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aan मूर्ति परिणाम होनेमें दृष्टांत.
क्या तुमही ज्ञानी ही गयेहो ? कोई जैनाचार्यको जैन तत्का बोध, नहीथा ? जो जर्गे जगे गणेधरादि महान महान आचार्यको ही निंदते हो ? हमतो यही कहते है कि कोई जैन धर्मके तस्वीरों विमुख पुरषकी वाणीरूप पानीका पान करनसें, तुम दिवाने बने हुये ने गणधर । दिक महापुरुषों को भी दिवाने रूप, लेखतेहो ?
परंतु जो यह किंचित् मात्र स्वछ वाणीरूप पानीका - पानकरके विचारमें उत्तररांगेतो, अपने आप मालूम होजायेगा कि जैन त वो विषयमें - हम कितनी पुहच धरावते है ?
और जी विचार में न उतरोंगे तब तक तो तुम अपने आप तत्वज्ञानी बने हुये ही है। कारण कि दूनीयांका ही यह एक कुदरती नियम, दिखने में आता है कि जो पागल होता है सो भी सब दूनीयको - पागल रूप समज कर अपने आप वह पागल ही तत्त्व ज्ञानकी मूर्तिरूप, बन बैठता है ।
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और अपनी जूठी बात भी दूसरों को मनानेको- जबरजस्तिपणा भी करता है, और वह पागल उस जूठी बात को भी नही मानने वालोंकी - हेरानगति करनेको ही - तत्पर हो जाता है ।।
अब इसमें एक सामान्य दृष्टांत देके-में-- मेरा लेखकी भी, समाप्ति ही करता हुं ॥
यह है कि किसी एक समये एक निमित्तियेने राजाको जाहिर किया कि - हे महाराज ! जो यह ग्रहों के योग में वर्षा होने वाली है, उसका पानी, जो कोइ पीई लेवेगा, सोही दिवाना बन जायगा तब जो जो उत्तम लोकथे उनोंने अपना अपना बंदोबस्त कर लिया, परंतु जिस लोको के पास कुछ साधन ही नहीं था, वह लोक - अपना कुछ भी बंदोबस्त कर सके नहीं,
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