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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी.
(२०५)
तात्पर्य–दुधकी इछा वालेको जैसे पथ्थरकी गौसें, दुध न मिलेगा । तैसें ही-गौ गौ के पुकार करने मात्रसें भी, दुध न मिलेगा। तो पिछे ढूंढनीजी भगवान् २ ऐसें, नाम मात्रका पुकार करनेसें भी-अपना कल्याण, किस प्रकारसें, कर सकेगी ? ॥ तर्कअजी नामके अक्षरोंमें, हमारा-भाव, मिला लेते है। हम पुछते है कि-नामसें भी विशेषपणे, तीर्थंकरोंके स्वरूपका बोधको करानेवाली, बीतरागी मूर्तिमें से-तुमेरा भाव, कहां भग जाता है ? क्या-पितर, दादेयां, भूत, यक्षादिकोंकी-भयंकर स्वरूपकी मूर्तिमें, फस जाता है ? । देखो. नेत्रां. पृ. ८१ से ८४ तक ॥ ११ ॥
मानो किस विध भलसें, अखरसे हुये ज्ञान । ढूंढनी हमको कहत है, द्वेषसु बनी बेभान ॥ १२ ॥ __ तात्पर्य-ढूंढनीजीका मानना यह है कि-साक्षात् स्वरूपका बोधको करानेवाली, तीर्थंकरोंकी तो-मूर्तिसें । और ऋषभ देवा. दिक-नामके अक्षरों सेंभी, तीर्थकरोंका-बोध, होता नहीं है । तो क्या हमारे ढूंढक भाइयांको-तीर्थकर भगवान, साक्षात् आके मिलनाते है ? । अथवा एक अपेक्षासे ढूंढनीजीका कथन कुछ सत्यभी मालूम होता है, क्योंकि-गुरुज्ञान विनाके, हमारे ढूंढक भाइयां कोअपने आप जैन सूत्रोंको वाचनेसें, विपरीत ही विपरीत-ज्ञान होता है । देखो. नेत्रां० पृ. ८४ से ८८ तक ।। १२ ॥ पंडितोंसें सुन लीई, देखि सूतर माही। तोभी ढूंढनी कहत है, मूर्ति पूजा कछु नाहि ॥१३॥
तात्पर्य-ढूंढनीजीने ही-जिन मूर्तिका पूजन, पंडितोंसें सुना । और जैन सिद्धांतोमें-लिखा हुवा भी, देखा । तोभी ढूंढ नीजी
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