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आनंद श्रावकजीका सूत्रपाठ.
(१०९)
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तूं (अण्ण उथ्थय परिग्गाहियाई, चेइयाई,) इतना पाठ मात्र, कोभी मान्यरखेगी, तोभी-आनंद-काम देवादिक महान्-श्रावको होनेसे, प्रत्याख्यानके अवसरमें-न कल्पें अम्ययूथिका, (शाक्यादि साधु )
और अन्य यूथिक-देवतानि, (हरि हरादि देवों) अब ( अण्णउत्यि यपरिग्गाहियाई, चेइयाई,) इसमें-अरिहंत शब्दको, न मानेगी, तोभी-हरि हरादि देवोंका प्रथमही निषेध हो जानेके संबधमें यह चेइयाई पाठसें, अन्ययूथिकोने-ग्रहण किई हुई-जिनप्रतिमाका हीअर्थ, निकलेगा, और उसको ही-चंदना, नमस्कार, करनेका-नियम, ग्रहण किया है ॥ परंतु तेरा-मनः कल्पित जो, अन्य यूथिकोमेंसे, किसीने-ग्रहण किया, अरिहंतका-सम्यक् ज्ञान, अर्थात् भेषतो है-परिव्राजक, शाक्यादिकका,और सम्यक्त्वव्रतवा, अनुव्रतरूपधर्म अंगीकार किया हुवा है-जिनाज्ञानुसार, यह-बे संबंध, लंबलंबायमान, अगडं बगडं रूप अर्थकी, सिद्धि तो तीनकालमें भी-नही होती है ॥ काहेको फुकटका प्रयास लेके और वीतराग देवकी, आ शातना करके पापका--गठडाको, शिरपर-उठाती है ?
॥ इति आनंद श्रावकजीके-सूत्रपाठका विचार ॥
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