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( १९८) मनकी-मलीनताका, विचार. ढूंढकोंको, कोई भी बातकी लज्जाही नहीं है तो, हम तुमको कहेंगे ही क्या ?
॥ फिर लिखती है कि-विधिपूर्वक परस्पर मिलके, सत्याऽसत्यका निर्णय करें, यह तेरा कहना तो ठीक ही है परंतु जो मनमे
आवे सोही, आधार विना, बकवाद करनेको तो, तुमेरा मुख-बंबा रूप बना हुवा है, तो पिछे निर्णय, किस विधसे करसकेंगे ! अगर जो विधाताने-तुमको, सत्यासत्यका विचार करनेको, मति दिई होवें तो, यह हमारी किई हुई, समीक्षासें भी, करसकोंगे !
और यह भी मालूम हो जायगा कि-तुमको सूत्र सिद्धांतका भी कितना ज्ञान है ? परंतु तुमको तो केवल हठ ही प्यारा मालूम होता है ? नही तो गणधरोका वचनसे-विपरीतही, क्यों लिखते ? ॥
॥ फिर लिखती है कि इस पुस्तकमें,जानते अजानते,सूत्र कर्ताओंके अभिप्रायसे-विपरीत लिखा गया हो तो, मिछामि दुकडं ॥ वाहरे तुमेरा मिछामि दुकड वाह ! क्या जानके, जो तूने-१ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, और ४ भाव, यह चार निक्षेप मात्र है-उनका सूत्रके अभिप्राय विना आठ रूपसे लिखा है उनका ? अथवा चैत्य शब्दसे-जिनमंदिर. और जिनप्रतिमाका, साक्षात् पाठ है उनको टीका, टब्बाकारों से भी विपरीत लिखा उनका ? अथवाद्रौपदी परम श्राविकाको जिन प्रतिमाके स्थानमें--कामदेवकी प्रतिमा पूजनका कलंक दिया उनका ? अथवा महावीर स्वामीके परम श्रावकोका-कयबाल कम्माके पाठसें, जिन मूर्तिकी भक्तिको छुडवायके दररोज पितर-दादेयां-भूतादिक मिथ्यात्वी देवोंकी पूजाका कलंक चढाया उनका ? अथवा-अंबड श्रावकका जिन मूर्तिके वंदनादिकमें गपड सपड अर्थ करके दिखाया उनका ? अथवा
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