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(९६) ढूंढकभाईयांका संसारखाता. ____ और इस प्रकारसे प्रथमके त्रण निक्षेपको-निरर्थक, ठहरायके, जैनधर्मके सर्व सिद्धांतोका, जैनधर्मकी २सर्व क्रियाओका, और जैन धर्मके ३सर्व नियमोका, और जैनधर्मके-साधु, श्रावक संबंधी-जितने व्रतो, जितनी क्रियाओ, उस-सर्वका, लोपकरकेही दिखाती है। - जैसे कि-१ नाम निक्षेपका विषयभूत, आवश्यक, दश वैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांगादिक-सर्व जैन सिद्धांतोका, नाम भी-निरर्थक । १ । और २ उस पुस्तकोमें लिखी हुई-स्थापनानिक्षेपका विषयभूत, अक्षरोकी पंक्ति, सो भी उपयोग बिनाकी निरर्थकरूप २ । और सामान्य मात्रसें-३ द्रव्य निक्षेपका विषयभूत जैन धर्मके सर्व पुस्तको-तो भी निरर्थक ३ । जैसे कि ढूंढनीजीका जूठा आशयको, पकड करके-साह वाडीलालने अपना बनाया हुवा-धर्मना दरवाजा, नामके, पुस्तकका पृष्ट. ६३ में, प्रगटपणे लिखके दिखायाथा ।।
और पृष्ट. ५४ में, लिखाथा कि-आ चार निक्षेप, जैन मतमां उपयोगी भाग, भजवे छ । एनी गेर समजथी-निरारंभी जैन वममा, एक मूर्तिपूजक पंथ, उभो थयो छे, के जेमां-हिंसा, मु. ख्यत्वे छ ।
इत्यादिक अने प्रकारका जूठही जूठ आक्षेप करके, तदन हद उपरांतकी, मजलको पुहचकरके-दरवाजाका पृष्ट. ६८ । ६९ में, लिखा है कि-अरेरे भस्मग्रहना-भ्रमित आचार्योए, मात्र पेटना कारणे, दुधमाथी पौरा विणवा जेवू काम करी-स्थापना निक्षेप, नो अवलो अर्थ लइ-मूर्तिपूजाना, अने ते अंगे थतां बीजां अगणित पापोमां, भोली दूनीयाने-केवी डुबावी दीधी छे ?। अने डुवेला पाछा उठवाज न पामे तेदला मादे-तेमना उपर, कपोल कल्पित
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