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सावधाचार्य - और ग्रंथों.
( १४३ )
पर चढ जानेकी लब्धिका कोई पण आश्चर्यकारक नही है | केवल मिथ्यात्वके उदयसेही 'तुमको - विपरीत दिखता है, नहीतर इसमें सूत्रसें अमिलितपणाही क्या है | और " सत्यकी " महावीरका भक्त नही, इसमें क्या तेरी पास प्रमाण है, जो निर्युक्तियोको जूठी ठहराती है । हमको तो प्रमाण, इत नाही दिखता है कि- जो भ्रष्ट होते है सो-सभी ही बातसेभ्रष्ट ही रहते है || फिर लिखती है कि-सूत्र के मूलमें, सूत्रके अभिप्राय से - संबंधभी न हो, उसका कथन - - टीका, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णी में - सविस्तार कर धरना ॥ हे गर्वि ष्टिनी ! तूंने इतनाभी विचार न आया कि जिस मतमें- एकैक वचनकी, विपरीत - श्रद्धान करनेवाले, " जमाली " जैसे महान् साधुओको - निन्दव मानके, कोइ भी आचार्योंने-मान दिया नही है, वैसा निर्मल जैन मतमें, लाखो पुस्तको का - गोटाला, कहती हुईकोकुछभी लज्जा, नही आई ? इसमें शास्त्रोंका - विपरीतपणा है कि, तेरी विपरीत मतिका ? और तेरा वचनपै- विश्वास करनेवालोंका ! फिर लिखती है कि- मूर्तिपूजक - ग्रंथों में गपौडे, लिखे है | इसमें भी थोडीसी निघा करके देखतो-जैसें तूंने, और जेठमल ढूंढने --गपौडे लिखे है वैसा तो कोइ भी गपौडे लिखने वाले--न मिलेंगे ? क्योंकि जिस शास्त्रको मान्य करना - उसीसे ही विपरीतपणा । देख तेरी गप्प दीपिका के गपौडे--- गप्प दीपिका समीरमें || और तेरे जेठमलके--गपौडे, देख- सम्यक्क शल्योद्वार में || और यह तेरा. चंद्रोदय केभी--अनुयोग द्वारसूत्र से सर्वथा प्रकार से विपरीत - गपौडे, देख यह हमारी कई हुई- समीक्षा सें ॥ ऐसे अनेक दर्फे, गुरु बिनाके तुम जैन तत्वका रहस्यको समजे विना, मूढपणे - उपाधि तो कर बैठते हो, फिर मूर्ति पूजकोकी तरफसें प्रत्यु
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