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________________ (१६८ ) अथ तृतीय विवाह चूलियाका. गडडरिय पवाहओ,जे एइ नयरं दीसए बहुजणेहिं ॥ जिणगिह कारवणाइ सुत्त विरुद्धो असुद्धोय, ॥६॥ अस्यार्थः भेडचालमें, पडेहुये लोग, नगरोंमे-देखनमें आते है कि, (जिनगिह) मंदिरका बनवाना, आदि शब्दसे-फल, फूल, आदिक से पूजा करनी, यह सब सूत्रसे विरुद्धहै, अर्थात् जिनमतके नियमोंसे-बाहर है, और ज्ञानवानोके मतमें-अशुद्ध है ॥ ६ ॥ ___ सोहोई दव्वधम्मो, अपहाणो अनिव्वुई जणइ सद्धो धम्मो बीओ, महिओ पडिसोय गामीहिं. ॥ ७ ॥ ____ अर्थः-द्रव्यधर्म, अर्थात् पुर्वोक्त द्रव्य पूजा, सोप्रधान नहीं कस्मात् कारणात् किस लिये कि-मोक्षसे परांग मुख, अनुश्रोत्र गामी, संसारमें भ्रमाणे वालाहै, आश्रवका कारणसे ॥ दूजा भावधर्म, अर्थात्-भावपूजा, सो शुद्ध मोटा धर्म है. कस्मात् कारणात्, प्रतिश्रोत्रगामी,अर्थात् संसारसे विमुख,संवर होनेंते ॥ अब कहोजी, पहाड पूजको, जिनदत्त सूरिने-मूर्तिपजाके, खंडनमें, कुच्छ बाकी छोडी है । इत्यादि. समीक्षा-पाठक वर्ग ! इस ढूंढनीजीको-जो कुच्छ दिखता है, सोई-उलटा दिखताहै, नजाने इनके हृदयपरभी,क्या पाटा चढ गया होगा! जो कुच्छभी दिखताही नहीं है। क्योंकि-जो जिनदत्तसूरिजी महाराज, दादाजीके नामसे-सर्वजगें प्रसिद्ध है, और अनेक स्थलमें, दादाजीकी वाडी, दादानीकी वाडी, इस प्रसिद्ध नामसें, स्थानभी बने हुये है, और जिनकी पादुकाको अभीतक अनेक भक्तजन पूज रहै है, और जिनोने मारवाड आदि अनेक देशोंमे फिरके और रजपुत आदि अनेक जातों को प्रतिबोध करके, लाखो मनु.. १ इस गाथामें, अशुद्धपणाहै, जैसीहै वैसी लिख दिईहै Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004084
Book TitleDhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Dagdusa Patni
PublisherRatanchand Dagdusa Patni
Publication Year1909
Total Pages448
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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