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लूंदनी पार्वतीजीकी मूर्तिका वर्णन. (७९) परंतु हम इस बातको-मंजूर न करेंगे, कारण यह है कि-ऐसी अनुचित बातसे-जैन धर्मकीही-निंदा होती है ? यद्यपि वीतगग देवकी मूर्तिकी वेषिणी-ढूंढनीसे-हम विशेष संबंध नहीं रखते है, परंतु जैन धर्मकी प्रीति होनेसें यह अनुचितपणा सहन न करस. केंगे? यद्यपि जैनधर्मके तत्वोका-विपरीत बोधसें, ढूंढनी पार्वतीजीने-वस्तुका-चार चार निक्षेपमेंसें-त्रण त्रण निक्षेप-निरर्थक, और उपयोग विनाका, ठहरायके-अपनी मूर्तिरूप-स्थापनाकोभी-निरर्थक ठहराइ है,
परंतु हमतो तीर्थंकरोंके वचनानुसार, हमारी उपादेय वस्तुकाचारोनिक्षेप, योग्यता प्रमाणे, उपादेयपणे ही मानते है । जो कदाच हमारा लेखसें-किंचित् मात्रभी-विचार करोंगे तो, तुम ढूंढकोनेभी-अपनी उपादेयरूप वस्तुका-चारो निक्षेप, योग्यता प्रमाणे-उपादेय रूपसे ही माने हुये है। ___परंतु कोई विशेष प्रकारका-मिथ्यात्वके उदयसें, अथवा कोइविपरीत बोधक-कारणसें, अथवा कोई संसार भ्रमणकी-बहुलतासे, तुमलोक तीर्थकरोका-भक्तपणाको, जाहीर करकेभी केवल वीतराग देवका-स्थापना निक्षेप रूप-भव्य मूर्ति कीही, अनेक प्रकारसे-अवज्ञा करनेको, तत्पर होके-अपना संसार भ्रमणमें ही अधिकपणा करलेतहो, और दूसरे भव्य पुरुषोंकोभी-विपरीत मार्गमें गेरनेका-विपरीत रस्ताको ढूंढतेहो. ____ और इसीकारणसें अपनेमें-ढूंढकपणाकी सिद्धिभी करके दि. खलातेहो । और गण धरादिक महापुरुषोंको, और महान् महान् सर्व आचार्योको, और जैनके सर्व सिद्धांतोको-निंदितकरके-अपने आप-तत्त्वज्ञानीपणाको, प्रगट करते हो ?
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