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चैत्य शब्दका-विचार. (१२७) प्रत्यय आके-चितः शब्द सिद्धहुवा, तबतो ज्ञानवान्, अर्थात् ज्ञानका आधारभूत जीवरूप अर्थ होगया । और फिर उसके भावमें "यण " प्रत्यय आ गया तब जीवके बिना ज्ञान मात्रका-अर्थ, करती है । कैसी व्याकरण वालोंमें, अपणी पंडितानीपणा दिखा देती है ॥ ____ अब आगे देखो-श्लोकोंकी रचना,कि-जिसमें नतो वर्णमाण, नतो विभक्तिका ठिकाना, नतो छंद भंगपणेका पत्ता, केवल जंगली भाषारूप किसी मूढने मनकलित जूट लिखके-वेदांतका नामको भी, कलंकित किया है. ॥ देखो श्लोकका लक्षण, अक्षर ८ के प्र. माणसे ॥ पांचमे लघुता तोलो, गुरु छठो लख्यो गमे ॥ बीजे चोथे पदे बोलो, श्लोकमां लघ सातमे ॥ १॥ ढूंढनीके लेखका विचार–प्रथम श्लोक,-प्रथम पादमें-प्रसाद, और विज्ञेय, शब्दमें-विभक्ति ही नहीं है. ॥ दूसरे पदमें-वर्णही सातहै । और चैत्यः शब्दका ' चेइ' नतो संस्कृत व्याकरणसे-सिद्ध होता है, और नतो प्राकृत व्याकरणसें-सिद्ध होता है, और नतो इनके आगे-विभक्तिका भी ठिकाना है । ऐसें जिस जिस पदमें "चेह" शब्द लिखा है, उहांपै सर्वथा प्रकारसे-निरर्थक पणे रखके, और वेदांतका सिद्धांतको कलंकित करके, अपणी ही पंडिताईपणेको प्रगट किई है. । तिप्सर पादम-पचमा अक्षर हस्तके स्थानमे-दीर्घ रख दिया है । और चौथे पादमें चेइ शब्दभी निरर्थक, और अक्षर भी ८ के स्थानमे ६ ही रखा है. ॥
अब दूसरा श्लोक, दूसरा पादमें-'ई' निरर्थक, और विभक्तिभी नहीं है । तिसरे पादमें-पंचम अक्षर इस्व चाहिये सो दीर्घ है, और छठा दीर्घ चाहीये उहां इस है. । चौथे पादमें'चेई' शब्दही निरर्थक है ।
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