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संदेह दोलावली में महा निशोथ साक्षी.
( १६९ ) arrai, श्रावक धर्ममें, दाखल किये है. । और अनेक जिन मंदिरों की, स्थापना करवाय के, प्रतिष्टाओ भी करवाई है सो, तैसे प्रभाविक जिनदत्तसूरिजी महाराजकी दो गाया, लिखके, यह ढूंढनीजी अ पना ढूंढक धर्मको स्थापित करनेको जाती है, सो यह कैसें बन सकेगा ! क्यौं कि, जो पिछे के, तीन पाठोमें विचार दिखाया, सोई विचार इस गाथामें दर्शाया है, तो अब इसमें ढूंढनीजीकी सिद्धि कहांसे हो गई ? जो पहाड पूजकोंका संबोध न देके - उपहास करती हुई, अपनी तुछताको दिखाती है ? और कुछ भी अपनी मर्यादाको समालती नहीं है ? क्योंकि - सिद्धि' तो जो होनेवाली है सोइ होगी, कुछ तुमेरा निंदनिक मार्गकी सिद्धि नही होनेवाली है, किस वास्ते जूठा, तरफडाट करती है ? ॥
| अब जो गाथाका तात्पर्य है, सो हम लिख दिखावते हैं बहुत लोकोंकी साथ, भेड चालसे, जो चलनेवाले है - सो भी नगर में दिखने में आते है । मंदिरका बनवाना आदि, सूत्र विरुद्ध और अशुद्ध है || ६ || ॥ ॥
|| अब सप्तमी गाथाका अर्थ- जो मंदिरका बनवाना आदि है, सो - द्रव्यधर्म है, अप्रधान है, निर्वृत्ति जो प्रोक्ष, उसका देनेवाला नही है | और शुद्धरूप दूसराज - भाव धर्म है सो, प्रति श्रोत्रगामिभिः साधुभिः । अर्थात् द्रव्य धर्मसे उलटे जानेवाले, साधुने - सेवित किया है ॥ ७ ॥
|| अब इसमें विशेष यह है कि- तीर्थंकर भगवानकी पूजा, दो
श्रोत्रगामिहिं, कर्त्ता है,
१ इस गाथा के अर्थ में, ढूढनी, प्रति उनको, भाव धर्मरूप कर्मका, विशेषण करके, विपरीत अर्थ
करती है.
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