________________
सावधाचार्य-और ग्रंथो. (१३९) है कि,१०० मेसे सात मरगये ९३ रहैतो-आनंद, और ९० मरजावे १० रहे तो बडा-अफसोस, इत्यादि ॥ पृष्ट. १३८ सें-ऐसे मिथ्या वाक्योंपर-मिथ्यातीही, श्रद्धा न करते है ॥ओ.१० से-सूतथ्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्ति मिसिओ भणिओ। तइओए निरविसेसो, एसविही होइ अनुयोगो. १॥ ___ अर्थ-प्रथम सूत्रार्थ कहना । द्वितीय-नियुक्तिके साथ कहना, अर्थात्-युक्ति, मामाण, उपमा, (दृष्टांत देकर-परमार्थको, प्रगट करना । तृतीय-निर्विशेष अर्थात्-भेदानुभेद खोलके, सूत्रके सा. थ-अर्थको मिला देना । इसप्रकार-नियुक्ति माननेका अर्थ, सिद्ध है कि-तुम्हारे कल्पित अर्थ रूप, गोले-गरडानेका । वाचने लगे तो, प्रथम-सूत्रार्थ, कहलिया, । द्वितीय जो नियुक्तिये नामसे-बडे २-पोथे, बना रखे हैं, उन्हें धरके वांचे । तीसरे जो-निरविशेष-अ. र्थात् ' टीका, चूर्णी, भाष्य, आदि ग्रंथों वांचे. । ऐसा तो होता नहीं है. साते तुम्हारा-हठ, मिथ्या है।
१ सूत्र १ टीका २ नियुक्ति ३ भाष्य ४ चूर्णि ५ यह पंचोंही प्रकार 'आगम' स्वरूपही कहेजाते है । उसमेंसें एक ३२ सूत्रके बिना, सर्वको जूठा ठहरायके, ढूंढनीही-टीकादिक सर्व प्रकार-अपणे आप वनबैठी है । परंतु सत्यार्थ-पृष्ट ३८ में-मूर्तिखंडनके वास्ते, जिसका 'सवैया' लिखाहै-सो ढूंढक-रामचंद-तेरापंथीका. खंडनरूप एक स्तवनमें-लिखताहैकि-बत्रीश सूत्र मानां मेंतो, ते पण मानां पाठ, आगम पंच प्रकार बरोबर, निंदें गेहली ठाठ, इस कहनेसें भ्रष्टी कहीये, ग्रही नरककीवाट ।। इत्यादि। फिरभी लिखाहैकिटीका उत्थापेखरा ॥ यहस्तवन, अमोए इस ग्रंथके अंतमें, दाखल कियाहै, उहाँसें विचार करलेना ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org