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( २०४ ) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी.
तात्पर्य - सम्यक धर्मका पालन करनेके वास्ते - वज्र करण राजा, अपनी अंगूठी में - बारमा वासु पूज्य स्वामी तीर्थंकरकी, मूर्त्तिको रख के - हमेशां दर्शन करता रहा, उस वातमें ढूंढनीजी कहती हैं कि - करने के योग्य नहीं। तो क्या ढूंढनीजीने - पितर, दा देयां, भूत, यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंकी क्रूर मूर्तियांकी पूजा कराके, तीर्थंकर देवोंकी - निंद्या करनी, योग्य समजी ? । फिरभी एक कुतर्क की हैं कि - मूर्त्तिके आगे, मुकद्दमें नहीं हो सकते है । तो पिछ ढूंढनीजी भगवानका - नाम मात्रके आगे, मुकद्दमें कैसे चलाती है ? | क्या तीर्थकरों का नामको जपनेका निरर्थक मानती है ? || देखो. नेत्रां. ७६ से ७७ तक ॥ ९ ॥
मूर्ति मित्र की देखकर, ढूंढक जनको प्रेम ।
देखी प्रभुकी मूर्त्तिको, क्यौं बंदन में वेम ॥ १० ॥
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तात्पर्य — ढूंढनीजी ने लिखा है कि- मित्रको मूर्तिको देखकेप्रेम, जागता है | परंतु भगवानकी मूर्तिको देखके तो कोइ खुश हो जाय तो हो जाय । परंतु भगवान्की पूजा कभी नहीं करनीदेखो. नेत्रां ए ७८ से ८१ तक || परंतु सत्यार्थ. ट १२४ से १२६ तक कयब लिकम्मा, के पाठमें, वीर भगवान के परम श्रावकों की पाससें - कोइभी प्रकारका लाभ के कारण बिना, तीर्थकर भगवान के बदले में - पितर, भूतादिकों की क्रूर मूर्तियां पूजानेको तत्पर हुई || और सत्यार्थ. ए. ७३ में धन पुत्रादिककी लालच देके, यक्षादिकों की - भयंकर मूर्त्तियांको, पूजानेको तत्पर हुई || कैसी कैसी अपूर्व चातुरी प्रगट करके दिखलाती है ? ॥ १० ॥ गौ गौ केहि पुकारसें, मिलावें दुध मलाइ । गौकी मूर्त्ति स्युं नहीं, ढूंढनीने छुपाई ॥ ११ ॥
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