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मैनकी - मलीनताका, विचार,
( १९७१
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कभी तो मिथ्यावादी | कभीतो कहती है कि--अनघटित गपौडे, मा. रनेवाले | और कभीतो - सावद्याचार्य । और कभीतो-स्थिलाचाI री । और कभीतो - लाठापंथी | जो मनमें आवे सोही बकवाद क रनको अपना मुखको तो, बंबाही - वनारखा है, और 'दूसरोंको मूर्ख बनानेका, प्रयत्न करती है । क्या पर्वत तनयाका स्वरूपको धारणकरके, सब दुनीयाका - उद्धार करनेको, जन्मी पडी है ? जो सर्व आचार्योंकोभी, कुछ नही समजके- जो मनमें आवे सोही बक रही है ! अरे ढूंढनी विचार करके,
जैनशासन के आधारभूत, महान् २ आचार्य ते कौन ? और तूं एक तुच्छ स्त्रीकीजाति मात्र ते कौन ? क्यों अत्यंत बहकी हुई अपना तुछपणाको प्रगटकर रही है ? तेरी स्त्रीजातिकी बुद्धि ते कितनी ? क्या उन महान आचार्योंकी - बरोबरी करनेको जाती है? बसकर तेरी चातुरी ।
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फिर, लिखती है कि - जैनकी निंदा करने वालेतो, अन्यमतावलंबी ही बहुत है, तुम जैनीही परस्पर- निंदा क्यों करते, करातेहो || अगर जो तुम ढूंढकों - अपने आप जैनरूप समजते होतें तो, प्रथम तो यह पापका पोथा कोही प्रकट करवाते नही, अगर करवा या तोभी - जैन के महा शत्रुभूत बनके, जिस आर्यसमाजियोंनेजैन समीक्षा की पोथी प्रकटकरके, तीर्थकरोंकी, गणधरोंकी, और महान् आचार्योंकी, निंदा किईथी सो आर्य समाजियों, सरकार मारफते, दंडकापात्र भी बनचूके थें, और उनका पुस्तक भी रद करवाया गयाथा, सो तो जग जाहिरपणे ही जैनके वैरी हो चुके थैं उनकी पाससे जूठी प्रशंसापत्रिकाओं लिखवाकर —कबीभी अपनी थोथी पोथीमें, प्रकट करवाते नहीं ? परंतु विना गुरुके तुम
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