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अथ तृतीय विवाह चूलियाका. (१६७) चार कर कि-जब वीतराग देवकी प्रतिमाका वंदन, पूजन, मिथ्या त्वका हेतु होता तो,भगवंत वंदन पूजन करनेकी हा-किस वास्त कहते ? हां जो साधु पणासे भ्रट हो के, यूं कहें कि मैं तो इस मूर्तिका, वंदन, पूजनसे, मेरा-श्रुत धर्म, और चारित्र धर्म, की आराधना करता हूं, तब तो बेशक, सो साधु भवभवके आटेमें पडसकता है । नहीं तो तुम ढूंढकों ही,वीतराग देवकी,आज्ञाके भंगसें, और सम्यक धर्मकी प्राप्तिका हेतुरूप वीतरागी मूर्तिकी अवज्ञा करनेसे अनंत संसारके भ्रमणमें पडे हुये है ॥ परंतु सम्यक धर्मकी प्राप्तिका कारण रूप अथवा आत्माको निर्मलताका कारणरूप “जिनमूर्तिका"वंदन,
और पूजन, अपनी अपनी योग्यता मुजब, करनेवाला-चारो प्रकारका संघ तो, संसार समुद्रके-किनारेपर ही, बैठा है । क्योंकि-जी वोंको प्रथम-सम्यक धर्मकी-प्राप्ति होनी, सोई संसार समुद्रका कि. नारा, शास्त्रकारोंने-वर्णन कियाहै । जिसको सम्यकी प्राप्ति नही, उनको-एकभी धर्मकी प्राप्ति नहीं, और उनको मोक्षभी नहीं । क्योंकि-तीर्थकरोंका जीबोकोभी-जहांसें सम्यककी प्राप्ति हुइ, उहाँसेंही भवोंकीभी गिनती हुईहै । इस वास्ते हठवाद छोडके, तुम तुमेराही लेखका विचारकरो और रस्तैपर आ जावों केवल कुतर्कों करके, और अपना जन्म जन्मका विगाडा करके, अपना आत्माको, अनंत दुःखकी जालमें, मत फंसाओ. इत्यलं विस्तरेण ॥
॥ इति तृतीय विवाह चूलिया सूत्रपाठकी समीक्षा ॥
॥ अब चतुर्थ जिनदत्त सूरिकृत संदेह दोलावली प्रकरण ग्रंथकी--पष्टी,सप्तमी, गाथाकाभी विचार करके दिखावते है ॥ प्रथम ढूंढनीजीकाही लिखा हुवा पाठ और अर्थ लिखते है पृष्ट. १४९ में से-१५१ तक देखो-तद्यथा ।
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