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(४४) स्थापनामें, कुतर्कका विचार. बडे ढूंढीये तो यूंही कहत कहते चले गये, कि, यह अनुयोगद्वार सूत्र-न जाने क्या है, कुछ समजा नही जाता है । ऐसा हमने गुरुजीके मुखसे ही सुनाथा तो पिछे तूं क्या समजनेवाली है ? जब यह अनुयोगका विषय समजेगा, तब तुमेरा ढूंढकपणाही काहेकुं रहेगा? और यह मेरा सामान्य लेखमात्रसेंभी तुमको समजना कठीनही मालूम होता है ।
. ढूंढनी-सत्यार्थ पृष्ट १२ ओ १२ सें-मिशरीका कूजा सो स्थापना, ।। पृष्ट १३ सें-मिट्टी, कागजका,-आकार बनालिया सो, स्थापना निक्षेप है, सो-निरर्थक है. ॥ ___ समीक्षा-पाठवर्ग, ? जे मिशरीका कूजामें, मिष्ट क्रिया रही हुइ है, सो तो ' भावरूप' है। उसमें-नाम, और स्थापना, कैसे गूसडती है ? जब वैसाही होता तो, शास्त्रकार-दश प्रकारकी भिनरूप वस्तुमें, स्थापना, किस वास्ते कहते ?
ढनी-स्थापना अलग है, और-स्थापना निक्षेप, हम तो अलंग २ मानते है.
समीक्षा-हे विचार शीले ! जो तूंने स्थापना, और स्थापना, निक्षेप, अलग २ लिखके, जूठी मनः कल्पना किई है, सो तो, जैनीयोंके करोडो पुस्तक लिखा गयेथे उसमेंसें, लाखो परतो विद्यमान है, उसमेंसें एकभी पुस्तकमेसे, न मिल सकेगी.। तेरी जूठी कल्पना तो तेरेही जैसे कोई होगे सो भले मानेगे । परंतु दूसरे जैनी हे सो न मानेगे ।-इस वास्ते चारही निक्षेप के विना, जो तूंने कल्पना किई है, सो तो सर्व जैन सिद्धांतों काही विपर्यासपणा किया है। ... .... .. . . .
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