषोंने दिखाई हुई, तीर्थकरोकीमूर्तिकी भक्तिकरनेसें, कोई प्रकारसें मत चुको, उसमेंभी जो तत्वरहित संसारी पुरुषों है सो. सदाकाल-महा आरंभमें फसे हुये होनेसें, तीर्थकरोंकी-मूर्तिकी भक्तिसें, विमुख होते है सोतो, भवसमुद्रमें डुबते हुये समाकितकी प्राप्तिका कारणरूप जिनमूर्तिकी भक्ति रूपका, महान् जाहजको छोडकरके-अपनी भुजाओंको-स्थाही पछाडता है ? इहांपर इतनाही इसाराकरके-में-मेरा लेखकी समाप्ति करता हुं । सुज्ञेषुकिं अधिक विस्तरेण ॥ हमारे ढूंढक भाइयांके-संसार खाताका स्वरूप, लिखते है ॥ पाठक वर्ग ! हमारे ढूंढक भाईओ, थोडा वखत पहिले, गणधरादिक महा पुरुषोंके वचनसें-विपरीत होके, कोई ऐसी विलक्षण प्रकारकी गेर समजको पुहचेथे कि-मूर्तिसें कुछ फायदा ही नहीं होता है। . परंतु अब यह नवीन प्रकारके जमानेमें, देश परदेशका अधिक व्यवहार हो जानेसें, चारों ही दिशामें मंदिर, मूर्तिका, पूजन करने वालोंका ही प्रचार विशेष देखके, अजान वर्ग है सो भी मात्तसे कुछने कुछ, फायदा होनेका संभव है, ऐसा सामान्य प्रकारसेंभी समजनेको लगे है। - - परंतु आश्चर्य वही होता है कि जैन धर्मका सनातन पणेसें दावा करने वाली, पंडिता ढूंढनी पार्वतीजी, अपना सत्यार्थ ग्रंथका पृष्ट. ३४ में, लिखती है कि-१ स्त्रीकी मूर्तिको देखके तो-पक्षी कामियांका काम जागता होगा ॥ For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) ढूंढकभाईयांका संसारखातो. .. ऐसा लिखके फिर हमको प्रश्न करती है कि भगवानको मूर्तिको देखके, किस २ को वैराग्य हुवा, सो बताओ ? ॥ विचार-इस लेखमें स्त्रीके नाम मात्रका, उच्चारण करनेसें, कामीयांको काम नही जागे । इस प्रकारकी सिद्धि करके, मात्र स्त्रीकी मूर्तिको ही देखनेसें, कामियांको काम जागे । ऐसा लिखा। . और भगवानका तो नाम मात्रसे ही, हमारे ढूंढक भाईयांका, वैराग्य निचूड जावे । मात्र भगवानकी मूर्तिको ही देखनेसें हमारे ढूंढक भाईयांका वैराग्य शुक जावे । यह जो ढूंढनीजीने विपरीत पणे लिखके दिखाया है, क्या उसका नाम संसार खाता मान्या है ? || यह संसारका खाता, हमको किस प्रकारसे समजना ? ॥ १॥ फिर पृष्ट. ३८ में-ढूंढनीजी लिखती है कि, २ ज्ञाता सू. में-मल्लदिन कुमारने, चित्र शालीमें-मल्लिकुमारीको मूर्तिको देखके, लज्जा पाई, अदब उठाया, और चित्रकार पै-क्रोध किया, लिखा है ॥ _ विचार-उस मल्लदिन कुमारने, एक स्त्री मात्रकी-मूर्तिको देखके, लज्जा पाई, अदब भी उठाया। और हम तीर्थकरोंके ही भक्त होके, उनोंकी ही-मूर्तियांकी, बे अदबी करनेवाले, किस प्रकार के निर्लज्ज गिने जावेगे ?।। और उस मल्लदिन कुमारने, कोई कारणसर-चित्रकार पर ही क्रोध किया, हम है सो हमारा परमोपकारी तीर्थंकरोंकी मूर्तियां पर ही, कारण विना-क्रोध करके, हमारा आत्माको ही महा मलीनरूप बनाते है । क्या ? हमारे ढूंढक भाईयांने इस प्रकारका For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढकभाईयांका संसारखातो. (५) संसार खाता मान्या है ? । किस प्रकारका ज्ञानकी खूबी समजनी ? ॥२॥ - फिर सत्यार्थ पृष्ट. ४० में, दूंढनीजी लिखती है कि ३ राम चरित्रमें वज्र करणने, अंगूठीमें मूर्ति कराई । परंतु वह सब-उच्च नीच कर्म, मिथ्यात्वादि, पुष्य पापका स्वरूप दिखानेके-संबंधमें, कथन आता है । इत्यादि । विचार-राम लक्ष्मणके वारेमें, सो वनकरण राजा, अपना स्वामी सिंहोदर राजाको भी-नमस्कार नहीं करनेकी इछासे, मात्र निर्मल समाकितका पालन करनेके वास्ते, बारमा श्री वासुपूज्य स्वामिकी मूर्तिको, अपनी अंगूठीमें रखके, हमेशां दरसन करता रहा, सो तो हमारे ढूंढकोंका, उंच नीच पुण्य पापादि गपड सपड॥ ___ और वही तीर्थंकरोंकी परम पवित्र मूर्तिसें-द्वेष भाव करके, हमारे ढूंढक भाइओ-अपना आत्माको, महा मलीन करते रहे है, क्या उसका नाम संसार खाता मान्या है ? नजाने किस प्रकार के संसार खातेका स्वरूप है ? ॥ ३ ॥ फिर सत्यार्थ. पृष्ट. ४२ में-ढूंढनीजी लिखती है कि, मित्रकी मूर्तिको देखके-प्रेम, जागता है, यह तो हम भी मानते है । यदि लडपडे तो-उसी मूर्तिको देखके, क्रोध-जागता है ॥ ४ ॥ विचार-जैसें मित्रकी मूर्ति से प्रेम, तैसें हमारे ढूंढक भाईओने, मिथ्यात्व के साथ-गाढ प्रीति करके, पितरादिक मिथ्यात्वी देवोंकी मूर्ति पूजासें, क्या अपना स्वार्थ, सिद्ध कर लेनेक:-पान लिया है ? और लडपडे तो-उसी मूत्तिसें (मित्रकी मूत्तिंसें) द्वेष, तैसेंही तीर्थकरों के साथ गुप्तपणे, हृदयमें-द्वेषभाव रखके, उनोंकी मूर्तियांकी-अवज्ञा करनेको, तत्पर हुये है ? क्या उसका नाम-संसार खाता, मान्या है ? ४॥ . For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) ड्रडकभाईयांका संसारखाती. फिर सत्यार्थ. पृष्ट. ५१ में-ढूंढनीजीने, लिखा है कि-६ स्थापनारूप अक्षरोंसें, ज्ञान होना, किस भूलसे कहते हो? ॥५॥ विचार-जब अक्षरोंसें, ज्ञान ही नहीं होता है, तो क्या हमारे ढूंढक भाईओ, सर्वथा प्रकारसें-नास्तिक रूप होके, उनोंने मान्य किये हुये, बत्रीश सूत्रों के अक्षरोंसेभी, कुछ ज्ञान होनेका, नहीं मा. नके, तीर्थकरोंकी-सर्वथा प्रकारसें, अवज्ञा करनको-तत्पर हुये है ? क्या उसका नाम संसार खाता मान्या है ? ॥ ५॥ . फिर. सत्यार्थ. पृष्ट. ६१ मे-ढूंढनीजीने लिखा है कि-६ हमने भी-बडे बडे पंडित, जो विशेषकर भक्ति अंगको-मुख्य रखते है, उन्होंसें सुना है कि यावत् काल-ज्ञान नहीं, तावत्काल-मूर्ति पूजन है । और कई जगह लिखाभी देखने में आया है ॥ ६ ॥ विचार-जिन मूर्तिको-पूजन करनेका, ढूंढनीजीने-बडे बडे पंडितोंसे तो सुना, और जैन सिद्धांतोमें-लिखा हुवाभी देखा, तो भी ते सर्व बडे बडे पंडितोंकी, और ते सर्व शास्त्रोंकी-अवज्ञा करके, और अपना ही-परम पूज्य, तीर्थंकरोंकी-मूर्तिकी, अवज्ञा करके, और-पितरादिक, मिथ्यात्वी देवोंकी-मूर्तिका पूजनकी, सिद्धि करके, अपनाही लेखपर कुचा फिराते हो ? क्या उनका नाम-संसार खाता है, कि-कोई दूसरा प्रकारका, संसार खाता है ? ॥६॥ ....॥ फिर. सत्यार्थ. पृष्ट. ६९ में-ढूंढनीजीने लिखा है कि-७ देवलोकमें-जिन प्रतिमाओंको, समदृष्टि भी पूजते है, और मिथ्या दृष्टिंभी पूजते है, कुछ समदृष्टियांका-नियम, नहीं है ।। ७॥.. विचार-समदृष्टि जीवतो, इस पंचमालमें भी तीर्थकरोंकी For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढकभाईयांका संसारवासा. (४७) मूर्तिका पूजन किये बिना, रोटीभी नहीं खाते है। परंतु प्रीतरागी मूर्तिका अलोकिक भव्य स्वरूप देखके, निकट भवी मिथ्या दृष्टि जीवों है, उनकामी पूजन करनेका-भाव, हो जाता है। और बड़े बड़े तीर्थोके उपर जाके सेंकडो लोक-पूजन भी करते है । सो तो उनोंका भव्यपणाका लक्षण है । तो क्या वही परम पवित्र-जिन मूर्तिके, निंदक बनाने, उनका नाम, संसार खाता है कि कोई दूसरा प्रकारका, संसार खाता है ? ॥ ७॥ ॥फिर. सत्यार्य-पृष्ट. ६८ में-डूंढनीजीने लिखा है कि-८ मूर्तिको धरके, श्रुतिभी लगानी-नहीं चाहिये ॥ ८॥.... विचार-पितरादिक, और यक्षादिक, मिथ्यात्वी देवों के हमारे ढूंढक श्रावक भाईयांको भक्त बनाके, उनोंकी प्रतिमाका पूजन, षट्कायाका आरंभसेती फल फूलादिकसे कराके, तीर्थकर भगवानकी परम पवित्र मूर्तिमें, श्रुति मात्र लगानेका भी-निषेध करते है ? सोही संसार खाते के स्वरूप वाले है कि, कोई दूसरे है ? यह भी. एक विचार करने जैसा ही है ॥ ८ ॥ फिर. पृष्ट. ३७ में ढूंढनीजीने लिखा है कि-९ असल, और नकलका-ज्ञान तो, पशु, पक्षीभी-रखते है । ऐसा लिखके-एक सवैया भी लिखा है ॥ ९ ॥ ___ विचार-हमारे ढूंढक भाईओ, असल जो त्रिलोकीके नाथवीतराग देव है, उनकी परम पवित्र-पूर्तिका ज्ञान पशुकीतरां नहीं करते हुये, जो मिथ्यात्वी यक्षा दिक-क्रूर देवताओ है, उनोंकी मू. त्तियांमें भ्रमित होके, वीर भगवानके परम श्रावकोंकोभी, पूजानेको तत्पर हुये है ? क्या उनका नाम-संसार खातां मांन्या है ? ॥९॥ ".. फिर. पृष्ट. ४३ में,ढूंढनी ने लिखा है कि-१० भगवानकी For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) इंदकमाईयाका संसारखाता. मूत्तिको देखके, कोई खुश हो जाय तो हो जाय । परंतु-नमस्कार, कौन विद्वान् करेगा ? और दाल चावलादि, कौन विद्वान्चढावेगा ? ॥ १० ॥ विचार-वीतराग देवकी-परम शांत मूर्तिको देखके, हमारे ढूंढक भाईओ-खुशभी हो जाय, तोभी नमस्कार-नहीं करते हुयें, और यक्षादिकोंकी क्रूर मूर्तिसें, खुश हुये बिनाभी-उनके आगे पद् कायाका आरंभादिक सर्व कुछ करोनेको तत्पर हुये है ? क्या उसका नाम संसार खाता मान्या है ? ॥ १०॥ फिर. पृष्ट. ४४ में. ढूंढनीजीने लिखा है कि-११ हम मूर्ति मानते है, परंतु मूर्तिका-पूजन, नहीं मानते है ।। ११ ॥ विचार-हमारे ढूंढक भाईओ इस प्रकारसें, मूर्तिपूजनकासर्वथा प्रकारसें-निषेधकरके, द्रौपदीजी परम श्राविकाके पासमेंजिन मूर्तिका पूजनको छुडवायके, श्रावकोंको नहीं इछित ऐसा, मिथ्यात्वी कामदेव है उनकी मूत्तिको-पूजानेको, तत्पर हुये । और वीर भगवानके परम श्रावकोंकी पाससे, दररोजका जिनेश्वर देवकीमूर्तिका पूजन, छुडवायके, मिथ्यात्वी पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी -प्रतिमा पूजानेको, तत्पर हुये ? । क्या उसका नाम संसार खाता है ? ॥ ११ ॥ फिर. पृष्ट. ६७ मे, ढूंढनीजीने लिखा हैकि-सूत्रोंमे तो, मू. र्तिपूजा-कहीं नहीं लिखा है, यदि लिखा है तो हम भी दिखाओ ।। १२ ॥ ... विचार-ढूंढनाजीको, जिनेश्वर देवकी मूर्तिके बदलेमें-द्रौपदजिकि पाठमें, काम देवकी-मूर्तिका भास हो गया ? | और For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढकभाईयांका संसारखाता. (६९) अंबड नीके पाठमें-सम्यक धर्मादिक दिख पडा ? । और अंघाचारण के पाठमें-ज्ञानका ढेर, दिख पडा । और चमरेंद्र के पाठमें-चैत्य के बदलेमें चैत्यपद, दिख पडा। और वीरभगवान के-परमश्रावकों का, दररोजके जिनपूजनमें-पितर,दादेयां, भूत, यक्षादिक, देवतामो दिखपडे ?। और उवाईसूत्रका-बहवेअरिहंत चेइय, कापाठ तो दिखाही नहीं । ऐसें पंचम स्वमका, महानिशीथका, विवाह चूलिया सूत्रका, इत्यादिक जगें जगेंपर, विपरीतही विपरीत-लिखके, हमको प्रश्न पुछती है ?। क्या इसका नाम-संसारखाता, मान रखा है।॥१२ फिर. पृष्ट. ७० में-ढूंढनीजीने लिखा है कि-१३ नमोथ्थुणं, के पाठमें तर्क करोंगे तो, उत्तर यह है कि पूर्वक भावसे, मालूम होता है कि-देवता परंपरा व्यवहारसें, कहते आते है ॥१३॥ विचार-जैसें देवताओ, नमोथ्थुणं कापाठ, परंपराके व्यवहारसें-जिन प्रतिमाओके आगे, पढते चले आते है । तैसेंही श्रावकोंके कूलमेंभी-परंपरासें, आज तक-जिनप्रतिमाके आगेही, नमोथ्थणं,का पाठ पढयाजाता है । उस परंपराका अर्थको, उलबाके-द्रौपदीजी श्राविकाके पास, काम देवकी मूर्ति के आगे, अयोग्यपणे-नमोथ्थुणका पाठ,पढाना सरु करवाया ? क्या उसका नाम-संसार खाता मान रखा है ? ॥ १३ ॥ फिर. पृष्ट. १३८ में. ढूंढनीजीने लिखा है कि-१४ मूर्तिपूजनमें षट्कायारंभादि दोष है ।। और. पृष्ट. १२० में लिखा है कि-दूसरा बडादोष मिथ्यात्वका है। क्योंकि जडको चेतन मान कर, मस्तक-जूकाना, यह मिध्या है ॥ १४॥ For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) ढूंढकभाईयांका संसारखाता. विचार - यह ढूंढनीजी इस प्रकारसें, अपना परमपूज्य तीर्थक रॉकी ही परम पवित्र, मूर्त्तिका पूजनको, निंदती हुई । और खासजो मिथ्यात्वी क्रूर देवोकि, यक्ष, भूतादिक है, उनकी जड स्वरूपकी मूत्ति चेतनको, मनाती हुई । और षट् कायाका आरंभसें पूजाकोभी कराती हुई । और ते जड स्वरूपकी मूर्तियांके आगे, हमारे भोदू ढूंढक भाईयांका मस्तकभी घिसानेको तत्पर होती हैं ? | क्या उसका नाम संसार खाता, मान्या है ? ||१४|| ॥ फिर. पृष्ट. ७५ में — ढूंढनीजीने लिखा है कि, १९ हम देखते है कि, सूत्रोंमें - ठाम ठाम, जिन पदार्थोंसें - हमारा विशेष करके, आत्मीय स्वार्थ भी - सिद्ध नहीं होता है, उनका विस्तार सैं कडे - पृष्ठों पर, (सुधर्म स्वामीजीने ) लिख धरा है । ऐसा लिखके - ज्ञाता सूत्रका, जीवाभिगम सूत्रका, और रायपसेनी सूत्रका भी को पृष्टों का मूलपाठोकोही, निरर्थक ठहराये है ।। १५ ।। विचार – ढूंढनीजी प्रथम सर्व आचार्योंका लेखको निरर्थक रूप, गपौडे - ठहरायके, अब जैन शासनके नायक भूत, सुधर्मा स्वामीजीका लेखसें भी, अपना — स्वार्थकी सिद्धिको नहीं मानती हुई, केवल अपना ही शासनको प्रगट करके, ढूंढनीजी आप भवचक्र गोरती हुई, हमारे भोदू ढूंढक श्रावक भाइयांको भी, डुबानेको तत्पर हुई है ? | क्या इसका नाम संसार खातामान्या है ? || फिर. पृष्ट. १४४ में ढूंढनीजीने लिखा है कि- १६ तहा किल अम्हे - अरिहंताणं, भगवंताणं, गंधमल्लादि ॥ पृष्ट. १४५ में - अर्थ -तिम निश्वय कोई कहे कि मैं अरिहंत भगवंतकी मूर्त्तिका गंधि मालादि ॥ १६ ॥ विचार – इस महानिशीथ सूत्रका पाठमें, तीर्थकरों की मूर्ति - For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूंडकाईयांका संसारखाता. (९१) का-बोध, अरिहंत, भगवंत, का पाठ मात्रसे ही-कराया है । और ढूंढनीजीने भी-इस सूत्र पाठका अर्थ, जिनमूर्तिका ही करके दि. खाया है। और-जिन प्रतिमा जिन सारखी, ऐसा जो सिद्धांतोका लेख है, उनकी भी सिद्धि, ढूंढनीजीके लेखसे ही होती है । तो भी ढूंढनीजी तीर्थकरोकी, मूर्तिको पथ्थर, पहाड, लिखके, अवज्ञा करती हुई, और यक्षादिकोंकी मूर्तिको पूजाती हुई, आप ही ढूंढनीजी भव समुद्रमें डुबती हुई, और हमारे भोले ढूंढक श्रावक भाइयांको भी, भवसमुद्रमें लेजाती है ? । क्या इसका नाम संसार खाता मान्या है ? ॥ १६ ॥ ॥ फिर सत्यार्थ पृष्ट. १४३ में, जो पंचम स्वमका पाठ है, उस पाठसें-साधुओंको ही मूर्तिपूजाका निषेध किया गया है। उस मूर्तिपूजाका सर्वथा प्रकारसें-निषेध करके, पृष्ट. १४४ में मति कल्पनासें-मूर्तिपूजाके उपदेशकोंको,कुमार्गमें गेरनेवाले लिखे है॥१७ विचार-ढूंढनीजीने इस पंचम स्वमका पाठार्थमें, अपनी मति कल्पनासें-मूर्तिपूजाके उपदेशकोंको, कुमार्गमें-गेरनेवाले लिखे। ... परंतु सत्यार्थ पृष्ट. १२६ में वीरभगवानके परम श्रावकोंकी पाससें, तदन अयोग्यपणे, खास जो मिथ्यात्वी-पितर, भूतादिक है, उनोंकी मूर्तिपूजा षट् कायाका आरंभसे-कराती हुई, ते परम श्रावकोंको-कुमार्गमें गिरनेका, जूठा कलंक देक, ढूंढनी ही आप कुमागैमें पडती है ?। क्या उसका नाम संसार-खाता, मान्या है ? १७ . फिर. सत्यार्थ पृष्ट. १४६ में-साधुओंको मूर्तिपूजाका निषेध रूप, महा निशीथका पाठार्थमें, ढूंढनीजी जिन मूर्तिपूजक श्रावकोंको-पाषाणो पासकका, संबोधनसें-हास्य करती हुई, और अपनी मति कल्पनासे जिनमूर्तिपूजाके उपदेशकोंको, अनंत सं. सारी लिख मारे है ॥ १८ ॥ For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) ढूंढकभाईयांका संसारखाता. विचार-तीर्थंकरोंकी भक्ति से श्रावक जिन मूर्तिपूजे, सो तो अनंत संसारी । और तीर्थकरोंकी भक्ति करानेके वास्ते, उपदेश देनेवाले-गणधरादिक सर्व साधु, सो भी अनंत संसारी॥ परंतु जैनोंको पूजन करनेका वयं ऐसी-मिथ्यात्वी कामदेवकी, जड स्वरूप पथ्थरकी मूर्ति,यक्षादिकोंकी जड स्वरूप पथ्थरकी मूर्ति,और अदृश्य स्वरूप पितरादिकोंकी जडरूप मूर्ति, उनोंका पूजः नकी सिद्धि करके देनेवाली,और वीरभगवानके परम श्रावकोका-जिन पूजन छुडवायके, महा मिथ्यात्वी-पितरादिकोंको पूजानेवाली, ऐसी .यह विवेक शून्या ढूंढनीजी,तीर्थंकरोंके साथ-वैरभावके योगसे,अनंत संसारमें गीरती हुई, ते वीरभगवानके परम श्रावकोंको भी, गेरनेका रस्ता ढूंढ रही है ? । क्या उसका नाम संसारखाता मान्या है?१८ ॥ फिर. पृष्ट. १४८ में, विवाह चूलिया सूत्रका पाठार्थमें, ढूंढनांजी लिखती है कि-१९ - हे भगवन् मनुष्य लोकमें, कितने प्रकारकी पडिमा ( मूर्ति) कही है, हे गौतम-अनेक प्रकारकी कहीं है, ऋषभादि महावीर (वर्द्वमान ) पर्यंत २४ तीर्थंकरोंकी। ___अतीत, अनागत-चोवीस तीर्थंकरोंकी, पडिमा । राजा ओंकी पडिमा । यक्षोंको पडिमा । भूतोंकी पडिमा । जाव धूमके. तुकी पडिमा । हे भगवन् जिन पडिमाकी-वंदना करे, पूजा करे । हा गौतम-वंदे, पूजे ॥ १९ ॥ विचार-नंदीसूत्रका मूल पाठमें-सूत्रोंको गीनतीमें, आयाहुवा इस विवाह चूलिया, सूत्रका पाठार्थमें-यक्षादिकोंके प्रतिमाकी उपेक्षा करके; मात्र तीनोचोवीसीके (७२) वहुतेर तीर्थकरोंकी-प्रतिमाओंका, वंदन, और पूजन, करणेके विषयों-गौतम स्वामीजीने, प्र For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढकभाईयांका संसारखाता. (९३) किया है। इसप्रश्न के उत्तरमें-भगवान् महावीर स्वामीजीने, कहा हैकि-हे गौतम, तीर्थकरोंकी प्रतिमाओंको-वांदेभी, और पूजेभी, ऐसीआज्ञा, खुदभगवान-अपने मुखसें, फरमा रहे है । और ढूंढनीजीभी-इसपाठका अर्थ, इसी प्रकारसे करती है। तोभी परमार्थ को समजे बिना, उस आज्ञाका लोपकरके, जिस यक्षादिकोंकी पतिमा, श्रावकोंको पूजनेके योग्य नहीं है, उनोंकी-(अर्थात्यक्षादिकोंकी) प्रतिमा पूजनकी सिद्धिकरके, जगें जगें पर-दिखाती हुई। और प. रमपूज्य तीर्थकरोंकी प्रतिमाका-वंदन, पूजनसें, हटातीहुई । और तीर्थकरोंकी प्रतिमाओका-वंदन,पूजनका उपदेश देनेवाले श्री वीरभगवान है उनकोभी, अनंत संसारका-कलंक, मूढतापणे चढाती हुई। ऐसा विपरीत बोधसे यह दूंढनीजी-महा भवचक्रमें, जपापात करतीहुई । और दूसरे भव्य प्राणियोंकोभी-महा भवचक्रमें, गेरनेको तत्पर हुई है ? क्या इसका नाम-संसारखाता, मान्या है ?।। १९॥ . हम हमारे ढूंढकभाईयांका, विपरीत विचार-कहांतक लिखरके दिखावें, क्योंकि-१ सर्वलोक व्यवहारसेभी विपरीत । २ जैन धर्म सेंभी विपरीत । ३ जैनाचार्योसेंभी विपरीत | ४ गणधर महाराजा. ओसेंभी विपरीत । ५जैनके सर्वसिद्धांतोंसेंभी विपरीत । छेवटमें ६ सर्व तीर्थंकरोंसेंभी विपरीत । केवल माते हुये सांठकीतरां-मथ्या उचाकरके, फिरना । नतो दिखाई हुई युक्तिका विचारकरना, और नतो जैन सिद्धांतकारोकी तरफभी देखना, मात्र जो मनमें आजावे सोही-अनघड पथ्थर, फेंकमारना । क्योंकि-संसारखाता, यह शब्दका प्रचार, नतो कोई जैन सिद्धांतकारने लिखा है, और नतो कोई लौकिक शास्त्रोंमेंभी प्रचलित है, केवल यह-कर्ण कटुक, वाक्य है सोही हमारे ढूंढकाईयांको-संसारमें भटकानेकी, सूचना कर For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) ढकभाईयांका संसारखाता. रहा है कि- शकुन पहिला शब्द आगला, । क्योंकि हरणहुयेली द्रौपदीजी लेनेको, जातेहुये पांडवोंने- कृश्नजीको मात्र इतनाही क. हाथांकि, हम हार जावेतो, तुमने सहाय्यकरना । उसवखतही, कृश्नजीने कहा कि तुम पहिलेही, हारजानेकाशब्द निकालते हो - तो पिछे, जयमला कहांसे आनेवालेहो ? ऐसा निश्चयक्रिया | और छेवटमें पद्मोत्तर राजाकी साथ, लडाई करते हुये पांचे पांडवो हारंगये, और कुनजीको ही जय मिलादेनी पडीथी । तैसें ही हमारे ढूंढकभाईओ, जैनमतका आश्रय लेके, सर्व परम गुरुओंकी निंदा | और तीर्थंकर गणधरोंकी भी अवज्ञा । और जैन सर्व सिद्धांत को जूठ ठहराना । देवताओंने तीर्थकरों की भक्तिभावसे, विधि सहित सत्तर भेदसें पूजा किई - सो भी संसारखाता । और ते जिन मूर्त्तिओं के आगे- नमोथ्थुणं, का पाठ पढा सो भी संसारखाता । इसी प्रकार - द्रौपदीजी परम श्राविकाने विधि सहित जिन प्रतिमा का पूजन करके नमोथ्थुणका, पाठ पढा, सो भी संसोरखाता । वीरभगवान के परमश्रावकोने, जो नित्य [ अर्थात् दररोज ) तीर्थंकर देवोंकी - प्रतिमाओंकी भक्तिपूर्वक सेवा किई, सो भी संसारखाता । ढूंढनीजीने-यक्षादिकोकी जड़रूप पथ्थरकी क्रूर मूर्तिकी पूजा कराई, सो तो ढूंढनाजीका स्वार्थकी सिद्धिको करनेवाली । मित्रकी मूर्त्तिसें प्रेम, लड पडे तो उसी मूर्ति द्वेष, इत्यादिक सर्व जर्गेपर- विपरीत ही विपरीत, समजायके जिनमूर्त्तिके साथ, ढूंढनीजीने - इतना द्वेष, प्रज्वलित किया है कि इस लोक परलोकका, महा फलकी प्राप्तिको देनोवाला, जिन मूर्त्तिका पूजनको, छुवा के हमारे भोंदू ढूंढ़क श्रावकभाइयांको, केवल तुछरूप धन For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - ढूंदकाईयांका संसारखाता. पुत्रादिक है उनकी-लालच देके, मिथ्यात्वी पूर्ण भद्रादिक यक्षोंकी-कर मूर्ति, पूजानेको तत्पर हुई। और वीरभगवानके, परम श्रावकोंको-किंचित् मात्रका लाभके बिना भी पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी-मूर्तियां, षट् कायाका आरंभसें पूजानेको तत्पर हुई। और द्रौपदीजीकी पास-प्रयोजनके बिना ही, कामदेवकी मूर्तिकापूजन, करानेको तत्पर हुई। ... मात्र परम पूज्य तीर्थंकरोंकी मूर्तिके वास्ते कहती है कि-उसमें श्रुतिमात्र भी मत लगाओ । वंदना नमस्कार भी मत. करो। और वंदना नमस्कार करनेका बतलानेवाले, तीर्थकर, गणधर, तुमको-मतवाल, पिलानेवाले है । इत्यादिक जो जो मनमें पाया, सो ही बकबाद करके, अपना संसारखाताकी वृद्धि करती हुई, भोदू लोकोको भी, यही संसारखाताका ही शब्दको सिखाती है। ___और केवल अपना जो-परमोपकारी, तीर्थकर भगवान है, उनकीही परमशांत मूर्तिका पूजनसें, श्रावकोंको हटाती है। औरजो श्रावकोंके वास्ते तदन अयोग्य पितरादिक, यक्षादिक, मिथ्यावी क्रूर देवताओ है, उनकी मूर्तिका पूजनकी-सिद्धिकरके, दिखलाती है ॥ . . .. - और सर्वपदार्थकी साथ-व्यापक स्वरूप, जो चार निक्षेप, जैन सिद्धांतोमें-सत्य स्वरूपसे कहे गये है, उस विषयका विचारको-परंपराका गुरुके पास पढे बिना, और ते चार निक्षेपके विष यका हेय, झेय, और उपादेयके स्वरूपसें, वस्तुभावका तात्पर्यको, समजे बिना-निरर्थ, और उपयोग बिनाका, लिखके । और गणधरादिक-सर्वमहापुरुषोंकों, गपौडेमारनेवाले ठहरायके, अपना महामृढ पंथकी सिद्धिकरके दिखाती है ?। . . For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) ढूंढकभाईयांका संसारखाता. ____ और इस प्रकारसे प्रथमके त्रण निक्षेपको-निरर्थक, ठहरायके, जैनधर्मके सर्व सिद्धांतोका, जैनधर्मकी २सर्व क्रियाओका, और जैन धर्मके ३सर्व नियमोका, और जैनधर्मके-साधु, श्रावक संबंधी-जितने व्रतो, जितनी क्रियाओ, उस-सर्वका, लोपकरकेही दिखाती है। - जैसे कि-१ नाम निक्षेपका विषयभूत, आवश्यक, दश वैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांगादिक-सर्व जैन सिद्धांतोका, नाम भी-निरर्थक । १ । और २ उस पुस्तकोमें लिखी हुई-स्थापनानिक्षेपका विषयभूत, अक्षरोकी पंक्ति, सो भी उपयोग बिनाकी निरर्थकरूप २ । और सामान्य मात्रसें-३ द्रव्य निक्षेपका विषयभूत जैन धर्मके सर्व पुस्तको-तो भी निरर्थक ३ । जैसे कि ढूंढनीजीका जूठा आशयको, पकड करके-साह वाडीलालने अपना बनाया हुवा-धर्मना दरवाजा, नामके, पुस्तकका पृष्ट. ६३ में, प्रगटपणे लिखके दिखायाथा ।। और पृष्ट. ५४ में, लिखाथा कि-आ चार निक्षेप, जैन मतमां उपयोगी भाग, भजवे छ । एनी गेर समजथी-निरारंभी जैन वममा, एक मूर्तिपूजक पंथ, उभो थयो छे, के जेमां-हिंसा, मु. ख्यत्वे छ । इत्यादिक अने प्रकारका जूठही जूठ आक्षेप करके, तदन हद उपरांतकी, मजलको पुहचकरके-दरवाजाका पृष्ट. ६८ । ६९ में, लिखा है कि-अरेरे भस्मग्रहना-भ्रमित आचार्योए, मात्र पेटना कारणे, दुधमाथी पौरा विणवा जेवू काम करी-स्थापना निक्षेप, नो अवलो अर्थ लइ-मूर्तिपूजाना, अने ते अंगे थतां बीजां अगणित पापोमां, भोली दूनीयाने-केवी डुबावी दीधी छे ?। अने डुवेला पाछा उठवाज न पामे तेदला मादे-तेमना उपर, कपोल कल्पित For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढकभाइयांका संसारखाता. (९७) ग्रंथोनी, केवी त्रासदायक पछेडी औढाडी दीधी छे । पृष्ट. ७० मेंभस्मग्रहना संख्याबंध, भूखथी आकूल व्याकूल थयेला आचार्यो, शा. खनुं शस्त्र बनावी,ते वडे दूनीयानो शिकार करवामां,फतेह पामे-एमां शु आश्चर्य ? । परंतु जेओने अंतर्चक्षु छे, तेमने विचार करवा दो, अने पापखाइमां धक्केली देनार सामे-मानसिक टक्कर, लेवादो।। इत्यादिक जो मनमें आया सोही अतिनिध वचनसें लिख मारा है। परंतु इस ढूंढकभाइको अंतरके चक्षु खुल्ले करनेकी, और मानसिक टक्कर, लेनेकी, भलामण करके, इहांपर हम एकही बात पुछते है कि-हे भाई ढूंढक ! तूने, और तेरी स्वामिनीजीने-स्थापना निक्षेपका विषयभूत, मूर्ति मात्रको-निरर्थक, और उपयोग बिनाकी, ठहराईथी ? तो पिछे-मिथ्यात्वी यक्षादिक देवोंकी, जडरूप-निरर्थक,पथ्थरकी क्रूर मूर्तिके आगे, तुमने मान्य कीई हुई जो. हिंसा है उसको कराके, पूजा करनेवालोंको-धन, पुत्रादि, प्राप्ति होनका-दिखाती वखते, तुमको कुछ भी विचार न आयाथा ? जो केवल वीतराग देवके परम भक्त श्रावकोंको-हिंसा धर्मी लिख मारते हो ?॥ ___हम तो यही समजते है कि, जैन धर्मका-विपरीत बोध होनेसें, तुम ढूंढको जूठे जूठ लिखते हो । और निर्मल जैन तत्वोंको भ्रष्टपणा करते हो । और अनाथ भव्यजीवोंको-जैन धर्मसें भ्रष्ट करते हो । सोही तुमेरा-संसार खाता, हमको प्रगटपणे ही मालूम होता . है, बाकी दूसरा प्रकारका-संसारखाता, न तो कोई ग्रंथादिकमे, लिखा हुवा देख्या है। ____ और न तो किसी महापुरुषकी पाससे, श्रवण मात्र भी किया हुवा है ॥ किस वास्ते श्रावक धर्मका लोप करके-संसारखाताका, जूठा पोकार उठाते हो ? ॥ . .. .. For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) ढूंढकभाइयांका संसारखाता. ___ पाठकवर्ग ? हमारे ढूंढकभाइओ, दरपणमें विपरीत विचारसें देखनेवाला-अज्ञानी कुक्कुट ( कुकडा) की तरां,अपनी भूलको-नहीं देखते हुये, महान् महान् पूर्वाचार्योंका-अपूर्व अर्थ रत्नके भंडारा रूप, ग्रंथोंको-गपौडे गपौडे, कहकर निंदते है ? । कभी तो हिंसा धर्मी लिख देते है ? कभी तो मतवाल पीलानेवाले लिख देते है ? परंतु जैन धर्मके तत्त्वोंसे विमुख होके तदन बेशुद्ध बने हुये हमारे ढूंढकभाइओ, अपना अज्ञानका पडदा खोलके, जैन धर्मके शुद्ध तवोंकी तरफ-थोडीसी निघा मात्र करके भी, देखते नहीं है ? । मात्र अपना हृदयपर अज्ञानका महान् पडदा लेके, वीतराग देवकी भी निंदा । परम गुरुयांकी भी निंदा करके, जैन धर्मके तत्वोंको भी-विपरीत लिखनेमे, अपनी पंडिताइ समजते है ?। न तो अपना पूर्वका लेखका विचार करते है, न तो पिछेके लेखका विचार करते है, और जो मनमें आता है, सोही लिख मारते है ? । ऐसें निकृष्ट विचारवालोंको, हम कहां तक शिक्षा देते रहेंगे ?। अब तो कोई उनोंका ही भाग्यकी प्रबलता होनी चाहिये, तब ही पार जावेगा? इतना ही मात्र लिखके इस संसारखातेका स्वरूपकी भी समाप्ति ही करता हुं । इत्यलमति विस्तरेण ॥ ॥ इति हमारे ढूंढकमाइयांका संसारखातेका स्वरूपकी समाप्ति ।। For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥प्रतिमामंडन स्तवनसंग्रहः॥ अनेक महापुरुषों कृत. ॥ संग्रह कर्ता ॥ श्रीमद्विजयानंद सूरिशिष्य मुनि अमरविजय. छपवायके पसिद्ध कर्ता. स्वर्गवासी शा. छगनदास मगनदासके स्मरणार्थे तेमणा पुत्र चुनीलाजी॥ आमलनेरा ( जिल्ला. खानदेश.) अमदावाद. श्री" सत्यविजय " प्रीन्टींग प्रेसमां. शा. सांकळचंद हरीलाले छाप्युं. For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमातिमा स्थापन प्रथम संपनः (३) ॥ अथ श्रीमयशोविजयजीकृत हूंढकशिक्षा । जिन, जिन प्रतिमा,वंदन दीसइ, समाकितनइ आलावइ । अंग उपासके प्रगट अरथए, मूरख मनमां नावइरे ॥ कुमती को पतिमा जथापी, इससे शुभ मातिका पीरे, कुमती. मारग लोपे पापीरे, कुमती का प्रतिमा उथापी १॥ एह अरथ अबडं अधिकारें, जूभो उबंग ऊबाइ ।ए समाकितनो मारग मरडी, कहइ दया सौ माईरे । कु. । २ ॥ समकित विन सुर दुर गति पाम्यो, अरस विरस आहारी। जूओ जमाली दयाई म सर्यो, हूओ बहुल संसारीरे । कु. । ३ ॥ चारण मुनि निन प्रतिमा धंदइ, भाषिउं भगवई अंगें । चैत्यसापि आलोयणा भाषी, व्यवहारे मनरंगरे । कु.। ४ ॥ प्रतिमानति फल काउस्सग्गिं, आ. वश्यकमां भाषिउं । चैत्य अरथ वेयाचच मुनिनि, दसमइ अगि दाखिउरे । कु. । ५॥ सूरपाभ सुरें मतिमा पूजी,राय पसेणी मांहिं । समाकित बिन भवजलमां पडता, दया न साहइ बाहिरे । कु. । ६ ॥ "द्रौपदीई जिन मातिमा पूजी, छठइ अंगिं वाचइ । तोस्यु एक दया पोकारी, आणाविन तूं माचईरे । कु. ७॥ एक जिन पतिमा वंदन देषि, सूत्र घणां तूं लोपई । नंदीमा जे आगम संख्या, ते आप मति का गोपइरे । कु.८॥ "जिनपूजा फल दानादिक सम, .. १॥ अरिहंत चेइयाइं, पाठ, आनंदादिक श्रावकोंका समकिसके आलावेमें आता है । देखो नेत्रांजन १ भाग पृष्ट. १०८ में ॥ २ अबदनीय भी यही पाठ है । देखो नेत्रांजन १. माग. पृष्ट. १०१ से ८ सक ॥ ३ नेत्रांजन १ भाग. पृष्ट.११७ से १२१ सक ॥ ४ नेत्रजन १ भाग. पृष्ट ११० से ११४ तक ।। ५ नेत्रांजन १ भाग. पृष्ट. १३२ से १३३ तक ॥ For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) जिनप्रतिमा स्थापन दूसरा स्तवने. महा निशीथई लहीइ । अंध परंपर कुमत वासना, तो किम मनमां बहिइरे । कु. । ९॥ सिद्धारथराइं जिनपूज्या, कल्प सूत्रमा देखो। आणा शुद्ध दया मान धरता, मिलइ सूत्रनो लेखोरे । कु. । १० ॥ स्थावर हिंसा जिन पूजामां, जो तूं देखी धूजइ । ते पापीने दूर देशथी, जे तुज आवी पूजइरे । कु. । ११ ॥ पडिक्कमणइ मुनि दान विहारइ, हिंसा दोष अशेष । लाभालाभ विचारी जोता, प्रतिमामां स्यो द्वेषरे । कु. । १२ ॥ 'टीका, चूरणी, भाष्य, ऊवेष्यां, ऊखी, नियुक्ति । प्रतिमा कारण सूत्र ऊवेष्यां, दूरी रही तुज मुगतीरे । कु. । १३ ॥ शुद्ध परंपर चाली आवी, प्रतिमा वंदन वाणी । संमूर्छिम जे मूढ न मानइ, तेह अदिठ कल्याणीरे । कु. । १४ । जिन प्रतिमा जिन सरषी जाणइ, पंचांगांना जाण । वाचक जस विजय कहइ ते गिरुआ, किजई तास वषाणरे । कु. । १५ ॥ ॥ इति ढूंढकशिक्षा स्वाध्याय ॥ ॥ अथ दूसरी शिक्षाभी लिखते है । श्रीश्रुतदेवी तणइ सुपसाय,प्रणमी सदगुरु पाया। श्री सिद्धांत तणइ अनुसार इसीष कहुं सुखदायारे १।। कुमति का प्रतिमा ऊया, मुग्धलोकनइ भ्रमें पाडी, तूंपिंडभरइ कां पापईरे । कु. । २॥ सिद्धांत तणइपदि अक्षर अक्षर, प्रतिमानो अधिकार । तुमें जिनमतिमा कांइ ऊथापो, तो जास्यो नरक मजारिरे । कु. । ३ ॥ द्रव्य पूजानो फल श्रावकनइ, कहिउँछे फल मोटो । पूर्वाचारय प्रतिमा मानी,तो थाहरोमत षोटोरे कु.४॥ देशविरतिथी होय देवगति,तिहां प्रतिमा पूजे... १ देखो नेत्रांजन १ भाग. पृ. १०४ में सें १०८ तक. ॥ देखो नेत्रांजन For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमा स्थापन दूसरा स्तवन. (५) वी। ते तो चित्त तुमारे नावें,तो तुमें दूरगति लेवीरे । कु./५॥ श्रावक अंबड प्रतिमा वंदें,जूओ सूत्र ऊवाइ । सूत्र अरथना अक्षर मरडो, ए मतियाने किम आईरे । कु. । ६ ॥ जंघाचारणा वैद्याचारण, प्रतिमावंदन चाल्या आधिकार ए भगवती बोले, थें मुरख सहु कालारे । कु. ७।। श्रावक आनंदने आलावें, प्रतिमा वंदइ करजोडी । उपासकें विचारी जोयो, थे कुमतें हियाथी छोडीरे । कु.। ८ ॥ श्री जिनवरना चार निक्षेपा, माने ते जगसाचा । थापनाने उथाप करेंजे,बालबुद्धिनर काचारे । कु. ९॥ लबधि प्रयोजन अवधिआवइ, जिमगोचरीइं इरिया । शुद्ध संयम आराधक बोल्या, गुणमणिकरा दरियारे । कु. । १० ॥ ऋषभादिक जिन 'नाम' लिई शिव,ठवणा, जिन आकारें। इव्य' जिना ते अतीत अनागत, भावें विहरता साररे । कु. ११॥ ४द्रव्य,थापना, जो नवी मानो,तो पोथी मतजालो। भावश्रुत मुखकारण बोलो,तो थाहरो मुखकालोरे ।कु.।१२।। जिनप्रतिमा जिन कहि बोलावें, सूत्र सिद्धांत विचारो । पजिनघर, सिद्धायतन, ना काहयां, सत्यभाषी गणधारोरे । कु.। १३ ॥ १ भाग. पृ, १०७ से १२१ तक। २ नेत्रांजन ? भागः पृष्ट. ११७ से १२१ तक ॥ ३ ने० १भा. पृष्ट. १०८ में ॥ ४ जो स्थापना, और द्रव्य, निक्षेपको, न माने उनको जैन. के सूत्रोंकोभी हाथमें लेना नहीं चाहिये, कारणकि-सूत्रों में अक्षरों है सो-स्थापना रूपसें है, और सर्व पुस्तक 'द्रव्यनिक्षेपका, विषय रूपका है ॥ . ५ जिनघर, सिद्धायतन, यह दोनोंभी नाम,वीतरागका मंदिरके ही गणधर भगवानने कहे है ॥ For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) जिनप्रतिमा स्थापन र स्तवने. पजिनप्रति प्रत्येकि धूप ऊषेवइ. द्रौपदी सूरयाभदेवा | ज्ञाता रायपसेमाहि, ए अक्षर जो एहवारे । कु. । १४ ॥ ‘नमुथ्थुणं' कही शिव सुखमागे, नृत्य करी जिम आगि । समकित दृष्टिजिन गुणरागें, कां तुज कुमति न भागेरे । कु. । १५ ॥ सूरयाभमुर नाटिक करतां, वचन विराधक न थयो। " अणुजाणह भयवं" इणि अक्षर, आणाराधक सदघोरे । कु. । १६|| जलयर' थलयर' फूलनां पगरण, जानु प्रमाण समारे। जोयणलगे ए प्रगट अक्षर, समवायांग ममाररे । कु. । १७ । पडिले. हन करतां परमादि, कह्या छकाय विराधक । उत्तराध्यधनना अध्ययन छवीशमें, कुण दया धरमनो साधक । कु.। १८ ॥ नदो नाहला ऊतरी चालो,दया किहां नव राखे । थे दयानो मर्म न जाणो, रहस्यो समकित पाखेरे । कु. ! १९ ॥ साधु अमें साधवी बलीए, घडी छमाहिं न फिरवू । सुषिम वरषा तिहां हो ए, भगवती सूत्र सद्दहव॒रे । कु. । २० ॥ परिपाटी ने धर्म देषाडे, ते कह्या धर्म आराधक । वसै वरस पहिलो धर्मविछेदें, ते जिनवचन विराधक । कु. । २१॥ अत्तागम अनंतरागम वली, परंपरागम जाणो। एतीने मारगवली लोपें, ते तो मूढ अजाणरे। कु. । २२।। तुंगीया नगरीना श्रावक दाता, पुण्यवंत ने सौभागी। घरि घरिवें राधो विन मागे, ए कुमती किहांथी लागीरे कू.।२३।। योग उपधान विना श्रुत भणतां, ए कुबुद्धि तिहां आई । तप जप संयम किरिया छोडें, पूर्व कमाई गमाईरे। कु. । २४ ॥ चउवीश दंडक भगवती भाष्यां, पनर दंडक जिन पू । शुभ दृष्टि शुभ भाविं शुभ फल, देषी कुमत मत धूजैरें। कु. ।२५।। बेंद्री तेंद्री चउरेंद्रीय,पांच थावर नरक निवासी। १ नेनांजन १भाग. पृ. ११० से ११४ तक द्रौपदीजीका विचार है ।। For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमतिमा स्थापन-३स्तवन. (७) जे जिन किंवन दरसन करें,ते दंडक नवमां जासीरें। कु. । २६ ॥ व्यंतर ज्योतिषने वैमानिक, तीर्यच मनुष्य ए जापी । भुवनपतिना दश ए दंडक,इहां जिनपूज गवाणीरे । कु ।२७।। श्रीजिन बिंब सेव्यां सुखसंपति, इंद्रादिक पदरुडां। वंदन पूजन नाटिक करतां, पामे शिव सुख उडारे । कु.२८ ॥ कानो मात्र एक पद उथा, ते कह्या अनंत संसारी । जेतो आखा खंधजलोपें, तिहारी गति छे भारीरे । कु, । २९॥ कूवा आवाढानां पाणी पीठं,कहें अम्हे दया अधिकारी। ए एकवीश पाणीमाहि कहां, तो बहुल संसारीरे । कु.॥३०॥ श्री महावीरना गणधर बोलें,प्रतिमा पूज्यां फलरूडां। वंदन'पूजन' नाटिक करता, निंदा करें ते बूढेरे । (अथवा) जेते मुगति पुहरे)।कु.॥३१॥ आदियुगादि से चल आवें,देवलनां कमठाण । भरत उद्धार शत्रुजय कीधो,छ। सहु अनियमाणारे ।कु. ॥३२॥ आद्रकुमार शय्यंभवभट्टा, प्रतिमा देखी बूज्या । भद्रबाहु गणधर इणि परे बोले, कठिन कर्म स्युज्यारे । कु. । ३३ ॥ श्रावकने ए सुकृत कमाई, प्रतिमा पूजा अधिकाई । जिन प्रतिमानी निंदा करतां,मति, बुद्धि, शुद्धि,गमाईरे । कु. । ३४ ॥ कठोल धान काचे गोरस जिम्यां,जीवदया किम होई। बद्रीनी विराधन करतां, पूर्वकमाई तें खोई रे । कु.। ३५ ॥ सुविहित समाचारीयी टलीया, रति विना रडवडीया । कुमत कदाग्रह नाथे राता,धरमथकी ते पडीयारे कु.॥३६॥ सोजत मंडन वीर जिनसरे॥ आगे पद हमारे हाथ नही आनेसे लिखे नही है. ।।इति समाप्त । १ एक धानकी बे फाडी होवे, उसको-कठोल, कहते है । मुंग, चणादि, उस बस्तुकी चिज छास. दही. दुध उष्ण किये बिना भेला करें तो, उसमें तुरत जीवोत्पत्ति होती है । इस वास्ते खानेकी मना है ॥ For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) जिनप्रतिमा स्थापन-स्तवन... ...॥ पुनरपि स्तवनं लिख्यते ॥ क्यूंजिनप्रतिमा ऊथोपरे, कुमति क्यूं जिनप्रतिमा उथा । अभय कुमार जिनप्रतिमा मेजी, आद्रकुमारे देखी । जातिस मरण ततषिण उपनो, सूयगडाम सूत्र छ सापीरे, पापी क्यूं जिनप्रतिमा ऊया ॥ १ ॥ सूत्र ठाणांगे चौथे ठाणे, चउ निक्षेपा दाख्या। श्री. अनुयोग दुवारे ते पिण, गौतम गणधरे भाष्यारे । पापी, क्यु, । २ ॥ भगवई अंगे शतक वीसमें, उद्देशे नवमें आनंदे । 'जंघाचारण विद्याचारण, जिन पडिमाजई बंदेरे । पापी, क्यूं :शा 'छठे अंगै द्रौपदी कुमरी, श्री जिनप्रतिमा पूजे । जिनहर सूत्रे प्रगट पाठएं, कुमातिने नहीं सूजरे । पापी क्यू. । ४ ॥ उपासक अंगे आनंद श्रावक, समाकितने आलावे । अन्न उत्थिया प्रगट पाठए, कुमति अरथ न पाबेरे । पापी क्यू. । ५॥ दशमें अंगे प्रश्न व्याकरणे संवर तीजे भाख्यो । निरजरा अर्थे चैत्य कह्यो हैं, सूत्रे इणिपरि दाख्योरे । पापी क्यू. । ६ ॥ सूरयाभे जिनप्रतिमा पूजी,रायपसेणी उवंगे | विजय देवता जीवाभिगमें,सूत्र अर्थ जोवो रंगेरे । पापी क्यूं। । ७॥ अरिहंत चैत्य उवाई उपंगे, अंबडने अधिकारें । वंदइ करयइ पाठ निहाली, कुमती कुमतः निवारेरे । पापी क्यूं. । ८ ॥ आवश्यक चूर्णी भरत नरेसर,अष्ठापद गिरी आवे । मानोपेत प्रमाणे जिननां, चौवीश बिंब पावरे । पापी क्यूं.। ९ । शांति जिनेसर पडिमा देखी शय्यंभव पडि बूमे । दश वैकालिक सूत्र चूलिका, कुमति अरथ न देखो-नेत्रांजन १. भा. पृष्ट. ११७ सें. १२१ ॥ । २.नेत्रजिनं. १ भा. पृष्ट. ११० से ११४ तक ॥ ३ नेत्रांजन. १ भा. पृष्ट. १०८ में ।।। ४ नेत्रांज़न, १ भा. पृष्ट. ..१.१४ में १०८ तक। For Personal & Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमतिमा स्थापन - ४स्तवन. ( ९ ) 'सूजेरे | पापी क्यूं । १० ।। शुभ अनुबंध निरजरा कारण, द्रव्य पूजाफल दाख्यो । भाव पूजा फल सिद्धिना कारण, वीर जिनेसर भाख्योरे । पापी क्यूं । ११ ।। कुमति मंद मिध्या मंति मुंडो, आग अवलो बोले। जिन प्रतिपासुं, द्वेष धरीने, सूत्र अरथ नहीं खोलेरे । पापी क्यूं । १२ ॥ जे जिन बिंत्र तणम थापक, कमांहि जावे । जेहने तेह सूं द्वेष थयो ते, किम तस मंदिर आवेरे । पार्थी क्यूं । १३ ॥ सूत्र, निर्युक्ति, भाष्यं, पयन्ने, ठाम ठाम आलावें । जिनपडिया पूजे शुभ भावें, मुक्तितणा - फल पावेरे । पापी क्यूं । १४ ॥ संवेगी गीतारथ मुनिवर, जस विजय हितकारी । सोभाग्य विजय मुनि इणिपरि पभणे, जिंन पूजा सुखकारीरे । प्रापी क्यूं । १५ ।। 11 इति कुमति निकंदन स्तवनं ३ समाप्तं ॥ ॥ अथ चिंतामणि पार्श्वजिन ४ स्तवनं ॥ after श्री जिन व जूहारो, आतम परम आधारो रे । भ । श्री। एटेक, जिन प्रतिमा जिनसररवी जाणो, न करो शंका कांई । आगमवाणीने अनुसारें. राखो प्रीत सवाईरें । भ । श्री । १ ॥ जे जिन बिंब स्वरूप न जाणे, ते कहिये किम जाणे | मुलातेह अज्ञानें भरिया, नहीं तिहां तत्त्व पिछाणेरे । भ । श्री । २ || अंबड श्रावक श्रेणिक राजा, रावण प्रमुख अनेक | विविधपरें जिन भक्ति करता, पाया धरमं विवेकरे । भ । श्री । ३ ।। जिन प्रतिमा बहु भगत जीतां होय निश्चय उपगार । परमारथ गुण प्रगटे पूरण, जो जो आद्र कुमाररे । भ । श्री । ४ || जिन प्रतिमा आकारें जलचर, ले बहु जलधि मजार । ते देखी बहुला मछादिक, पाम्या विरति प्रका For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) जिनमतिमा स्थापन ५ स्तवन. रहे । भ । श्री । ५ ।। पांचमा अंगें जिन प्रतिमानो, प्रगटपणे अ. धिकार । सुरयाभ सुर जिनवर पूज्या, रायपसेणी मजाररे । भ । श्री | ६ || दशमें अंगें अहिंसा दाखी, जिन पूजा जिनराज । ए हवा आगम अरथमरोडी, करियें किम अकाजरे । भ । श्री । ७ ॥ समकित धारी सतीय द्रौपदी, जिन पूज्या मनरंगें । जो जो एहनो अरथ विचारी, छठे ज्ञाता अंगें रे । भ । श्री । ८ ॥ विजय सुरें जिम जिनवर पूजा, कधी चित्त थिर राखी । द्रव्यभाव बिहुं भेदें कीनी, जीवाभिगमते साखीरे । भ । श्री । ९ ।। इत्यादिक बहु आगम साखें, कोई शंका मति करजो । जिन प्रतिमा देखी नित नबलो, प्रेम घणो चित्त धरजोरे । भ । श्री । १० ।। चिंतामणि प्रभु पास पसायें, सरधा होजो सवाई । श्री जिन लाभ सुगुरु उपदेशें, श्री जिनचंद्र सवाईरे. भ. श्री . ११ ॥ - इति चिंतामणि पार्श्व ४ स्तवन. · || अथ मिथ्यात्व खंडन स्वाध्याय ५ लिख्यते. दूहा - पूर्वाचारज सम नहीं, तारण तरण जहाज । ते गुरुपद सेवा विना, सबही काज अकाज | १ || टीकाकार विशेष जे, नियुक्ति करतार | भाष्य अवचुरी चूर्णिथी, सूत्र साथ मन धार । २ ॥ यहथी अरथ परंपरा, जाणग जे मुनिराज | सूत्र चौराशी वर्णव्या, भवियण तारक जाज ! ३ ॥ निजमति करता कल्पना, मिथ्यामति केई जीव । कुमति रचीने भोलवे, नरके करसें रीव | ४ || बाल अजाणग जीवडा, मूरखने मति हीन । नुगराने गुरु मानसें, थास्यें दुखिया दीन । ५ ॥ ढाल - प्रणमी श्री गुरुना पदपंकज, शिखामण कहुँ सारी । For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्याव खंडन-६ स्वाध्याय. (११) समाकित दृष्टि जीवने काजे, सुणज्यो नरने नारी । भविषण समजो हृदय मजारी। १ । ए टेक ॥ अत्तागम अरिहंतने होवें, अणंतर श्रुत गणधार । आचारजथी पूर्व परंपर, सो सदहें ते अणगाररे । भवियण समजो हृदय मजारी । २ ॥ भगवई पंचम अंगे भाख्यो, श्री जिनवीर जिनेस । भेष धरीने अवलो भाखे, करी कुलिंगनो वेसरे । भवि । ३ ॥ बाहार व्यवहारे परिग्रह त्यागी, बगलानी परें जेह । सूत्रनो अर्थ जे अवलो मरडे, थिथ्या दृष्टि कह्यों तेह रे । भवि । ४॥ आचारज ऊवजाय तणो जे, कुल गछनो परिहार तेहना अवरणवाद लवंतो, होसें अनंत संसाररे। भवि । १॥ महा मोहनी कर्मनो बंधक, समवायांगे भाष्यो। श्रुतदायक गुरुने हेलवतो, अ. नंत संसारी ते दाख्योरे । भवि । ६ ॥ तप किरिया बहु विधनी . कीधी, आगम अवलो बोल्यो । देवालविषे ते थयो ' जमाली' पंचम अंगे खोल्योरे । भवि । ७॥ ज्ञाता अंगे सेलग मुरिवर, पासथ्या थया जेह। पंथक मुनिवर नित नित नमतां, श्रुतदायक गुण गेहरे । भवि । ८।। कुलगण संघतणी वैयावच, करें निरजरा काजें। दशमें अंगे जिनवर भाखें, करें चैत्यनी साहजेरे । भवि । ९॥ आ. रंभ परिग्रहना परिहारी, किरिया कठोरने धारें। ज्ञान विराधक मिथ्या दृष्टि, लहें नहीं भव पारे । भवि । १०॥ भगवती अंगे पंचम शतकें, गौतम गणधर साखें । समफित विन किरिया नहीं लेखें, वीर जिणंद इम भाषेरे । भवि । ११ ॥ पूर्व परंपरा आगम साखें, सहहणाकरो श्रृद्धी । परत संसारी तेहने कहिये, गुण गृहवा जस बुद्धिरे । भवि । १२ ।। नव सातना भेद छे बहुला, तेहना भंग न जाणे । कदाग्रहथी करी कल्पना, हठ मिथ्यात्व वखाणेरे । भवि । १३ ॥ सम्यक् दृष्टि देवतणा जे, अवरण वाद न कहिये । ठाणा अंगे इणिपरी भाख्यो, दुरलभ बोधि लहियेरे । भवि । १४ ॥ For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व खंडन-६ स्वाध्यायः देव वंदननी टीकाकारी, हरिभद्र सूरिराया । च्यार धुइ करी देवी दिजें, वृद्ध वचन सुखदायारे । भवि । १५ ॥ वैयावच शांति स. माधिना करता, सुर समकित सुखकारी । प्रगट पाठ टीका निर धात्यों, हरिभद्र सूरि गणधारीरे । भवि । १६ ॥ वारे अधिकार चैत्य वंदननो, न क्यूं कहो हवें तेह । टीकाकार थुइ कही छे, सुर सम्यक्त्व गुण गेहरे । भवि । १७॥ खेत्र देव शय्यातरादिक, का. उसग कह्यो हरिभद्रे । नियुक्तिमें प्रगट पाठ ए, देखो करीमन भरे । भवि। १८ ॥ श्रावक सूत्र कह्यो वंदे तूं, पूरवधर मुनिराय । बोध समाधि कारण बांछे, सुर समकित सुखदायरे । भवि । १९ ॥ वै. शाला नगरीनो विनाशक, चैत्य थुभनो घाती । कुलबालुओ गुरुनों द्रोही, सातमी नरक संघातीरे । भवि । २० । इत्यादिक अधिकार घणेरा, निरपक्षी थई देखो । दृष्टि रागनें. दुर उवेखी, सुख कारण मुविवेकरे । भवि । २१ ॥ पंडितराय शिरोमाणि कहिये, अन्नविजय गुरुराय। जसविजय गुरु सुपसाये, परमानंद सुखदायरें । भवि।२२।। इति मिथ्यात्व तिमिर निवारण स्वाध्याय ५ मी संपूर्ण. .. ॥ श्री संपति राजाका ६ स्तवन । राग आशावरी । धन धम समति साचो राजा, जेणे कीधा उत्तम कामरे । सवालाख प्रासाद करावी, कलियुग राख्यु नाम रे ॥ धन. १ वीर संवत्सर संवत् बीने, तेरोत्तर रविवार रे। . · महाशुदि आठमी बिंब भरावी, सफल कियो आवतार रे । धन. २ श्रीपद्म प्रभु मूरती थापी, सकल तीरथ शणगार रे । .... कलियुग कल्प तरु ए प्रगटयो, वंछित फल दातार रे॥ धन. ३ उपासरा वे हजार कराध्या, दानशाला शय सात रे॥ For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपति राजाका-स्तवन. . (१३) धर्म तणा आधार आरोपी, त्रिजग हुओ विख्यात रे॥ धन र सवालाख प्रासाद कराया, छत्रीश सहस्स उद्धार रे। .. सवाकोडी संख्याये प्रतिमा,धातु पंचा' हजार रे॥ धन. ६ एक प्रासाद नवो नीत नीपजे, तो मुख शुद्धिज होय रें। एह अभिग्रह संपति कीधो, उत्तम करणी जोय रे।। धन. ६ आर्य मुहस्ति गुरु उपदेशे, श्रावकनो आचार रे।। समकित मूल बार व्रत पाली, कीधो जगं उपगार रे ॥ धन. ७ मिन शासन उद्योत करीने, पाली त्रण खंड राज रे। . ए संसार असार जाणीने, साध्या आतम काज रे ॥ धन. ८ गंगाणी नयरीमा प्रगटया, श्रीपद्मप्रभ देव रे । । विबुध कानजी शिष्य कनकने, देज्यो तुम पय सेव रे ॥ धनः ॥ इति श्री संप्रति राजाका ६ स्तवन संपूर्ण ॥ अथ जिन प्रतिमाके उपर ७ स्तवन । चोपाई ॥ जेहने जिनवरनो नही जाप, तेंहर्नु पासु न मेलें पाप । जेइने जिनवर मुं नही रंग, तेहनो कदी न कीजे संग ॥ १. जेहने नही वाहाला वीतराग, ते मुक्तिनो न लहे ताग । जेहने भगवंत मुं नही भाव, तेहनी कुण सांभलशे राव ॥ २ जेहने प्रतिमा शुं नहीं प्रेम, तेहगें मुखडं जोइये केम। जेहने प्रतिमा शुं नहीं प्रीत, ते तो पामें नहीं समकित ।।... जेहने प्रतिमा शुं छे वेर, तेहनी कहो शी थासे पेर । जेहने जिनमतिमा नहीं पूज्य,आगम बोले तेह अबूज्य ॥ ४ १नाम, २स्थापना, ३द्रव्य, ने ४भाव, प्रभुने पूजो सही प्रस्ताव । जे नर पूजे जिननां बिंब, ते लहे अविचल पद अविलंब ॥ ५ For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) ॥ जिन प्रतिमान विषये ८ स्तवन ॥ . पूजा छे मुक्तिनो पंथ, नित नित भाषे इस भगवंत । ... सहि एक नरक बिना निरधार, प्रतिमा छे त्रिभुवनमां सार ॥६ सत्तर अठाणु आषाढी बीज, उज्जल कीधुं छे बोध बीज । ..: इम कहे उदय रतन उवज्जाय, प्रेमे पूजो प्रभुना पाय ॥ .. ७. इति जिन प्रतिमा ७ स्तवन ॥ . जिन प्रतिमा विषये ८ स्तवनः॥ चेतउरे चित प्राणी, ए देशी ।। चरण नमुं श्री वीरनारे, धरि मन भाव अभंग। पामी जे जसु सेवथी, ज्ञान दर्शनरे चारित्र गुण चंगकि ॥ १। सुणज्योरे सु विचारी,तुम्हे तजि ज्योरे मन हूती शंककि, सु ए टेका जिन प्रतिमा जिन सारखीरे, भाषी श्री जिनराज । समकित धर चित्त सरदहें, भवजलधिरे तरवाने काज कि ॥ सु०२ जेहनुं नाम जपीये सदारे, धरीये जेहनी आण । मूरती तास उथापता, सहु करणारे थाई अपामणकि ॥ सु० ३ वंदें पूजें भाव सुरे, समकिती अरिहंत देव । तिम अरिहंतना विंबनी, मन सुद्धेरे नित सारे सेवकि ॥ सु० ४ १ नाम, २ ठवण, ३ द्रव्य, ४ भाव सुंरे, श्री अनुयोग दुवार । चार निक्षेपा जिन तणा,वंदें पूजेरे ध्यावें समकित धारफि असु०५ भाव पूजा कही साधुनेरे, श्रावकनें द्रव्य भाव । धर्म समकित जिन सेवमें, शिव सुखनोरे एही उपावकि. ॥ सु० ६ दान शील तप दोहिलोरे, अहनिशि ए नत्री थाय । भावें जिन विंब पूजता,भव भवनोरे सहु पातक जायकि । सु० ७ . १ एक नरक का स्थान छोडकरके, और सर्व जगें पर, शा. श्वते, और अशाश्वते, जिनेश्वर देवके विंच (प्रतिमा)बिराजमान हे उनका पाठभी जैन सिद्धांतोंमें जगें जगें पर विद्यमान पणे है।। For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिमा स्थापन विषये-स्तवन/मा. (१५) नाम जपतां जिनसणुंरे, रसना ज्यूं निरमल थाय । . यूं जिनविंच जुहारता, निश्चे सुरे हुये निरमल कायकि ॥ सु०८ साधु अ श्रावक तणारे, कह्या धर्म दोई प्रकार । श्री जिनवर अने गणधरे,सर्व विरतीरे देश विरती विचारकि । सु०९ श्रावकने थावरतणीरे, न पलें दया लगार। सवा विश्वा पालें सही, ज्यू होवें बारह व्रत धारकि ॥ मु०१० वीश विश्वा पाले जतीरे, रहते निज आचार । सरसव मेरुने अंतरे, गृह धरमेरे साधु धरम संभारकि ।। सु०११ तिण कारण श्रावक भणीरे, समाकत प्राप्ति काज । पूजा श्री जिन बिंबनी, मुनि सेवारे बोली जिनराजा ।। सु० १२ पर्व दिवस पोसह कोरे, आवश्यक दुई वार। .... : अवसर सीपाइक करें,भोजन करेंरे जिन मुनीने जुहारकि। सु० १३ १ घर करसण व्यापरनेरे, भाष्यों छे आरंभ । ..... पूजा जिहां जिन विवनी,तिहां भाषीरे जिन भक्ति अदभकि । सु० १४ पुत्र कलत्र परिवारमेरे, सुद्ध न होय तप शील। दानयकी पूजाथकी, श्रावकरे थायें सुख लीलकि ॥ सु. १५ जिनवर बचन उथापीनेरे, निज मन कल्पना भेलि । ... जिन मूरति पूना तजे,ते जाणोरे मिथ्यातनी केलि कि ।। सु. १६ जिन मुनि सेवा कारणे, आरंभ जे इहां थाय । अल्प करम बहु निर्जरा,भगवती सूत्ररे भायें जिनराज कि ॥ सु. १७ सूत्र वचन जे ओलोरे, जे आणे संदेह। .. मिथ्या मतना उदयथी, भारी करमारे जाणो नर तेह कि ।। सु. १८ . १ घर-खेती-व्यापारादिक स्वार्थ कार्यमा प्रवृति करता जे काई सूक्ष्मजीवोंनी विराधना थाय, तेनेज तीर्थकरोभे आरंभ कहेलो छे; बाकी जिनपूजाने तो भक्तिज कहेली छे, For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६)) प्रतिमा स्मपन विषये-स्सकनरमा. मिल मूरति निंदी जिरे, तिणे निया जिनराज । पूमाना अंतरायथी, जीव बंधेरे दश विध अंतराय कि । सु. १९ १अंग, उपांग, सिद्धांतमेरे, श्रावकने अधिकार । ... , हाया कपकाले कम्मियां,पूजानारे ए अरथ विचार कि ॥ सु. २० १जीवाभिगम, २उवाईयेरे, ३ज्ञाता, ४ भगवती अंग । .. . रायपसेणीमें वली, जिन पूजारे भाषी सतरह भंग कि ।। सु.२१ श्री भगवते भाषियारे, पूजानां फल सार ।' हित २सुख ३मोक्ष कारण सही,ए अक्षररे मनमें अवधारकि। मु०१२ चित्र लिषित नारी सणोरे, रूप देष्यां काम राग । सिक वैराग्यनी वासना,मनि उपजेरे देष्यां वीतराग कि ।। सु० २३ श्री सम्भव गणधरुरे,तिमवली आद्र कुमार । प्रति बुज्या प्रतिमाथकी,तिणे पाम्यारे भवसागर पार कि। मु० २४ १ दानव २ मानव.३ देवतारे, जे धरें समाकत धर्म । .... ते उत्तम करणी करें, ते न करें रे कोई कुत्सित कर्म कि ॥ सु० २५ तीन लोक मांहे अछेरे, जिनवर चैत्य जिके वि। . से पंचम आवश्यकें, आराधेरे मुनि धावक देवि कि || गु० ३६ . सार सकल जिन धर्मनोरे, जिनवर भाष्यों एह । लक्ष्मी वल्लभ गणि कहें, जिन वचनेंरे मत घरों संदेह कि॥ सु० २७ ॥ इति श्री लक्ष्मी वल्लभ सूरि कृत ८ स्तवन संपूर्ण ॥ - || अथ प्रतिमा विषय स्तवन ९ मा ॥...... जैनी है सो जिन प्रतिमा पूजनसे,मनवंछित फल पावत है । ए टेक। ' रावण नाटक पूजा करके, गोत्र तीर्थकर पाया है । जैनी । १॥ सती द्रौपदीये प्रतिमा पूजी, ज्ञाता साख भरावत है । जैनी ।२॥ For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतिमा मंडन रास. (१७) चारण मुनिवर प्रतिमा वंदनको रुचक नंदीश्वर जावत है। जैनी । सूरयाम देवको मित्रदेवने, हितमुख मोक्ष बताया है । जैनी । ४ ॥ आद्र कुमारे प्रतिमा देखी ते, जाति स्मरण पाया है । जैली। ५ ॥ . जीवाभिगममें लवण मुठिये,श्री जिनराजको पूज्या है । जैनी ॥ ६ ॥ ठाणांग सूत्रमें चार निक्षेपा, सत्यरूप बतलाया है । जैनी । .. लाल कहै जिन प्रतिमा पूजें,जन्म मरण मिट जावत है। जैनी । वा. इति ९ स्तवन । ॥ अथ जिन प्रतिमा स्थापन रास लिख्यते ।। । मुनिराजश्री वल्लभविजय नीकी तरफसे मिल्या हुवा ॥ सूय देवी हियडे धरी, सदगुरु वयण रयण चित चारके। रास भणुं रलियामनो, सूत्रे जिन प्रतिमा अधिकारके । कुमति कदाग्रह छोड द्यो॥ ए आंकणी ॥ १॥ मन हठ मकरो मूढ गमारके, हठ मिथ्या नवखानिये । मिथ्या तें बांधे संसारके । कुमति .. कुडो हठ ताणे जिके, अम्हे कहांछां तेहिज साचके। ते अधरमी आत्मा, काच समान गिणे ते पांचके । कुः ॥ ३ ॥ कुमाति कुटिल कदाग्रही, साच न राचे निगुण निटोलके । परम परागम बाहिरा, स्युं जाणे ते मूत्रनो बोलके । कु. ॥ ४ ॥ गुरु कुल वासवसें जिके, ते कहिये जान प्रवीणके । शुद्ध संयम तेहनी पले, आगम वयण तणो रस लीनके । कु. 1|| एक वचन जे सूत्रनों, उथापे ते बांधे भवनो बैंधके । ', "": पाडे तेहनो स्युं होस्ये, उथापे जे सारो खंधके । कु... ॥ ६ ॥ For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) प्रतिमा मंडन रास. "जिन प्रतिमा जिन अंतरी, जाणे जे जिनथी प्रति कूलके । जिन प्रतिमा जिन सारखी, मानीजे ए समकित मूलके । कु. ||७|| जिन प्रतिमा उपरि जिके, साची सद्दहना धारंत के । ॥ ८ ॥ ते नरनारी निस्तरे, चउगति भवनो आणे अंतके । कु. आज इण दूसम आरे, मति श्रुत छे तेही पण हीनके । तो कम सूत्र उथापीये, इम जाणो तुमे चतुर प्रवीणके । कु. ॥ ९ ॥ मन पर्यव केवल अवधि, ज्ञान गयां तीन विछेदके । 'तो जिम सूत्रे भाषियो, तिम किजें मन धरिय उमेदके | कु. ||१०|| जे निज मन मान्यों करे, टीका वृत्ति न माने जेह के । ते मूरख मंद बुद्धिया, परमार्थ किम पायें तेह के । कु. ॥ ११ ॥ ए आगम मानुं अम्हे, एह न मानुं एह कहे हके । तेहने पुछो एहवो ज्ञान किसो प्रगटयो तुम्हे देह के | कु. ॥१२॥ दश अठावीसमें, उत्तराध्यन कही छे जोय के । आणा रुचि वीतरागनी, आगन्या ते परमाणाके होय के । कु. ।। १३ ।। तप संयम दानादि सहूं, आण सहित फलें ततकालके । धर्म सहुँ विन आगन्या, कण विन जाणे घास पलालके | कु.।। १४ ।। तो साची जिन आगन्या, जो घरे प्रतिमामुं रागके । सूत्रे जिन प्रतिमा कही, जेह न माने तेह अभाग के । कु. ॥। १५ ।। दारु प्रमुख दश थापना, बोली किरियानें अधिकारके | अकिरिया विण पण थापना, इनही अनुयोग दुवारके | कु. ||१६|| १ जो तीर्थंकर की प्रतिमासें अंतर करनेवाले है सो तीर्थंकरोंसें ही दूर रहनेवाले है ॥ - २ आज्ञाविनाका दान दयादिक धर्म है सो, धान्य विनाका घास, पलाल; जैसा है ॥ ३ काष्टादिक दश प्रकारकी स्थापना, तीर्थकरों की भी करनेकी कही है ।। For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा मंडन रास. १पाट संथारे गुरुतणे, बैसंतां आशातना थाय के । ते केहनी आशातना ? कहोने ए अर्थ समजायके । कु. ॥ १७ ॥ उंधी गति मति जेहनी, दीर्घ संसारी जे छे पीडके। समजाया समजे नहीं, जो समजावे श्री महावीरके. । कु. ॥ १८ ॥. 'जिन प्रतिमा जिन अंतरो, कोइ नहीं आगमनी साखीके । तिणही त्यां जिन हीलिये, तिण बंद्यो जिन बंद्यो दाखिके । कु.॥१९॥ जिन प्रतिमा दरसण थकी, प्रति बुज्यो श्री आद्रकुमारके । शय्यंभव श्रुत केवली, दश वैकालिनो करतारके । कु. ॥२०॥ स्वयंभू रमण समुद्रमें, मछ निहाली प्रतिमा रूपके । जाति स्मरण समाकिते, मुरपदवी पामी तेह अनुपके । कु. ॥ २१ ।। रायपसेणी उपांगमें, सूरयाभे पूजा किधके । शक्रस्तवन आगल कह्यो,हित सुख मोक्ष तणा फल लीधके ।कु.||२२॥ छठे अंगे द्रौपदी, विधिसुं पूज्या श्री जिन राजके।। जिन प्रतिमा आगल कह्यो,शक स्तव ते केहने काजके?। कु.॥२३॥ १ प्रतिमाको नहीं मानते हो तो-गुरुके पाटकी, आसनकी आशातनासें गुरुकी आशतना हुइ कैसे मानते हो ? इति प्रश्न ॥ २ देखो सत्यार्थ पृष्ट. १४४ में-महा निशीथ सूत्रका पाठमेंअरिहंताणं, भगवंताणं । का पाठसें-मूर्तियांकाही बोध कराया है । इस वास्ते मूर्तिमें और तीर्थकरोंमें भेद भाव नहीं है । जिसने प्रतिमाकी अवज्ञा कीई उसने तीर्थंकरोंकी ही अवज्ञा करनेका दोष लगता है । वांदे उनको तीर्थंकरोकोही वंदनेका लाभ होता है. ॥ ३ द्रौपदीको-नमाथ्\णका पाठ, कामदेवको मूत्तिके आगे, ढूंढनी पढावती है ? ॥ देखो नेत्रांजन प्रथम भाग. पृष्ट. ११० से ११४ तक ॥ For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) प्रतिमा मंडन संसं. जीवाभिगमें जोइज्यो, विजय देवतणे अधिकारके। सिद्धायतन आवी करी, पैसे पूरवतणे दुवारके । कु. ॥ २४ ।। देवछंदे आवे तिहां, जिन प्रतिमा देखी धरे रागके । करे प्रणाम नमाय तनु,भगति युगति निज भाव अथागके। कु.॥२९॥ लोमहथ्थ परमारजे, सुरभि गंधोदक करें पखालके । अंग लुहें अंगलुहणे, चंदन पूज करें सुविशालके । कु. ॥२६ ।। फूल चढावे प्रभुभणी, उखेवें कृष्णागर धूप के। शक्र स्तव आगल कहें, कवण हेतु ते कहो सरूपके । कु.॥२७ ।। ठाणा अंगे भाषियो, चौथे ठाणे एह विचारके । नंदीसर जिन शास्वता, वंदे सुरवर असुर कुमारके । कु.॥ २८ ॥ पूजा प्रतिमा स्थापना, जंबूढीप पन्नती माहिके । बीजे अध्ययने अछे, सत्तम आलावें उछाहके । कु. ॥२९॥ पंचम अंगे भाषियो, जिन दाढा पूजे चमरेंद्रके। तेह टाले आशातना, विषय न सेवे ते असुरेंद्रके । कु. ॥३०॥ क्यां तेतो पुदगल हाडना, देहावयव विवर्जित जाणके । 'अधर्म अर्थ वली कामन, कहै अर्थ कहो सुजाणके । कु.॥ ३१ ॥ . जंघा विद्या चारणा, तप शील लबधितणा भंडारके । एक डिगे मानुषोत्तरे, चैत्य जुहारे अणगारके । कु. ॥ ३२ ॥ बीजे डिगे नंदीसरे, तिहां वली चैत्य जुहारण जायके । तीजे डिगे आवे इहां, इहां ना पण प्रणमे जिनरायके । कु.॥ ३३ ॥ भगवती अंगे इम कह्यो, गोयम आगे श्री महावरिके । सदहणा मन आणीने, पूजो जिनवर गुण गंभीरके । कु. ॥ ३४ ॥ १ धन पुत्रादिकके वास्ते पूजा करनी अधर्म कही है, सोही ढूंढनी करानेको तत्पर दुई है ॥ २ देखो नेत्रांजन प्रथम भाग पृष्ट. ११७ से १२१ तक ।। For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा मंडन रास. (२१) 'अंबड परिव्राजकतणो, आलावो श्री उवाई माहेंके। अन्य ग्रहित ते परिहरु, वांदु जिन प्रतिमा चित लायके. कु.॥३५॥ सत्तम अंगे समजिने, २आनंदनो आलावो जोइके। अन्य तीर्थ वांदु नहीं, सांपति जो जिन प्रतिमा होय के. कु.॥३६॥ 3वली उववाइने धुरे, चंपा नगरी वरणकी जोयके । जिनमंदिर पाडा कह्या, काह न मानो कुमति लोयके. । कु. ॥ ३७॥ साधु करे चेय तणो, वेयावच ते केहै भायके । ४पएहा वागरणे कह्यो, साचो अर्थ कहो समजायके । कु. ॥३८॥ अष्टापद गिरि उपरे, चैत्य करायो भरते पुण्यने कामके । आवश्यक चूर्णी कह्यु, देवलसिंह निषद्या नामके । कु. ॥ ३९ ॥ पज्ञाता अंगे उपदिशी, जिनवर पूजा सतर प्रकारके । जीवाभिगम उपांगमें, तिहां पिण छे एहिज अधिकारके | कु.॥४०॥ श्रीव्यवहार सिद्धांतमें, प्रथम उदेशे कह्यो शुद्धके । श्रीजिन प्रतिमा आगले, आलोयणा लीजे मन श्रुद्धके ।कु.॥४१॥ विद्युनमाली देवता, कीधी प्रतिमा बोध निमित्तके । १ देखो नेत्रांजन प्रथम भाग पृष्ट. १०४ सें १०८ तक । २ देखो नेत्रांजन प्रथम भाग पृष्ट १०८ से १०९ तक ॥ ३ देखो इसका विचार-नेत्रांजन प्रथम भाग पृष्ट १०३ से १०४ ॥ ४ साधुभी चैत्य ( मंदिर ) की वैयावच करे, देखो प्रश्न व्याकरण | ५ ज्ञाता सूत्रमें-सतरभेदी पूजा करनेका उपदेश है। ६ प्रतिमाके आगे-साधुको दूषणकी आलोचना करनेका, व्यवहा र सूत्रमें कहा है ।। For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) प्रतिमा मंडन रास. 11 88 11 उपदेश अच्युत देवने, प्रभावती पूजी शुभ चित्तके । कु. ।। ४२ ।। श्री आवश्यके दाखियो, वगुर शेठ तणो दिष्टांतके | मल्लि स्वामी प्रतिमा तणी, इह लोकारथ सेव करतके । कु. ॥। ४३ ।। गाथा भत्त पयन्ननी, जोवो श्रावक जन आलंबके । करावे जिन द्रव्यसुं, जिनवर देवल जिन बिंबके । . कु. चौवीसथ्थो मानो तुम्हे, कीत्तिय, बंदिय, महिया, पाठके । महियानो इयुं ? अर्थ छे, साच कहो एकडो मांडके | कु. ।। ४५ ।। नाम जिना ठबणा जिना, द्रव्य जिना भावजिना वखाणके । मानो कांइ न मूढमति, चारे निक्षेपा सूत्रां जाणके । कु. ॥ ४६ ॥ भुवण पति वाण व्यंतरा, जोइसी वली वेमाणिय देवके । ए सुर चार निकायना, सारे जिन प्रतिमानी सेवके । कु. ।। ४७ ।। नंदी अनुयोग दुवारमें, पूजाना सगले अधिकारके | सूत्रेही माने नहीं, तो जानिये बहुल संसारके । कु. जो कहियो पूजा विषे, थाय छे बहुला आरंभ | तो दृष्टांत कहुं सांभलो, मत राखो मन मांहि दंभ | कु. ॥ ४९ ॥ ज्ञाता अंगे इम को, प्रतिबोध्या मल्लिनायें छ मित्रके । ર प्रतिमा सोवनमें करी, दिन प्रति मूके कवल विचित्रके । कु. ।। ५० ।। 3 जीव तणी उतपति थइ, कुथित आहार तणो परमाणके । सावध आरंभ ये कियो, त्रिहुअरथामें अरथ वखाणके । कु. ॥ ५१ ॥ १ महिया, शब्दका अर्थ - देखो सम्यक्क शल्योद्धार में || २ आरंभ में धर्म नहीं होता है, ऐसा कहने वालेको समजाते है।। 11.82 11 ३ छ मित्रको प्रतिबोंधने के वास्ते मल्लिनाथने, जीवों की उत्पत्ति कराईथी, सो धर्मके वास्ते कि, अधर्मके वास्ते ! || For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा मंडन रास. ( २३ ) वली सुबुद्धि मंत्री सरे, प्रतिबोधन जितशत्रु महाराजके । फरहोदक आरंभियो, ते आरंभ कहो किण काजके । कु. ।। ५२ ।। रथावच्चा पुत्रनो कियो, कृष्णे व्रत उछव अतिसारके | स्नान आदिक आरंभियों, काम धरमके अरथ विचारके | कु. ॥५३॥ सूरया नाटक कियो, भगवंत आगल बहु विस्तारके । तिणे ठामे आरंभ थयो, किंवा न थयो करो विचारके । कु.।। ५४ ।। मेरुशिखर महिमा करे, जिन न्हवरावे मिल सुर रायके । आरंभ जइ बहुलो कियो, जाणी जै छै पुण्य उपायके । कु. ॥ ५५ ॥ श्रेणिक कोणिक दवा, चाल्या हय गय रथ परिवारके । तिहां कारण स्युं जाणिये, आरंभ विण नहि धरम लगारके | कु. ॥ ५६ ॥ गुरु आव्या उछ्वकरो, नरनारी मिल सामा जाय के । ते आरंभ न लेखवो, तो जिन पूजा उपापो कांइके । कु. ॥ ५७ ॥ पुहचें देवलोक बारमें, नवा प्रसाद करावन हारके । दीसें अक्षर एहवा, महा निसीथ सिद्धांत मजार के । कु. ।। १८ ।। १ राजाको प्रतिबोधने के वास्ते, गंदा पाणीको स्वच्छ किया, सो धर्मके वास्तेकि, अधर्मके वास्ते ? ॥ २ थावचा पुत्रका व्रत ओछवमें, कृष्ण राजाने स्नानादिक अनेक आरंभ, धर्मके वास्ते कियाकि, अधर्मके वास्ते ? | ३ सूर्याभ देवने - भगवंतकी भक्तिके वास्ते, नाटक किया, उसमें आरंभ हुवा कि नहीं ? | ४ भगवंतोंके जन्म महोत्सव में नदीयां चाले उतना पाणीका आरंभ, देवताओंने पुण्यके वास्ते, किया कि नहीं ? ॥ - ५ श्रेणिकादि, बडा आरंनके साथ - वंदना करनेको, धर्मके वास्ते गये कि नहीं ? ॥ For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) प्रतिमा मंडन रास.. जिन प्रतिमा जिन देहरां, जेह करावे चतुर सुजाण के। लाभ अनंत गुणो हुवे, इम बोले आगमनी वाण के । कु. ॥५९ ॥ पूजे पितर करंडिये, पूजे देवीने क्षेत्रपालके । जिन प्रतिमा पूजे नहीं, ए तो लागे सबल जंजालके । कु.॥६०॥ चित्र लिखित जे पुतली, तेजोयां बाधे कामके । तो प्रतिमा जिनराजनी, देखतां शुभ परिणामके। कु. ॥ ६१ ।। इम ठामे ठामे कह्यो, जिन प्रतिमा पूजा अधिकारके । जे माने नहीं मानवी, ते रुलसी संसार अपारके । कु. ॥६२ ।। आगम अर्थ सहुँ कहे, तहत्ति करे जे आगम मांहिके । जिन प्रतिमा माने नहि, तेतो माहरी माने वांझके । कु. ।। ६३ ॥ अरथ आगमना ओलवें, नवा बनावे हिया जोरके । खोटाने थायें खरा, बेटो चोर तो बापही चोरके । कु ॥६४ ॥ मुन मन जिन प्रतिमा रमी, जिन प्रतिमा माहरे आधारके । संदहणा मुझ एहवी, जिन प्रतिमा जिनवर आकारके । कु.॥६५ ॥ सतरे पचीसी सालमें, कियो रास जिन प्रतिमा अधिकारके । विनवे दास जिन राजनो, करो झटपट प्रभु पारके । कु. ॥६६॥ इतिसंपूर्ण ॥ • १ हमारे ढूंढको तीर्यकरोंके भक्त होके, वीर भगवानके श्रावकोंकोभी-मिथ्यात्वी जे पितरादिक है,उनकी पूजा-दर रोज, करानेको उद्यत हुये है, उसमें-आरंभ नहीं, देखो सत्यार्थ पृष्ट. १२४ सें १२६ तक ॥ २ अदृश्यरूप यक्षादिक देवोकी-प्रतिमा, बने | मात्र साक्षातरूप तीर्थंकरोंकी-प्रतिमा, न बने ।। यह है तो मारी-मा, पिण सो तो वांझनी ? हमारे ढूंढक भाईयांकी अकल तो देखो। For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमां मंडन सार. ॥ अथ प्रतिमाकी भक्तिका स्तवन || जिन मंदिर दरसण जाना जीया, जाना जीया सुख पानार्ज या. जिन मंदिर दरसण जानें ते, बोध बीजका पानाजीया. केशर चंदन और अरगजा, प्रभुजीकी अंगीयां रचाना जीया. चंपा मरुवो गुलाब केतकी, जिनजीके हार गुंथाना जिया. द्रौपदीये जिन प्रतिमा पूजी; सूत्र ज्ञाताजी मानो जीया. जिन प्रतिमा जिन सरखी जानो; सूत्र उवाई मानो जीया. रायणरुख समोसर्या प्रभुजी; पूर्व नवां वारा जीया. सेवक अरज करे करजोडी; भव भव ताप मीटावना जीया. ॥ इति संपूर्णं ॥ ( २१ ) ॥ जिन प्रतिमा विषये महात्मा के उद्वारो || जिनवर प्रतिमा जगमां जेह, भावे भवियण वंदो तेह, जिम भवनो हुयें छेह । नामादिक निक्षेपा भेय, आराधनाए सवि आराधेय, नहीं ए कोई हेय । वाचक विष्णु कुण वाच्य कहेय, थाप्या विणु किम सो समरेय, द्रव्य विना न जाणेय । भान बिना किम For Personal & Private Use Only जि० जि० ए टेंक. जि० ॥ १ ॥ जि० ॥ २ ॥ जि० ॥ ३ ॥ जि० ॥ ४ ॥ जि० ॥ ५ ॥ जि० ॥ ६ ॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) तीर्थकरों का दर्शन. साध्य सधेय, भाव अवस्था रोपें त्रणेय, भाव रूप सद्दय ॥ १ ॥ | यह प्रथमके उद्गारमें चाली भिन्न है ।। । अर्थ - हे भव्यजनो जे आ जगतमां, जिन प्रतिमा है उनको तुम - बंदो, जिसें तुमेरा भवका छेह [ अर्थात् अंत ] आ जावें । जे नामादिक निक्षेपके भेद है, ते सर्वे – आराधना करके आराधन करनेके योग्य है । परंतु त्यागने लायक इसमेंसें एक भी नहीं है । क्योंकि नाम (वाचक) विनाके, [ वाच्य ] तीर्थंकरो ही, नहीं होते है ? | और उनोंकी - आकृति [ मूर्त्ति ] का, विचार किये बिना - स्मरण भी नहीं होता है २ । और आकृति है सोद्रव्य वस्तुके बिना, नहीं होती है ३ । और तीर्थकरोका - भाव, दिलमें लाये बिना, अपना जो पापका नाश करने रूप साध्य है, सो भी सिद्ध होनेवाला नहीं है । I और नामादिक जे त्रण निक्षेप है, सोही-भाव अस्थाको, जनानेवाले है | इस वास्ते ते पूर्वके त्रणें निक्षेपो ही, भाव रूपसें सहना करने योग्य है ॥ १ ॥ * ।। रसना तुज गुण संस्तवे, दृष्टि तुज दरसनि, नव अंग पूजा समें, काया तुज फरसनि । तुज गुण श्रवणें दो श्रवण, मस्तक प्रणिपातें, श्रुद्ध निमित्त सवे हुयां, शुभ परिणति यातें । वि * ढूंढनीजीने सत्यार्थ पुष्ट. १७ में, लिखाया कि - जिनपद नहीं शरीमें, जिनपद चेतन मांह । जिन वर्णन कछु और है, यह जिन वर्णन नह ॥ १ ॥ इस महात्माका -दूसरा, तिसरा, उद्गारसें । ढूंढनीजी अपना लिखा हुवा दुहाका - तात्पर्य अछीतरां विचार लेवें ॥ For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरोंका दर्शन. (२७) विध निमित्त विलासथीए, विलसी प्रभु एकांत, अवतरिओ अभ्यंतरे, निश्चल ध्येय महंत ॥ २॥ — अर्थ-हे भगवन् तेरा गुणोंकी स्तुति करने मात्र तो, रसना ( जीव्हा ), और मूर्तिद्वारा तेरा दरसणसें दृष्टि । और नव अंगकी पूजा करनेके समयमें मूर्तिद्वारा तेरा स्पर्श करके काया । और तेरा अनेक गुण गर्भित स्तुतिओंका-श्रवण करनेसें, दो श्रवण ( कर्ण)। और मूर्तिद्वारा तेरेको नमस्कार करनेके अवसरमें-मस्तक । यह सर्व प्रकारके, हमारे अंगके अवयवो, शुभ निमित्तमें जुडके, हमारी शुभ परिणति होते हुयें, ऐसे विविध निमित्तोके योगसें, हमारा अभ्यंतरमें दाखल हुयेला प्रभुको, एकांत स्थलमें विलसेंगे, तबही निश्चयसें ध्येयरूपे भगवान होगा। . इसमें तात्पर्य यह है कि-प्रथम प्रभुकी मूर्तिका शुभ निमत्तमें, हमारे अंगके-अवयवोको, व्यवहारसें जोडेगे, उनके पिछे हीतीर्थकर भगवान्का स्वरूप, निश्चयसें हमारी परिणतिमें दाखल होंगे ? परंतु तीर्थकरोंकी-आकृतिरूप, बाह्य स्वरूपका शुभ निमित्तमें, हमारे अंगोके जोडे बिना, निश्चय | स्वरूपसे तीर्थंकरोंका स्वरूपको तीन कालमें भी न मिलावेंगे ॥ २ ॥ ॥ भाव दृष्टिमां भावतां, व्यापक सविठामि, उदासीनता अवरस्युं, लीनो तुज नामि । दिठा विणु पणि देखिये, सुतां पिण जगवं, अपर विषयथी छोडवे, इंद्रिय बुद्धि त्यजवें । पराधीनता मिट गए ए, भेदबुद्धि गइ दूर, अध्यात्म प्रभु प्रणमिओ, चिदानंद भरपुर ॥ ३ ॥ ‘अर्थ--पूर्वके उद्गारका तात्पर्य दिखाने के वास्ते, यही महात्माअपना अभिमाय प्रगटपणे जाहिर करते है । सो यह है कि-भाव For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवादिक महावीर उच्चारण करके है, उहां पर भी (२८) तीर्थकरोंका दर्शन. दृष्टिमां भावतां व्यापक सवीठामि, इस वचनका तात्पर्य यह है कि-हे भगवन् जब हम हमारी जीव्हासें ऋषभदेवादिक महावीर पर्यंत, दो चार अक्षरोंका उच्चारण करके-तुमेरा नाम मात्रको लेते है, उहां पर भी व्यापकपणे हमको-तूं ही दिखलाई देता है । और हमारी दृष्टि मात्रसें जब तेरी आकृति ( अर्थात् मूर्ति ) को देखते है, तब भी उहांपर, हे भगवन् हमको-तूंही दिखलाई देता है। और तेरी बालक अवस्थाका, अथवा तेरी मृतकरूप शरीरकी अवस्थाका, विचार करते है उहांपर भी, हमको-तूंही दिख पडता है । और तेरा गुण ग्राम करने की स्तुतिओंको पढते है, उहांपर भी-हमको तूंही दिख पडता है । क्योंकि-जब हमारी भावदृष्टिमें, हम तेरेको भावते है। तब हे भगवन्-सर्व जगेपर, हमको तूंही व्यापकपणे, दिखता है। परंतु- उदासीनता अवरस्युलीनो तुज नामि, तात्पर्य यह है कि-जब हम-ऋषभदेवादिक महावीर पर्यंत, नाम के अक्षरोंका उच्चारण करते है, तब हम इन अक्षरोंसें, और इस नाम वाली दूसरी वस्तुओंसे भी, उदासीनता भाव करके, हे भगवन् हम तेरा ही नाम में लीन होके, तेरा हो, स्वरूपको भावते है । इस वास्ते हमको दूसरी वस्तुओ, बाधक रूपकी नहीं हो सकती है । एसे ही-हे भगवन् तेरी आकृति ( अर्थात् मूर्ति ) को देखते है, उस वखत भी-काष्ट पाषाणादिक वस्तुओंसें भी, उदासीनता रखके ही, तेरा ही स्वरूपमें लीन होते है। एसे ही हे भगवन् तेरी पूर्व अपर अवस्थामें, जो जड स्वरूपका-शरीर है, उस वस्तुसें भी-उदासीनता धारण करके, हम तेरा ही स्वरूपमें लीन होते है । इसमें तात्पर्य यह कहा गया कि-१ नाम के अक्षमें । और २ उनकी आकृतिमें । और ३ उनकी पूर्व अपर अव For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों का दर्शन. (२९) स्थामें भी, साक्षात् स्वरूपसें भगवान् नहीं है तो भी, हम भक्तजन है सो - भावदृष्टि से, भगवान्‌को ही साक्षात्पणे भावनासें कर लेते है | इसवास्ते आगे कहते है कि - दिठाविणुं पणि देखिये, तात्पर्य - हे भगवन् न तो हम तुमको - ऋषभादिक - नामके अक्षरों में, साक्षात्पणे देखते है | और नतो तेरेको - मूर्त्ति मात्रमें, साक्षात् पणे देखते है | और नतो तेरेको पूर्व अपर अवस्थाका शरीरमें भी, साक्षात्पणे देखते है | और नतो तेरा गुणग्रामकी स्तुतिओं में भी, तेरेको साक्षात्पणे देखते है । तोभी हम तेरेको हमारी भावदृष्टिसें- सर्व जगपर ही देख रहै है । I और हे भगवन् ! हम अनादिकालकें अज्ञानरूपी अघोर निंद्रा में सुते है, तोभी तूं अपना अपूर्व ज्ञानका बोध देके, हमको जगावता है | इसी वास्ते महात्माने अपना उद्गारमें कहा है कि - सुतपिण जगवें, अर्थात् एसी अंघोर निद्रा सेंभी, तूं हमको जगावता है । 1 C इतनाही मात्र नहीं परंतु जब हम तेरी भक्ति में - लीन होजायगें, तब जो हमारी इंद्रियोंमें- इंद्रियपणे की बुद्धि हो रही है, सोभी तेरी भक्ति के वससे छूट जायगी, हसीही वास्ते महात्माने कहा है किइंद्रिय बुद्धि त्यजवें, जब ऐसें इंद्रिय में से इंद्रिय बुद्धि हमारी छुट जायगी, तब हमारी जो पराधीनता है सोभी मिट जायगी । इसी वास्ते कहा है कि - पराधीनता मिटगए ए, जब एसी पराधीनता मिटजायगी - तब जो हमको तेरा स्वरूपमें, और हमारा स्वरूपमें भेदभाव मालूम होता है, सोभी दूर हो जायगा । इसीवास्ते महामाने कहा है कि - भेदबुद्धि गई दृर, जब ऐसें - भेदबुद्धि, न रहेगी तबही है भगवन्- तेरा साक्षात स्वरूपको हम नमस्कार करेगे । परंतु पूर्वमें दिखाई हुई अवस्थोमें, तेरेको हम साक्षात्पणे - नमस्का For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३० ) तीर्थकरोंका दर्शन. . र, नहीं कर सकते है । जब ऐसा अनुक्रमसें दरजेपर जायेंगे तब तेरेको हम साक्षात्पणे नमस्कार करनेके योग्य होजावेंगे। तब तो हम हमारा आत्मामें ही मनरूप होजायगे । इसी हवास्ते महात्माने कहा है कि - चिदानंद भरपुर, जब हम एसें चडजावेंगे तबही हम हमारा आत्मकि आनंदमें भरपुर मनरूप हो जायगे । तब हमको कोईभी प्रकारका दूसरा साधनकी जरुरत न रहेगी ॥ ३ ॥ अब हम इन महात्माके उद्गारोंका तात्पर्य कहते हे जब हमको साक्षात्पणे- तीर्थंकरोंको, नमस्कार करने की इच्छा होगी, तब हम इस महात्माने जो क्रम दिखलाया है, उस क्रम पूर्वक तीर्थकरों की सेवा करने में - तत्पर होंके, महात्माने दिखाई हुई हदको पहचेंगे, तबही हमारा आत्माको - साक्षात्पणे तीर्थकरों का दर्शन, करा सकेंगे । परंतु पूर्वकी अवस्था में तो इस माहात्मा के कथन मुजब, १नाम स्मरण, २ प्रतिमाका पूजन, और ३तीर्थकरों की स्तुतिओंसें - गुणग्राम करकेही, हम हमारा आत्माको - यत्किंचित् के दरजेपर, चढ़ा सकेंगे । परंतु पूर्वके शुभ निमित्तों मेंसें, एकभी निमित्तका त्याग करके - साक्षात्पणे तीर्थकरों का दर्शन, तीनकालमेंभी न कर सकेंगे ? | क्योंकि जब भी ऋषभदेवादिक-नामों के अक्षरोंमें, तीर्थकरो नहीं है, तोभी हम उनको उच्चारण करके - वंदना, नमस्कार करते ही है । तो पिछे तीर्थकरों का विशेष बोधको कराने वाली तीर्थंकर भगवानकी-मूर्त्तिको, वंदना, नमस्कार, क्यों नहीं करना ? यह तो हमारी मूढताके शिवाय, इसमें कोई भी प्रकार की दूसरी बात नहीं है. ॥ इत्यलंविस्तरेण || For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरादिकनिंदक, माधव ढूंढक. (३१) ॥ श्री मज्जैन धर्मोपदेष्टा माधव मुनि विरचित ॥ स्तवन तरंगिणी द्वितीय तरंग. साधुमार्गी जैन उद्योतनी सभा, मानपाडा आगराने ज्ञान लाभार्थ मुद्रित कराया ॥ अथ स्थान सुमति संवाद पद । राग रसियाकीमें ॥ अजब गजबकी बात कुगुरु मिल, कैसो वेश बनायोरी ॥ टेर। . मानो पेत शेत पट ओढन, जिन मुनिको फरमायोरी. अ० ॥ १ ॥ कल्पसूत्र उत्तराध्ययनमें, प्रगटपणे दरसायोरी. अ॥२॥ तो क्यों पीत वसन केसरिया, कुगुरुने मन भायोरी. अ० ॥३॥ भिष्ट भये निर्मल चारितसे, तासे पीत मुहायोरी. अ०॥४॥ नही वीर शासन वरती हम,यों इन प्रगट जतायोरी अ० ॥ ५ ॥ तो भी मूढ मति नहीं समजे, ताको कहा उपायोरी. अ० ॥ ६ ॥ रजोहरणको दंड अभेहित, मुनि पटमांहि लुकायोरी. अ० ॥ ७ ॥ तो क्यों आकरणांत दंड अति, दीरघ करमें सह्योरी. अ० ॥ ८ ॥ त्रिविध दंड आतम दंडानो, ताते दंड रखायोरी. अ० ॥ ९ ॥ मुहणंतग मुखपै धारे विन, अवश प्राणि वध थायोस अ० ॥१०॥ तो क्यों करमें करपति धारी, हिंसा धरम चलायोरी. १० ॥१॥ १ जैन धर्मका-मुख किधर है, इतने मात्रकी तो-खबर भी नहीं है, तो भी जैन धर्मके-उपदेष्टा बन बैठे है ? ॥ २ सम्यक शल्योद्धार, और यह हमारा ग्रंथसें भी थोडासा विचार करो? तुमेरेमें मूढता कितनी व्याप्त हो गई है ? ॥ For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) तीर्थकरादिकनिंदक, माधव ढूंढक. विपत कालमें वेश बदल इन,मांग मांग कर खायोरी. अ० ॥१२॥ पडी कुरीत कहो किम छुटे, पक्षपात प्रगटायोरी.. अ० ॥१३॥ क्या अचरजकी बात अलीये,काल महातम छायोरी. अ०॥१४॥ स्यान सुमति संवाद मुगुरु मुनि,मगन पसायें गायोरी. अ० ॥१५॥ ॥ इति ।। . सर - - -- - ॥ पुनः ॥ तीन खंडको नायक ताको, रूप बनावे जाली है। देखो पंचम काल कलूकी, महिमां अजब निराली है । टेर ।। . २पामर नीच अधम जन आगे, नाचें दे दे ताली है. दे० ॥ २ ॥ पदमा पतिको रूप धारके, मागें फेरै थाली है. दे० ॥ ३ ॥ बने मात पितु जिनजीके, ये बात अचंभे वाली है. दे० ॥ ४ ॥ जंबूरुप बनाके नांचे, कैसी पडी प्रनाली है. दे० ॥ ५ ॥ ___ इत्यादिक निंदाकी पोथी विक्रम संवत्. १९६५ में आगरे वालोने छपाई है ॥ १. प्रथम देख आजीविका त्रुटनेसें विपत्तिमें आके-लोकाशा बनीयेने, मांग मांगके खाया ? ॥ पिछे गुरुजीके साथ लडाइ हो जानेसें-विपत्तिमें आके, लवजी ढूंढकने-मांग मांगके खाना सरु किया । तुम लोक भी गप्पां सप्पां मारके, उनोंका ही अनुकरण कर रहे हो ? दूरोंको जूठा दूषण क्यों देते हो ? ॥ २ तीर्थकर भगवानके वैरी होके--पितर, भूत, यक्षादिकोंकी प्रतिमाको पूजाने वाले---नीच, अधम, कहे जावेंगे कि---तीर्थंकरोंके भक्त ? उसका थोडासा विचार करो ? ॥ For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरादिक निंदक, माधव ढूंढक ( ३३ ) पुनः पृष्ट ३० में - लावणी बहर खडी || मणी मुकरको जो न पिछाने, वो कैसा जोहरी प्रधान । जो शठ जड चेतन नहीं जाने, ताको किम कहियै मतिमान || ढेर || asमें चेतन भाव विचारे, चेतन भाव धरें । प्रगट यही मिथ्यात्व मूढ वो, भीम भवधि केम तरें । मुक्त गये भगवंत तिन्होंका, फिर आह्वानन मुख उचरे । करें विसर्जन पुन प्रभुजीका, यह अद्भुत अन्याय करें । दोऊ विध अपमान प्रभुका, करें कहो कैसें अज्ञान. जो शठ. ।। १ ।। श्रुत इंद्री जाके नहीं ताको, नाद बजाय सुनावें गान । चक्षु नहीं नाटक दिखलावें, हाथ नचाय तोड करतान | जाके घ्राण न ताको मूरख, पुष्प चढावें बे परमान | रसना जाके मुखमें नाहीं, ताको क्यों चांठें पकवान | फोगट भ्रम भक्ती में हिंसा, करें वो कैसे हैं इन्सान जो० ॥ २ ॥ जव गोधूम चना आदिक सव, धान्य सचित जिनराज मने । प्रगट लिखा है पाठ सूत्र, सामायिक मांहीं बियकमने | दग्ध अन्न अंकुर नहीं देवै, देखा है परतक्षपणे । तो भी शठ हठ से बतलावे, अचिन कुहेतू लगा घणे । अभिनिवेश उन्मत्त अज्ञको, आवे नहीं शुद्ध श्रद्वान जो ॥ ३ ॥ १ जिन पूजन छुडवायके, पितरादिक पूजाते है उनको, मणि काचकी खबर नहीं है कि हमको ? विचार करो ? ।। २ प्रतिष्टादिक कार्यमें आव्हान, और विसर्जन, इंद्रादिक देवताओंका किया जाता है । इस ढूंढकको खबर नहीं होनेसें, भगवानका लिखमारा है ? गुरु विना ज्ञान कहांसें होगा ? | ३ यह ढूंढक - हमको उन्मत्त, और अज्ञान - ठहराता है। परंतु पहिलेसें ख्याल करोकि, दंडनी पार्वतीजी—यक्षादिक, पितरादिक For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) ढूंढक कुंदनमलजीका पुकार. श्रुद्ध श्रद्धान विना सब जप तप, क्रिया कलाप होय निस्सार । विन समाकत चउदह पूर्वके, धारी जांय नरक मंष्भार । हे समकित ही सार पाय, नरभव कीजै सत असत विचार । सुगुरु मगन सुपसाय पाय मति, माधव कहैं सुनों नरनार । तजके पक्ष लखो जड चेतन, व्यर्थ करो मत खेंचातान. जो. ॥४॥ ॥ इति ॥ ॥ प्रगट जैन पीतांबरी मूर्तिपूजकोका मिथ्यात्व ॥ ग्रंथ कर्ता. गछाधिपति श्रीमत्परमपूज्य श्री १००८ श्री रघुनाथजी म. हाराजके संप्रदायके महामुनि श्री कुंदनमलजी, महाराज नाम धारक ढूंढक साधुने, कितनाक प्रयोजन बिनाका--अगडं बगडं लिखके, छेवटमें एक स्तवन लिखा है. देवांकी मूर्तियांकी-पूजा करानेको, तत्पर हुई है.। उस मूर्तियांको कौनसा चेतनपणा है ? और वह मूर्तियांकी कौनसी इंद्रियां काम कर रहियां है ? जो केवल अपना परम पूज्यकी, परम पवित्र मूर्तियांकी, अवज्ञा करके-अपना उन्मत्तपणा, और अपना अज्ञानपणा, जाहीर करते हो ?॥ ___ १ जबसें तीर्थंकर देवकी मूर्तियांकी, और जैन सिद्धांतोंकी, अवज्ञा करके-यक्षादिक, पितरादिक देवताओंकी-मूर्तियांके भक्त बननेको, तत्पर हुये हो तबसें ही तुमेरा समकित तो, नष्ट ही होगया है । तुम समकित धारी बनते हो किस प्रकारसे ?॥ For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक कुंदनमल नीका पुकार. (३५) ॥राग. भुंडीरे भूख अभागणी लालरे. एदेशी ॥ मच्यो हुलर इन लोकमें, खोटो हलाहल धार लालरे । सांच नहीं रंच तेहमें,मिथ्यात्वी कियो पोकार लालरे । मच्यो ।।१।। कुंदन मुनि, राजमुनि, निंदक जिन प्रतिमाका होय लालरे । तेपिण ठिकाणे आविया,लीजो पित्रिका जोय लालरे । मच्यो ॥२॥ ? यह स्तवन उत्पत्ति होनेका कारण यह है कि-नागपुर. पासे-हिंगनघाट गाममें, मंदिरकी. प्रतिष्टामें, दोनोपक्ष सामिलथें कंकु पत्रिकामें-संवेगी सुमतिसागरजीका, तथा मणिसागरजीकानाम, दाखल कियाथा॥ .. इस ढूंढकने-खटपट करके, अपना-नाम भी,दाखल करवाया ।। ___ तब जैन पत्रमें, इस ढूंढककी-स्तुति, कीई गईथी, ते बदल कपीला दासीका, अनुकरण करके, यह पुकार किया है ॥ और एक अप्रासंगिक व्यवहारिक विचारको समजे बिना उ. समें अपनी पंडिताई दिखाई है ? ऐसे विचार शून्योको हम वारंवार क्या जुबाप देवें ? जो उनको समज होगी तब तो यह हमारा एकही ग्रंथ बस है ? ॥ ॥ इस ढूंढकने पृष्ट-१३ में लिखा है कि, मुनी या श्रावक प्र. त्यक्ष मरणकी पर्वा न करके अन्यमतके धर्षका, देवका, गुरुका, व तीर्थका, शरण कदापि नहीं करेंगे, और नहीं श्रद्धेगे ।। इसमें कहनेका इतना ही है कि, ढूंढनांजी तो-वीर भगवानके, परम श्रावकोकी पाससे भी-पितर, दादेयां, भूतादिकोकी-मूर्ति, दररोज पूजानेको, तत्पर हुई है । हमारे ढूंढक भाईयांका ते मत किस प्रकारका समजना ? ॥ For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) जिन प्रतिमाके निंदकोंको शिक्षा. एहवा ठिकाणे आविया, दूजाने आणो चाय लालरे । एवा मिथ्या लेख मोकल्या, देश देशांतरमांय लालरे | मच्यो || ३ || तीन कर्ण तीन जोगसुं, भलो न सरदे मुनिरायरे । छकायारा आरंभथी, उत्तम गति नहीं थाय लालरे । मच्यो || ४ || चतुर विचारो चित्तमां, कीजो निर्णय एह लालरे । तत्वातच विचारथी, कुगुरुने दीजो छेह लालरे । मच्यो ॥ १ ॥ कुंदन नाहटारी ए विनती, सुणजो सारा लोक लालरे । दया पालो छकायनी, तो पामो बंछित थोक लालरे | मच्यो || ६ || साल पैंसठ ओगणीसकी. ज्येष्ठ शुक्ल मजार लालरे । धर्मध्यान कर शोभतो, अमरावती शहर गुलजार लालरे | मच्यो ||७|| || अथ जिन प्रतिमाके निंदक, ढूंढक शिक्षा बोशी ॥ कक्का कर्म तणी गति देखो, ढूंढक नाम धराया है । जिनके नामसें रोटी खावे, तिनका नाम भूलाया है ॥ जिन मारगका नाम विसारी, साथ मारग निपजाया है । सीखमान सद्गुरुकी ढूंढक, विरथा जनम गमाया है || १ || ए टेक || aar खोजकर जैनधर्मकी, मारग तुम नहीं पाया है । वासी विद्दखाके तुमने, खरा धरम डुबाया है || अंदरका मुख खुल्ला रखके, उपर पाटा खांच्या है | सीख० ||२|| गग्गा ग्लिचपणाकर गाढा, जैन धरम लजवाया है । सूत्र निशीथ उद्देशे चौथे अशुची दंड गवाया है ॥ गपड सपड कर जूठ लगावे, सत्यसेती गमराया है। सीख० ||३|| घाघरकी खबर करो तुम, क्या घरमें बतलाया है । For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन प्रतिमाके निंदकोंको शिक्षा. (३७ ) 'वारगुणे अरिहंत विराजे, पाठ कहां दरसाया है ॥ मनको भाया मानलिया, मनकाल्पितपंथ चलाया है। सीख० ॥४॥ चच्चा चोरी देवगुरुकी, करके सर्व चुराया है। भाष्य चूर्णि नियुक्ति टीका, अर्थसे चित्त चोराया है ॥ चितकल्पित जूठे अर्थोसें, सच्चा अर्थ चुराया है। सीख० ॥ ५ ॥ छच्छा छमछरीको चालीश, वीसचोमातें छांन्या है। २ पक्खी बार लोगस्सका काउसग, पुछो किसमें गाया है ॥ मूल मात्र बत्ती सूत्रोंका, खोटा हठकी छाया है ॥ सी० ॥ ६ ॥ जज्जा जिनवर ठाणा अंगे, ठवणा सत्य ठराया है। प्रभु पडिमाको पथ्थर जाणे, जालम कैसा जाया है ॥ चार निखेपा जोग जनाया, जिन आगममें जोया है । सी० ॥७॥ झझ्झा जूठ बतावे केता, जेता जैनमें गाया है। तीर्थकर गणधर पूरवधर, सबको जेब लगाया है ।। मुखपर पाटा कानमें डोरा, दैत्यसारूप बनाया है। सी० ॥ ८॥ टट्टा टटोल देख टोंटोंके, क्या गणधर फरमाया है । रायपसेनी सत्तर भेदें, जिन प्रतिमा पूजाया है ।। हितसुख मोक्ष तणा फल अर्थे, प्रगटपणे बतलाया है । सी ०॥९|| १ बत्रीश सूत्रोंके मूल पाठमें-अरिहंतके १२ गुण। और १८ दूषणका वर्णन नहीं है । तोपि छे हमारे ढूंढक भाईओ, कहांसें लाके पुकारते है, ते उनका मान्य ग्रंथ बतलावें ॥ . २ पंजाब तरफ एक अजीव पंथी ढूंढीये है, जिसको सत्यार्थ. पृ. १६७ में ढूंढनीजीने में में करनेवाले लिखेथे, सो हमेश चारलो. गसकाही काउसगकरते है । और जीव पंथी-छ मरीको ४० । चोमासीको २० । पक्खीको १२ का करते है। परंतु बत्रीश सूत्रका मूल पाठमें यह विधि नहीं है। ऐसी बहुतही बातें नहीं है । For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८) जिन प्रतिमा निंदकोंको शिक्षा. उठा ठिक नजर नहीं ठावे, सूत्र उवाई ठराया है । अंबड श्रावकके अधिकारे, अर्थ ते प्रतिमा ठाया है । चैत्य शब्दका अर्थ मरोडी, जूठे जूठ जताया है। सी० ॥ १० ॥ डड्डा डर नहीं डाले डिलमें, डामही डोल चलाया है। आनंद श्रावक के अधिकारे, अरिहंत चैत्य दिखाया है ॥ गपड सपडका अर्थ करीने, जड भारती भडकाया है । सी० ॥१॥ ढढढा ढूंढक नाम धराया, पिण ते जूठा ढूंढया है ।। मूढ दृढता माया ममता, गूढपणे गोपाया है । जूठ कपट शठ नाटक करके, जग सारा भरमाया है । सी० ॥१२॥ तत्ता तीर्थ भूलायेसारे, तालों सेती चुकाया है। अपने आप तीरथ बन बैठे, मूढ लोक भरमाया है। माने वांदो माने पूजो, यह बिपरीत सिखलाया है । सी० ॥१३॥ . थथ्था थोडी मान बडाई, खातर क्यों थडकाया है । थोथापोथा प्रगट कराके, परमारथ उलटाया है ।। सूत्र अरथका भेद न जाने, पंडितराज कहाया है । सी० ॥ १४ ॥ दहा दंडा दशकालिक, प्रश्न व्याकरण दाया है। (१)ढूंढकोने-शत्रुजय, गिरनारादिक, तीर्थोंको भूलाके जिसको तीन तेरकीभी खबर नहीं है, उनके चरणांकी स्थापना करके, अथवा समाधि बनवा करके, पूजते है । जैसे पंजाब देशका-लूधीयानामें, मोतीराम पूज्यकी समाधि । जगरांवामें, तथा रायकोट में, रूपचंद ढूंढियेके चरण, तथा समाधि । अंबालेमें, चमार जातिका लालचंद ढूंढियाकी समाधि ॥ ___हमारे ढूंढकभाइओ-तीर्थकरोंकी निंदाकरके, अपने आप तीर्थरूप बन बैठे है ? ॥ (४) बहुतही ढूंढिये लाठीलेके फिरते है तो पिछे माधव For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन प्रतिमाके निंदकोंको शिक्षा. आचारांग निशीथादिमे, भगवई पाठदिखाया है ॥ हठ दृढ छोड देखे बिन तुमको, पाठ निजर नहीं आया है। सी० १५ ॥ धध्या धर्म जैन नहीं तेरा, धोक्का पंथ धकाया है । अपने आप बनाजो ढूंढा, लवजी आदि धराया है । बांधी मुखपर पट्टी सतरां, वीसपारो' गाया है । सी० ।। १६ ।। नन्नानये कपडे को पसली, तीन रंग नंखाया है । [2] सूत्र निशीथमें देख पाठ तूं, क्यों इतना गंभराया है ।। इसी सूत्र में देखले बाबत, रजोहरण क्या गाया है। सी. ॥ १७ ॥ पप्पा पंचकल्याणक जिनवर, जिन आगम में पाया है । ( ३९ ) इंद्र सुरासुर मिलकर उत्सव, करके अतिहर्षाया है ।। 1 द्वीप नंदीश्वर भगवइ जंबू द्वीप पन्नती बताया है । सी० ।। १८ ।। फफ्फा फेर नहीं भगवतीमें, फांफा मार फिराया है । जंघा चारण विद्या चारण, मुनियों सीस निवाया है || नंदीश्वर में कहांसें आया, जो ज्ञानका ढेर बताया है । सी० ||१९|| बब्बा बडे बिबेकी देवा, दश वैकालिक गाया है । शुद्ध मुनिको सीस निमावे, नर गिनती नहीं आया है || तदपि ढूंढ़क ते देवनका, करना बोज बनाया है । सी० ॥ २० ॥ 1 ढूंढक क्यों निंदता है ? | तुम कहोंगे कि बूढ़ा रक्खे, तबतो सविस्तर प्रमाण दिखावो ? नहीं तो तुमेरा वकवाद मूढवणेका है ? || (१) ढूंढनी पार्वतीजीने, अपनीज्ञानदीपिकामें लिखा है किसं. १७२० में, लवजीने मुहपत्तीको मुखपर लगाई और ढूंढा नामभी पड़ा ? | [२] निशीथ सूत्रमें प्रमाण रहित रजोहरण [ ओघा ]रखनेवालोंको दंड लिखा है। है भाई माधव ढूंढक ? तूं भी अपना र जोहरणका प्रमाण ढूंढ किस वास्ते फोगट बकवाद करता है ? | ; For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) जिन प्रतिमाके निंदकोंको शिक्षा. भम्भा भरम पडा है भारी, तत्त्वज्ञान नहीं भाया है । हिंसा हिंसा रटकर मुख सें, आज्ञा धरम भूलाया है ॥ हिंसा दयाका भेद न जाने, भोलेको भरमाया है । सी० ॥ २१ ॥ मम्मा मुनि श्रावक दो भेदे, धरम आगममें मान्या है । सम्यग् दृष्टि मुरगण संघ, चतुरविधे फरमाया है ॥ जिनके गुणगानेसें परभव, धरम सुलभ बतलाया है। सी० ॥२२॥ यय्या यह है पाठ ठाणांगे, औरभी यह फरमाया है । जो अवगुण बोलें सुरगणका, दुर्लभ बोधि कहाया है ।। अचरीज ऐसें पाठ योगसें, जरा न मनमें आया है । सी०||२३ ।। ररा रोरो नहीं छुटेगा, राह बिना रमाया है। उन्मारगको मारग समजा, यही रणमें रोलाया है। प्रभुपूजाका त्याग कराके, रामाराज चलाया है। सी० ॥ २४ ॥ लल्ला लक्ष द्रव्यसें पूजा, 'वीरप्रभु जब जाया है। कल्प सूत्रका लाभ न माने, अवज्ञाकरके लुराया है ॥ पिण तेतो प्रसिद्ध चिलायत, लिख अंग्रेजो लुभाया है ।सी०॥२५॥ वव्या विधिसें काउसग वरणा, आवश्यक विवराया है। दक्षिण हाथ मुहपत्ति बोले, बामे ओघा बताया है । लोकशास्र विरुद्धपणे ते, मुखपर पाठा बांध्या है। सी. ॥ २६ ॥ १-१४ पूर्व धरकी नियुक्तिके पाठमें—यह काउसग करनेकी विधि दिखाइ है । इसको तुम प्रमाण नहीं करते हो, तो पीछेमन:कल्पित मुखपर पाटा चढानेका ते कौन प्रमाण करेगा ? ॥ जो अपनी सिद्धि दिखानेको फिरते हो ? ॥ २ यशोविजयजीभी कहते है कि-सिद्धारथ राइं जिन पूज्या, कल्पसूत्रमा देखो । इत्यादि उनोंकी स्तवनकी दशमी गाथामें देखो। For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमाके निंदाकोंको शिक्षा. (४१) शश्शा शरमाता नहीं सांढा, सासा सांग सजाया है। तोभी शठ शउता नहीं मुके, जोर जूलम दरसाया है ।। एकको बांध अनेक को छोडा, क्या अज्ञान फसाया है। सी०॥२७॥ षष्षा षष्टे अंगे पूजा, द्रौपदीका दरसाया है। श्रावकका पट्कर्म मज्या है, षुल्लेषुल्ला आया है ॥ शत्रुजय पुंडरगिरि ज्ञाता सूत्रका पाठ भूसाया है । सी. ॥ २८ ॥ मस्सा संघ तजाया प्रभुका, अपना संघ सजाया है । जैन धरमसें विपरीत करके, शुद्ध बुद्ध विसराया है ।। कौशिक सम जिन सूरजसेती, द्वेषभाव सरमाया है। सी ।। २९ ।। हहा हिया नहीं ढूंढक तुजको, हा तें जन्म हराया है । हलवे हालें हलवें चालें, पिण हालाहल पाया है । होस हटाकर श्रावक चितको, चक्कर चाक चढाया है। सी.॥३०॥ ढूंढक जनको शिक्षादेके, योग्य मारग बतलाया है । जो जो निंदक ढूंढक मुरख, तिनके प्रति जतलाया है ॥ कथन नहीं ए द्वेषभावसुं, सिद्धांत वचनसें गाया है । सी. ।। . १॥ तीर्थकर प्रतिमाका चितसें, भक्तिभाव दरसाया है। और भी बोध किया है इसमें, सूचन मात्र दरसाया है। तीर्थकरका वल्लभने तो, दिन २ अधिक सवाया है।सी. ॥ ३२ ॥ . ॥ इति माधब ढूंढक उद्देशीने, केवल निंदक ढूंढकोंको, यह शिक्षाकी बत्रीसीसे समजाये है ।। संपूर्ण ।। - For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमतिमाके निंदाकों को शिक्षा. ॥ अथ ढूंढक शिक्षा लघुस्तवन || मत निंदो ढूंढक जिन मूरति । मत० ए टेक ॥ जिन मूरति निंदा करनेसें । नहीं लेखे होय तुम विरति । म० || १ || कष्ट करो पिण ते सुकृतमें। मुको जलती तुम बति । म० ।। २ ।। प्रगट पाठका लोप करनको | मत करो तुम काठी छाती । म०॥३॥ जिनके बदले वीर श्रावकको । पूजावो न भूतादिक मूरति म ० ||४|| वरकी खोट दिखाके द्रौपदीको । पूजावो न कामकी मूरति |म० ||५|| सुरगण इंद नींदे पूजी । ते निंदो कहीने अविरति । म० ।। ६ ।। मित्रकी मूरतिसें प्रेम जगावो । जिन मूरतिमें ही मूढमति |म० ||७|| स्त्रीकी मूरतिसें काम जगावो । जिन मूरतिमें नहीं भक्तिमति |म० ||८|| घोडा लाठीका नरम वचनसें । घोडा कहीने हटावे जति | ० ||९|| पहाड पाषाण जिन मूरतिको केहतां। लाज न तुमको भ्रष्ट मति १० जिनके नामसें रोटी खावो । तीनकी निंद करो पापमति |०||११|| भूतादिक पूजावोभावे । उहां न बतावो तुम हिंसा रति । म०१२ | हिंसा दयाका भेद जाने बिन । मत बनो तुम आतमघाति । म० | १३ | तीर्थकरकी निंदा करतां । नष्ट होय निवेंहि विभूति | म० || १४ || मुनि श्रावकका भेद न समजो भ्रष्ट करो गृहीकी विरति |म० ||१५|| कही हित शिक्षा यह छोटी । नहीं ईपी की करी है मति | ० || १६ || अमर कहें निंदा जिनवरकी । तीक्ष्ण धाराकी काति । म० ।। १७ । ॥ इति ढूंढक शिक्षा लघु स्तवनं समाप्तं ।। ( ४२ ) ॥ इति मुनिराज श्री अमरविजय कृता श्री जिनप्रतिमा मंडन स्तवन संग्रहावली समाप्ता ॥ For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ग्राहक और मदतगार ॥ (४३) .. ॥ अब हम जे जे सज्जन पुरुषों के नामकी यादि लिखते है उसमें कितनेक सहायता देने वाले है । और कितनेक गाहक त. रीके है । और कितनेक बेचने वाली संस्थाके अधिपतिके भी नाम है सो नीचे मुजब ॥ .(खानदेश.) आमलनेरा ॥ १ सा. पोपट नेमीदास । ९५ सा. भागचंद छगनदास । १ सा. नथुता ५ सा. डायाभाई चुनीलाल। ९ सा. हीरजी घेलानी कंपनी। .. ॥ जलगाम मेरु ॥ ५ सा. विशनजी अर्जुन । ५ सा. बाधरभाइ माणेकचंद । १ सा. भागचंद चुनीलाल । मैलना मेनेजर ॥ . १ सा. खेमचंद भाईचंद । २ सा. नाथाभाइ बेचरदास । १ सा. साकरचैद रंगीलदास । - १ सा. हरिचंद सखाराम । २ सा. हरसी देवराज,। कछी १ डाकतर. देवजीभाई मूलजी। ॥ बाधरपुर ॥ || पारोला। ५ सा. मोहनचंद माणेकचंद॥ १ सा. घेलाभाई शिवजी। ॥ खानदेश, धूलीया ॥ ॥ सीरसाला ॥ ५ सेठ. सखाराम दुलवदास । । ५ शेव. तीलोकचंद रूपचंद । ५ सा. रणसीभाइ भारमल । २ सा. रामचंद मोहन ॥ ५१ सा.विशनजीलालजी रोक . ... १ सा. ननुसा बनारसीदास। हस्ते. देवसीभाई ॥ डा १ सा. दगडसा उत्तमचंद ।। ५ सा. करनीराम गुलाबचंद। १.सा. किसोरदास छगनदास। ·५ सा. श्रीमल प्रतापमलजी । .१ सा. कल्याणचंद नथुभाइ ५ सा. भाणजीभाइ देवजी । For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) ॥ ग्राहक और मदतगार ॥ १० सा. भगवानजी कानजी. ॥ दक्षिण पुना ॥. रोकडा. १०० सा. हाथीभाइ जवेर ।। २ सा. राजमल हस्तिमलजी भेट देनेके वास्ते ॥ ५ सा. भीमजी स्यामजी । ५० जवेरी मोतीचंद भगवान। हस्ते. उकाभाई. रोकडा॥ ५० सा. छगनचंद वखतचंद । १ सा. फोजमल मानमल। ३० सा. शिवनाथ लुबाजी । १ सा. पन्नालाल मारवाडी। २५ मोतीजी कृष्णाजी १ सा. गोंवींदजीभाई खीमजी ५ खासगी . १ सा. उभयामाइ राधवजी। ३० सा. चुनीलाल मूलचंद। . १ सा. अर्जूनभाई लध्धा। २५ सा. वालचंद लाद्धाजी। १ सा. शिवजीभाई लब्धा । २९ सा. बालुभाइ पानाचंद । १ सा. अंबाईदास स्यामदास । १५ सा. जमणादास मोकम । १ सा. वेलजी चतुर्भुज रोकडो। २५ सा. मयाचंद गुलाबचंद १ सा. खीमजी रतनसी। . चोरालंदीना २ सा. खेतसीभाई लद्धा । १५ सा. सोभाग्यचंद माणेकचंद। १ सा. प्रेमचंद हीरजीभाई | ११ सा. गगलभाई हाथीभाई। १० सा. मोतीचंद जेताजी। ॥ पांचोरा ॥ १० सा. चेनाजी खुमाजी। २ सा. भीखचंद दोलतराम। १० सा. पानाचंद दलछाराम । .. २ सा. बालचंद गुलाबचंद । १० सा. पुंजाभाई खीमजी। १० सा. माणलाल चुनीलाल । ॥ चालीस गाम ॥ " ५ सा. जवारमल रतनचंद। ५ सा. धनजी गोवींदजी।। ५ सा. मोहनलाल खुशाल । २ सा. तेजपाल गोवींदजी।। ५ सा. गणपत अमोलक । २१ सा. वीठल मानचंद । For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ग्राहक और मदतगार ॥ (५५) ५ सा. भोगीलाल नगीनदास। ५ सा. हीरजी जेठानी कंपनी। ११ सा. डुंगरसी लखमीचंद । । ५ सा. जेतसी खीमजी. २ सा. भगवानजी वालाजी। । हस्ते. देवसीभाई। २ सा. मानजी नगाजी। ५ सा. भीमसी खीमसी । २ सा. हाथीभाइ बेचर । २ दोसी. वलभ जीवराज । २ सा. जसराज फूआजी।। २ जवेरी. भोगीलाल चुनीलाल १ सा. लालुभाई नथुराम ।। १ सा. सोभाग्यचंद कपूरचंद । १ सा. मोहनलाल सोभाग्चंद। १ सा. जीवराज नरसी मैसरी। १ सा. मगनलाल लखमीचंद । १ सा. नगीनचंद कपूरचंद । १ सा. देवचंद हर्षचंद। १ सा. उत्तमचंद मूलचंद । २ सा. बेचरदास सीरचंद । १ सा. नगीनचंद मनसुखभाई। २ सा. कंकुचंद रायचंद । १ सा. खीमजीभाई हीरजी। २ सा. हीराचंद लोलाचंद ।। १ मुहता. मूलचंद मारवाडी। ५ सा. डायामाइ वीरचंद ।। १ सा. भाणजी नागजी। हडफसरना ५ सा. हकमागी चुनीलाल कलकत्ता. ५ सा. अमीचंद धनीलाल मदरासवाला | २५ वावू. पंजी लालजी बना रसीदास. जौहरी मारफते ॥ मुंबाइ ॥ २५ सा. फकीरचंद भाइचंद । ॥ अमरावती ।। ७५ बाबू. चुनीलाल पन्नालाल ५० सा. सोभागचंद फतेचंद । ह. चिरंजीवी रतनलाल २५ सा. भीखुभाई फतेचंद । २५ सा. धर्मसी गोवींद। २१ सा. लीलाधर कुवरजीनी ॥तेल्हारा॥ कंपनी। । १०० सेठ. हर्षचंद गुलाबचंद For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) । ग्राहक और मदतगार ।। आँ० म जि स्ट्रेट । । ७ लाला. नथुरामकी मारफते॥ ९५ ज्ञान खात ५ खासगीना ॥ सिकंदराबाद ॥ ३ लाला.ज्वाहारिलाल जैनी।। ॥ अमदनगर । १० सा. माणेकचंद मोतीचंद ॥समाना. जि. पटीयाला॥ ___ जवेरी ॥ २ सदाराम जैनी. आत्मा नं२ सा. अभेचंद रायचंद । दसभाका सक्रेटरी॥ १ सा. मलुकचंद जेचंद । ॥ लुद्धीयाना ॥ ॥ दंढरा तलेगा ॥ ४ बाबू. हुकमचंद जैनी ॥ १० सा. बालचंद स्यामदास । ॥ नीकोदर ॥ ॥ एवत ॥ ४ मास्तर दोलतराम मारफत। १ सा. अमरचंद उजमसी। १ दोलतराम । १ कुलामल । १ प्रेमचंद। ॥ जेजरी॥ १रलामल। ५ सा. हंसराज खेंगारजी। ॥ जंडीयाला ॥ ॥ करमाला ॥ १० भावडा. फग्गुमल बागा ५ सा. चंद्रभानजी खीवराज ।। मलकी मारफते ।। ॥ पंजाबदेश ॥ ॥ जीरा ॥ ॥ मलेर कोटला ॥ ६ लाला. गेंडेराय भगवान For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || ग्राहक और मदतगार || दासकी मारफते || ॥ दील्ली ॥ १ जौहरी दलेल सिंह टीकमचंद ॥ सेहर अंबाला ! २ भावडा. गंगाराम बनारसीदास । ॥ अमृतसर ॥ २ भावडा. महाराजमल रामचंद || ॥ आगरा सेहर || ५ उपाध्यायजी. वीरविजयजीकी लायब्रेरी || || लाहोर ॥ ५० आत्मानंद जैन सभा । जसवंतराय जैनी ॥ ॥ दोल्ली सेहर ॥ १०. आत्मानंद जैन पुस्तक प्र चार मंडल | ( ४७ ) || भावनगर || ५० जैन धर्म प्रसारक सभा. ह. कुवरजी आनंदजी ॥ ॥ मुंबाई. पायधूनी ॥ ५० मेघजी हीरजीनी कंपनी | जैन बुकसेलर || ॥ मालेगाम ॥ १० सा. सखाराम मोतीचंद | २ सा. लालचंद केवल । १ सा. बालचंद हीराचंद ॥ भोपाल जंक्षण ॥ 3 सा. अमीचंद तसीलदार वर्द्धा नागपुरलेन । ५ सा. किसनचंद हीरालाल ॥ पुलगाम ॥ २ सा. पुनमचं जुहारमल || आंकोला || २ सा. पृथ्वी राज रतनलाल | १ सा. रतनसी स्यामजी | For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) || ग्राहक और मदतगार ॥ । खामगाम ॥ २ सा. विशनजी ज्ञानचंदजी। ॥ कलमसरा ॥ १ सा. हीरमल नथमलजी । ॥प्रतापगढ. मालवा ॥ २ शेठं. लखमीचंद घीया । ॥ गधक ।। १ सा. मेघजी पुंजाभाइ ॥ गाम. उंजा॥ १ सा. भायचंद वखतचंद। १ सा. ललुभाइ माणचंद। १ सा. चुनीलाल छगनचंद। १. सा. हीरालाल वस्ताचंद । १ सा. छगनलाल रवचंद। १ जैन पाठशाला खाते। ॥ अजमेर ।। १ सा. नथमल धनराज. कांसठीया। ॥ कुरडवाडी ॥ १ सा. रायमल हीरजी। ॥ जामनगर । ?सा. कालीदास मुलजी पारेषा ॥ फतेपुर ॥ १ सा. घनराज प्रतापमल । ॥ सवाइ जयपुर ॥ २ श्री. गुलाबचंद ढढढ। ॥ । मनमाड॥ १ सा. माणिलाल उत्तमचंद । मु. बडाली ॥ १ सेठ. जादवजी हर्षचंद। ॥ संगमनेर ॥ १ सा. भवानदास सांकलचंदा १ सा. त्रिभोवनदास खुशाल चंदजी ॥ ॥ बारडोली जिल्ला. सुरत ॥ ? सा. जीवनजी देवाजी । For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ग्राहक और मदतगार ॥ (४९) ॥ पालणपुर ।। ४७ बुको ॥ १ सा. गुलाबचंद मगनलाल। ५ जैन विद्योतेजक सभा। १ गांधी. मणिलाल त्रिभोव१ सेठ.चमनलाल मंगलजीभाई नदास । १ कोठारी. चंदुलाळ सोभा- १ सा. त्रिकमलाल भभूतभाइ। गचंद । ५ दोसी. मगनभाइ ककलचं. १ पारी. अमूलकचंद खुबचंद। द हस्ते जैनशाला खाते । १ पारी. रामचंद खुबचंद । १ सा. नाथाभाइ छगनलाल । १ पारि. रवचंद उमेदचंद। . १ सा. रतनचंद रामचंद । १ पा. नगीनदास ललूभाइ। उपर लखेली बुको ३७ १ पा. प्रेमचंद केवलचंद। पारीष मणिलाल खुशालचंद १ पा. मोतीलाल पानाचंद। सभाना सक्रेटरीनी मारफते॥ १ सा.भगवानदास छगनभाई। १ मेता.भायचंद लवजीभाई। १० नीचे लखेली दश बुको १ भणसाली. दलछा जोईता. कोठारी. धरमचंद वेलराम । जीनी मारफते १ गांधी. कस्तुरचंद मंछाचंद। १ पा. सरूपचंद पानाचंद । १ कोठारी. जोइता नथुभाइ। १ पा. भोगीलाल चतुरदास। १ सा. मंछाचंद उत्तमचंद। १ दो. पानाचंद केवलचंद । १ सा. कवरसिंग उमेद । दो. लखमीचंद केवलचंद । ? सो. पुनमचंद भूषगभाइ। १. वो. मगन ठाकरसीभाइ । १ मेता. हाथीभाइ रतनचंद। १ वो. रवचंद मूलचंद । १ भणसाली.रवचंद रायचंद। १ को. शांतीलाल धर्मचंद । १ सा. बापुलाल चुनीलाल। १ सेठ. जीतमल नरसिंगदास। १ दोसी. नहालचंद खेमचंद। १ मेता. हेमगी केशवजी । १ पा. सुरजमल नहालचंद।। १ वो. हेमजी मुलचंद । १ सा. मानचंद मगनलाल।। For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) ॥ सेहर डभोई ॥। १५ बुको ॥ २ सा. चुनीलाल कस्तुरचंद । २ सा. नेमचंद तलकचंद | || ग्राहक और मदतगार || २ सा. करमचंद मोतीचंद | ॥ करजत ॥ १ सा. मगनलाल मोहनलाल २ सा देवचंद जेठीराम । १ सा. गुलाबचंद हरिलाल । ढोलारीया १ सा. हरगोविंद वेणीदास । १. सा. अमीचंद वेणीदास । १ सा. नाथाभाई वीरचंद | १. सा. छोटालाल वीरचंद । १ सा. मगनलाल जीवचंद । १ सा. पतिांवर बाभाई । १. सा. फुलचंद दोलत | ॥ कोपरगाम ॥ ५ सा. रूपचंद रामचंद | ॥ राहोरी ॥ १ सा. माणेकचंद राजमल । १ सा. इंदुमल राजमल | ॥ पुना ॥ ५ सा. चिमनलाल डुगरसी. १ सा. अमरचंद हजार मिल. For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध सिद्धामेंभी अथात् - यत्किचित् अव कार्यकी - तीकरका द्वितीय भाग शुद्धि पत्रिका. || द्वितीय भाग शुद्धि पत्रिका ॥ शुद्ध सिद्धांतोर्मेभी निर्बंध हो— पयोजन परतु - पड्डी लिखता सनात नस्कार स्रीकी स्त्रीकी मर्त्तिस ang मुर्तिपूजाको - मूर्तिसें ढूंढजीने नित्य पिवरीत अशास्वती प्रति अर्थात् यत् किंचित् अब कार्यकी - तीर्थंकरका निर्द्वद्वहोके - प्रयोजन परन्तु - पट्टी लिखती सनातन नमस्कार खीकी स्त्रीकी मूर्त्तिसें - मूर्तिपूजाको - मूर्त्तिसें ढूंढनीजीने नित्य विपरीत अशाश्वतीप्रतिमा पृष्ट ४ ११ १३ १३ C F २० २१ २९ २९ ३३ ३७ ४५ ४५– ४९ ५३ ५३ 99 ५४ 36 ५६ ५६ ६० " 99 For Personal & Private Use Only ( ५१ ) पंक्ति २१ १३ १३ १८ ፡ १४ १५ २३ १९ २४ ૨૨ १५ १९ १९ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) द्वितीय माग शुद्धि पत्रिका. शत्यार्थसिचनबदामासउम्पन्नकल्याकीसत्यार्यनिक्षेपपकास्थापपनासुमंधमयइइमेंदलिगीरीकरनसेंविचारेश्रुद्धद्रौपदजिर्किअने सत्यार्थसिंचन ७०बदमास- ७३उत्पन्नकल्याणकी- . ७५सत्यार्थनिक्षेपका- ७६-. स्थापना- ७७सुगंधमयइसमेंदीलगीरी- . ७८करनसेंविचारे- ८१शुद्ध ८१द्रौपदीजीके- ८८अनेक ९६अथ स्तवनावली. .. ट. अशुद्ध चुनीलाजी शुद्ध. चुनीलालजी For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मुनिराज अमरविजय कृत ग्रंथोंकी यादि ॥ १ धर्मना दरवाजाने जोवानी दिशा । शास्त्री अक्षरोंमे-कि. रू. ०-८-० आना २ ढूंढक हृदय नेत्रांजन-कि. रू. १-४ ३ तत्त्वार्थ महासूत्र, अर्थ रत्नमाला भाषा टीका सहित, अध्याय ४ का प्रथम भाग, थोडे दिनों में बहार पडेगा। ॥ मीलनेका पत्ता॥ १ भावनगर-जैनधर्म प्रसारक सभा ॥ २ दिल्ली-आत्मानंद जैन पुस्तक प्रचारक मंडल ठे. नवघरेमें ॥ ३ लाहौर-आत्मानंद जैन सभा ॥ ४ मुंबाइ-मेघजी हीरजीकी कंपनी ठे. पायधोनी ॥ For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only