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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२३३) जूठ बोलना पाप है, नहीं जूठका अंत । निंद्या करें सब संतकी, आपही आप महंत ॥ ५२ ॥
.. तात्पर्य-सत्यार्थ. ए. १७२ में, जूठ बोलना पाप है, ऐसा लिखके-ट. १७५ तक, सम्यक्त्व शल्योद्धारादिक ग्रंथ कर्ताओंकी निद्या करके, अपना बड़ा ही साध्वीपणा दिखाया है। परंतु ढूंढनीजीने, अपना ग्रंथका नाम-सत्यार्थ चंद्रोदय, रखके भी, मायें एक बात भी सत्य नहीं लिखी है। क्योंकि ग्रंथका सब पाया ही उंधा रचा है, तो पिछे ढूंढनीका लेखमें सत्यपणा ते कहाँस-आने वाला है ? इस बातको पाठक वर्ग तो, हमारा पूर्वका लेखसें, अछीतरांसें समज भी लेवेगें,तो भी उनोंकों-विचार करनेका, बोजा कमी होजाने के वास्ते, थोडिसी सूचनाओं करके-फिर भी याद दिलाता हुं, सो. प्रथम ढूंढनीजीका सत्यार्थसे ही-विचार करलेना। पिछे मरजी होवे तो, फिरसें हमारा नेत्रांजनमें भी, आप लोकोंने निघाको फिराना।
(१) देखो सत्यार्थ. ट. ६ में-पिछली तीन नयोंको, सत्यरूप ठहरायके, प्रथमकी-चार नयोंको, असत्यरूप, ठहरानेका प्रयत्न किया । क्या ढूंढनीजीका यह जूठ नहीं है ? ॥ १॥ ....
(२) ए, ९ मे-नाम, स्थापना, यह दोनों निक्षेप, अवस्तु ठहराया । और ए. ७३ में-पूर्ण भद्रादिक यक्षोंकी, स्थापनारूपमूर्तियांसें, धन पुत्रादिककी प्राप्ति होनेका दिखाया । क्या ढंढनी. जीका यह जूठ नहीं है ? ॥ २ ॥
(४) और पृ. ९० सें, द्रौपदी के विषयमें-अनेक प्रकारकी
१ जो प्रथमकी चार नयोंको-असत्य ठहरावेतो, साधु श्रावककी जितनी उत्तम करनी है, उनको सबको-असत्य ठहरानेका, महा प्रायश्चित होता है । देखो. नेत्री. पृ. २३ । २४ में ॥ ...
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