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( १७०) संदेह दोलावलीमें-पहा निशीथ साक्षी.
प्रकारसें, महानिशीथ सूत्रमें दिखाई है। तथाच सूत्र-ते सिय तिलोग महियाण, धम्म, तिथ्यंकराणं जग गुरुणं, १ भावच्चण, २ दव्यच्चण, भेयेण-दुहचणं, भणियं ! १ भावञ्चण चारित्ताणुठाण, कठुग्ग घोर तव चरण ॥२ दबच्चण, विरयाविरय शील पूया सकारदाणाइ । तो गोयमा एसथ्थे परमथ्थे । तंजहा, १ भावच्चण मुग्गवि. हारयाय । २ दव्यच्चण तु जिन पूया, । पढमा जईण । दोन्निवि गिहीण । पढमच्चिय पसथ्था ॥
भावार्थ-तीनलोकसें पूनित ऐसें धर्मतीर्थकर, जगत् गुरुका " अर्चन " दो प्रकारका कहा है ॥ एक-भावार्चन । दुसरा-द्रव्यार्चन ॥ १ भावार्चन यह है कि-चारित्रानुष्टान, कष्ट, उग्र घोर तप चरण । और २ द्रव्यार्चन यहहैकि-श्रावकपणा शील, पूजा, सत्कार, दानादिक, इस हेतुसे, हे गौतम यही अर्थ परमार्थ है कि सो १ भावार्चन-उग्र विहारियोंके तांई । अर्थात् कष्ट करनेवालोंके तांइ करणेका है २ द्रव्यार्चन-जिन पूजा है । प्रथमा अर्थात् भावपूजा-गतिको । दोनोंभी गृहीकों । पहिली प्रशस्त है ।
अब इस पाठसे, समजनेका यह है कि-जो द्रव्यार्चन-(अर्थात् द्रव्य पूजा) जिन मंदिरका-बनवाना और फल फूलादिकसे जिन मूर्तिको पूजना, और दानादिक धर्मको सेवन करना । यह सर्व कर्त्तव्य, मुख्यताप्ले श्रावक धर्मको, अंगीकार करने वालेका है ।
और चारित्रानुष्टान, कष्ट घोर तपसा, विगरे कर्तव्य है सो-भा. वार्चन रूप मुख्यतासें साधुका कर्तव्य है ॥ और यह साधुका
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