________________
(२३२) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. का, परम आलंबन स्वरूप काहा है। इसी वास्तेही-कयबलि कम्मा, का पाठके संकेतसें, श्रावकोंके वर्णनमें-जिन मूर्तिपूनारूप द्रव्य धर्म दिखाया गया है। नहीं के मिथ्यात्वी-भूत, यक्षादिक, देवताओंकी-भक्तिकरानेके वास्ते, लिखके दिखाये है। किस वास्तेदया दयाका, जूठा पोकार करके, जैन धर्मसें-सर्वथा प्रकारसें, भ्रष्ट होते हो ? ॥ ५० ॥ द्रव्य रहित श्रावक नहीं, ताते द्रव्यने भाव । पूजा करणि गृहस्थको, भर दरियों नाव ॥ ५१ ॥ - तात्पर्य-श्रावक है सो, साधुकी तरां-द्रव्यविनाका नहीं है । और सर्व सावधका-त्यागीभी, नहीं है । सोतो सदाही महा आरंभमें फसा हुवा है । और साधुकी-वीस विश्वा दयाकी अपेक्षासे, मात्र-सवा विश्वा दया काही, पात्र है !इस वास्ते द्रव्य पूजाकी साथ ही, भाव पूजाका अधिकारी दिखाया गया है। इसी वास्तेही वीरभगवानके श्रावकों, प्रथम तीर्थंकरोंकी मूर्ति पूजाको करके, पीछेसें भगवानकोभी-वंदना करनेको, गये है। और उस पूजाका वर्णन-कयबलि कम्मा, का पाठके संकेतसे, जगें जगें पर-जैन सिद्धांतकारोंने, लिखा हुवा है। नहींके सत्यार्थ. ट- १२६ में, ढूंढनीजीने दिखाये हुये, मिथ्यात्वी-पितर, दादयां, भूत, यक्षादिकोंकी भयंकर मूर्तियांको दररोज पूजानेके, वास्ते पाठको दिखाया है। यह वीतराग देवकी भक्तिकी करणि है सो तो, सदा आरंभमें बैठे हुये, संसारी प्राणियोंको, भर दरियमें-महान् जाजरूप है, नहींके संसारमें डुबाने वाली है । यह तो सदगुरुका पंजाविनाके, हमारे ढूंढक भा. इयांकी-मतिकाही, विपर्यासपणा हुवा है ॥ ५१ ॥.. ..
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org