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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२३५ ) दर्शन करनेके वास्ते रखी, उसका-गपड सपड, अर्थ लिखके दि. खाया ? । क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ।। ८ ॥
(९) ए. ४५ में, शासु वहुका दृष्टांतसें-मूर्ति मात्रको, पा. षण ही ठहराया । तो भी ए. ७३ में-पूर्ण भद्र यक्षादिकोंकी, पा. पाणकी मूर्ति -धन पुत्रादिक, दिवानेको तत्पर हुई ? क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥९॥
(१०) और द्रौपदीजीके विषयमें, प्रगट रूप जिनमूर्तिका अर्थको छोड करके, पृ. ९८ में, कामदेवकी-पाषाणकी मूर्तिसें, द्रौ. पजीको-वरकी प्राप्ति करानेको, तत्पर हुई ?। क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥ १० ॥
जब मूर्ति मात्रको, जड पाषाणरूप समजते हो, तो पिछे-तुम बडे ज्ञानी होके, धन पुत्रादिक लेनेको क्यौं दोडते हो ? क्या वीतरागी परमशांत मूर्ति ही, तुमेरे नेत्रोंमें खुप रही है ? तब तो यह हमारा अंजन, बरोबर-करते रहोंगे तो, तुमेरे नेत्रोंमें-आगेको मैल न रहेगा।
(११) पृ ५१ मे-ढूंढनीजीने लिखाकि, अक्षरोंको देखके ज्ञान होता नहीं । तोभी तुम लोक जूडे जूठ अक्षरोंको लिखके, लोकोको-ज्ञान प्राप्त करानेके वास्ते, पोथीयां छपवाते हों ?। क्या यह तुमेरे ढूंढकोंका जूठ नहीं है ? ॥ ११ ।।
(१२) पृ. ३४ में ढूंढनीजीने स्त्रीकी मूर्तिसें, काम जगाया । पृ. ४२ में, मित्रकी मूर्तिसें-प्रेम जगाया। और पृ. ३६ में. आकार देखनेसें-ज्यादा, और जल्दी, समज होनेका दिखाया। और पृ. ६७ मे, भगवानकी मूर्तिमें, श्रुतिमात्रभी-लगानेका, निषेध करके दिखाया? । क्या यह तुमेरे ढूंढकोंका, जूठ नहीं है ? ॥ १२ ॥
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